विज्ञान वार्ता

विज्ञान समाचार
डा गुरू दयाल प्रदीप 


स्कूली बस्तों का बोझ

  • जून–जुलाई अर्थात भारत जैसे देश में स्कूल खुलने का मौसम।स्कूलों के खुलने के साथ ही बच्चों पर बढ़ते किताबें के बोझ को ले कर बहस का मुद्दा एक बार फिर से गरमाएगा। घोड़े की तरह अपनी पीठ पर किताबों–कापियों का भारी – भरकम थैला लटका कर चलने से छोटे बच्चों की रीढ़ में दर्द एवं स्थाई खराबी की आशंका से सभी माँ-बाप चिंतित रहते है। लेकिन इसमें चिंता जैसी कोई बात नहीं है। यू एम मेडिकल युनिवर्सिटी के प्रो .एंड्रयू हेग द्वारा 7 से 15 साल के बच्चों पर किए गए विस्तृत अथ्ययन का निष्कर्ष है कि इस प्रकार के दर्द का पीठ पर लदे बोझ से कुछ खास लेना–देना नहीं है। ये बच्चे अपने शारीरिक वजन की तुलना में 5 से 11 प्रतिशत भार का थैला कंधे पर लटका कर रोज स्कूल जाते हैं और उनमें से अधिकांश इसे एक ही कंधे पर लटकाना पसंद करते हैं। जिन बच्चों ने ऐसी शिकायत की, उनमें से अधिकांश खेल–कूद एवं शारीरिक व्यायाम से कतराने वाले थे। हेग साहब का मानना है कि बच्चों मे शारीरिक क्रिया–कलापों की कमी ही पीठ–दर्द अथवा उसमें तनाव का मुख्य कारण है।  
  • वातावरण का धीरे–धीरे बढ़ता तापक्रम चिंता का विषय है। मानव क्रिया–कलापों के साथ–साथ सौर्य विकिरण, ज्वालामुखी–विस्फोट, कार्बन साइकिल एवं जलवायु में एक दूसरे को प्रभावित करने वाली प्रतिक्रियायों के परिणाम स्वरूप वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड एवं सल्फेट की बढ़ती मात्रा इसकी मुख्य वज़ह है। केवल एक या दो कारणों को ले कर अब तक किए गए अध्ययन के आधार पर आज तक वैज्ञानिक इक्कीसवीं सदी में वातावरण के तापमान में 4डिग्री सेंटिग्रेड तक वृद्धि का अनुमान लगाते रहे हैं, जो स्यवं में चिंताजनक बात थी। हाल ही में इंगलैंड के मौसम विभाग से संबद्ध सेंटर फॉर क्लाइमेटिक प्रेडिक्शन ऐंड रिसर्च में कार्यरत वैज्ञानिक क्रिस डी जोन्स एवं सहयोगियों ने उपरोक्त सभी कारणों को एक साथ ले कर विस्तृत अनुसंधान कर यह बताया कि वास्तव में  वातावरण का तापमान 4 डिग्री नहीं बल्कि 5 .5 डिग्री तक बढ़ सकता है।  
  • युनिवर्सिटी ऑफ ब्राउन में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एंड्रयू डी फॉस्टर एवं उनके सहयोगियों रिन्विग तथा मोहम्द कमाल द्वारा वर्षों के अनुसंधान का निचोड़ है कि भारत में 1971 में वन संपदा का कुल क्षेत्रफल केवल 10 प्रतिशत था जो 1999 तक बढ़ कर 24 प्रतिशत हो गया।इस अध्ययन के दौरान इन लोगों ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों के सैटेलाइट से प्राप्त चित्रों के साथ–साथ घरेलू सामानों तथा जनसंख्या संबंधी आंकड़ों में गत तीस वर्षों में होने वाले परिवर्तनों पर निगाह रखी। इन लोगों के अनुसार वन क्षेत्रफल में उपरोक्त वृद्धि स्वत: नही हुई है। इसके पीछे भारत सरकार की सोची समझी नीति है। इस प्राकृतिक संपदा की मांग को बढ़ा कर ग्रमीणों को और अधिक पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उन्हें यह प्रोत्साहन उनके द्वारा लगाए गए पेड़ों को समुचित मूल्य पर खरीद कर दिया गया। साथ ही वन क्षेत्र की समुचित सुरक्षा, सामूहिक प्रबंधन, सही व्यापारगत नीतियाँ तथा वन उत्पाद के सीमित आयात आदि कुछ अन्य कारण हैं। मांग बढ़ने से प्राकृतिक संपदा का सदैव ह्रास होता है, इस अवधारणा को भारत ने वनक्षेत्र के संदर्भ में अपनी नीतियों के बल पर झुठला दिया है।  
  • वैज्ञानिक अन्य तरीकों से भी काग़ज से जुड़े उद्योग की बढ़ती मांग को पूरा करने के प्रयास में जुटे हुए हैं।जेनेटिकली इंजीनियर्ड वृक्ष जिन्हें ट्रांसजेनिक वृक्ष भी कहते हैं, भविष्य में संभवत: इस मांग को आसानी से पूरा कर पाएंगे और वह भी काफी सस्ते में। कागज उद्योग का करोड़ों डॉलर पेड़ों से प्राप्त रेशों से लिग्निन नामक पदार्थ को अलग करने में खर्च होता है। यह पदार्थ रेशों को एक दूसरे से बाँधे रहता है। इसे अलग करने के बाद ही बाकी बचे पदार्थ ‘सेल्यूलोज’ को कागज में बदला जा सकता है। फॉरेस्ट बायो टेक्नोलॉजी विभाग, नॉर्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विंसेंट च्यांग एवं इनके सहयोगियों ने हाल ही में कागज उद्योग में काम आने वाले ‘एस्पेन’ वृक्षों की कई प्रजातियों की ट्रांसजेनिक किस्में विकसित की हैं जिनमें लिग्निन की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत कम है एवं सेल्यूलोज की मात्रा अधिक। यही नहीं, इन नई किस्मों की बाढ़ भी काफी तेज है। इनके उपयोग से लिग्निन को सेल्यूलोज से अलग करने में व्यय होने वाले करोड़ों डॉलर तो बचें गे ही,साथ ही कागज की  बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कम समय में अधिक सेल्युलोज वाले वृक्ष भी भारी मात्रा में उगाए जा सकते है।  
  • इस संसार में भला ऐसा कौन है जो सुंदर एवं जवान नहीं दीखना चाहता। इस काम में मुख्य रूप से तीन चीजें बाधक हैं—
  • अनचाहा मुटापा,
  • उम्र के साथ त्वचा पर आती झुर्रियाँ और
  • चाहे–अनचाहे अंगों पर बालों का होना अथवा न होना।

