विज्ञान की दुनिया में
जनवरी 2004 की सबसे चर्चित खबरें स्पिरिट एवं
अपॉरचुनिटी नामक दो अमेरिकी घुमक्कड़
यानों के उतरने तथा वहाँ से प्रेषित तस्वीरों से ही जुड़ी रही हैं।
फरवरी माह भी इन यानों के कारनामों से अछूता नहीं रहा है।
मंगल ग्रह
. . . भला कौन नहीं परिचित है इससे? यह लाल ग्रह हमारे ही
सौरमंडल का सदस्य है। दूरी के हिसाब से सूर्य का चौथा ग्रह। हमारी
पृथ्वी की तुलना में सूर्य से लगभग डेढ़ गुना दूर, आकार में आधा .
.. . . आदि ज्ञान प्राइमरी स्कूल के बच्चों को भी करा दिया जाता है।
थोडी और खोजी निगाह डालें तो पता चलता है कि हमारे सौर मंडल के
अन्य ग्रहों की तुलना में यहाँ का संसार हमारी पृथ्वी के काफी करीब है।
यहाँ का दिन भी करीब चौबीस घंटे का होता है तथा इसके अक्ष का
झुकाव भी लगभग धरती के ही समान है। परंतु इसके वातावरण में
कार्बनडाईआक्साइड की बहुतायत है, 2 से 3 प्रतिशत नाइट्रोजन तथा
थोड़ीबहुत मात्रा में आर्गन तथा नियॉन जैसी निष्क्रिय गैसों के
साथ अति सूक्ष्म मात्रा में ही ऑक्सीजन तथा
वाष्प के रूप में पानी मौजूद है। इसका अधिकांश भाग पथरीले पदार्थों
से मिल कर बना है जिसमें लोहे जैसे भारी तत्वों की मात्रा काफी कम है
फलत: धरती की तुलना में यह लगभग दस गुना हल्का है।
अपनी कक्षा में घूमते हुए
यह ग्रह 687 दिनों के अपने साल में जब एक बार सूर्य के सबसे करीब
आता है तब भी इसकी दूरी लगभग 2060 लाख कि.मी. होती है और जब सूर्य से सबसे दूर जाता है तो इसकी दूरी
लगभग 2490 लाख कि.मी. होती
है। धरती के पास से गुजरते हुए भी यह कम से कम 560 लाख कि .मी. की दूरी तो बनाए ही रखता है। पिछले 50 60 हजार वर्षों में 27 अगस्त 2003 के
दिन यह ग्रह पथ्वी के सबसे करीब मात्र 557 लाख कि.मी. दूर था। इस दिन
के लगभग छ: महीने पूर्व पृथ्वी से इसकी दूरी लगभग 2800 लाख कि.मी. थी। इसका औसत
तापक्रम 23 डिग्री सेंटीग्रड के आसपास रहता है। हाँलाकि सूर्य के
नजदीक रहने की स्थिति में 40 प्रतिशत ज्यादा प्रकाश पाने के कारण यह थोड़ा
गर्म रहता है परंतु दूर रहने की स्थिति में तो यह बहुत ही ठंडा रहता है।
सर्दियों से यह ग्रह हमारे
कौतुहल का विषय रहा है। हिन्दूपौराणिक कथाओं के अनुसार इसे धरती
पुत्र माना गया है। जब धरती अथाह सागर में डूबी हुई थी तब भगवान
विष्णु ने अपने वराह अवतार में इसे उठा कर समुचित कक्षा में रखा था।
माँ
धरती ने कृतज्ञ हो कर विष्णु भगवान से एक पुत्र प्रदान करने की विनती
की। मंगल ग्रह की उत्पति उसी का परिणाम है। एक अन्य मिथक के अनुसार यह
ग्रह भगवान शिव एवं पृथ्वी की संतान है। जन्म से ले कर मृत्यु
पर्यंत, मानवजीवन
के हर क्षण पर वैसे तो सभी ग्रहों की दशा एवं स्थिति का प्रभाव पड़ता
हैऐसा ज्योतिषशास्त्रियों का मानना है। इस संदर्भ में मंगल का
