लंच
की छुट्टी में कृष्णन उसे दफ्तर के बाहर ही मिल गया था।
मीरा को दफ्तर के स्कर्ट–जैकेट के पहनावे में देखकर हँसा।
"मैं तो तुम्हें पहचानता ही नहीं अगर तुम्हीं मुझसे आकर
हलो न कहतीं।"
"मुझे मालूम था... क्या बहुत अजीब लगती हूँ?"
"नहीं, अच्छी लग रही हो... पर कुछ और लग रही हो – मीरा
नहीं।"
फिर कुछ पल बाद कहा, "मीरा, एक बात मेरी समझ में नहीं
आई... नृत्य–प्रदर्शन के लिए तो तुम्हें फुरसत नहीं मिली
थी... अब दिनभर कैसे बहनजी को अकेला छोड़ बाहर रहती हो?"
दफ्तर के बाहर खुली धूप में आकर उसका मन वैसे ही खिला हुआ
था। कृष्णन की ओर तिरछी चितवन से देखती हुई बोली, "ये काम
है... प्रोडक्टीविटी... इससे कमाई होती है... सो इसका रुआब
सब मानते हैं... न केवल दिनभर बहनजी को छोड़ती ही हूँ बल्कि
जब घर लौटती हूँ तो वे चाय तैयार करके खड़ी होती हैं कि थकी
काम से आई हूँ... कभी–कभी खाना भी पकाकर रखती हैं... नाच
बेचारा तो किसी के शौक का मारा है... भूखा... नंगा... कौन
कब तक पालेगा उसे!...
कृष्णन उसके अंतिम वाक्यों से एकदम हक्का–बक्का रह गया था।
"यह तुम कह रही हो, मीरा!... तुमको हो क्या गया है?
"कुछ नहीं हुआ... सिर्फ प्रैक्टिकल हो रही हूँ... इसे कहते
हैं प्रैग्मैटिक अप्रोच... इस देश में यही जीने का सही ढँग
है।
"डोंट किल यूअरसेल्फ, मीरा!... तो तुम्हारे लिए इतना
महत्वपूर्ण है... इतना अहम है, उसे तुम यों ही किसी
टूटे–फूटे खिलौने की तरह उठाकर फेंक तो नहीं सकतीं।"
"कृष्णन, जानते हो अब तक मैं हर गलत चीज की चाह करती रही
हूँ... फिर फ्रस्टे्रटेड और फालतू महसूस करने लगती हूँ...
शायद इसी लायक हूँ... बस यही कुछ कर सकती हूँ जिंदगी
में... एक आम किस्म की दफ्तर की नौकरी... पर दूसरों की
नजरों में तो अब मेरा वक्त सजाया। प्रोडक्टिव होगा... आई
विल बी यूजफुल... वर्ना ऐसे लगने लगा है कि न तो गृहिणी ही
बनी, न नर्तकी। जिंदगी में कुछ भी सही नहीं हुआ। कोई
निर्णय भी... "
"मीरा, तुम इतनी सेल्फपिटी क्यों कर रही हो?... इतनी जल्दी
आत्मविश्वास खो क्यों डालती हो... सुनो, तुमने जो भी
सही–गलत किया हो, मैं आज एक फैसला करना चाहता हूँ... और
तुम्हें आज मेरे साथ मिलकर यह फैसला करना होगा।"
मीरा उसकी निर्णयात्मक सधी हुई आवाज सुनकर चौंकी थी।
"सुन रही हो न, मीरा?"
"हूँ... कहते चलो!"
"मुझे एरिजोना में एक बहुत अच्छी पोजिशन ऑफर हुई है! मैं
सोच रहा हूँ वहाँ ज्वाइन कर ही लूँ... तुम चलोगी मेरे
साथ?"
"कृष्णन... आर यू मैड?"