ब्यूटी पार्लर,जिम, कॉस्मेटिक्स एवं डाइटीशियन का व्यापार जवानी एवं सुंदरता बनाए रखने के नाम पर सदियों से चल रहा है। अफसोस, फिर भी मुटापे, झुर्रियों और बालों की समस्या से हम आज तक सफलता पूर्वक नहीं निपट पाए। इस समस्या से निपटने के लिए हमारे वैज्ञानिक भी प्रयत्नशील हैं। हाल ही में स्कूल ऑफ मेडिसिन, वाशिंगटन के प्रो .जेफरी एच माइनर तथा इनके सहयोगियों ने जेनेटिकली इंजीनियर्ड चूहे की एक ऐसी किस्म विकसित करने में सफलता प्राप्त की जिसकी त्वचा झुर्रियों तथा बाल रहित थी। जब इसके उत्परिवर्तित जीन के बारे में पता किया गया तो ज्ञात हुआ कि यह वही जीन है जो मुटापा बढ़ाने में भी सहायक है। हाँलाकि यह एक प्रकार की प्रारंभिक खोज ही है, परंतु भविष्य में इस प्रकार के अन्य प्रयोगों द्वारा मुटापे, झुर्रियों एवं बालों की वृद्धि पर एक साथ अंकुश लगाए जा सकेंगे।

  • एक और महत्वपूर्ण खोज में स्कूल ऑफ मेडिसिन, सेंट लुई युनिवर्सिटी के प्रो .विलियम ए .बैंक्स एवं इनके सहयोगियों पता लगाया है कि हमारी वसा कोशिकाओं में लेप्टिन नामक प्रोटीन बनता है जो रक्त वाहिनियों के साथ मस्तिष्क तक पहुँचता है। यह प्रोटीन मस्तिष्क को यह संकेत देता है कि हमें कितना खाना चाहिए एवं कब कितनी कैलोरी खर्च करनी चाहिए। मोटे लोगों में या तो मस्तिष्क इस प्रोटीन के संकेतों को सही ढ़ंग से पढ़ नहीं पाता या फिर इस प्रोटीन की समुचित मात्रा ही मस्तिष्क में नहीं पहुँच पाती। दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति ज्यादा खाता है। यदि हम यह पता लगा पाएँ कि लेप्टिन को रक्त से मस्तिष्क तक किन रसायनों की सहायता से पहुँचाया जाता है तो संभवत: भूख लगने की प्रक्रिया को इन रसायनों की समुचित मात्रा का उत्पादन कर कम किया जा सकता है और अंतत: बढ़ते मोटापे को रोका जा सकता है। इसके अतिरिक्त, साल्क इंस्टीट्यूट के प्रो .रॉनल्ड एम इवान्स ने कोशिकाओं में वसा के उपचयन को नियंत्रित करने वाले प्रोटीन ‘पर ऑक्सीसोम प्रॉलीफरेटर्स एक्टीवेटेड रिसेप्टर का पता लगाया है।ये आशा करते है कि भविष्य में इस प्रोटीन की सहायता से ऐसी औषधियों का विकास हो सकेगा जो मोटापो को नियंत्रित कर सकें।  

