सैकड़ों वैज्ञानिक
हमेशा की तरह पिछले साल भी प्रकृति की नाना
गुत्थियों को सुलझाने के सतत प्रयास में लगे रहे
हैं और उनकी छोटीबड़ी किसी भी उपलब्धि के महत्व
को कम कर नहीं आंका जा सकता परंतु सभी को यहां
समेट पाना तो संभव ही नहीं है। आइए उनमें से कुछ
ऐसे अनुसंधानों की यहां चर्चा करें जो भविष्य
में हमारे समाज और वैज्ञानिक प्रगति के पथ को
गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं।
2004 के प्रारंभ में मंगल
ग्रह पर उतारे गए स्पिरिट तथा अपॉरच्युनिटी नामक रोवर
यान लगभग पूरे साल चर्चा का विषय रहे हैं। इनके
कारनामों और उपलब्धियों ने इन्हें सचमुच
विज्ञान जगत का 'हीरो नंबर वन' बना दिया है।
वैसे मनुष्य सदैव ही अपनी बनाई मशीनों पर गर्व
करता रहा है परंतु इनकी तो बात ही कुछ और है। नासा के
तत्वाधान में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की टीम द्वारा
निर्मित ये रोबोट यान दक्ष भूवैज्ञानिक हैं (विस्तृत
जानकारी के लिए देखें विज्ञान वार्ता का फरवरी 2004 का
अंक 'मंगल ग्रह का कुशलमंगल . . .) जो पृथ्वी
से लाखों किलोमीटर दूर मंगल ग्रह के दो विपरीत
स्थानों के सर्वेक्षण में जुटे हुए हैं। वास्तव में इन
बग्गियों से अपेक्षा थी कि ये 40 मीटर प्रतिदिन की
रफ़्तार से चल कर लभभग एक कि .मी .की दूरी तय करेंगी
अर्थात इनका अपेक्षित कार्यकाल था मात्र तीन महीने।
लेकिन आश्चर्य! लगभग साल भर बाद भी ये न केवल
पूरी दक्षता से काम कर रहे हैं बल्कि वहां के सर्वेक्षण
और अपने अनुसंधानों की ऐसी तस्वीरें एवं आंकड़े
प्रेषित करते जा रहे हैं जिन्होंने मंगल ग्रह के बारे
में हमारी अवधारणा को पूरी तरह बदल कर रख दिया है।
संयुक्त रूप से लगभग 6
कि .मी .की दूरी तय कर चुके इन यानों में से एक
'अपॉरच्युनिटी' का कार्यक्षेत्र 'मरिडियानी प्लेनम' तो
दूसरे यान 'स्पिरिट' का कार्यक्षेत्र लगभग 6000 कि .मी
.दूर ग्र्रह के विपरीत भादा गुसेव केंद्र में स्थित
'कोलंबिया हिल्स' हैं। नासा की 2 दिसंबर 2004 की एक
प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 'अपॉरच्युनिटी' के कार्यक्षेत्र
'मेरिडियानी प्ल्ेानम' की चट्टानों की संरचना में
ब्रोमीन की अनुपातिक मात्रा क्लोरीन की तुलना में कहीं
ज़्यादा है और यह अनुपात अलगअलग चट्टानों में
अलगअलग है। इसके अतिरिक्त इन चट्टानों में सल्फ़र की
बहुतायत वाले खनिज भी काफ़ी मात्रा में मौज़ूद हैं।
सल्फ़रयुक्त खनिजों तथा ब्रोमीन और क्लोरीन जैसे
तत्वों की अनुपातिक उपस्थिति इस क्षेत्र में कभी भारी मात्रा
में पानी की मौज़ूदगी के द्योतक हैं, वह भी तरल रूप
में। कुछ चट्टानों में सुनिश्चित कोणीय अभिरचना
वाली महीन पर्तों का पाया जाना इस बात का भी संकेत
करता है कि इन चट्टानों के ऊपर कभी बहते पानी का भंडार
रहा होगा। बहते पानी के कारण ही इन चट्टानों को ऐसा
रूप मिल पाना संभव है।
इन चट्टानों के लक्षण इस
बात के द्योतक हैं कि इनके ऊपर से पानी बारंबार
आताजाता रहा है। इस बात की प्रबल संभावना है कि