"यस, आई एम मैड... एँड आई लव यू मैडली... यू आर गोइंग टू
बी माईन... तुम खुश नहीं हो यहाँ... वाई डोंट यू एक्सेप्ट
इट?... देखो ये क्लर्की छोड़ो... तुम नाचना... सिर्फ
नाचना... मैं करूँगा तुम्हारे लिए शो के इंतजाम। वह क्या
कहते हैं... हाँ, एजेंट बनूंगा तुम्हारा। तुम्हारे लिए
यूनिवर्सिटी की नौकरी की भी कोशिश करूँगा।"
कृष्णन इतने आवेश में यह सब कह रहा था कि राह चलते लोग उसे
घूरते हुए देखने लगे थे। मीरा सहसा अपने आसपास के प्रति
सजग हो उठी।
"सुनो, इस इमारत का यह बरामदा पब्लिक प्लेस है। चलो, कहीं
चलकर बैठें... कुछ खिलाओगे नहीं?... मुझे तो भूख लगी है।"
"मीरा, मेरी बातों को इस तरह मत उड़ाओ... आई एम सीरियस।"
मीरा अभी भी बड़े हल्के, खुले वसंती मौसम की मद्धम हवा की
तरह उड़ रही थी। बोली, "तो मिस्टर सीरियस! मैं भी आपको बता
दूं कि मैंने भी सारे पापड़ बेल लिए हैं... और फिर जरा ये
बताइए कि वहाँ रेगिस्तान में कौन देखने आएगा मेरा नाच!...
कैक्टस के आदमकद पेड़ या कि रेत के ढूह? और रही यूनिवर्सिटी
की बात तो जब न्यूयार्क जैसी जगह में दर्शन को कोई नहीं
पूछता तो एरिजोना के रेगिस्तान में कहाँ से खिलेंगे दर्शन
के फूल... !"
मीरा की बात सच थी और सच की ही तरह कड़वी। पर कृष्णन ने फिर
भी हिम्मत नहीं हारी, कहता रहा,
"बट आई वांट यू... आई वांट यू विद मी... मैं चाहता हूँ तुम
खुद को –– अपनी प्रतिभा को विकसित करो... मीरा, तुममें
किसी भी बड़े कलाकार की प्रतिभा है... तुम अपने आपको यों ही
रौंद नहीं सकती। तुम्हारा अपने प्रति – तुम्हारी नर्तकी के
प्रति भी तो एक दायित्व है... वाट आर यू डुइंग टु
युअरसेल्फ!"
मीरा को लगा उसका भीतर कोई झिंझोड़ रहा है... पर उसे सच में
बहुत भूख लगी थी। लंच का घंटा खत्म होने में सिर्फ पंद्रह
मिनट बचे थे। बोली, "यहाँ भूख के मारे दम निकला जा रहा है
और तुम्हें प्रतिभा की बातें सूझ रही हैं! चलो उस इटैलियन
जगह पर... वहाँ से पीत्ज़ा का स्लाईस लेकर मैं तो दफ्तर
लौटती हूँ, तुम्हें फिर जो भी करना है करो।"
"मुझे पांच बजे की फ्लाइट से वापस जाना है।"
"एरिजोना कब जाने का है?"
"अगले महीने।"
"जाओगे?"
"तुम पर निर्भर करता है।"
"अपनी प्लैनिंग में मुझे न ही शामिल करो तो भला है।"
"क्यों? ऐसा मत कहो।"
"क्या इतनी एडलट्री ही काफी नहीं है! अब तलाक भी करवाओगे!"
"पर तुम वहाँ खुश नहीं हो, मीरा।"
"तो मेरे सेवियर बनने का बूता तुमने लिया है... क्यों,
बहुत कमजोर दीखती हूँ... खुद को आँधी–पानी से बचा नहीं
सकती?... नहीं कृष्णन, जो तुम हो वही बने रहो। मेरी जिंदगी
में ताजगी भरा एक हवा का झोंका। अपने आँधी–तूफानों को मैं
खुद रोक लूँगी।"
मीरा को मालूम था... कृष्णन ने उसे प्यार किया है और समूचा
– उसकी हर बात, हर अदा, हर इच्छा और हर अंदाज को। जब पहली
बार उसके घर पर आया था तो जिस तरह उसने उसके घर की सजावट
की भी तारीफों के पुल बांध दिए थे... कि मीरा को लगा वह सच
में इंटीरियर डेकोरेशन की भी कोई छोटी–मोटी कलाकार है...