  • युनिवर्सिटी ऑफ रॉचेस्टर के टॉड क्रास एवं बेंजामिन मिलर ने एक ऐसे डीएनए चिप्स के विकास में सफलता पाई है जिसकी सहायता से रोग ऊत्पन्न करने वाले या जैविक हथियार की तरह इस्तेमाल किए गए किसी भी जीवाणु को तुरंत एवं सटीक रूप से पहचाना जासकता है, जो इसके प्रभावी प्रतिकार में काफी सहायक सिद्ध होगा। फिलहाल इन्हें केवल एक एंटी बायोटिक्स प्रतिरोधी ‘स्टाल्फ बैक्टिरिया’ के डीएनए को पहचान सकने वाले चिप्स के विकास में ही सफलता मिली है। इस बैक्टिरिया के डीएनए की उपस्थिति में इस चिप्स का रंग हरे से पीले में बदल जाता है, जिसे लेजर की मदद से देखा जा सकता है। भविष्य में ये लोग ऐसे चिप्स के विकास में लगे हुए हैं जिसकी सहायता से किसी भी जीवाणु को आसानी से तुरंत पहचाना जा सकता है। इसके विकसित हो जाने पर डॉक्टरों, वैज्ञानिकों अथवा युद्ध क्षेत्र में सैनिकों को रोगी या जीव –जंतु के शरीर के द्र्रव्य की बस एक बूँद की आवश्यकता होगी। डीएनए चिप्स के संपर्क में आते ही उस जीवाणु की पहचान तुरंत हो जाए गी। 
  • बढती जनसंख्या इस संसार की अधिकांश समस्याओं के मूल में है। तरह–तरह के सरकारी–गैरसरकारी उपायों एवं प्रयासों के बावजूद जनसंख्या है कि बढ़ती ही जा रही है। गर्भधारण से सदैव के लिए छुटकारा पाने का महिलाओं के पास ‘ट्यूबल लिगेशन’ ही एक मात्र कारगर उपाय है। पहले यह विधि काफी झंझट वाली थी।बेहोश कर सर्जरी द्वारा फैलोपियन ट्यूब को काट कर अंडाशय से अलग करना पडता था। बाद मे ‘लेपरस्कोपी’ द्वारा इस प्रक्रिया को आसान बनाया गया। फिर भी आस–पास के अंगों, रक्तवहिनियों या फिर स्नायु तंत्रों के क्षतिग्रस्त होने का खतरा बना रहता है। हाल ही में युनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड मेडिकल सेंटर के डा .रिचर्ड मारवेल एवं इनके सहयोगियों ने केवल लोकल एनेस्थिसिया द्वारा बिना किसी सर्जरी के फैलोपियन ट्यूब में एक नरम कुंडली को बिठाने में सफलता प्राप्त की है। यह कुंडली बाद में फैल कर डिंब का रास्ता बंद कर देती है,जिससे फैलोपियन ट्यूब में निषेचन नहीं  हो पाता। इस पूरी प्रक्रिया में मात्र 30 मिनट लगते हैं और व्यक्ति तुरंत घर या काम पर जा सकता है।  
  • एक परमाणु या अणु को उपकरण के रूप में प्रयुक्त करने की नई विधा ‘नैनोटेक्नॉलॉजी’ के नाम से जानी जाती है और आज कल नैनो टेक्नॉलॉजिस्ट्स की बड़ी धूम है। अब तक ये लोग इस टेक्नॉलॉजी को एलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर, दूरसंचार एवै मैटीरियल साइंस के क्षेत्र में प्रयुक्त करने की दिशा में प्रयत्नशील थे परंतु अब  वैज्ञानिक इस टक्नॉलॉजी को बायोलॉजिकल एवं मेडिकल साइंस के क्षेत्र में प्रयुक्त करने की दिशा में भी प्रयासरत हैं। एम्रॉय युनिवर्सिटी एवं जियार्जिया युनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियरिंग तथा कैसंर इंस्टीट्यूट से संबद्ध प्रो .शमिंग नाइल के अनुसार वैज्ञानिक ऐसे सक्रिय नैनो पार्टिकिल्स के विकास मे लगे हुए है जिन्हें प्रोटीन अथवा डीएनए जैसे बायो मॉलीक्यूल्स के साथ जोडा़ जा सकता है। ऐसे नैनो पार्टिकिल्स की मदद से कैसंर के रोगियों से प्राप्त ऊतकों की बायोप्सी, औषधियों के प्रभाव आदि संबंधी सटीक जानकारी थोडे़ समय में ही मिल सकती है। इनका उपयोग टीश्यू इंजिनयरिंग के क्षेत्र में ढाँचे के रूप में किया जा सकता है या फिर ट्यूमर कोशिकाओं को नियंत्रित मात्रा में औषधि पहुँचाने के लिए वाहन के रूप में भी इन्हें प्रयुक्त किया जा सकता है।

अगले माह नई सूचनाओं के साथ पुन: उपस्थित होंगे, इस बीच प्रतीक्षा रहेगी आपकी प्रतिक्रिया की। 
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