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दिल्ली पास आती जा रही थी. . .अब वे दिल्ली में प्रविष्ट हो गए थे। लाल किले के बहुत ही क़रीब थे वे, कि अंग्रेज़ सैनिकों ने उन की कार को चारों ओर से घेर लिया। एक अंग्रेज़ अफ़सर सीना फैलाए एक सफ़ेद घोड़े पर बैठा हुआ था। इसी बात का डर था उसे। लेकिन वह हर स्थिति के लिए तैयार था। उस ने सैमसन की ओर देखकर अपनी गर्दन हिलाई। सैमसन ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाज़ा खोल रहा था। अंग्रेज़ अफ़सर से बात करने के लिए, तभी उसे एक तीव्र झटका-सा लगा। उसे महसूस हुआ मानो वह अतल शून्य में गिरता जा रहा है। उस की आँखें स्वत: ही बंद होती चलीं गईं। दूसरे ही क्षण उस ने आँखें खोल दीं। उस का जी बुरी तरह से मिचला रहा था। वह साँस ले रहा था लेकिन साँस नहीं ली जा रही थी।

पों...पों...पों...पों...एक कर्कश शोर था जो आरी की तरह उस के सिर की नसों को काट रहा था। आवाज़ें थीं तरह-तरह की, स्वर थे तीव्र, कोमल एवं मंद- ''साला! बीच में लाकर खटारा खड़ी कर दी है. . .शायद बेहोश है लेकिन होश आ रहा है. . .यह कार तो यहाँ थी नहीं, एकाएक किधर से आई. . .? . . .अरे! ड्राइविंग सीट तो खाली है. . .यह तो पीछे बैठा है. . .तो फिर ड्राइवर किधर है?'' उस ने आँखें पूरी तरह खोल दीं और सजग होकर बैठ गया- ''सैमसन! क्या हु. . .आ. . . ? '' शब्द बीच में ही अटक गए हैं। चारों ओर वह आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा है- कहाँ है सैमसन? वह घोड़े पर बैठा अंग्रेज़ अफ़सर, वे अंग्रेज़ सैनिक- कहाँ गए वे सब? यह तो जगह भी वह नहीं लग रही है। चारों ओर ट्रैफ़िक का शोर है। तरह-तरह की कारें, बसें और पैदल। यह सिर पर कंटोप-सा पहने थ्रीव्हीलर पर बैठे लोगों का अंतहीन हुजूम। अंग्रेज़ कोई नहीं दिख रहा था। सब भारतीय ही हैं। लेकिन फिर भी भारतीय नहीं हैं। ऊँची-ऊँची इमारतें- कहाँ से आईं ये? अभी क्षणभर पहले तो यहाँ थीं नहीं। ट्रैफ़िक पुलिस का एक सिपाही उस की ओर आ रहा है।
''तुम्हारी तबियत तो ठीक है?''
''हाँ, मैं ठीक हूँ।''
''यह कार बीच से हटाओ। ऑफ़िस अवर्स है, सारा ट्रैफ़िक जाम हो गया है।'' अब वह देखता है कि उस की कार चौराहे के बीचोंबीच खड़ी है तिरछी होकर। कहीं तो कुछ गड़बड़ है मगर कहाँ! ''अभी-अभी तुरंत ही तो ड्राइविंग सीट वाला दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला था।''
''ए मिस्टर! ज़्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो। यह बाबा आदम के ज़माने की कार क्या किसी अजायबघर से चुराकर लाए हो?''
''आज तीस नवंबर ही है न?''
''हाँ है. . .लेकिन उस से क्या?''
''आज वाइसराय लार्ड वैवेल के साथ मेरा एप्वांटमेंट है शाम के चार बजे. . .लेकिन वह लेटर. . .वह तो सैमसन ने ले लिया था, अंग्रेज़ अफ़सर को दिखाने के लिए. . .अच्छा ठहरो, मेरे पास मेरा पासपोर्ट है. . .दो दिनों पहले ही बंबई आया था. . .यह लो. . .।''
पुलिस वाला बुदबुदा रहा है- ''लगता है किसी पागलखाने से भाग कर आ रहा है। लेकिन चलो ये भी देख लेते हैं।''
उस ने अपनी पाकेट से निकाल कर पुलिस वाले को कुछ दिया है। पुलिस वाला उलट-पुलट कर पीली पड़ गई उस किताब को देख रहा है। अंदर लिखा है- 'रमाकांत देशबंधु'. . .बंबई पहुँचने की तारीख 27 नवंबर 1945।
''साला, बेवक़ूफ़ बनाता है। यह 1997 है और मुझे 1945 का पासपोर्ट दिखा रहा है।'' उस की आँखों में विस्मय है और है एक परेशानी। मेरी कार उस की कार के बिल्कुल पीछे थी। या यों कहूँ कि जब उस की कार अचानक सामने आ खड़ी हुई तो मैं ने मन ही मन उसे गाली दी थी कि साले ड्राइविंग का कोई नियम कानून है भी या नहीं। अगर अभी एक्सीडेंट हो जाता तो।

