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`चल नाच ना! तुझे भी तो सीखना है नाचना। हाथ-पैर साफ़ कर ले हमारे सामने नाचकर।' घर की सभा रोज़ नरसू इसी लालच में जमाता कि बहन से कम से कम कमर मटकाना तो सीख सके। माँ सोच में पड़ जाती `जब यह पैदा हुआ था तो जो दाई इसके प्रसव में आई थी वह कुछ कर तो नहीं गई? मेरा इतना सुन्दर लड़का... क्या व्यापार कर पैसा नहीं कमायेगा? मेरी इतनी सम्पत्ति की देखभाल नहीं करेगा?' उनकी आँखों के सामने ढेरों प्रश्नचिन्ह मँडराने लगते। मंगलोर में जब रात को यक्षगान होता चेंडा की आवाज़ नरसू के घर तक सुनाई पड़ती नगाड़ों की तेज़ आवाज़ इस बात की द्योतक होती कि यक्षगान शुरु होने वाला है।

बच्चे अपनी-अपनी शीतल पाटी दबाकर उस जगह इकट्ठा होने लगते जहाँ से आवाज़ आ रही होती। बड़े-बुजुर्ग औरतें सभी यक्षगान देखने लालायित रहते और वे भी नगाड़े की आवाज़ से इकट्ठे होने लगते।

बनारस की रामलीला, वृन्दावन की रासलीला की तरह ही दक्षिण भारत में भी अलग-अलग तरह के सांस्कृतिक खेल-तमाशे होते रहते हैं। सभी तरह की लीलाओं में पात्र एक जैसे ही होते हैं। पार्श्व संगीत, मंच की सजावट, पात्रों की वेशभूषा, संवाद, गायन, अभिनय सबकी सहायता से पात्र अतीत की उन किंवदन्तियों को जीवन्त बनाने का खेल करते हैं जिन्हें दर्शक मंत्रमुग्ध होकर देखते सुनते हैं। देर शाम को मनोरंजन और ज्ञान की दृष्टि से रामायण और महाभारत की कहानियों के छोटे-छोटे हिस्से पात्रों द्वारा अभिनीत किए जाते हैं। उसी तरह मंगलोर शहर में वर्षो से यक्षगान होता है। मनोरंजन का यह तरीक़ा पारम्परिक है, बहुत पुराना भी। दशहरे के महीना भर पहले यक्षगान, रामलीला शुरू होती है। खेल का ताना बाना इस तरह बुना जाता है कि समय पर कहानी ख़त्म हो जाए। वह समय महीना भर या दस दिन कुछ भी हो सकता है। एक ही शहर में एक ही समय दो-तीन जगह भी ऐसे आयोजन हो सकते हैं। दृश्य में पार्श्व गायन के सहारे, कथा को आगे बढ़ाते हुए, समय पर पूरा करते हैं। इस आयोजन में कथा धारावाहिक चलती है। जिस तरह मसाला फ़िल्मों में जनता के मनोरंजन के लिए नाच-गाना, अभिनय, युद्ध, ट्न्ेजडी, कॉमेडी सब कुछ होता है उसी तरह इसमें भी सब कुछ होता है, लेकिन तरीक़ा शालीन। कुछ भी अश्लील नहीं। बल्कि भक्ति और आध्यात्मिक ऋचाओं के साथ होने वाली रामलीला, रासलीला, यक्षगान वातावरण को पवित्र, भक्तिमय बनाते चलते हैं। नाटक के पात्र राम-सीता असल में भगवान राम-सीता-से लगते हैं। उनके पैर छूने, आरती उतारने जनता अधीर हो उठती है।

दक्षिण में यक्षगान के पात्र अपने जीवन्त अभिनय से जनता को मंत्रमुग्ध करते रहते हैं। उनके पात्रों का कलेवर यथार्थ से अलग एक ऐसा संसार रचता है कि बच्चे तो बच्चे बड़े भी उन कथाओं में जीकर थोड़े समय के लिए ही सही अपने दु:ख-निराशाएँ भूल जाते हैं। पार्श्व में संगीत के साथ महाभारत-रामायण की कथाओं को गाते हुए पात्र जीवित आँखों में साकार हो उठते हैं। चरित्रों का जोर-जोर से संवाद बोलना दूर तक सुनाई पड़ता है। वही दृश्य, वही ध्वनियाँ नरसू के मन-मस्तिष्क में बचपन से ही अंकित होती रहीं।