विशेष महत्व है। इसका संबंध बहुतेरे मानवोचित गुणों एवं
इच्छाओं से माना जाता है। मजबूत स्थिति में यह बहादुरी, ताकत, दृढ़इच्छा
शक्ति को बढ़ाने वाला, पुरूषत्व का प्रतीक तथा विपरीत परिस्थियों पर
विजय दिलाने वाला माना जाता है । पाश्चात्य संस्कृति में रोमन मिथक
के अनुसार इसे देवी बेलोना के पति एवं वीनस के प्रेमी जूनो की
संतान माना जाता है। इसकी प्रतिष्ठा युद्ध, कृषि तथा राज्यदेवता के रूप में
थी। अंग्रेजी में मार्च माह के नाम का उद्गम मार्स ही है। हिन्दी में
सप्ताह के एक दिन का नाम मंगल के नाम पर रखा गया है।
पृथ्वी के सबसे नजदीकी
तथा इससे कुछ समानताओं के कारण इस ग्रह को जाननेसमझने
की उत्सुकता हमारे मन में सदैव रही है। 1887 में संभवत: पहली बार एक
इटेलियन पुजारी पीट्रो सेचि ने इस ग्रह पर स्थित प्रकृतिनिर्मित
चैनेल्स को देखने का दावा किया। अगले ही वर्ष मंगल ग्रह का एक नक्शा
भी प्रकाशित किया गया जिसमें अन्य विशेषताओं के साथसाथ सीधी
कतार में स्थित ऐसी चैनेल्स को भी दर्शाया गया जिसे इन लोगों
ने कैनाली का नाम दिया जिसका अंग्रेजी में वास्तविक अनुवाद
चैनेल होना चाहिए। किसी विभ्रम के कारण इन्हें कैनाल का
नाम दे दिया गया और लोगों में मिथ्याअवधारणा फैलने लगी कि
ये नहरें इस ग्रह के बुद्धिमान एवं बहादुर निवासियों के अथक परिश्रम का
परिणाम हैं। इन नहरों द्वारा ये लोग अपनी फसलों की सिंचाई के लिए
ध्रुवों पर पिघलती बर्फ के पानी का उपयोग करते हैं। इस अवधारणा का धुआँधार
प्रचार पर्सिवाल लॉवेल ने 1895 में अपनी किताब द्वारा किया। हाँलाकि
सभी लोग इस अवधारणा से सहमत तो नहीं थे फिर भी इसके कारण इस
ग्रह पर संभवत: किसी न किसी प्रकार के जीवन का होना सच मान लिया
गया तथा कथित उड़न तश्तरियों का संभावित उद्गम स्थलों में इसे भी
मान लिया गया। न जाने कितनी एक्स्ट्रा
टेरेस्टि्रयल जीवों के पृथ्वी पर आनेजाने संबंधी कवितओं,
कहानियों
में मंगल ग्रह का नाम आने लगा। इस विभ्रम की स्थिति बीसवीं सदी तक
बनी रही।
नाना प्रकार के
मंगलअमंगल, मिथकों तथा विभ्रंतियों से जुड़े मंगल ग्रह से
हमारा यहाँ कुछ लेनादेना नहीं है और न ही कोई
बहसमुसाहिबा। हमारा उद्देश्य तो आधुनिक उपकरणों, संयंत्रों तथा
साधनों से लैस वैज्ञानिकों द्वारा इस ग्रह के कुशलमंगल की
जानकारी के संबंध में किए जा रहे सद्प्रयासों से आप को परिचित करना
है।
हाँलाकि टेलिस्कोप द्वारा किए
गए निरीक्षण के परिणाम स्वरूप 1940 तक ही हमें ज्ञान हो गया था कि
मंगल ग्रह पर जीवन के मुख्य आधार मुक्त ऑक्सीज़न
एवं द्रव रूप में पानी के होने की संभावना न के बराबर है। परंतु यहाँ
के वातावरण तथा सतह की प्रकृति के बारे में कुछकुछ सही जानकारी तभी
से मिल पा रही है जब से हमारे अंतरिक्ष यान इस ग्रह के बिल्कुल पास पहुँच
