- एयरोबिक्स की धूम
एयरोबिक व्यायाम की धूम है देहसौंदर्यप्रिय
युवतियों के बीच। लेकिन नहीं इसके चिकित्सकीय पहलू से
भी बावस्ता होना आपके लिए कम जरूरी नहीं हैं। न्यूयॉर्क के
वैज्ञानिकों का कहना है कि नियमित एयरोबिक एक्सरसाइज
करने वाली युवतियों को फाइब्रोमायल्गिया नामक रोग
नहीं हो पाता है। यह वह रोग है जिसमें रोगग्रस्त महिला को
उसकी गरदन, रीढ़ और कूल्हे की अस्थिसंधियों में अधिक दर्द
और अकड़पन तो हो ही जाता है, अनिद्रा सहित नींद की कई
बीमारियां, मानसिक अवसाद, इरीटेबल बाउल सिंड्रोम सहित
सहज ही चिंता की मनोवैज्ञानिक समस्या पैदा हो जाती है।
एयरोबिक इन सबसे निजात दिलाता है।
एक आकलन के अनुसार, यह बीमारी लगभग 4 प्रतिशत महिलाओं
को होती है लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि यह अधिकांश
महिलाओं को उनकी प्रजननअवधि के दौरान ही शिकार बनाती
है। डॉ सेल्विन सी एम रिचर्डस् तथा डॉ डेविड
एलस्कॉट द्वारा उनके करीब डेढ़ सौ फाइब्रोमायल्गिया
रोगियों से एयरोबिक व्यायाम, रिलैक्सेशन तथा फ्लेक्जिबिलिटी
व्यायाम करवाने के बाद उनके रोग लक्षणों
में आए सुधार को आंका गया।
शोधकर्ताओं ने एयरोबिक व्यायाम, रिलैक्सेशन तथा
फ्लेक्जिबिलिटी व्यायाम के बाद महिलाओं को स्वयं में आए परिवर्तन को गिनाने
को कहा। तीन महीनों में 69 में से 24 महिलाओं ने कहा कि
वे 'बहुत ही अच्छा' महसूस कर रही हैं और एक साल तक एयरोबिक
एक्सरसाइजेज लगातार करने के बाद तो उन महिलाओं के
फाइब्रोमायल्गिया रोग के लक्षणों में अप्रत्याशित सुधार
आया था। शोधकर्ताओं ने पाया कि एक्सरसाइजेज की बदौलत
ही महिलाओं की हडि्डयों के जोड़ों में दर्द और कमज़ोरी
में जबरदस्त सुधार आया था।
शोधकर्ताद्वय रिचर्ड्स और स्कॉट कहते हैं कि महिलाएं ऐसे
व्यायाम बस उतने ही समय के लिये करती हैं जब तक उन्हें
बहुत परेशानी होती है। जब काफी सुधार आ जाता है तो वे यह
सब छोड़ देती हैं। उनका कहना है कि केवल एकतिहाई महिलाएं ही
एक साल तक लगातार व्यायाम करती हैं। वे मानते हैं कि
महिलाओं को प्रतिदिन एयरोबिक व्यायामों और दवाओं में से व्यायामों को ही चुनना
चाहिए। यही उनको दवाओं के झंझट से मुक्त रखेगा।
- बुजुर्गों के लिए मारक हैं
नकारात्मक सोच
बूढ़े होना किसी अपराध
की सजा नहीं होता, यह तो अत्यंत स्वाभाविक घटना है।
अमेरिकी शोधकर्ताओं ने इस विषय में शोध किया है और शोध
रिपोर्ट बताती है कि बुढ़ापे या बढ़ती उम्र के बारे में
नकारात्मक सोच रखने तथा रोनेझींकने वाले लोगों की
तुलना में सकारात्मक सोच रखने वाले लोग औसतन करीब आठ
वर्ष अधिक जीते हैं।
नकारात्मक सोच रखने वालों को अनेक मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा हो जाती हैं और यह आगे
चलकर कई प्रकार की शारीरिक समस्याओं को भी जन्म देती है। इस
संबंध में अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन की ओर से
प्रकाशित पत्रिका जर्नल ऑफ पर्सेनैलिटी एंड सोशल
साइकोलॉजी में रिपोर्ट प्रकाशित की जा चुकी है।
इस शोध का नेतृत्व करने वाली येल यूनिवर्सिटी की
मनोवैज्ञान्कि बेका लेवी का कहना है कि मनोभाव और
मनोदशा पूरी तरह मनुष्य के व्यक्तित्व और
शारीरिकमानसिक क्रियाकलापों को संचालित करती हैं। निम्न
रक्तचाप हो या रक्त में कॉलेस्ट्रॉल का स्तर कम या
अधिक, इन बातों से अधिक महत्वपूर्ण है कि आप
अपने बारे में, अपने जीवन और अवस्था के बारे में क्या
सोचते हैं। लेवी के शोध दल ने पाया है कि रक्तचाप और
कॉलेस्ट्रॉल के स्तर पर मनोवैज्ञानिक स्थितियों का