उसके लिविंग रूम के इंडियन ट्राइबल आर्ट के नमूने देखकर
बोला था – कितना नयापन है तुम्हारी सजावट में!... ज्यादातर
भारतीय या तो भारतीय मूर्ति और चित्र कला के नमूने सजाते
हैं या उनमें यूरोपीय कलाकृतियों को मिलाकर घचपच मचा देते
हैं, पर उसने ट्राइबल कलाकृतियों की ऐसी मोहक सजावट कहीं
देखी थी।
हालवे की दीवारों पर सजे थे रागमाला के मिनिएचर चित्र...
पहाड़ पर संदल के वृक्ष और सर्पों से घिरी विरह–विदग्ध
नायिका दिखाती हुई आसावरी रागिनी, अपने प्रिय की प्रतीक्षा
में वन में मोर और कोयल के बीच बैठी नायिका कामोद रागिनी
के चित्र में या आईने में चेहरे का शृंगार करती हुई
प्रिय–मिलन को आकुल विलावल रागिनी और बरसात में झूले पर
बैठे नायक–नायिका, बगुलों की कतार और चमकती बिजली वाला राग
हिंडोल।
विरह से मिलन तक के राग–रागिनियों के मोहक रंगों वाले
चित्रों को निहारता कृष्णन अचानक प्रशंसात्मक भाव से बोल
उठा था,
"अब समझ में आया... इन नायिकाओं की मोहक भंगिमाओं को ही
तुमने अपने नृत्य में उतारा है... तुम्हारा वह विरह का
पद्म आसावरी रागिनी की विरहिणी की भाव मुद्रा को नहीं
रुपाता? और यह सोलह शृंगार करती विलावल की नायिका... मुझे
याद है ठीक ऐसी ही मुद्र में एक हाथ को आईना बनाकर दूसरे
से तुम शृंगार करती हो।"
मीरा मुग्ध–सी मुस्कराई, फिर बोली, "चलो, तुम्हें कुछ और
दिखाती हूँ।"
मीरा उसे अपने मुख्य शयन–कक्ष में ले गई थी – बहुत ही
सुरुचि और अनुपात से सजा हुआ कमरा... तस्वीरों से भी कहीं
ज्यादा कलात्मक। फर्नीचर सिर्फ जरूरत भर का... कहीं भी कोई
जमघट नहीं... कोने में ताड़ का एक बड़ा–सा पौधा... दीवार का
एक पूरा हिस्सा लगभग छत तक किताबों के शेल्फ से अंटा था,
एक दूसरे खाली हिस्से में मीरा की ही विभिन्न
नृत्य–मुद्राओं में फ्रेम में जड़ी तस्वीरें थीं...
खिड़कियों से खूब धूप कमरे में रोशनी भर रही थी... कृष्णन
देर तक मीरा का एक बड़े कोलाज में लगी तस्वीरें देखता रहा।
मीरा थोड़ा सकपकाई।
"यह विजय की जिद थी... वर्ना अपनी तस्वीरें... "
पर कृष्णन ने कुछ सुना नहीं। कुछ क्षण बाद उसकी ओर मुड़ा और
उसे बाहों के घेरे में लेते हुए बोला,
"यू आर ब्यूटीफुल, मीरा!... सिंपली ब्यूटीफुल... तुम्हारे
जिस्म की हर हरकत में एक लय है– हर भंगिमा में एक कविता...
द मोस्ट अकंपलिश्ड वूमन आई हैव एवर मैट।
मीरा ने धीरे से कृष्णन को अपने से अलग कर दिया था। कृष्णन
के चेहरे पर हैरानी देखकर बोल पड़ी, "रिश्तों की एक
सैंक्टिटी होती है, कृष्णन!... यह कमरा सिर्फ मैं और मेरे
पति का है... यहाँ तुम मुझे छुओगे भी नहीं।"
कृष्णन को मीरा का व्यवहार बड़ा बेतुका और अजीब लगा था।
"यह तुम एकदम ऐसे बदल कैसे सकती हो... आखिर मैं वही कृष्णन
हूँ... अचानक इस तरह पराया–सा कैसे हो गया?"
"बुरा नहीं मानो... ये मेरे मध्यवर्गीय संस्कार होंगे...
मुक्त होने की कोशिश करती हूँ... मुक्त हो भी जाती हूँ...
पर कहीं–कहीं फूट ही निकलते हैं।"
तब कृष्णन ने पूछा था, "विजय मेरे बारे में कुछ जानता है?"