कर या फिर यहाँ उतर कर इसका अवलोकन कर पा रहे हैं ।
1965 में मैरिनर 4 ने
सबसे पहले इस ग्रह के सतह की बहुत पास से तस्वीरें लेने में सफलता
पाई। इसके द्वारा ली गईं 22 धुँधली तस्वीरों ने ही हमें यह ज्ञान दे
दिया कि कॉर्बनडाईऑक्साइड की बहुतायत वाला इसका वायुमंडल
बहुत ही झीना है तथा इसका दबाव धरती के वायुमंडल की तुलना में मात्र
सौवें हिस्से के बराबर है। इसकी सतह बड़े बड़े समतल गड्ढों से पटी
हुई है। न तो कहीं जीवन के चिन्ह हैं, न ही तथाकथित मंगल ग्रह
वासियों द्वारा निर्मित नहरें अथवा न ही किसी नई भौगेलिक गतिविधि
का प्रमाण।
1969 में इसके पास से
गुजरने वाले दो अन्य अंतरिक्ष यानों ने अपने शक्तिशाली कैमरों से
इस ग्रह के कुछ हिस्सों की परिष्कृत तस्वीरें भेजीं। परंतु इस ग्रह के
अनवेषण
के नए युग का सूत्रपात 1971 तथा 1976 में इसके चारों ओर चक्कर
लगाने वाले ऑरबिटर अंतरिक्ष यान मैरिनर 9
तथा वाइकिंग 1 एवं 2 के वहाँ भेजे जाने के साथ हुआ। इस यान
ने मंगल ग्रह की लगभग पूरी सतह का बारबार चित्र लेने में
सफलता पाई, जिसके फलस्वरूप यहाँ होने वाले मौसमी तथा दीर्घकालिक
परिवर्तनों का अवलोकन संभव हो सका।
मैरिनर 9 को तो वहाँ पहुँचते
ही संपूर्ण ग्रह पर चल रही धूल की भयानक आँधी का सामना करना पड़ा
और अगले तीन माह तक धरती पर तस्वीरें भेजने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी।
आँधी के बाद स्थिर होती धूल के गुबार के बीच
अपनी चोटी का दर्शन कराते चार अति विशालकाय ज्वालामुखीय
पर्वतों की तस्वीरों ने धरती पर हलचल मचा दी। हवाई द्वीपसमूह पर स्थित
इस धरती का सबसे विशालकाय ज्वालामुखीय पर्वत भी मंगल पर देखे गए
इस प्रकार के सबसे बड़े पर्वत (जिसे अब माउन्ट ओलिम्पस के नाम से
जाना जाता है) की तुलना में बौना लगता है। लगभग 500 कि.मी. के आधार तथा 24 कि.मी. की बुलंद ऊँचाई
को छूने वाले इस पर्वत की हवाई द्वीप समूह के सबसे बड़े पर्वत (जिसका
आधार 120 .मी. तथा ऊँचाई मात्र 9 कि .मी. है) से क्या
तुलना है? इन चार बड़े पर्वतों के अलावा पृथ्वी पर पाए जाने वाले
ज्वालामुखीय पर्वतों के समान बहुतेरे पर्वत मंगल ग्रह पर बिखरे
पड़े हैं।
जहाँ पर ये चार
विशालकाय पर्वत स्थित हैं उसी के आसपास लगभग 5000 कि.मी. की लंबाई में फैली एक अति विशाल दराररूपी घाटी भी दिखाई
पड़ती है। इस दरार का निर्माण कम से कम 100 कि .मी . चौड़ी तथा सैकड़ों
कि .मी . की लंबाई वाली कई घाटियों को मिला कर हुआ है। पृथ्वी के
समान इन भौगोलिक लक्षणों से युक्त होने के बावज़ूद भी मंगल
ग्रह का अधिकांश भाग चंद्रमा से ज्यादा मिलताजुलता है।
सूखी हुई नदियों के
समान लाखों करोड़ों वर्ष पुराने सैकड़ों लंबेलंबे चैनेल
इस बात के द्योतक हैं कि कभी इसकी धरती पर भी पानी था। ये चैनेल संभवत:
इस बात की तरफ भी इशारा करते हैं कि यहाँ एक काल ऐसा अवश्य था जब यहाँ