यह पानी काफ़ी अम्लीय तथा लवणयुक्त रहा होगा।
हालांकि ऐसा पानी जीवन को पनपने देने में एक बड़ी
चुनौती है फिर भी जीवन की संभावना को नकारा नहीं
जा सकता। किसी भी रूप में यदि जीवन यहां था तो इन
चट्टानों में उनके अवशेष मिलने की प्रबल संभावना
है। लेकिन इसका पता तो तभी चलेगा जब इन चट्टानों
को पृथ्वी पर ला कर इनका विस्तृत अध्ययन किया जा सके।
अफ़सोस, ऐसा कम से कम 2014 के पहले तो फिलहाल
संभव होता नज़र नहीं आता। यान भेज कर चट्टानों का
नमूना लाने में अभी हम सक्षम नहीं हैं।
13 दिसंबर 2004 के एक अन्य
प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 'स्पिरिट' के कार्यक्षेत्र में
स्थित 'कोलंबिया हिल्स' की चट्टानों 'जिथाइट' नामक एक
ऐसा खनिज मिला है जिसका निर्माण पानी की उपस्थिति
में ही संभव है। यह प्रमाण इस बात का द्योतक है कि
मेरिडियनी क्षेत्र के समान यहां पर भी पानी कभी न कभी
अवश्य मौजूद था। यह बात और है कि यह पानी
मेरिडियानी क्षेत्र के पानी की तरह तरल रूप में था या फिर
ठोस बर्फ़ अथवा वाष्प रूपी गैस की अवस्था में।
ये खोजें इस बात की ओर संकेत करती हैं कि
करोडोंअरबों साल पहले जब हमारी पृथ्वी पर जीवन
का प्रारंभ हो रहा था, मंगल एक गर्म तथा जलयुक्त
ग्रह था जो संभवतः नाना प्रकार के जीवों से जीवंत
रहा होगा।
अमेरिकन असोशिएशन फॉर
द एडवांसमेंट ऑफ साइंस
(AAAS)
द्वारा इन खोजों को 2004 का सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज
का दर्जा देने के पीछे एक और कारण था और वह यह कि
रोवर्स के निर्माण में प्रयुक्त अप्रतिम तकनीकियों तथा
इससे संबद्ध तमाम वैज्ञानिकों को मान देना।
मेन
फ्राम मार्स ऐंड
वीमेन फ्राम . . .क्या पता करोड़ोंअरबों साल पहले
हम वहीं के वासी रहे हों और दिनप्रतिदिन ख़राब
होती जा रही परिस्थितियों के कारण हमारे पूर्वजों ने
वहां से कूच कर पृथ्वी को अपना नया बसेरा बनाने का
निर्णय कर लिया हो। आख़िर लोक कहावतों के पीछे सच
का कुछ न कुछ आधार तो होता ही है। तो चलिए बनाएं घर
वापसी का प्रोग्राम या कम से कम वहां की सैर का ही।
लेकिन ठहरिए . . .अपनी कल्पना को लगाम दीजिए। पहले
पूरी तरह यह तो साबित हो जाने दीजिए कि वाकई मंगल
पर कभी जीवन था। मानव जीवन के कभी वहां होने की
संभावना तो अभी मात्र कपोल कल्पना ही है। और एक क्षण
के लिए इसे सच मान भी लिया जाए तो आज की तारीख
में वहां का वातावरण तो इस योग्य भी नहीं है जहां
कठिन से कठिन परिस्थितियों में जीवनयापन की
योग्यता रखने वाले बैक्टीरिया सदृश्य जीव भी पनप
पाएं। हां, सैकड़ों वर्षों के अथक प्रयास से इसे
जीवन के योग्य बनाया जा सकता है। और कौन जानता
है भविष्य में कभी इस ग्रह पर हमारी संततियों का
रहनसहन हो। असंभव को संभव कर दिखाना मानव की
प्रकृति है और इस दिशा में अभी से तमाम योजनाएं
बनने भी लगी हैं। लेकिन अभी दिल्ली दूर ही नहीं
बहुत दूर है।
मानव जीवन की बात करें
तो यह पृथ्वी भी अपने आगोश में बहुतेरे रहस्यों को
समेटे हुए है। अक्तूबर 2004 में इंडोनेशियन तथा