उन पात्रों में नरसू के अन्दर की बेचैनी हमेशा पात्र बनकर जीती रही। उसे लगता कि कभी वह राम है तो कभी हनुमान। कभी-कभी ख़ुद को सीता भी सोच लेता और कभी सीता की सखी जो अक्सर मंच पर गाने-नाचने का अभिनय कर सीता का दिल बहलाती। वह उन गानों पर ख़ुद को नाच का अभ्यास करते हुए देखता। कल्पना से बाहर आकर वह बच्चा ख़ुद को दोस्तों के बीच पाता। स्वप्न के टूटने जैसी अनुभूति के साथ वह यह सब करने को बेचैन हो उठता। यही अन्दरूनी बेचैनी थी जो नरसू के मन में बचपन से ही देखे-सुने यक्षगान की अनुगूँज संचित करती रही। उस समय नरसू कहाँ समझ पाया था
अपनी बेचैनी। उस उम्र में समझ भी कहाँ होती है? पाँच वर्ष की उम्र से ही यक्षगान उस पर छा गए। फिर वह क्यों नहीं उसका एक पात्र बन सकता? वह अपने घर परिवार में पात्र बनकर नाचता गाता तो रहा, लेकिन वह उसके आगे और बहुत आगे की अनुगूँज भी सुनता। दूर से आती अनुगूँज केवल उसे सुनाई पड़ती। उसे समुद्र की लहरों से उठने वाली हवाओं में केवल वही अनुगूँज सुनाई देती... बार-बार उसे पुकारती हुई...

समुद्र के किनारे खेलते समय नरसू तेजी से रेत में गड्ढे खोदने लगता। अनुगूँज उसकी देह में होती। वह जो भी काम करता उसमें यक्षगान की अंतध्वनि होती रहती। जैसे रेलगाड़ी में बैठे बच्चे को पटरी पर चलती रेलगाड़ी की लय में अपने गीत, अपने शब्द, अपनी ध्वनियाँ ही सुनाई पड़ती हैं और कितना भी वह उन आवाज़ों से पीछा छुड़ाने सिर इधर-उधर करे वे आवाज़ें पीछा नहीं छोड़तीं।

उसकी दौड़ उन्हीं नदियों के किनारे से शुरू होती है... कितनी जगहें बदलने के बाद नरसू के जीवन में नर्मदा उत्साह बनकर आई और अपने किनारे बसे नगर में बस जाने को... भागती हुई यात्रा को थोड़ा विराम देने कह गई। इसी कारण तो नरसू जबलपुर में अपने जीवन का सबसे अमूल्य समय बिता सका। रह पाया उस नदी के किनारे क्योंकि समय, असमय, ख़ुशी, अवसाद सब क्षणों जब वह रेलगाड़ी से उतरता है तभी आवाज़ें भी...। का उत्तर उसे मेकलसुता से ही मिला।

लेकिन नरसू यक्षगान की गाड़ी पर सवार हो चुका था। वह यक्षगान रात में देखता और उसे दिन भर उसकी ढेरों कथाएँ, उनके चरित्र अपने नये-नये परिवेश में दिखाई पड़ते रहते। उसे लगता वह गुलाबों के बाग़ में घूम रहा है। वह बच्चा बगीचे के सीमित गुलाबों की गन्ध में अन्दर से कहीं तड़प महसूस करता। मंगलोर में देखे यक्षगान उस समय उसके मन को चैन नहीं दे पा रहे थे। वह हर समय किसी चीज़ की तलाश में रहता... खेलते-खेलते अचानक उसकी रेत भरी मुटि्ठयाँ रुक जातीं...। रामकृष्ण पूछता, `नरसू, ये क्या कर रहे हो तुम ?'

`कुछ नहीं, यक्षगान में हनुमान की मुटि्ठयाँ क्या इसी तरह नहीं बँधी थीं ?'
बोलने के साथ ही नरसू के मन की मुटि्ठयाँ किसी दृढ़ निश्चय से अन्दर ही अन्दर और कड़ी बँधती जातीं। वह कथा के कथानक में नहीं उसकी अनुगूँज में तैर रहा होता। पूरे का पूरा समुद्र और उसका सारा जल भी उसे तृप्ति नहीं दे पा रहा था...