का वायुमंडल काफी घना, पर्याप्त गर्म तथा संभवत: नमीयुक्त था।
अब यह सारा पानी ध्रुवों पर आच्छादित कॉर्बनडाईऑक्साइड के तुषार
की दो तहों के अंदर बर्फ के रूप में बंद हो गया है। इस रूप में फँसे पानी
तथा मंगल की मिट्टी में कैद बर्फ को यदि पिघलाया जाए तो संभवत:
इस ग्रह के निचली सतह वाले उतरी गोलार्ध में कई किलो मीटर
गहराई वाले विशाल समुद्र का निर्माण किया जा सकता है। फिलहाल द्रव के
रूप में पानी की एक बूँद भी यहाँ नही है। ध्रुवीय प्रदेश का अध्ययन यहाँ
के वातावरण में होने वाले आवर्तनीय परिवर्तनों को भी दर्शाता है।
20 जुलाई 1976 को वाइकिंग
1 लैंडर यान को इस ग्रह के एक पथरीले रेगिस्तान क्राइस प्लैनिशिया
में उतरा गया। इसी वर्ष सितंबर माह में एक और यान, वाइकिंग 2 लैडर
को वाइकिंग 1 से लगभग 7500 कि.मी. दूर यूटोपिया नामक स्थान
पर उतारा गया। दोनों ही जगहों की जमीन लालिमा युक्त धूल से पटी
एवं समतल थी। वहाँ चारों ओर लालिमा युक्त पत्थरों के टुकड़े
बहुतायत में बिखरे पडे़ थे। रसायनिक एवं जैविक प्रयोगों द्वारा इस
स्थान की मिट्टी के विश्लेषण पता चला कि इसमें ऑयरन के ऑक्साइड्स
की मात्रा बहुतायत में है और अल्युमिनियम
काफी कम मात्रा में है। ऑयरन ऑक्साइड्स
की प्रचुर मात्रा ही संभवत: लालिमा का कारण है। ऐसे ऑक्साइड्स
के निर्माण में संभवत: थोड़े बहुत पानी के वाष्प तथा अल्ट्रावायलेट
किरणों का हाथ रहा होगा।
वाइकिंग 2 तो 2 अप्रैल 1980
तक ही कार्य कर पाया परंतु वाइकिंग1 अपना कार्य 13 नवंबर 1983 तक करता
रहा। इनके
द्वारा भेजे गए चित्र एवं आंकडे इस
ग्रह को और ठीक से समझने में काफी सहायक सिद्ध हुए हैं। वाइकिंग
यानों को भेजने के मुख्य उद्देश्यों में मंगल ग्रह पर जीवन के
लक्षणों की तलाश करना भी था। हाँलाकि वहाँ की मिट्टी में रसायानिक
प्रतिक्रियाएँ पाई गईं फिर भी जीवन संबंधी किसी भी जैवरसायनिक
प्रतिक्रिया एवं जीवन का कोई भी प्रमाण नहीं मिला। इन सबके बावज़ूद
वैज्ञानिकों का मानना है कि अपने सौर मंडल में पृथ्वी के अतिरिक्त
जीवन की संभावना सबसे अधिक इसी ग्रह पर है।
इस संदर्भ में लगातार
प्रयास होते ही रहे हैं। ऑरबिटर्स, सर्वेयर्स, लैंडर्स तथा रोवर्स एक के
बाद यहाँ पहुँचते ही रहे हैं। इनमें से कई अपने उद्देश्य में सफल हुए तो
कई असफल भी। इनके द्वारा भेजे गए चित्र तथा आंकड़े हमारी जानकारी लगातार
बढ़ाते रहे हैं। फिर भी इस ग्रह के
बारे में हमारी जानकारी अभी भी न के बराबर है ।
स्पिरिट तथा
अपॉरचुनिटी जैसे घुमक्कड़ यानों का
इस वर्ष के जनवरी माह में मंगल ग्रह पर उतारा जाना इसी
महत्वाकांक्षी महाअभियान की
अगली कड़ी है। पिछले अभियानों के अनुभव के आधार पर इस बार काफी उन्नत
तकनॉलॉजी एवं बेहतर उपकरणों से युक्त यानों को वहाँ उतारा गया
