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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
किरन अग्रवाल की कहानी—'दिल्ली दूर है'


उसे धीरे-धीरे होश आ रहा था। उस ने जल्दी-जल्दी अपनी आँखें खोलीं और बंद कीं, सिर अभी भी फिरकनी की तरह घूम रहा था। उस ने कसकर अपने सीने को दोनों हाथों से दबा लिया। उसे लगा कि कहीं दिल उछल कर बाहर न जा पड़े। यह क्या हो रहा है उसे. . .क्या वह डर गया है? मंज़िल के इतने क़रीब आकर क्या वह हथियार डाल देना चाहता है?

सिंगापुर छोड़ते समय पंद्रह अगस्त को उस ने अपने सैनिकों से कहा- ''दिल्ली पहुँचने के अनेक रास्ते हैं और दिल्ली अभी भी हमारा अंतिम लक्ष्य है।'' उस के बाद ही वह सेगौन जाने वाले विमान पर सवार हो गया था। सेगौन में उसे महत्वपूर्ण कार्य निबटाने थे, कुछ ऐतिहासिक निर्णय लेने थे। वहाँ पर ही एक ख़ुफ़िया योजना के तहत वह एक लड़ाकू विमान में जा बैठा था, जिस की मंज़िल अज्ञात थी। दूसरे दिन हवा में एक ही ख़बर थी और अख़बार की सुर्खियों में वह लड़ाकू विमान पहाड़ियों के बीच कहीं दुघर्टनाग्रस्त हो गया। उस में सवार यात्रियों में से कोई भी बचा होगा, इस की संभावना नगण्य थी। तब उस का दूसरा जन्म हुआ- 'रमाकांत देशबंधु'।

यही तो था उस का नया नाम। पानी के जहाज़ से वह बंबई पहुँचा। वहाँ एक कार पहले से ही तैयार थी। सैमसन के साथ जो कि वास्तव में ड्राइवर तथा कुछ भी बन सकता था। उन की मंज़िल दिल्ली थी- दिल्ली का लाल किला जहाँ हाथ में तिरंगा लेकर उन्हें विजय परेड करनी थी।

दिल्ली पास आती जा रही थी. . .अब वे दिल्ली में प्रविष्ट हो गए थे। लाल किले के बहुत ही क़रीब थे वे, कि अंग्रेज़ सैनिकों ने उन की कार को चारों ओर से घेर लिया। एक अंग्रेज़ अफ़सर सीना फैलाए एक सफ़ेद घोड़े पर बैठा हुआ था। इसी बात का डर था उसे। लेकिन वह हर स्थिति के लिए तैयार था। उस ने सैमसन की ओर देखकर अपनी गर्दन हिलाई। सैमसन ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाज़ा खोल रहा था। अंग्रेज़ अफ़सर से बात करने के लिए, तभी उसे एक तीव्र झटका-सा लगा। उसे महसूस हुआ मानो वह अतल शून्य में गिरता जा रहा है। उस की आँखें स्वत: ही बंद होती चलीं गईं। दूसरे ही क्षण उस ने आँखें खोल दीं। उस का जी बुरी तरह से मिचला रहा था। वह साँस ले रहा था लेकिन साँस नहीं ली जा रही थी।

