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 खबरी नारद की गप्पी गारद

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यारां सिली सिली आठवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन भी आ गयासम्मेलन से पहले दिन की ख़बरें गप्पी गारद की बंदूक से

ज आठवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन प्रारंभ हो गया है। अनेक लेखक, कवि, हिन्दीसेवी, हिन्दीप्रेमी, हिन्दीकर्मी, हिन्दीद्रोही एवं जुगाड़ी सुधीजन सात समन्दर पार कर के पूरे ताम झाम के साथ न्यूयार्क पहुँच गए हैं। सारा न्यूयार्क हिन्दीमय हो गया है। यहाँ आए ज्यादातर डेलीगेट्स हिन्दी की चिंता छोड़ कर इस चिंता में लीन दिख रहे हैं कि इन तीन दिनों में पूरा नगर कैसे घूमा जा सकता है और परिवारों के लिए सस्ती, सुंदर और टिकाऊ खरीददारी कहाँ करी जाए।

सभी आगंतुकों को पहला झटका तो तब लगा जब संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय परिसर में उद्घाटन सत्र समय से प्रारंभ हो गया। अभी लोग इससे उबर भी न पाए थे कि उद्घाटन में आने वालों को धन्यवाद देने के प्रयास किए जाने लगे। एक प्रतिभागी इससे बड़े आहत हुए और बोले,  "अमा अभी तो आए हैं। ठीक से तशरीफ़ भी नहीं रखी, और ये साहब अभी से शुक्रिया अदा कर रहे हैं, लाहौलबिलाकुवत। अभी वापस चले जाएँ क्या।"

उद्घाटन समारोह में चीन के प्रतिनिधि ने "मेरा भारत महान" का जयघोष किया और अपने हिन्दी समर्थक भाषण का समापन "हिन्दी चीनी भाई भाई" पंक्तियों के साथ किया। ईश्वर चाऊ एन लाई और पण्डित नेहरू की आत्मा को शांति दे।
उनका भाषण सुनकर सभागार में मौजूद एक युवा कवि ने ये कहा,
संजय बड़ा मासूम है, बच्चन किसान है,
सच बात सिर्फ इतनी है, भारत महान है।

नेपाल के मंत्री ने उनके देश में हिंदी की स्थिति का संबंध सीधे सीधे लोकतंत्र से जोड़ा। उनके अनुसार राणा वंश का राजतंत्र नेपाल में हिंदी का सबसे बड़ा विरोधी था और ठिठुरता हुआ लोकतंत्र जो आता जाता रहा हिंदी का प्रबल समर्थक।

उद्घाटन समारोह के मैन ऑफ़ द मैच रहे संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, बान की मून। उद्घाटन समारोह में उनकी उपस्थिति से सारे हिंदी समाज की छाती गर्व से पचास फुट चौड़ी हो गई और उन्होने एक दो वाक्य हिंदी में बोल कर वह चौड़ाई दस प्रतिशत और बढ़ा दी, बाकी पाँच प्रतिशत इस बात से और बढ़ गई कि उनके दामाद की मातृभाषा हिंदी है।

उद्घाटन के विस्थापन के बाद पहला और सबसे महत्वपूर्ण सत्र, "संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी" में प्रारंभ हुआ। सबने बड़े ज़ोर शोर से अपनी बात रखी। हम सोच रहे थे कि अभी घोषणा होगी कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की एक भाषा के रूप में मान्यता दे दी गई है और सभी लोग आनंद में मगन हो जाएँगे। चारों ओर दिनकर और पंत की कविताएँ गूँजने लगेंगी। प्रेमचंद और हजारीप्रसाद के नाम के जयकारे लगने लगेंगे। विज्ञान की पुस्तकें हिंदी में प्रकाशित होने लगेंगी। संसार जीवन के वृत्त (सर्कल) की परिधी (सर्कमफ्रेंस) के अर्धव्यास (रेडियस) से परिचित हो जाएगा। एयर इंडिया पर सवार होने पर एयर होस्टेस हिन्दी में हाल चाल पूछना शुरू कर देगी। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

इस सत्र के आगे का कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र संघ वाली बिल्डिंग में होने ही नहीं दिया गया। हिन्दी वालों के "हल्ला बोल" के नारे से घबराकर अधिकारियों ने आगे के कार्यक्रम को एफ़.आई.टी यानी ’फ़ैशन इन्सटीटयूट औफ़ टेकनालजी’ की इमारत में करवाने का निर्णय ले डाला। सुधिजनो के अनुसार सम्मेलन को दूसरी इमारत मे करवाने या यह निर्णय भी एक प्रकार से हिन्दी के ही पक्ष में ही था। उनके अनुसार हिन्दी को किस प्रकार से सजाया संवारा जाये और इस नई टैकनौलजी के ज़माने में हिन्दी के साथ चलने का सहूर सीखने के लिये ’फ़ैशन इन्सटीटयूट औफ़ टेकनालजी’ से अच्छी जगह नहीं हो सकती थी।