सीधासीधा प्रभाव पड़ता है अर्थात यदि व्यक्ति की सोच
अपने बुढ़ापे या अपनी जिंदगी के प्रति सकारात्मक और आशावाद
से परिपूर्ण हैं तो ये शारीरिक जटिलताएं उससे दूर तो रहती ही
हैं, वह दीर्घायु भी होता है। इसके अलावा यदि उस व्यक्ति
ने जीवन में धूम्रपान और मद्यपान नहीं किया है तथा
नियमित व्यायाम किया है और अनुकूल भोजनशैली अपनाई
हैं तो केवल इन्हीं बातों से ही उसकी जीवनअवधि में
दोतीन वर्ष और जुड़ जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है
कि सबसे अधिक जरूरी है कि हमारे बुजुर्ग अपने जीवन के
अंतिम प्रहर में अकेला, उपेक्षित, असुरक्षित और मृत महसूस न
करें। सबसे आसान उपाय यह है कि बुजुर्ग युवाओं के बीच
दोस्ताना रिश्ता कायम करें और खुद में वैसी ही ऊर्जा महसूस
करें जैसी वे युवाकाल में करते थे।
- दवा निर्माता कंपनियों का
व्यवसाय
आजकल अमेरिकी स्वास्थ्य
अधिकारी बहुत चिंतित हैं। उनकी चिंता का विषय है, दवा
निर्माता कंपनियों द्वारा दवा के अनुसंधान और विकास
कार्यों में अपना बजट लगाने की जगह दवाओं के विज्ञापन
पर अधिक खर्च करने को प्राथमिकता देना।
एक गैर सरकारी स्वास्थ्य
संस्था के कार्यकारी निदेशक रॉन पोलैक का कहना है कि अमेरिकी
दवा कंपनियों को हमारे बुजर्गों को इस बात से डराने से
बाज आना चाहिए कि, दवाओं के दाम घटाने और सस्ती दवाओं
के प्रयोग को प्रोत्साहन देने से, नई दवाओं के
अनुसंधान कार्यों को जबरदस्त ठेस लगेगी। इसके अलावा अनुसंधान कार्यों को प्राथमिकताओं की सूची में सबसे
नीचे रखना भी अत्यंत गैरजिम्मेदारीपूर्ण तथा गलत है। इन
दोनों ही बातों पर रोक लगनी चाहिए। आंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
अग्रणी दवा निर्माता कंपनी मर्क एंड कंपनी इंक का ही उदाहरण
लीजिए इसके बजट के मुताबिक, इसका कुल सालाना राजस्व
वर्ष 2001 में करीब 48 अरब डॉलर था जिसमें से 622 अरब
डॉलर अर्थात कुल राजस्व का 13 प्रतिशत मार्केटिंग, विज्ञापन
और प्रशासन पर खर्च किया गया जबकि दवा संबंधी
अनुसंधानों पर 246 अरब डॉलर खर्च किये गये थे। यही
हाल दूसरी सभी बड़ी कंपनियों का है। यहां यह जानना ज़रूरी
है कि शोधकर्ताओं को संबद्ध सरकारी, गैर सरकारी शोध संस्थाओं
से आर्थिक सहायता तो मिलती ही है, सबसे उल्लेखनीय
भूमिका होती है दवा निर्माता कंपनियों की। अगर ये सहायता
में कमी करती हैं तो शोधकार्य पिछड़ सकते हैं।
- संभव होगा गर्भस्थ शिशु का
इलाज
अब वह दिन दूर नहीं जब
गर्भ में स्थित महज़ 10 हफ्ते के भ्रूण को गर्भ
में अथवा जन्म के बाद होने वाले रोगों का इलाज मां के
पेट में ही किया जा सकेगा।
यह सब करिश्मा है भ्रूण की रक्त कोशिकाओं से स्टेम
कोशिकाओं को लेकर संभावित विकृतियों को ठीक करने की
खोज का। इंपीरियल कॉलेज ऑफ लन्दन के शोधकर्ताओं ने इस
संबंध में शोध किया है। इसके फलस्वरूप तंत्रिका, अस्थि, कार्टिलेज तथा
मांसपेशियों से जुड़ी भावी विकृतियों को गर्भावस्था
में ही ठीक किया जा सकेगा। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है
मनुष्यों के मामले में इसे व्यवहार रूप में लागू करने में
अभी समय लगेगा क्योंकि स्त्री के गर्भ में खास किस्म की सूई
डाली जाएगी और तभी भ्रूण का रक्त लिया जा सकेगा। अभी उस
किस्म की सर्वथा सुरक्षित सूई की जांच का तरीका निर्धारित किया
जाना शेष है।
अगले माह नई सूचनाओं के साथ पुन: उपस्थित होंगे, इस बीच
प्रतीक्षा रहेगी आपकी प्रतिक्रिया की।
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