''मुझे नहीं मालूम। जब आ रहा था
तब जानता था। एक फ़ूल प्रूफ प्लान था मेरे पास भारत को आज़ाद
कराने का, दो महीनों के भीतर ही भीतर।. . .वायसराय भवन पर
तिरंगा फहराना चाहता था मैं, लाल किले में विजय परेड का
नेतृत्व करना चाहता था। मैं चाहता था राष्ट्रपिता से एक बार
मिलना और कहना कि. . .''
''तुम. . .आप. . .क्या नाम बताया था आप ने अपना? हाँ, रमाकांत
देशबंधु। तुम वह नहीं हो. . .इतिहास की विद्यार्थी हूँ,
'आज़ादी की लड़ाई' विषय है मेरे शोध का। इस नाम के किसी भी
व्यक्ति के बारे में मैं ने स्वतंत्रता संग्राम के अंतर्गत
नहीं पढ़ा। केवल एक व्यक्ति था पूरे हिंदुस्तान में जो तुम्हारी
तरह सोच सकता था. . .। कौन हो तुम?''
''हाँ, मैं रमाकांत देशबंधु नहीं हूँ, वह मेरा नकली नाम है,
मेरे और भी बहुत से नामों की तरह।''
''तो फिर कौन हो तुम?'' एक नाम है जो उभर-उभर कर मेरी ज़बान पर
आ रहा है लेकिन जब उस के चेहरे पर निगाह डालती हूँ तो सिर
झुककर वापस लौट जाता है।
''बता दूँगा मैं अपने बारे में सब कुछ लेकिन पहले मेरे कुछ
प्रश्नों के जबाव दो।. . .यह दिल्ली ही है न?''
''हाँ. . .वह देखिए लाल किला. . .यहीं चाहते न आप विजय परेड का
नेतृत्व करना?''
''क्या हालत हो गई है इस की. . .यह 1997 ही है न?''
''हाँ, 30 नवंबर 1997''
''आज तो 30 नवंबर 1945 था. . .एक क्षण में ये बावन वर्ष कहाँ
फिसल गए?''
''आप परेशान न हों। मेरा मँगेतर है अनिमेष, मुझे पूरा विश्वास
है वह आप की उलझन को अवश्य दूर कर देगा।''
''भारत तो अब आज़ाद होगा?''
''हाँ! पचास साल गुज़र गए आज़ादी मिले।''
''गाँधी जी, नेहरू जी. . .उन दिनों का कोई व्यक्ति है अभी?''
''गाँधी जी को तो स्वतंत्रता मिलने के कुछ दिनों बाद ही
नाथूराम गोड़से ने गोली मार दी। नेहरू जी को भी गुज़रे अरसा हो
गया। उन की बेटी इंदिरा गाँधी और फिर उन का बेटा राजीव गाँधी
प्रधान मंत्री बने। उन की भी निर्मम हत्या कर दी गई।''
''आजकल कौन प्रधानमंत्री है?. . .और किस दल की सरकार है? ज़रूर
कांग्रेस की ही होगी?'' उस की आँखों में एक पुराना सपना डोल
गया है।
''सच तो यह है कि आज की तारीख़ में कोई प्रधानमंत्री है ही
नहीं। कुछ दिनों से त्रिशंकु सरकार थी यानि कि बहुत से दलों ने
स्वार्थवश आपस में मिलकर सरकार बनाई थी। वह टूटनी ही थी, सो
टूट गई। अब हर दल चाहता है गोटी फिट करना, हर व्यक्ति चाहता है
सत्ता हथियाना। अमूमन हर मंत्री और हर नेता करोड़ों के घोटाले
में डूबा हुआ है। क्या-क्या बताऊँ आप को. . .।''
''तुम जानना चाहती थीं न कि मैं कौन हूँ? तो देखो. . .।'' वह
अपने चेहरे की दाढ़ी, बालों की विग एक-एक करके हटा रहा है।
''अब देखो मुझे. . .पहचाना. . .?''