पों...पों...पों...पों...एक कर्कश शोर था जो आरी की तरह उस के सिर की नसों को काट रहा था। आवाज़ें थीं तरह-तरह की, स्वर थे तीव्र, कोमल एवं मंद- ''साला! बीच में लाकर खटारा खड़ी कर दी है. . .शायद बेहोश है लेकिन होश आ रहा है. . .यह कार तो यहाँ थी नहीं, एकाएक किधर से आई. . .? . . .अरे! ड्राइविंग सीट तो खाली है. . .यह तो पीछे बैठा है. . .तो फिर ड्राइवर किधर है?'' उस ने आँखें पूरी तरह खोल दीं और सजग होकर बैठ गया- ''सैमसन! क्या हु. . .आ. . . ? '' शब्द बीच में ही अटक गए हैं। चारों ओर वह आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा है- कहाँ है सैमसन? वह घोड़े पर बैठा अंग्रेज़ अफ़सर, वे अंग्रेज़ सैनिक- कहाँ गए वे सब? यह तो जगह भी वह नहीं लग रही है। चारों ओर ट्रैफ़िक का शोर है। तरह-तरह की कारें, बसें और पैदल। यह सिर पर कंटोप-सा पहने थ्रीव्हीलर पर बैठे लोगों का अंतहीन हुजूम। अंग्रेज़ कोई नहीं दिख रहा था। सब भारतीय ही हैं। लेकिन फिर भी भारतीय नहीं हैं। ऊँची-ऊँची इमारतें- कहाँ से आईं ये? अभी क्षणभर पहले तो यहाँ थीं नहीं। ट्रैफ़िक पुलिस का एक सिपाही उस की ओर आ रहा है।
''तुम्हारी तबियत तो ठीक है?''
''हाँ, मैं ठीक हूँ।''
''यह कार बीच से हटाओ। ऑफ़िस अवर्स है, सारा ट्रैफ़िक जाम हो गया है।'' अब वह देखता है कि उस की कार चौराहे के बीचोंबीच खड़ी है तिरछी होकर। कहीं तो कुछ गड़बड़ है मगर कहाँ! ''अभी-अभी तुरंत ही तो ड्राइविंग सीट वाला दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला था।''
''ए मिस्टर! ज़्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो। यह बाबा आदम के ज़माने की कार क्या किसी अजायबघर से चुराकर लाए हो?''
''आज तीस नवंबर ही है न?''
''हाँ है. . .लेकिन उस से क्या?''
''आज वाइसराय लार्ड वैवेल के साथ मेरा एप्वांटमेंट है शाम के चार बजे. . .लेकिन वह लेटर. . .वह तो सैमसन ने ले लिया था, अंग्रेज़ अफ़सर को दिखाने के लिए. . .अच्छा ठहरो, मेरे पास मेरा पासपोर्ट है. . .दो दिनों पहले ही बंबई आया था. . .यह लो. . .।''
पुलिस वाला बुदबुदा रहा है- ''लगता है किसी पागलखाने से भाग कर आ रहा है। लेकिन चलो ये भी देख लेते हैं।''
उस ने अपनी पाकेट से निकाल कर पुलिस वाले को कुछ दिया है। पुलिस वाला उलट-पुलट कर पीली पड़ गई उस किताब को देख रहा है। अंदर लिखा है- 'रमाकांत देशबंधु'. . .बंबई पहुँचने की तारीख 27 नवंबर 1945।
''साला, बेवक़ूफ़ बनाता है। यह 1997 है और मुझे 1945 का पासपोर्ट दिखा रहा है।'' उस की आँखों में विस्मय है और है एक परेशानी। मेरी कार उस की कार के बिल्कुल पीछे थी। या यों कहूँ कि जब उस की कार अचानक सामने आ खड़ी हुई तो मैं ने मन ही मन उसे गाली दी थी कि साले ड्राइविंग का कोई नियम कानून है भी या नहीं। अगर अभी एक्सीडेंट हो जाता तो।

पता नहीं कब कार का दरवाज़ा खोल मैं बाहर निकल आई थी और उस के व पुलिस मैन के बीच हो रही बातें सुन रही थी। उस का अंतिम वाक्य मुझे बुरी तरह चौंका देता है। ''तारीख तो ठीक है लेकिन बीच में बावन वर्ष कहाँ था?'' कहाँ था वह इतने सालों तक? कहीं समय की किसी दरार में तो नहीं फँसा रह गया था। हूँ तो मैं वैसे इतिहास की विद्यार्थी लेकिन सोचने का ढंग बिल्कुल साइंटिफिक है। और हो क्यों न, अनिमेष जैसा साइंस में प्रतिष्ठित व्यक्ति मेरा होने वाला पति जो है।

आठ-दस दिनों पहले ही तो वह मुझे 'ब्लेक होल' के बारे में बता रहा था। वह कह रहा था कि स्पेस में कुछ स्थल ऐसे होते हैं जहाँ ग्रेवीटेशनल फोर्स यानी गुरुत्वाकर्षण शक्ति इतनी अधिक होती है कि किसी भी व्यक्ति या वस्तु को वह अपने अंदर खींच सकती है।

