वे तो इस
विधा द्वारा मात्र स्टेम सेल्स से जुड़े अध्ययनों के लिए
मानवीय भ्रूण की कोशिकाओं को उत्पन्न करने का
प्रयास कर रहे थे। लेकिन इनके इस प्रयास ने मानव
क्लोनिंग का रास्ता भी खोल दिया है। इनके इस प्रोजेक्ट
में 16 युवा महिलाओं ने 242 डिंब प्रदान किए थे एवं
इन लोगों ने इनमें केंद्रक स्थानांतरण के पूर्व बड़े
ही कोमल तरीके से सावधानीपूर्वक इनमे उपस्थित
केंद्रकों तथा अन्य बहुतेरे कच्चे पदार्थों (जो
केंद्रक स्थानांतरण के पश्चात इनके भ्रूणीय विकास मे
बाधक होते) को हटाने का कार्य किया और यही इनकी
सफलता का मुख्य कारण बना।
जल में
जीवन है, जीवन में जल है या फिर जल ही जीवन
है। बिना जल के जीवन की कल्पना की जा सकती है क्या?
मंगल पर भी जल की उपस्थिति ने ही जीवन की आस
जगाई है। लगभग एक सदी के अध्ययन के बाद आज भी
हम जल के सभी गुणों को पूरी तरह नहीं समझ पाए
हैं। इस जल की तरल अवस्था के गुणों को बनाए रखने
में ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन के परमाणुओं के आवेश
में अंतर को ज़िम्मेदार माना जाता रहा है। इस अंतर के
कारण पानी का प्रत्येक अणु अपने आसपास के चार पानी
के अणुओं से 'टेट्राहेड्रल' रूप में जुड़ कर श्रृंखलाबद्ध
रूप में एक विस्तृत जाल का निर्माण करते हैं। लगभग 100
साल से चली आ रही इस मान्यता को अमेरिका, जर्मनी,
स्वीडेन तथा नीदरलैंड के वैज्ञानिकों की एक टीम ने
सिंकाट्रॉन एक्स रे की मदद से हिलाने
की कोशिश की है। इनके अनुसार तरल अवस्था में पानी का
प्रत्येक अणु केवल दो अणुओं से ही जुड़ सकता है चार
से नहीं। लेकिन कुछ अन्य एक्स रे आंकड़े पुरानी
अवधारणा को ही समर्थन दे रहे हैं। यह 2 या 4 की बहस
पूरे साल चलते रहने की उम्मीद है।
समुद्र
जैसे बडे़ जलाशयों में अधिकांश ऑयन्स कहां पाए
जाते हैं? सतह पर या गहरे पानी में? यदि ये सतह पर
पाए जाते हैं तो क्यों और यदि गहरे पानी में पाए
जाते हैं तो क्यों? इन सारे 'क्यों' का अब तक स्थापित
उतर यह था कि पानी की सतह पर पाया जाने वाला
'इलेक्ट्रोस्टैटिक फोर्स' इन ऑयन्स को एक दूसरे से दूर
भगाता रहता हैं फलतः ये गहरे पानी में जाने के
लिए मजबूर रहते हैं। इस अवधारणा को नकारते हुए
लॉस एंजेलिस की हवा में लवण के कणों की खोज से
जुड़े अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि ये कण फ्लोरीन,
क्लोरीन आदि हैलाइड्स से इतने संपन्न हैं कि ऐसा
तभी संभव है जब ये ऑयन्स समुद्र की सतह पर ही
उपस्थित हों पिछले वर्ष के 'कंप्यूटर साइम्युलेशन' के
परिणाम भी इसी अवधारणा की पुष्टि करते हैं।
अनंतोगत्वा यदि यह सच साबित हो गया तो
रसायनज्ञों को हवा में उपस्थित एयरोसॉल्स की सतह
पर होने वाली कुछ नए प्रकार की रासायनिक प्रतिक्रियाओं
का अध्ययन करना पड़ सकता है।
पानी से
जुड़े अन्य रहस्यों से पर्दा उठाने में जुटे
वैज्ञानिक प्रयोगों की आधुनिक तकनीकियों का
उपयोग कर नईनई जानकारियां दे रहे हैं।
सिलिकॉन की सतह पर उपस्थित पानी पर एलेक्ट्रॉन्स की
बौछार कर यह पता लगाया गया है कि यहां पानी की संरचना क्रिस्टलाइट
बर्फ़ के समान होती है जो इन्हें सिलिकॉन की सतह से
बंधे रहने में सहायक है। एक दूसरा अनुसंधान दल यह
पता लगाने में जुटा हुआ है कि पानी में एलेक्ट्रॉन्स
और प्रोटॉन्स किस तरह घुलते हैं। वाह रे पानी तेरा
रंग कैसा और ढंग कैसा?
