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उपन्यास अंश

भारत से प्रदीप सौरभ के उपन्यास देश भीतर देश का रेत का
एक अंश- मुखौटे और सवाल।


वह है, था, रहेगा, उसकी जिंदगी के तीन चेहरे ही मैं देख पाया। वैसे लगता है कि उसके हर चेहरे पर कई-कई मुखौटे मौजूद हैं। उसकी जीवन यात्रा तो पचास साल पहले शुरू हुई थी। मैंने उसे उसकी युवा अवस्था में देखा था। लगभग तीन दशकों की उसकी यात्रा का मैं साक्षी रहा हूँ। इस दौरान उसने मुखौटे पर मुखौटे चढाए। सवाल है कि आखिर एक इंसान के चेहरे पर कितने मुखौटे होते हैं? और इंसान इन्हें लगाने के लिए क्यों मजबूर हो जाता है?
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नई दिल्ली रेलवे स्टेशन। प्लैटफार्म नम्बर पर सात पर खास तरह के यात्री थे। अपनी शक्ल सूरत और वेशभूषा के चलते वे सबका ध्यान खींच रहे थे। इसी प्लैटफार्म पर गुवाहाटी की ओर जाने वाली ब्रम्हपुत्र एक्सप्रेस खड़ी थी। यात्री अपनी बोली-भाषा में बतिया रहे थे। आसपास खडे यात्रियों को उनकी बातचीत समझ नहीं आ रही थी। कुछ चुहलबाज उन्हें चिंकी बता रहे थे, कुछ नेपाली, कुछ बर्मी, तो कुछ मंगोलियन। अपनी अज्ञानता के साथ आसपास खड़े ये यात्री उनकी पहचान तय करने में लगे थे।
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सिगनल का इंतजार था।
स्टेशन की चिल्ल-पो जारी थी। धक्का-मुक्का। बच्चों को संभालते लोग। दुप्पटा गिराती-संभालती लड़कियाँ। चाय-समोसे बेचते वेंडर्स। ताली-चाभी और गुटका से लेकर न जाने क्या-क्या‍। किताबों के स्टाल पर सन्नाटा। वैसे भी इस देश के लोग पढने के बजाय समोसा और चाकलेट खाना और खिलाना ज्यायदा पसंद करते हैं।

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