कहीं ऐसा ही तो कुछ इस व्यक्ति के साथ नहीं हुआ? सहसा मुझे लगता है कि सच की तह तक जाने के लिए मैं बेकरार हूँ। हालांकि जानती हूँ कि पापा और अनिमेष दोनों ही मुझ पर नाराज़ होंगे और खुदा न खास्ता कुछ गड़बड़ी हो गई तो कहेंगे कि तुम्हारी तो आदत ही है आफ़त मोल लेने की। देखना किसी दिन कोई उठा ले जाएगा तुम्हें. . .और मारकर गटर में फेंक देगा।
''आप क्या कार सड़क के एक तरफ़ कर लेंगे?'' मैं बहुत ही मधुर आवाज़ में कहती हूँ।
''हाँ. . .ज़रूर।'' वह व्यक्ति पीछे से दरवाज़ा खोलकर आगे ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. . .कार स्टार्ट करने की कोशिश करता है लेकिन कार स्टार्ट नहीं होती। बोनट खोलकर देखता है। पेट्रोल की एक बूँद भी नहीं है टंकी में. . .सारी मशीनरी में जंग लगा हुआ है।
''यह कैसे हो सकता है?'' एक उलझन-सी उस के चेहरे पर उभर आई है।
''चल! अभी पुलिस थाने के अंदर करता हूँ।'' सिपाही डपट रहा है। ''तब सब पता. . .।''
''नहीं. . .इस की कोई ज़रूरत नहीं है. . .। अमर श्रीवास्तव का नाम सुना है?''
''उन्हें कौन नहीं जानता. . .डी.आई.जी. साहब न. . .? उन के तो मुझ पर बड़े अहसान हैं।''
''हाँ वही. . .उन की बेटी हूँ मैं. . .आकांक्षा। यह साहब मेरे मित्र हैं. . .इन की कार को फिलहाल एक साइड करवा दो. . .बाकी हम देख लेंगे बाद में।''
''ठीक है दीदी जी! साहब जी को मेरा सलाम बोलिएगा।''
''आइए, मैं आप को. . .देशबंधु. . .''
''हाँ देशबंधु जी, जहाँ कहिए वहाँ छोड़ दूँ।''
''धन्यवाद'' कहकर वह मेरी बगल में बैठ गया है, मेरी कार में।
कार धीरे-धीरे आगे सरकने लगी है।
''कहाँ जाना है आप को, जहाँ कहें छोड़ दूँ।''