है। इनके द्वारा भेजे गए आंकड़े एवं चित्र तो आजकल समाचार पत्रों तथा
वेबसाइट्स की दैनिक सुर्खियों का
हिस्सा हैं। इनके बारे में हम फिर कभी चर्चा करेंगे। आइए, फिलहाल हम यहाँ
इनसे कुछ हट कर बात करें।
वास्तव में इन घुमक्कड़
यानों को मंगल ग्रह पर भेजने की योजना वर्षों पहले ही तैयार की
गई थी। इस परियोजना पर नासा तथा अन्य सहयोगी संस्थानों के
सैकड़ों वैज्ञानिक लगातार कार्य करते रहे, तब कहीं जा कर 10 जून 2003
को स्पिरिट तथा 8 जुलाई 2003 को अपॉरचुनिटी को पृथ्वी से प्रक्षेपित किया
जा सका। लगभग 4910 लाख कि.मी. वाली सात महीने की लंबी यात्रा के
बाद स्पिरिट पृथ्वी से लगभग 1060 लाख कि. मी. दूर मंगल ग्रह के दक्षिणी भाग में भूमध्य रेखा पर स्थित
गुसेव केटर के केंद्र के पास 4 जनवरी 2004 के दिन उतरने में सफल
हुआ। संभवत: यह क्रेटर कभी एक बड़ी झील रहा होगा। लगभग इतनी ही दूरी
तय कर अपॉरचुनिटी भी भूमध्य रेखा पर ही स्पिरिट से लगभग 6000 मील दूर
ग्रह के विपरीत भाग में मेरिडियानी प्लेनम नामक क्षेत्र में 25
जनवरी 2004 के दिन उतरने में सफल हुआ। इस क्षेत्र में अनावृत
हीमेटाइट खनिज का काफी जमाव है, जिसका निर्माण सामन्यत:
जलीय वातावरण में ही संभव है।
गोल्फ के मैदान में खेल का
सामान ढोने वाली छोटी सी गाड़ी के आकार के ये दोनों जुड़वाँ घुमक्कड़
रॉबॉट यान दक्ष भूवैज्ञानिक हैं। इनके निर्माण, रखरखाव तथा नाना
प्रकार के परीक्षणों में जेट प्रपोल्सन लैबोरेटरी, कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट
ऑफ टेक्नॉलॉजी
के वैज्ञानिकों तथा इंजीनियरों ने वर्षों परिश्रम किया है
और इस परियोजना पर लगभग 800 करोड़ डॉलर खर्च किए गए हैं। जरा इनकी
विशेषताओं पर तो गौर करें।
-
सौर ऊर्जा से संचालित
होने वाली इस बग्घी को नाना प्रकार के उच्च दक्षता एवं सूक्ष्मता वाले
उपकरणों से लैस किया गया है। धातु से बने पहियों पर चलने
वाली इस बग्गी में सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण करने लिए डैने जैसी
संरचना के ऊपर पंक्तिबद्ध रूप से सोलर सेल्स लगाए गए हैं। साथ में
दो रिचार्जेबिल बैटरियाँ भी लगाई गई है। ये बैटरियाँ सूर्य का
पूरा प्रकाश मिलने पर 140 वाट विद्युत उत्पन्न कर सकती है जो इस बग्गी
को लगभग चार घंटे तक लगातार सक्रिय रखने में सक्षम हैं।
-
इस बग्घी के डेढ़ मीटर ऊँचे
स्तंभ के शिखर को एक अति उच्च विश्लेषक क्षमतायुक्त, हथेली
में समा जाने वाले छोटे से पैनोरॉमिक कैमरे से सुसज्जित किया
गया है। यह कैमरा न केवल 360 डिग्री तक घूम सकता है बल्कि 180 डिग्री
तक ऊपर या नीचे झुक भी सकता है। इसके द्वारा यह यान मनुष्य की तरह देख
सकता है एवं रंगीन चित्र भी प्रेषित कर सकता है।
-
तीन प्रकार के स्पेक्ट्रोमीटर्स
भी इसकी विशेषताएँ हैं।मिनी थर्मल एमिशन स्पेक्ट्रोमीटर