ऑस्टे्रलियन मानव वैज्ञानिकों (एंथ्रोपॉलॉजिस्ट्स) की एक टीम ने
इंडोनेशिया के फ्लोर्स द्वीप की एक गुफा में मानव
सदृश एक ऐसी बौनी प्रजाति के अवशेषों का पता
लगाया है जिनकी लंबाई मात्र एक मीटर रही होगी एवं मस्तिष्क का
आकार मात्र 380 क्युबिक सें.मी.। 'होमो
फ्लोरसिएंसिस' के नामकरण से सम्मानित किए गए ये
अवशेष मात्र अट्ठारह हजार साल पुराने हैं और अन्य
मानव प्रजातियों के साथ इस धरा के सहवासी थे।
अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार यह प्रजाति संभवतः
'होमो इरेक्टस' नामक प्रजाति से उत्पन्न हुई होगी। इस
प्रजाति के कुछ सदस्य इस द्वीप पर फंस गए होंगे और वहां
उपलब्ध अपर्याप्त संसाधनों के अधिकतम उपयोग के
विकासीय दबाव के कारण इनका आकार क्रमशः संकुचित
होता गया होगा ऐसा इन अवशेषों से जुड़े
अनुसंधानकर्ताओं की अवधारणा है। इसी प्रकार का
विकासीय दबाव उस समय के अन्य स्तनधारियों पर भी
पड़ा होगा। इसी गुफा में हाथी सदृश बौने स्तनधारी
का अवशेष भी मिला है जिसका शिकार संभवतः इन
बौने मानवों ने किया होगा।
इस आश्चर्यजनक खोज को
मानव विज्ञान के क्षेत्र में पिछले पचास सालों की
सबसे बड़ी खोज के रूप में देखा जा रहा है।
AAAS
ने इसे 2004 की खोज नंबर दो का दर्जा दिया है।
हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि आकार में
इस प्रकार के संकुचन का कारण माइक्रोसिफैलिस जैसी
मस्तिष्क के बीमारी का परिणाम भी हो सकता है। वर्ष 2005
में भी इस संदर्भ में वादविवाद चलते रहने की
पुरज़ोर संभावना है।
इन दो बड़ी ख़बरों के
अतिरिक्त
AAAS
ने जिन महत्वपूर्ण अनुसंधानों को अपने 'टॉप टेन'
मे जगह दी है उनका सारसंक्षेप भी यहां प्रस्तुत है।
अनुसंधानों की बात
चले और क्लोनिंग तथा स्टेम सेल्स के अध्ययन से
जुड़े वैज्ञानिक पिछड़ जाएं ऐसा तो हो ही नहीं
सकता। 1997 में डॉली की सफल क्लोनिंग के बाद तो
नाना प्रकार के स्तनधारियों की क्लोनिंग की तो जैसे
बाढ़ ही आ गई है। इनमें से सबसे जटिल है
स्तनधारियों के सबसे अधिक विकसित समूह
'प्राइमेट्स' जिनसे हम मनुष्य भी संबद्ध हैं। अगर
पाठकों को याद हो तो लगभग दो साल पूर्व
'रेलियन्स' कल्ट से जुड़े डॉ ब्रिगिट ब्वाज़लियर की
'क्लोनेड कंपनी' ने एक नहीं बल्कि तीन सफल मानव
क्लोनिंग का दावा किया था। परंतु प्रमाण न उपस्थित कर
पाने के कारण इस पर विश्वास नहीं किया गया। उसके
बाद भी चोरीछिपे प्रयास चलते ही रहे और सफलता के
छिटपुट दावे भी किए जाते रहे। परंतु इन पर अधिक ध्यान
नहीं दिया गया। अधिकांश वैज्ञानिक इसे असंभव तो नहीं
लेकिन मुश्किल काम ज़रूर मानते रहे हैं। इसमें सबसे
बड़ी बाधा मानी जाती रही है प्राइमेट्स के डिंब में
कोशिका विभाजन से संबद्ध प्रोटीन्स की अवस्थिति। इसके
अतिरिक्त अन्य बाधाएं थी इनका नैतिक एवं राजनैतिक
कारणों से किया जा रहा विरोध। अधिकांश देशों में
इससे संबंधित प्रयोगों की अनुमति नहीं थी और
अभी भी नहीं है।
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