''मुझे नहीं मालूम। जब आ रहा था तब जानता था। एक फ़ूल प्रूफ प्लान था मेरे पास भारत को आज़ाद कराने का, दो महीनों के भीतर ही भीतर।. . .वायसराय भवन पर तिरंगा फहराना चाहता था मैं, लाल किले में विजय परेड का नेतृत्व करना चाहता था। मैं चाहता था राष्ट्रपिता से एक बार मिलना और कहना कि. . .''
''तुम. . .आप. . .क्या नाम बताया था आप ने अपना? हाँ, रमाकांत देशबंधु। तुम वह नहीं हो. . .इतिहास की विद्यार्थी हूँ, 'आज़ादी की लड़ाई' विषय है मेरे शोध का। इस नाम के किसी भी व्यक्ति के बारे में मैं ने स्वतंत्रता संग्राम के अंतर्गत नहीं पढ़ा। केवल एक व्यक्ति था पूरे हिंदुस्तान में जो तुम्हारी तरह सोच सकता था. . .। कौन हो तुम?''
''हाँ, मैं रमाकांत देशबंधु नहीं हूँ, वह मेरा नकली नाम है, मेरे और भी बहुत से नामों की तरह।''
''तो फिर कौन हो तुम?'' एक नाम है जो उभर-उभर कर मेरी ज़बान पर आ रहा है लेकिन जब उस के चेहरे पर निगाह डालती हूँ तो सिर झुककर वापस लौट जाता है।
''बता दूँगा मैं अपने बारे में सब कुछ लेकिन पहले मेरे कुछ प्रश्नों के जबाव दो।. . .यह दिल्ली ही है न?''
''हाँ. . .वह देखिए लाल किला. . .यहीं चाहते न आप विजय परेड का नेतृत्व करना?''
''क्या हालत हो गई है इस की. . .यह 1997 ही है न?''
''हाँ, 30 नवंबर 1997''
''आज तो 30 नवंबर 1945 था. . .एक क्षण में ये बावन वर्ष कहाँ फिसल गए?''
''आप परेशान न हों। मेरा मँगेतर है अनिमेष, मुझे पूरा विश्वास है वह आप की उलझन को अवश्य दूर कर देगा।''
''भारत तो अब आज़ाद होगा?''
''हाँ! पचास साल गुज़र गए आज़ादी मिले।''
''गाँधी जी, नेहरू जी. . .उन दिनों का कोई व्यक्ति है अभी?''
''गाँधी जी को तो स्वतंत्रता मिलने के कुछ दिनों बाद ही नाथूराम गोड़से ने गोली मार दी। नेहरू जी को भी गुज़रे अरसा हो गया। उन की बेटी इंदिरा गाँधी और फिर उन का बेटा राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बने। उन की भी निर्मम हत्या कर दी गई।''
''आजकल कौन प्रधानमंत्री है?. . .और किस दल की सरकार है? ज़रूर कांग्रेस की ही होगी?'' उस की आँखों में एक पुराना सपना डोल गया है।
''सच तो यह है कि आज की तारीख़ में कोई प्रधानमंत्री है ही नहीं। कुछ दिनों से त्रिशंकु सरकार थी यानि कि बहुत से दलों ने स्वार्थवश आपस में मिलकर सरकार बनाई थी। वह टूटनी ही थी, सो टूट गई। अब हर दल चाहता है गोटी फिट करना, हर व्यक्ति चाहता है सत्ता हथियाना। अमूमन हर मंत्री और हर नेता करोड़ों के घोटाले में डूबा हुआ है। क्या-क्या बताऊँ आप को. . .।''
''तुम जानना चाहती थीं न कि मैं कौन हूँ? तो देखो. . .।'' वह अपने चेहरे की दाढ़ी, बालों की विग एक-एक करके हटा रहा है।
''अब देखो मुझे. . .पहचाना. . .?''
''आप. . .? आप की शक्ल तो सुभाष चंद्र बोस से मिलती है।'' चौंक पड़ी हूँ मैं. . .यही नाम था जो मेरी जुबान पर आता-आता वापस लौट गया था।
''हाँ! मैं वही हूँ. . .सुभाष चंद्र बोस।'' स्टीयरिंग व्हील पर टिके मेरे हाथ थरथरा उठे हैं, कार डगमगाने लगी है।
'यह आदमी क्या वाकई सुभाष चंद्र बोस है, या कोई फ्राड है जो सुभाष से अपने चेहरे की समानता का फ़ायदा उठाना चाहता है. . .लेकिन ऐसा दिखलाने से इसे हासिल क्या होगा?'
''आप जो भी हैं, कैसे मैं आप की बात पर विश्वास करूँ और आख़िर क्यों करूँ?''
''अभी तुम मेरी इंटीग्रिटी पर शक कर सकती हो लेकिन जल्दी ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. . .। अरे! यह जगह तो कुछ जानी पहचानी-सी लगती है।''
''चाँदनी चौक है।''
''सब कुछ बदल गया है, लेकिन फिर भी कुछ है जो कितना अपना-सा लगता है।''
''आप को भूख लगी होगी. . .चलिए कहीं कुछ खाते-पीते हैं।'' कार रोकती हुई कहती-कहती हूँ मैं। एक धमाका मेरे सिर की नसों में उतर गया है। मेरा सिर झुक गया है, आँखें बंद हो गईं हैं, यह क्या हो रहा है?. . .क्या समय की कोई दरार मुझे भी लील रही है? आँखें खुलेंगी और पाऊँगी कि मैं बाईसवीं सदी में हूँ। मैं ने आँखें खोल दी हैं. . .सब कुछ वही है, कुछ भी तो बदला नहीं है, बस! दूर सामने धुआँ-सा उठ रहा है और धुएँ के साथ-साथ उठ रहीं हैं चीखें।
''यह क्या हुआ?'' अपने को सुभाष कहने वाला वह व्यक्ति पूछता है-
''कुछ नहीं. . .बम ब्लास्ट था। चलिए कहीं और चलते हैं कुछ खाने-पीने।''
''तुम ऐसे ठंडेपन से बता कैसे सकती हो?'' उस की आवाज़ में आरोप है।
''हमें उधर चलकर देखना चाहिए।''
''यह कोई नई बात नहीं है. . .ऐसा तो आए दिन होता ही रहता है। हर दिन लोग यहाँ चींटी की तरह मरते हैं. . .चीखें इस शहर के ताने-बाने में बुनी हुई हैं।. . .आप को भूख लगी हो?''
''तो फिर कहीं और चलते हैं।''
''कहाँ?''
''इंडिया गेट. . .वहाँ गेट पर शहीदों के नाम लिखे हुए हैं। उन्हें उँगलियों से छूना मुझे बहुत अच्छा लगता है। एक अजीब-सी शांति महसूस होती है मुझे वहाँ।''
''. . .इंडिया गेट के पास चहल कदमी कर रहे हैं हम। वह सब कुछ बताता है मुझे, प्लेन क्रैश से लेकर दिल्ली आने तक का सारा ब्यौरा। अपने उस अधूरे रह गए प्लान के बारे में भी।. . .अब मुझे विश्वास हो चला है कि यह व्यक्ति सुभाष चंद्र बोस ही है। और सच बोल रहा है। जिस व्यक्ति के बारे में इतिहास में पढ़ा था, वह अचानक इतिहास के कुहासे से निकल कर वर्तमान के उजाले में आ खड़ा हुआ। यह सब, मैं नहीं जानती लेकिन हुआ तो है, मेरे अंदर भावनाओं का एक तूफ़ान-सा मचल रहा है। ठीक से चला भी नहीं जा रहा है।''
''चलिए! लॉन पर बैठते हैं।'' कहती हूँ मैं।
''चलो'' मैं लॉन पर बैठ गई हूँ, लेकिन मेरे अंदर तूफ़ान उठाने वाला वह व्यक्ति खड़ा हुआ ही है। वह कह रहा है और मैं मंत्रमुग्ध-सी सुन रही हूँ. . .बस सुन रही हूँ।
''कहने को तो आज़ादी मिल गई तुम्हें, लेकिन जितना कुछ मैं ने इतनी देर में देखा है, समझा है, दिल्ली अभी दूर है।