के द्वारा मिट्टी एवं चट्टानों में पाए जाने वाले खनिजों
से निकलने वाली इंफ्रारेड विकिरण का दूर से ही पता लगया जा
सकता है, जिससे हमें खनिजविशेष की जानकारी मिल सकती
है।अल्फा पार्टिकिल्स एक्सरे स्पेक्ट्रोमीटर
चट्टानों एवं मिट्टी से निकलने वाली अल्फा तथा एक्सरे
जैसे विकिरण का पता लगा कर उनके रसायनिक संरचना का ज्ञान
कराने में सहायक हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त मॉसबॅयर स्पेक्ट्रोमीटर
की मदद से वहाँ उपस्थित विभिन्न पदार्थों मे लोहे की मात्रा का
बिल्कुल सटीक एवं सीधा आंकलन किया जा सकता है। बस इसके सेंसर
हेड को चट्टान या मिट्टी के ऊपर रखना होगा। 12 घंटे के अंदर ही
परिणाम मिल जाएँगे।
-
रॉक एब्रेशन टूल
(RAT) भी
इसके साथ संलग्न एक शक्तिशाली ग्राइंडर है जो कठोर ज्वालामुखीय
चट्टानों में भी 2 इंच के व्यास तथा
0.2 इंच
की गहराई वाला गड्ढा दो घंटे के अंदर बना सकता है। चट्टानों की
नई सतह के अनावृत होते ही माइक्रोस्कोपिक इमेजर की सहायता से
इनका निरीक्षण किया जा सकता है। यह इमेजर आंशिक रूप से माइक्रोस्कोप
है, तो आंशिक रूप से इलेक्ट्रॉनिक कैमरा भी। यह उपकरण चट्टानों
एवं मिट्टी के बाहरी सतह के चित्र उनकी प्राकृतिक अवस्था में ले सकता
है।
-
पृथ्वी
एवं ऑरबिटर से संपर्क बनाए रखने तथा चित्र और सूचना संप्रेषण के
लिए इसे दो प्रकार के घूमने वाले एंटिना से सुसज्जित किया गया है।
लो गेन एंटिना धीमी गति से सभी दिशाओं में संकेत
संप्रेषित करता है, जिसे पृथ्वी पर अवस्थित डीप स्पेस एंटिना
ग्रहण कर सकता है। हाई गेन एंटिना पृथ्वी पर अवस्थित किसी भी
एंटिना तक सीधे संप्रेषण कर सकता है। ये रोवर बग्घियाँ आंकड़ों
को ऑरबिटर तक भी संप्रेषित कर सकती हैं।
इतनी
सुविधाओं से सुसज्जित ये रोवर बग्गियाँ एक दिन में कम से कम 40
मीटर तक चल सकने के लिए बनाई गई हैं। इस प्रकार कम से कम तीन महीने
के कार्यकाल में कुल मिला कर लगभग एक कि.मी. की दूरी तय करेंगी।
इन
रोवर बग्गियों को मंगल की धरती पर सुरक्षित उतारना कोई कम जटिल
एवं जोखिम भरा कार्य नहीं था। पृथ्वी से प्रक्षेपण के समय इन्हें मोड़ कर
लैंडर के अंदर रखा गया । इस लैंडर को चारों ओर से पिचके हुए गुब्बारे
जैसे हवाई बैग्स से ढकने के बाद एक
अन्य हवाई कवच में बंद कर दिया गया। फिर इसे
क्रयूज स्टेज से जोड़ कर अगले सात माह के मंगल ग्रह तक पहुँचने
की अंतरिक्ष यात्रा पर रवाना कर दिया गया। यह क्रयूज स्टेज सेलर
पैनल, एंटिना
एवं मंगल ग्रह तक की यात्रासंचालनक्षमता से युक्त था। मंगल ग्रह
के बाहरी वायुमंडल के संपर्क में आने के 15 मिनट पहले ही अपने
क्रयूजस्टेज से अलग हो गया तथा मंगल की धरती की तरफ 12000 मील
प्रति घंटे की रफ्तार से उतरने लगा। वायुमंडलीय घर्षण के कारण अगले