उसके घर के तीन ओर पानी ही पानी... दक्षिण और उत्तर की ओर से तीन मील समुद्र तट। घर और समुद्र के बीच पूर्व से निकली मीठे पानी वाली नेत्रावती नदी... जिसमें तैरना नरसू को नृत्य में उड़ने का आभास देता... और फिर पश्चिम से उत्तर की ओर जा रही गुरुपुर नदी... उसमें डुबकी लगाना, दौड़-भागकर दोस्तों के साथ नहाना, छुआछुऔव्वल खेलना... पृथ्वी पर ख़ुद नृत्य की बाँहें फैलाए थिरकने की अभिव्यक्ति लगती। नेत्रावती नदी के साथ-साथ गुरुपुर नदी का बहना उसे ख़ुद का नाचते-नाचते भागना लगता। दोनों भागती-भागती अरब की खाड़ी में मिल जातीं। और नरसू अपने समुद्र की खोज में व्याकुल हो उठता।

शहर से तेरह मील दूर बना भेड़ाघाट औरों के लिए दर्शनीय स्थल होगा... लेकिन नरसू के लिए शुरुआती दिनों से ही एक दोस्त की तरह मज़बूत स्तम्भ बना रहा। गिरते-उछलते पानी की चमकती बूँदें और बन्दरकूदनी की नाव यात्रा सब समय-समय पर उसे जीवन के पाठ पढ़ाते रहे।
नृत्यांगना की तरह बल खाती नर्मदा नरसू में एक नर्तक बुनती रही। नर्मदा के हर मौसम के रूप नरसू में ऋतुओं की रचना करते रहे। ये ऋतुएँ उसके चपल चरण अभिनय और मुख मुद्राओं में निरन्तर मुखरित होती रहीं।

वह जब भी दिन के समय भेड़ाघाट आता थोड़ी देर के लिए गाँव वालों के बीच ज़रूर जाता। नरसू का भेड़ाघाट गाँव के लोगों से छुट्टी के दिनों में मिलना प्रिय शगल बन गया। गाँव वाले शुरू-शुरू में उसे अजीब निगाहों से देखते थे इसका कारण उसकी वेशभूषा और आकर्षक सुन्दर शरीर, अटपटी हिन्दी, बीच-बीच में अंग्रेजी का प्रयोग, लेकिन नरसू की मनुष्यता, उसका सहानुभूतिपूर्ण रवैया और दु:ख-सुख में मदद करने की प्रवृत्ति ने आख़िर उसे उनके बीच स्थापित कर ही दिया। भोले-भाले गाँव वाले धीरे-धीरे नरसू को जानने-पहचानने लगे। बीचबीच में उसे अपने उत्सवों में बुलाने भी लगे। नरसू उनकी मदद करता था, उनके दु:ख-सुख में शामिल होता था तो नरसू को आत्मिक संतोष मिलता था। थोड़ी देर के लिए
ही सही उसकी बेचैनी कहीं दूर भाग जाती थी। कई परिवारों से तो उसे अपनों जैसा प्रेम भी मिलता था।

जब भी भेड़ाघाट में फ़िल्म वाले शूटिंग के लिए आते, गाँव वाले नरसू को बताते। नरसू के बारे में उनको बताते। हफ्तों चर्चा होती रहती हीरो-हीरोइनों को लेकर... अच्छी-बुरी सब तरह की। नरसू चर्चा में कभी शामिल नहीं होता केवल जनमानस का अध्ययन करता जैसे कोई शोध-छात्र अपने विषय की गहराई जानने चारों तरफ़ से घेराबन्दी करके बैठा हो। मासूम गाँव वालों के चेहरे पर उत्साह, उन्हें देख पाने की उपलब्धि और फिर उन्हें छले जाने का भाव भी होता। उन शुरुआती दिनों में जब वह जबलपुर में भविष्य के जीवन से जूझ रहा था तब इस समय शहर और गाँव वालों के प्रेम के बीच समय बिताना नरसू को राहत देता था। उसे समय मिलता था कुछ सोचने का। कुछ नया करने का। भेड़ाघाट जाना और गाँव वालों के साथ समय बिताना नरसू के जीवन की एक्स्ट्न करिकुलर एक्टीविटी बनती चली गई। अपने जीवन की इस प्रयोगशाला को नरसू ने शहर के सब लोगों से छुपाकर रखा था। एक और चीज़ भी नरसू ने सबसे छुपाकर रखी थी। वह थी उसकी रोज़मर्रा की लिखी हुई डायरी। राव साहब की अभिन्नता भी नरसू के इन दोनों कोनों को कभी नहीं छू पाई।