पानी की
बात कर रहे हैं तो एक बात और . . .और वह यह कि इस
धरा पर स्थित प्रत्येक बूंद में संभवतः आप को डीएनए के
अणु मिल ही जाएंगे चाहे वह पानी आपने गहरे समुद्र
से लिया हो अथवा किसी झील की गहराई से। अब आप
को करना यह है कि इन अणुओं को सही क्रम में जोड़
कर जीन्स का निर्माण करें और बाद में एक जीव के पूरे
जीनोम का। बस आप को पता लग जाएगा कि इस जल में
किसकिस प्रकार के जीव रहते हैं या रहते थे।
पर्यावरणविद तथा जैवीय विकास के अध्ययन में जुटे
वैज्ञानिक इस आण्विक तकनीक का उपयोग इन जीवों के जेनेटिक संबंधों
को समझने के लिए कर रहे हैं जिन्हें प्रयोगशाला
में विकसित नहीं किया जा सकता।
और जब
बात डीएनए तथा जीन्स की चल ही रही है तो लगे हाथों
जीनोमविशेषकर मानव जीनोम के बारे में
चर्चा कर लेना समसामायिक है। आइए देखें, यहां क्या
नया हो रहा है। मनुष्य के शरीर की प्रत्येक कोशिका में
मात्र 23 जोड़े क्रोमोज़ोम्स पाए जाते हैं और इनमें
डीएनए के निर्माण में प्रयुक्त नाइट्रोजन बेसेज़ के
लगभग तीन अरब जोड़े क्रमबद्ध तरीके से समाहित होते
हैं। इनमें से मात्र 10 प्रतिशत जोड़ों के क्रम ही
सार्थक जीन्स का निर्माण करते हैं जो मानव जीवन
से संबंधित सभी प्रकार के रसायनों के निर्माण में
सक्षम हैं एवं इस कार्य में सक्रिय भूमिका निभाते
हैं। शेष जोड़ों के क्रम इन जीन्स के बीच में
इधरउधर बिखरे होते हैं। जब मानव जीनोम
परियोजना से जुड़े वैज्ञानिकों को इसका ज्ञान
हुआ तो इन लोगों ने यह मान लिया कि ऐसे जीन्स
के बीच अवस्थित नाइट्रोजन बेसेज़ के ऐसे क्रम
बिल्कुल ही बेकार होते हैं और उन्होंने इन्हें 'जंक' की
संज्ञा दे दी।
लेकिन हाल
के अध्ययनों ने इनकी इस अवधारणा को ग़लत साबित
कर दिया है। इन तथाकथित 'जंक जीन्स' में बहुतेरे बड़े
काम के साबित हो रहे हैं जिनकी तुलना कचरे में छिपे
हीरेजवाहरातों से की जा सकती है। इनके बहुतेरे
छोटेछोटे टुकड़ों में से कुछ नियंत्रक डीएनए की
भूमिका निभाते हैं तो कुछ एक स्थान से दूसरे स्थान पर
छलांग लगाने वाले 'ट्रांसपोज़ेबल डीएनए' का। कुछ
टुकड़े ऐसे भी होते हैं जों कम नाइट्रोजन बेस
वाले छोटेछोटे आरएनए के संश्लेषण की क्षमता रखते
हैं।
लगभग मात्र 500 बेस श्रृंखलाओं से निर्मित डीएनए
नियंत्रक जिन्हें 'ऐक्टीवेटर्स' की संज्ञा भी दी गई हैं
किसी जीन की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने वाले
प्रोटीन के अणुओं से संबद्ध हो कर उस जीन विशेष के
क्रियाकलापों को प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार ये
उस जीन को सही समय एवं सही परिपेक्ष में सक्रिय
अथवा निष्क्रिय कर सकते हैं। ट्रांसपोज़ेबल डीएनए
छलांग लगा कर किसी भी जीन के बेस श्रृंखला के बीच
में घुस सकते हैं और इस प्रकार उनकी प्राकृतिक