पता नहीं कब कार का दरवाज़ा खोल मैं बाहर निकल आई थी और उस के व पुलिस मैन के बीच हो रही बातें सुन रही थी। उस का अंतिम वाक्य मुझे बुरी तरह चौंका देता है। ''तारीख तो ठीक है लेकिन बीच में बावन वर्ष कहाँ था?'' कहाँ था वह इतने सालों तक? कहीं समय की किसी दरार में तो नहीं फँसा रह गया था। हूँ तो मैं वैसे इतिहास की विद्यार्थी लेकिन सोचने का ढंग बिल्कुल साइंटिफिक है। और हो क्यों न, अनिमेष जैसा साइंस में प्रतिष्ठित व्यक्ति मेरा होने वाला पति जो है।

आठ-दस दिनों पहले ही तो वह मुझे 'ब्लेक होल' के बारे में बता रहा था। वह कह रहा था कि स्पेस में कुछ स्थल ऐसे होते हैं जहाँ ग्रेवीटेशनल फोर्स यानी गुरुत्वाकर्षण शक्ति इतनी अधिक होती है कि किसी भी व्यक्ति या वस्तु को वह अपने अंदर खींच सकती है।

कहीं ऐसा ही तो कुछ इस व्यक्ति के साथ नहीं हुआ? सहसा मुझे लगता है कि सच की तह तक जाने के लिए मैं बेकरार हूँ। हालांकि जानती हूँ कि पापा और अनिमेष दोनों ही मुझ पर नाराज़ होंगे और खुदा न खास्ता कुछ गड़बड़ी हो गई तो कहेंगे कि तुम्हारी तो आदत ही है आफ़त मोल लेने की। देखना किसी दिन कोई उठा ले जाएगा तुम्हें. . .और मारकर गटर में फेंक देगा।
''आप क्या कार सड़क के एक तरफ़ कर लेंगे?'' मैं बहुत ही मधुर आवाज़ में कहती हूँ।
''हाँ. . .ज़रूर।'' वह व्यक्ति पीछे से दरवाज़ा खोलकर आगे ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. . .कार स्टार्ट करने की कोशिश करता है लेकिन कार स्टार्ट नहीं होती। बोनट खोलकर देखता है। पेट्रोल की एक बूँद भी नहीं है टंकी में. . .सारी मशीनरी में जंग लगा हुआ है।
''यह कैसे हो सकता है?'' एक उलझन-सी उस के चेहरे पर उभर आई है।
''चल! अभी पुलिस थाने के अंदर करता हूँ।'' सिपाही डपट रहा है। ''तब सब पता. . .।''
''नहीं. . .इस की कोई ज़रूरत नहीं है. . .। अमर श्रीवास्तव का नाम सुना है?''
''उन्हें कौन नहीं जानता. . .डी.आई.जी. साहब न. . .? उन के तो मुझ पर बड़े अहसान हैं।''
''हाँ वही. . .उन की बेटी हूँ मैं. . .आकांक्षा। यह साहब मेरे मित्र हैं. . .इन की कार को फिलहाल एक साइड करवा दो. . .बाकी हम देख लेंगे बाद में।''
''ठीक है दीदी जी! साहब जी को मेरा सलाम बोलिएगा।''
''आइए, मैं आप को. . .देशबंधु. . .''
''हाँ देशबंधु जी, जहाँ कहिए वहाँ छोड़ दूँ।''
''धन्यवाद'' कहकर वह मेरी बगल में बैठ गया है, मेरी कार में।
कार धीरे-धीरे आगे सरकने लगी है।
''कहाँ जाना है आप को, जहाँ कहें छोड़ दूँ।''

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