एफ़.आई.टी पहुँच कर सबसे पहले लन्च का आयोजन हुआ। जेट लैग से लिप्त प्रतिभागियों ने लन्च देख कर भाँति भाँति की प्रतिक्रियाएँ दीं। एक सज्जन बोले, "अभी तो हमारे रात के दो बजे हैं, इस समय कैसा लन्च"। उन्हें समझाया गया कि जब आपके लन्च का समय होगा तो यहाँ रात के बारह बजे होंगे अतः सोचिए मत खा लीजिए। दूसरे साहब खाते खाते भारत की याद कर के रोने लगे, जब उनसे पूछा गया कि, "क्या हो गया भाईसाहब?", तो वे बोले कि, "मुझे अपनी पत्नी की सूरत देखे बिना खाना खाने की आदत नहीं है और सरकार ने उनके टिकट की व्यवस्था नहीं की है।"  इस करुणामयी दृश्य को देखकर सारा वातावरण गंभीरता का आवरण अभी ओढ़ ही रहा था कि एक भद्रजन ने सम्मेलन के विरोधियों की बात छेड़ माहौल को चटपटा बना दिया। "इस बार उनको टिकट नहीं भेजा गया इस वजह से है विरोध, कोई वैचारिक विरोध थोड़े ही है, पिछले सातों सम्मेलनों में गए हैं।"

भोजन के बाद तीन दिनों तक चलने वाली प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। भद्दर उमस भरी गर्मी में दो सौ प्रतिभागी बाहर खड़े होकर मंत्री महोदय के आने की प्रतीक्षा करते रहे। कई श्रेष्ठ साहित्यकार भी सत्ता की इस अदा के मौन साक्षी रहे। प्रदर्शनी में अनेक चित्र लगाए गए जिनमें देश विदेश में होने वाले कवि सम्मेलनों तथा हिंदी से जुड़े आयोजनों के चित्र काफी पसंद किए गए। प्रदर्शनी में हिन्दी के दुर्लभ दस्तावेज देख कर ऐसा लगा मानो राज कपूर की कोई मधुर ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्म देख रहे हों।

इसके बाद समानांतर शैक्षिक सत्रों का दौर प्रारंभ हुआ, "देश-विदेश में हिंदी शिक्षणः समस्याएँ और समाधान" तथा "वैश्वीकरण, मीडिया और हिंदी" का आयोजन एक साथ अलग अलग सभागारों में हुआ।  "विदेशों में हिंदी शिक्षण समस्याएँ और समाधान" विषय पर बोलते हुए एक श्रोता ने कहा कि,  "इसमें सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि कोई सरऊ विदेश में हिंदी पढ़ना ही नहीं चाहता है। वैसे तो देशऔ में नहीं पढ़ना चाहता है पर अभी बात विदेश की हो रही है अतः उसी पर केन्द्रित रहेंगे। इसका समाधान यह है कि हमें सभी देशों के आगे यह शर्त रखनी चाहिए कि यदि आप भारत से व्यापार करना चाहते हैं तो अपने देश में लोगों को हिंदी पढ़ने के लिए प्रेरित कीजिए, बल्कि हो सके तो कानून पास कर दीजिए। (भई हम अपने देश में कानून पास नहीं कर पाए तो क्या, विदेश वाले ही कुछ कर के दिखाएँ, शायद उनकी  देखादेखी ही हम कुछ कर पाएँ क्यों कि भई हम तो उन्हीं के उपासक हैं।

दूसरी समस्या यह है कि यदि कोई पढ़ना चाहे तो उसे पढ़ाने के लिए उपयुक्त शिक्षक नही हैं। अभी एक स्टैंडर्ड सरकारी तौर पर आगे नहीं आया है। जिसका जो मन करता है वो वैसे पढ़ा रहा है।" "वैश्वीकरण, मीडिया और हिंदी"  पर भी दिग्गजों ने अपने विचार रखे। एक महाभट विद्वान ने कहा कि जैसे जैसे हमारी जनसंख्या बढ़ रही है वैसे वैसे हिंदी भाषी भी बढ़ रहे हैं। भाषा का विकास हो न हो विस्तार तो हो ही रहा है।

देश विदेश के लगभग २१‍ कवियों तथा लेखकों की पुस्तकों के विमोचन का कार्यक्रम तो और भी शानदार रहा। मंत्री महोदय ने बड़े आनंदपूर्वक मुस्कुराते हुए एक एक कवि की पुस्तक का विमोचन धैर्यपूर्वक किया, यद्यपि उनको अगले कार्यक्रम में जाने की जल्दी थी। एक लेखक जिनकी पुस्तक का विमोचन हुआ उन्होंने कहा कि, "लोकार्पण इस अंदाज में हुआ है कि मानो अब सारी पुस्तकों को नोबेल की दौड़ में शामिल किया जा रहा हो।"
 

दिन के अंत में कवि सम्मेलन का आयोजन भी किया गया, जिसमें देश विदेश के अनेक कवियों ने भाग लिया। श्रोता आधे सोते हुए पाए गए, कुछ खर्राटे भी ले रहे थे। पर कवि इससे बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए तथा अपने मोर्चे पर डटे रहे। कवि सम्मेलन का पूरा "आनंद" मंत्री महोदय ने लिया। और इस तरह पहला दिन समाप्त हुआ कि जैसे अंग्रेज़ी के दिन बहुरे वैसे हिंदी के दिन भी बहुरें।

ज़रा हौले हौले चलो- मगर बस छूट न जाए