अभिव्यक्ति मे बाधक बनते हैं या फिर उनकी अभिव्यक्ति की
दिशा ही बदल देते हैं। वे टुकड़े जिनसे छोटेछोटे
आरएनए का निर्माण किया जा सकता है किसी से कम नहीं
हैं। इनके द्वारा संश्लेषित आरएनए जीन अभिव्यक्ति में
बाधक बन सकते हैं। अभी तो शुरूआत है आगेआगे
देखिए, जल्दी ही पता लग जाएगा कि इन तथाकथित जंक जीन्स में कैसेकैसे
हीरेजवाहरात छिपे हुए हैं जो न केवल छोटेमोटे
नियंत्रक या बाधा उत्पन्न करनेवाले कारक का कार्य करते है बल्कि कोशिका की संपूर्ण अभिव्यक्ति को बिल्कुल नई
दिशा देने की क्षमता रखते हैं।
जीवन से
परे इस संसार में बहुत सी ऐसी वस्तुएं हैं जिनसे
हमारा प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष सरोकार है और जिनके बारे
में जानना ज्ञानपिपासा की शांति के साथसाथ
उपयोगी भी होता है। ऐस्ट्रोफिजीसिस्ट्स ने
ऑस्ट्रेलिया के 64 मी .लंबे पार्क्स रेडियो टेलिस्कोप
की सहायता से पिछले साल ऐसे दो पॅल्सर स्टार्स का पता
लगाया है जो बड़ी तेज़ गति से घूम रहे हैं और
ऐसा अनुमान है कि ये दोनों लगभग 85 करोड़ साल
के बाद एक दूसरे में समा जाएंगे। इनका विस्तृत
अध्ययन आइंस्टीन की 'रिलेटिविटी थियरी' के कठोर
परीक्षण में सहायक सिद्ध होगा।
दो
आधारभूत परमाणुओं को किस प्रकार ठंडा कर इस प्रकार
जमाया जाए कि दोनो एक दूसरे में मिल जाएं और
एकल क्वांतम स्थिति यानि 'कंडेन्सेट' की अवस्था में
बदल जाएं ऐसी तकनीकि के ज्ञान से लैस होने के
बाद वैज्ञानिकों ने पिछले वर्ष ठोस अवस्था वाले
'कंडेन्सेट' के निर्माण में सफलता पाई है। तरल तथा
गैस अवस्थाओं वाले कंडेन्सेट के निर्माण में तो
पहले ही सफलता मिल चुकी थी। इसके अतिरिक्त
अनुसंधानकर्ता पिछले वर्ष इस बात के पता लगाने में
जुटे रहे कि जब इन कंडेन्सेट के परमाणु एक दूसरे से
दूर हटते हैं तो इन कंडेन्सेट का व्यवहार किस प्रकार
परिवर्तित होता है। यह ज्ञान आगे वैज्ञानिकों को
यह समझने में सहायक होगा कि जटिल पदार्थों में
इलेक्ट्रॉन्स कैसा व्यवहार करते हैं।
बातें तो
और भी हैं परंतु स्थानाभाव इस आलेख को यहीं समाप्त
करने का संकेत दे रहा है। इस टिप्पणी के साथ कि इस वर्ष
भी वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में सफलता के नए
झंडे गाड़ेंगे। साथ ही पिछले वर्ष के अंतकाल में
घटित 'सुनामी' जैसे प्राकृतिक हादसे हमें यह याद
दिलाते रहते हैं कि हम प्रकृति के आगे इतनी वैज्ञानिक
प्रगति के बाद भी कितने बौने और मजबूर हैं। ऐसे
हादसों की पूर्वसूचना देने वाले सटीक तंत्र का विकास
भी हम आज तक नहीं कर पाए हैं। आशा है इस वर्ष ऐसे
किसी हादसे से हम नहीं गुज़रेंगे और संभवतः इनकी
पूर्व सूचना देने वाले तंत्र के विकास में सफल हो
पाएंगे। नववर्ष मंगलमय हो। इति।
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