"जैसे विजय तुम्हारे लिए एक नाम और टेलीफोन पर सुनी हुई
आवाज है, वैसे ही तुम उसके लिए हो। विजय तुम्हारे लिए मेरा
पति है और तुम विजय के लिए मेरे दोस्त। इससे ज्यादा जानने
का हक न तुम्हें है, न उसको – क्योंकि वह मेरा व्यक्तिगत
दायरा है।... कृष्णन, कोई भी रिश्ता किसी को संपूर्ण नहीं
बना पाता। उसकी हस्ती जिगसों पजल के अधूरे हिस्सों की–सी
होती है जो तस्वीर का सिर्फ एक हिस्सा ही मुकम्मल कर पाते
हैं। पूरी तस्वीर तो पता नहीं कभी बनती भी है या नहीं...
पर उसकी खोज तो... "
मीरा अचानक चुप हो गई थी। वह सोच रही थी कि पति का रिश्ता
भी कहाँ संपूर्ण होता है... फिर पति सब कुछ क्यों हो? उसके
मन के हर खाने में झांकने का हक उसे क्यों हो? मीरा ने तो
विजय का हर खाना देखा नहीं, तब पत्नी के हर रिश्ते को
जानने का अधिकार उसे क्योंकर हो?"
कृष्णन ने माहौल को हल्का करने के लिए अपनी वही मोहक–सी
मुस्कान चेहरे पर लाकर कहा, "चलो, लिविंग रूम में बैठते
हैं।"
कृष्णन की यह मुस्कान पहले दिन से ही मीरा को बहुत भाती
थी। वह जब मुस्कराता तो नाक की पेशी में इस तरह हल्की–सी
सलवट पड़ती कि वह किसी नुकीली चीज की तरह सीधे दिल में जाकर
गड़ती थी और फिर एकदम फैल जाती थी भीतर जाकर। मीरा ने सिर
से पांव तक कृष्णन को एक बार फिर से अपनी आँखों में भरा...
लंबा छः फुटा, छरहरा कमान–सा खिंचा हुआ बदन... सांवले
चेहरे पर नमकीन–सा आकर्षण... कृष्णन को हैंडसम नहीं कह
सकते थे पर उसके चेहरे से एक तरह का मेधा का ताप...
बौद्धिकता की गरिमा टपकती थी... उसमें एक अपनी ही सादगी और
भोलापन था जो मेधा और प्रतिभा से मंडित होकर उसे आकर्षक
बनाता था... विजय का व्यक्तित्व बहुत अलग था कृष्णन से।
विजय के पंजाबी गोरे कॉम्पलेक्शन, भूरे बाल और भूरी आँखें
उसे हिंदुस्तानी संदर्भ में हैंडसम बनाते थे... फिर उसमें
पाश्चात्य सभ्यता का एक सोफिस्टिकेशन, एक रिफाइनमेंट या
आभिजात्यता थी... लेकिन आभिजात्यता तो कृष्णन में भी थी...
यों फर्क था उन दोनों के आभिजात्य में... कृष्णन का
आभिजात्य अंदर का था जो कला–संस्कृति में निष्णात होने से
फूटता है चाहे उसका पहनावा बड़ा सादा होता था... चेकदार या
हल्के रंगों की सादी कमीजें और वैसी ही बेज, ग्रे या नेवी
रंग की पतलूनें... न टाईं, न शेव... उसकी दाढ़ी यों हमेशा
सही शेप में होती। विजय का पहनावा एकदम फर्क था...