यह वह दिल्ली तो नहीं जिस का हम ने सपना देखा था एक दिन। गोरे तो चले गए लेकिन अपने विष बीज छोड़ गए हैं मेरे देशवासियों के अंदर उन के विचारों में, उन के कार्य-कलापों में। उस बीज से उत्पन्न वृक्ष की शाखाएँ अपने तीक्ष्ण विष से झुलसा रही हैं मुझे।. . .अंग्रेज़ों को देश के बाहर खदेड़ना आसान था लेकिन यह जो अभारतीय तत्त्व, यह जो विदेशी हवा आवाम में मन-प्राणों पर सत्ता जमा रही है, इसे बाहर निकालने के लिए कौन से अस्त्र का उपयोग किया जाए, मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ।
'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा' मुझे अपने इस कथन पर दृढ़ विश्वास था लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आज खून बहाने की नहीं, खून बहने से रोकने की ज़रूरत है।. . .यह लो मेरा पेन, मुझे एमली ने दिया था १९४१ में जब मैं बर्लिन में उस के साथ था। इसे सँभाल कर रखना इस में स्याही नहीं मेरा लहू है। तुम्हें अपना सब कुछ खोकर भी यह लड़ाई लड़नी है। महत्वपूर्ण यह नहीं कि तुम सफल होती हो या असफल, मुख्य बात यह है कि तुम ने दिल से प्रयत्न किया या नहीं।''
उस की आवाज़ सहसा काँपने लगी है। उस का समस्त जिस्म काँप रहा है, मानों कोई भूचाल आ गया हो।
''यह आप को क्या हो रहा.....'' मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हो पाता और पल भर में उस के काले बाल सफ़ेद हो जाते हैं, उस के चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और एक अधेड़ व्यक्ति के स्थान पर मेरे सामने सौ साल का झुकी कमर वाला एक वृद्ध आ खड़ा होता है। दूसरे पल वह भी नहीं।

कहाँ गया वह व्यक्ति जो अपने को सुभाष कहता था। क्या यह प्रकृति का कोई करिश्मा था जिस की तह तक विज्ञान की दृष्टि भी नहीं पहुँच पाई या फिर थी उर्वर कल्पना?. . .अगर वह महज़ कल्पना थी तो जहाँ वह दो पल पहले खड़ा था वहाँ की घास आस-पास की घास से अधिक हरी क्यों है?......और उस जगह पर यों विचित्र से लाल रंग के छोटे-छोटे फूल कैसे उग आए हैं? चंदन की लकड़ी के जलने-सी भीनी-भीनी सुगंध उठ रही है उन में से।. . .घास पर रखे हाथ पता नहीं कब सरक कर मेरी गोद में आ गए हैं कि कोई चीज़ चुभती है अँगुलियों के पोरों में। यह वह पेन है जो उस व्यक्ति ने दिया था मुझे कुछ देर पहले। सुनहरे रंग के उस पेन को अँगुलियों के बीच पकड़ लिया है मैं ने। उस पर लाल रंग से लिखा है- . . .''टू सुभाष चंद्र बोस, फ्राम एमली १९४१''।

 

२४ जनवरी २००७

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