''आप. . .? आप की शक्ल तो सुभाष चंद्र बोस से मिलती है।'' चौंक
पड़ी हूँ मैं. . .यही नाम था जो मेरी जुबान पर आता-आता वापस लौट
गया था।
''हाँ! मैं वही हूँ. . .सुभाष चंद्र बोस।'' स्टीयरिंग व्हील पर
टिके मेरे हाथ थरथरा उठे हैं, कार डगमगाने लगी है।
'यह आदमी क्या वाकई सुभाष चंद्र बोस है, या कोई फ्राड है जो
सुभाष से अपने चेहरे की समानता का फ़ायदा उठाना चाहता है. .
.लेकिन ऐसा दिखलाने से इसे हासिल क्या होगा?'
''आप जो भी हैं, कैसे मैं आप की बात पर विश्वास करूँ और आख़िर
क्यों करूँ?''
''अभी तुम मेरी इंटीग्रिटी पर शक कर सकती हो लेकिन जल्दी ही
दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. . .। अरे! यह जगह तो कुछ
जानी पहचानी-सी लगती है।''
''चाँदनी चौक है।''
''सब कुछ बदल गया है, लेकिन फिर भी कुछ है जो कितना अपना-सा
लगता है।''
''आप को भूख लगी होगी. . .चलिए कहीं कुछ खाते-पीते हैं।'' कार
रोकती हुई कहती-कहती हूँ मैं। एक धमाका मेरे सिर की नसों में
उतर गया है। मेरा सिर झुक गया है, आँखें बंद हो गईं हैं, यह
क्या हो रहा है?. . .क्या समय की कोई दरार मुझे भी लील रही है?
आँखें खुलेंगी और पाऊँगी कि मैं बाईसवीं सदी में हूँ। मैं ने
आँखें खोल दी हैं. . .सब कुछ वही है, कुछ भी तो बदला नहीं है,
बस! दूर सामने धुआँ-सा उठ रहा है और धुएँ के साथ-साथ उठ रहीं
हैं चीखें।
''यह क्या हुआ?'' अपने को सुभाष कहने वाला वह व्यक्ति पूछता
है-
''कुछ नहीं. . .बम ब्लास्ट था। चलिए कहीं और चलते हैं कुछ
खाने-पीने।''
''तुम ऐसे ठंडेपन से बता कैसे सकती हो?'' उस की आवाज़ में आरोप
है।
''हमें उधर चलकर देखना चाहिए।''
''यह कोई नई बात नहीं है. . .ऐसा तो आए दिन होता ही रहता है।
हर दिन लोग यहाँ चींटी की तरह मरते हैं. . .चीखें इस शहर के
ताने-बाने में बुनी हुई हैं।. . .आप को भूख लगी हो?''
''तो फिर कहीं और चलते हैं।''
''कहाँ?''