बिल्डिंग की वैले सर्विस से उसकी हर हफ्ते सफेद कमीजें
धुलकर, प्रेस होकर हैंगरों में टंगी–टंगाई आतीं और मीरा
उन्हें ज्यों का त्यों अलमारी में लटका देती... मैचिंग
सूट, टाई, क्लीन शेव, वाल स्ट्रीट के एग्जीक्यूटिव की जो
इमेज होती है उस पर एकदम फिट बैठता था विजय... पर विजय की
आभिजात्यता कहीं उधार की ली हुई थी... ऊपर से चिपकाई
हुई... उसकी अपनी संस्कृति से, अपने पारिवारिक माहौल से
उपजी नहीं थी... विजय में आकांक्षा थी... वह एक सफल
इमिग्रेंट था इसीलिए 'नूवो रिच' की तरह उसने भी हर ऊंची
क्लास की चीज़ों के साथ खुद को जोड़ा हुआ था – ऑपेरा देखना,
म्यूजियम जाना, बढ़िया रेस्तरां में खाना खाना, बढ़िया किस्म
की वाइन पीना और लेटेस्ट ड़िजाइन के कपड़े पहनना... ये सब
उसे उच्च–मध्यवर्गीय अमरीकी की बगल में बड़े आराम के साथ
बिठा देते थे –
परंतु सच में विजय कितना ऑपेरा, संगीत या कला को समझता था
इसका अंदाज मीरा को था... जबकि कृष्णन ने न केवल उसके
नृत्य को लेकर ही बड़े सूझ–बूझ के सुझाव मीरा को दिए थे
बल्कि ऑपेरा और पाश्चात्य संगीत में भी उसकी पैठ थी।
कृष्णन में उसे कहीं ऐसा साथी भी मिला था जो उसकी कला को,
जो कि मीरा का सब कुछ है, न सिर्फ समझता है, उसमें
दिलचस्पी लेता है, उसे प्रेरणा देता है।... पर शायद कृष्णन
की उसके लिए 'इंडिस्पेंसेबल' होते चले जाने की मूल वजह एक
और थी... और वह यह कि कृष्णन की जिंदगी के केंद्र में वह
खुद को देखती थी... कृष्णन जहाँ भी होता या जाता, हमेशा
मीरा की ही फिक्र थी उसे। कभी कहीं नृत्य के शो का इंतजाम
कर रहा है, कभी कहीं... उसने विजय की हर तरह हार नहीं मान
ली... लेकिन विजय की जिंदगी के केंद्र में विजय स्वयं है,
सट्टा बाजार है, उसकी अपनी उन्नति है... तब मीरा कैसे झटक
दे कृष्णन को। कृष्णन की जरूरत तो उसकी आत्मा की जरूरत बन
गई है... उसके फन की... उसकी हस्ती की जरूरत।
दूसरी बार मीरा तभी भारत लौट पाई थी जब उसे पापा की अचानक
एक दुर्घटना में मृत्यु का समाचार मिला था। एकदम से तो लौट
भी नहीं पाई थी – उसे खुद फ्लू था, बुखार १०४ डिग्री तक
पहुँच गया था। विजय ने उसे पहले बताया ही नहीं... कुछ ठीक
हुई तो बताया था। मीरा को बुखार दुबारा चढ़ गया था। माँ से
फोन पर ही बात हो सकी... मई का महीना था। डॉक्टर ने उसे
दिल्ली की गर्मी में जाने से रोक दिया था। ठीक होने पर
दफ्तर जाना था। कहीं दिसंबर में छुट्टी लेकर वह माँ से
मिलने जा पाई थी। ये पूरे छः महीने मीरा माँ के बारे में
ही सोचती रहती... अकेली माँ और वह उनसे मिलने भी नहीं जा
पा रही... कैसे सहा होगा माँ ने यह हादसा? फोन पर वे भरसक
नॉर्मल होने की कोशिश करतीं... पर मीरा उनकी आवाज के
बनावटी संयम को पकड़ ही लेती थी। उसे खुद को भी तो संयमित
करना पड़ता था।
इस बार हिंदुस्तान लौटने का उत्साह नहीं था। भीतर खौफ
उठता– माँ का सामना कैसे करेगी?... पापा के बगैर उस घर में
रहना कैसा लगेगा उसे?... माँ अकेले कैसे निभा रही होंगी
सब?... ओह, इतनी जल्दी बदल जाता है सब कुछ! यों देखते ही
देखते सब कुछ और ही हो जाता है। माँ का सूना चेहरा ध्यान