नरसू ने `डायरी' का महत्त्व जाने बिना केवल अपनी याददाश्त के लिए डायरी जैसा ही कुछ स्कूल की एक कॉपी में लिखना शुरू किया था और वहीं से उसकी लिखने की आदत पड़ती चली गई। लिखने के साथ कई बार उसे शब्द नहीं मिलते। तुलु और थोड़ी अंग्रेजी जानने के बावजूद शब्दों की कमी ने उससे चित्र बनवाना शुरू करवा दिया। उसकी अनुभूति ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए माध्यम ढूँढ़ना प्राइमरी स्कूल से ही शुरू कर दिया था। उसे यह चिंता तो थी ही नहीं कि कोई इसे देख भी सकता है। वह बच्चा अपनी समझ के अनुसार चित्र बनाता या लिखता रहा। यह क्रम अब तक कभी टूटा छूटा नहीं। उसे यह फ़िक्र भी कभी नहीं रही कि पहले लिखा गया है या घटना घटी है। क्रमविहीन डायरियाँ जो कि असल में लाइन वाली कॉपियाँ ही होतीं उसके पास संपत्ति की तरह इकट्ठी होती रहीं। वह ख़ुद ही लिखता चित्रित करता है और ख़ुद ही समझ लेता है। कई बार ऐसा ज़रूर हुआ है कि अपना लिखा वह बाँच नहीं पाया। उम्र बढ़ने और समझ बढ़ने को ही इसका कारण समझता रहा। अंगुलियों के लिए लाइन और ऊपर गोला बनाकर उसने अपने को उस समय अभिव्यक्त कर लिया था। याद रखने के लिए उसके पास उसकी कोड भाषा में उसकी डायरियाँ तैयार होती रहीं। इस लिखने का, चित्रित करने का एक फ़ायदा उसे और मिला। वह संक्षेप में अपनी बात कहने में माहिर होता चला गया।

स्कूल की कॉपी जाँचने के लिए मास्टरजी के पास जब पहली बार गई, मास्टरजी ने कॉपी जाँची; उन्हें शायद पीछे का पन्ना भी दिख गया तभी तो नरसू को कक्षा में खड़ा कर पहले वे मुस्कराए फिर बोले `चित्र तो अच्छा बनाते हो... लगे रहो।'

कक्षा ने और किसी चित्र की ही बात समझी और मास्टरजी को...। नरसू पहले तो डर गया। फिर कॉपी में पिछले पन्ने देखने के बाद उसमें लिखा `गुड' देखकर मास्टरजी का अर्थ समझा। ख़ुश होकर चिल्ला पड़ा, `बच गया मैं!' अब वह सोचता है कि मास्टरजी ने पिछला पन्ना क्यों देखा होगा। शायद वे सोच रहे होंगे कि कॉपी के पहले पन्ने में बच्चे का नाम, पता मतलब उसका पिता से मिला परिचय लिखा रहता है, लेकिन पीछे का पन्ना देखने से बच्चे का परिचय मिल जायेगा। यही सोचकर सब बच्चों की कॉपी का पिछला पन्ना देखते होंगे। तभी तो खाली पन्नों की कॉपियों के बीच नरसू की इकलौती कॉपी उन्हें कुछ कहती लगी। नरसू के जीवन की यह बिल्कुल शुरूशुरू की बात है जब वह भाषा अच्छी तरह लिखना नहीं जानता था और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के लिए तरह-तरह के प्रयोग करता रहता था। चील बिलऊआ जैसे उसके चित्र जो केवल उसे उस समय समझ में आते थे आज उसे अपनी आत्मकथा का अंश लगते हैं। यह सिलसिला आज तक भी जारी है। भले ही कॉपियों का रूप बदलता गया। शब्द बढ़ते गए। चित्र कम होते गए, लेकिन नहीं बदली है सच्ची आत्मकथा।

उसकी बन्दरकूदनी की यात्रा में संगमरमर के तरह-तरह के बदलते, बिखरते, चमकते रंग... सूर्य के प्रकाश और चन्द्रमा की रोशनी में अठखेलियाँ करते। ये रंग जीवन में प्रकाश का संयोजन अनजाने ही उसे सिखाते चले गए। नाव में बैठे नरसू को पतवार के ढकेले जाते पानी की कलकल, चप्पू की आवाज़ और चारों तरफ़ से पहाड़नुमा चट्टानों से घिरी जगह की अंतर्ध्वनियों से एक अद्भुत सिम्फनी के साथ एकाकार होने का अनुभव हुआ। वहीं से उसने चुप्पी की नीरवता में अपने मन को सुनना भी सीखा। मल्लाह की बीच-बीच में की गई रोचक बातों से जीवन को समझना सीखा। जब मल्लाह कहता...

`आप लोग साइड से देखो मार्बल व्यू। यहीं से होती है गाइड की कमेंट्नी शुरू।'

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२१ फरवरी २०११

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