चार मिनट के अन्दर इसके
बाहरी हवाई कवच का कुछ हिस्सा 1400 डिग्री सेंटीग्रड तक गर्म हो
गया तथा इसके नीचे उतरने की रफ्तार धीमी हो कर मात्र 990 मील प्रति घंटा
रह गई।
धरती
पर उतरने के मुश्किल से दो मिनट पूर्व इसके पैराशूट खुल गए और मात्र 20
सेकेंड बाद ही इसने हवाई कवच के निचले हिस्से से स्वयं को अलग कर
लिया, जिससे लैंडर का आधा भाग दिखने लगा। पैराशूट से अभी भी
जुड़े हुए हवाई कवच के ऊपरी आधे हिस्से द्वारा लैडर को एक रस्सी के सहारे
नीचे लाया गया। अंतिम 6 सेकेंड में लैडर के चारों तरफ बंधे हवाई
थैलो में हवा भर गई। ऊपरी आधे हवाई कवच से जुड़े रिट्रो रॉकेट
सक्रिय हो गए तथा धरती से 15 मीटर ऊपर ही रस्सी कट गई जिसके कारण
पैराशूट तथा हवाई कवच का ऊपरी भाग भी लैडर से अलग हो गया।
गद्दे
रूपी हवा भरे थैलों से लिपटा लैडर एक फुटबॉल की तरह धरती से
बारबार उछलने लगा। यही स्थिति सबसे खतरनाक थी। धरती से टकराने के
प्रारंभिक दौर में यदि इन हवा भरे थैलों का संपर्क किसी नुकीली
चट्टान से हो जाता तो सारे किएकराए पर पानी फिर जाता। संयोग से
ऐसा नहीं हुआ और कई उछालों बाद लैंडर स्थिर हो गया। सावधानीवश
लैडर के अंदर छिपे ये यान तुरंत बाहर नहीं निकले। स्वयं को सीधा करने,
पूर्ण क्रियाशील स्थिति में लाने तथा आसपास की जगह का पूर्ण
निरीक्षण में लगभग एक सप्ताह का समय लगाने के बाद ही ये बाहर आए।
मंगल
ग्रह की खोजयात्रा इन्हीं रोवर यानों के साथ समाप्त नहीं हो जाएगी।
यह तो अनवरत खोज का एक पडा़व मात्र है। नासा ने तो अगले दो
दशकों के कार्यक्रम तय कर डाले हैं। 2005 में आरबिटरमार्स
रिकॅनिसेंस को भेजने की योजना है। 2008 तक हवा मे उड़ने वाले
वाहन या गुब्बारे अथवा छोटे लैंडर्स के साथ फिनिक्स को भेजने
का इरादा है, तो 2009 तक विस्तृत कार्यक्षेत्र तथा लंबे समय तक सक्रिय रह
सकने वाले घुमक्कड़ मार्स साइंस लैब
को। इसके द्वारा वहाँ की सतह का विस्तृत अध्ययन कर, भविष्य मे चट्टानों
एवं मिट्टी के नमूने लाने का रास्ता साफ करने की योजना है। अगले दशक
में और भी बहुतेरे आरबिटर, लैंडर तथा रोवर भेजे जाएँगे। 2014 तक
संभवत: हमारे यान वहाँ से मिट्टी तथा चट्टानों के नमूने लाने
में सफल हो सकते हैं।
इन
सारी योजनाओं तथा अंतरिक्ष संबंधी अन्य योजनाओं के क्रियान्वन
हेतु कठिन परिश्रम, धैर्य, दृढ़निश्चय, योजनाबद्ध अनुसंधान तथा उत्साह
के साथ आर्थिक संसाधनों की भी उतनी ही आवश्यता है। अमेरिकी राष्ट्रपति
बुश द्वारा नासा में 15 जनवरी 2004 के दिन के संभाषण में 2008 तक
मानवरहित यान पर भेजने की इच्छा तथा 2020 तक पुन: मनुष्यों को चाँद
पर भेजने की इच्छा के साथ इस दिशा में एक अरब डॉलर के अतिरिक्त अनुदान
के पेशकश की घोषणा निश्चय ही काफी उत्साहवर्धक है। आशा है भविष्य में
इसके अच्छे ही परिणाम सामने आएँगे।
|