में आते ही मीरा को घबराहट और ख़ौफ से कंपकंपी–सी छूटने
लगती। बहुत मुश्किल से खुद पर काबू पाती। कभी उसके भीतर
तीखी चाह उठती कि माँ की छाती से लिपटकर जोर–जोर से रो ले
और माँ के स्पर्श के लिए उसका पूरा बदन छटपटा उठता।
हर बार हिंदुस्तान लौटने पर कितना अजीब–सा लगता है... जैसे
सब कुछ वहीं का वहीं ठहरा हो... और हर बार लगता है कि वक्त
ठहरता नहीं... इतना कुछ हो जाता है, पर शायद कुछ भी नहीं
होता।
पालम हवाई अड्डे पर अंदर सामान की पट्टी के पास ही माँ
पहुँची हुई थीं। साथ में कोई पुरुष भी, जो मीरा के लिए
अनजान था या शायद देखा हो। सिल्क की छोटी–छोटी बूटियों से
छपी गहरे रंगों की साड़ी में लिपटी माँ हमेशा की तरह शालीन,
ग्रेसफुल और आकर्षक लग रही थी। दौड़कर मीरा माँ से चिपक गई
थी। उसका मन भरा था, आँखों में पानी की बूँदें संभाल नहीं
पाई थी। पर माँ रोई नहीं – बड़े प्यार से मीरा की पीठ और
कंधे थपथपाती रही। फिर अपने से अलग कर उसका माथा चूम लिया
था और कहा था, "बहुत कमजोर हो गई है तू इस बार।" उसके बाद
माँ ने उसे उस पुरुष से परिचय कराते हुए कहा था, "इनसे
मिलो, मीरा! मिस्टर आनंद। ट्रांसपोर्ट मिनिस्ट्री में
जायंट सेक्रेटरी हैं... इन्हीं की वजह से मैं अंदर तक आ
सकी तुझे लेने।
उनकी वजह से ही कस्टम पर भी मीरा से किसी ने कुछ नहीं कहा
और आराम से निकल जाने दिया... पर उनकी उपस्थिति मीरा को
भली नहीं लग रही थी – उसे लगा वह माँ से खुलकर बात नहीं कर
पा रही है... पापा के बारे में वह बहुत कुछ पूछना–कहना
चाहती थी... पर एक औपचारिकता की हवा उसकी जबान पर बोझ डाले
हुए थी।
कार में रास्ते भर औपचारिक बातें ही होती रहीं... सबके
हाल–चाल, राजनैतिक हालात, ताजा खबरें... ।
घर पहुँचकर सामान उतारा गया तो माँ ने उस पुरुष को भीतर
चाय के लिए बुलाया।
मुन्ना उससे लिपटकर खूब रोई। मुन्ना बचपन से ही उसकी आया
थी और अभी तक माँ के पास ही काम कर रही थी। मीरा को उनका
चाय के लिए रुक जाना भी अच्छा नहीं लगा। वह उतनी देर
मुन्ना और बावर्ची दुल्हाराम से ही बातचीत हाँकती रही और
बैठक में नहीं गई।
वे सज्जन जाने वाले थे तो माँ ने मीरा को बुलाया, "मिस्टर
आनंद से नमस्कार तो कर दो, जा रहे हैं।" फिर उनकी ओर
मुख़ातिब होकर बोली, "आपके आने से बड़ा आसान हो गया वर्ना
एयरपोर्ट पर जाने की भी घबराहट थी... बहुत–बहुत शुक्रिया।"
मिस्टर आनंद गदगद होकर बोले, "लो, इसमें क्या बड़ी बात
है... जब हुक्म हो हाजिर हो जाएँगे... कोई फिक्र मत
कीजिएगा... जब जरूरत पड़े, फोन कर दीजिएगा। बिटिया को कहीं
घुमाना–फिराना हो या कोई काम... बता दीजिएगा मुझे... हाँ,
शर्म नहीं करना।"
अब माँ और मीरा बेडरूम में चले गए। इधर–उधर की बातें होती
रहीं... पर पापा की बात किसी ने नहीं छेड़ी।
फिर माँ ने कहा, "तुझे जेट लैग हो रहा होगा... अभी सो जा।
मैं भी तब तक कॉलेज हो आती हूँ। आज एक ही पीरियड पढ़ाना है।
एक इंडस्ट्रियालिस्ट हैं मिस्टर बजोरिया, शाम को उन्होंने
खाने पर बुलाया है... तब तक ताजी हो जाएगी।"
प्लेन में मीरा सो नहीं पाती... नींद की खुमारी तो चढ़ी ही
हुई थी। वह रजाई में लेट गई। घर के अंदर उसे ठंड–सी लगने
लग गई थी। |