''इंडिया गेट. . .वहाँ गेट पर शहीदों के नाम लिखे हुए हैं।
उन्हें उँगलियों से छूना मुझे बहुत अच्छा लगता है। एक अजीब-सी
शांति महसूस होती है मुझे वहाँ।''
''. . .इंडिया गेट के पास चहल कदमी कर रहे हैं हम। वह सब कुछ
बताता है मुझे, प्लेन क्रैश से लेकर दिल्ली आने तक का सारा
ब्यौरा। अपने उस अधूरे रह गए प्लान के बारे में भी।. . .अब
मुझे विश्वास हो चला है कि यह व्यक्ति सुभाष चंद्र बोस ही है।
और सच बोल रहा है। जिस व्यक्ति के बारे में इतिहास में पढ़ा था,
वह अचानक इतिहास के कुहासे से निकल कर वर्तमान के उजाले में आ
खड़ा हुआ। यह सब, मैं नहीं जानती लेकिन हुआ तो है, मेरे अंदर
भावनाओं का एक तूफ़ान-सा मचल रहा है। ठीक से चला भी नहीं जा
रहा है।''
''चलिए! लॉन पर बैठते हैं।'' कहती हूँ मैं।
''चलो'' मैं लॉन पर बैठ गई हूँ, लेकिन मेरे अंदर तूफ़ान उठाने
वाला वह व्यक्ति खड़ा हुआ ही है। वह कह रहा है और मैं
मंत्रमुग्ध-सी सुन रही हूँ. . .बस सुन रही हूँ।
''कहने को तो आज़ादी मिल गई तुम्हें, लेकिन जितना कुछ मैं ने
इतनी देर में देखा है, समझा है, दिल्ली अभी दूर है।
यह वह दिल्ली तो नहीं जिस का हम
ने सपना देखा था एक दिन। गोरे तो चले गए लेकिन अपने विष बीज
छोड़ गए हैं मेरे देशवासियों के अंदर उन के विचारों में, उन के
कार्य-कलापों में। उस बीज से उत्पन्न वृक्ष की शाखाएँ अपने
तीक्ष्ण विष से झुलसा रही हैं मुझे।. . .अंग्रेज़ों को देश के
बाहर खदेड़ना आसान था लेकिन यह जो अभारतीय तत्त्व, यह जो विदेशी
हवा आवाम में मन-प्राणों पर सत्ता जमा रही है, इसे बाहर
निकालने के लिए कौन से अस्त्र का उपयोग किया जाए, मैं
किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ।
'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा' मुझे अपने इस कथन
पर दृढ़ विश्वास था लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आज खून बहाने की
नहीं, खून बहने से रोकने की ज़रूरत है।. . .यह लो मेरा पेन,
मुझे एमली ने दिया था 1941 में जब मैं बर्लिन में उस के साथ
था। इसे सँभाल कर रखना इस में स्याही नहीं मेरा लहू है।
तुम्हें अपना सब कुछ खोकर भी यह लड़ाई लड़नी है। महत्वपूर्ण यह
नहीं कि तुम सफल होती हो या असफल, मुख्य बात यह है कि तुम ने
दिल से प्रयत्न किया या नहीं।''
उस की आवाज़ सहसा काँपने लगी है। उस का समस्त जिस्म काँप रहा
है, मानों कोई भूचाल आ गया हो।
''यह आप को क्या हो रहा.....'' मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हो
पाता और पल भर में उस के काले बाल सफ़ेद हो जाते हैं, उस के
चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और एक अधेड़ व्यक्ति के स्थान
पर मेरे सामने सौ साल का झुकी कमर वाला एक वृद्ध आ खड़ा होता
है। दूसरे पल वह भी नहीं।
कहाँ गया वह व्यक्ति जो अपने
को सुभाष कहता था। क्या यह प्रकृति का कोई करिश्मा था जिस की
तह तक विज्ञान की दृष्टि भी नहीं पहुँच पाई या फिर थी उर्वर
कल्पना?. . .अगर वह महज़ कल्पना थी तो जहाँ वह दो पल पहले खड़ा
था वहाँ की घास आस-पास की घास से अधिक हरी क्यों है?......और
उस जगह पर यों विचित्र से लाल रंग के छोटे-छोटे फूल कैसे उग आए
हैं? चंदन की लकड़ी के जलने-सी भीनी-भीनी सुगंध उठ रही है उन
में से।. . .घास पर रखे हाथ पता नहीं कब सरक कर मेरी गोद में आ
गए हैं कि कोई चीज़ चुभती है अँगुलियों के पोरों में। यह वह
पेन है जो उस व्यक्ति ने दिया था मुझे कुछ देर पहले। सुनहरे
रंग के उस पेन को अँगुलियों के बीच पकड़ लिया है मैं ने। उस पर
लाल रंग से लिखा है- . . .''टू सुभाष चंद्र बोस, फ्राम एमली
1941''। |