और
फिर बीना ने बताया कि कैसे उसने मीरा के बारे में सारा पता
लगा लिया है। मीरा हैरान हुई थी।
"मुझे नहीं मालूम था वह तेरा कजन है। सच में बहुत अच्छा
लड़का है। बस मैं उसकी प्रेजेंस में बड़ा सिक्योर महसूस करती
हूँ। किसी लड़के की छेड़ने की हिम्मत नहीं होती।"
"वह भी कहता था कि यह लड़की चुपचाप खिड़की से बाहर देखती हुई
बैठी रहती है-किसी लड़के की ओर आंख उठाकर नहीं देखती।"
फिर इम्तहान ख़त्म हो गए ...गरमी की छुट्टियों के दौरान
बीना उसे कभी-कभी मिला करती थी। एक बार उसने कहा था।
"मीरा, मेरा कजन तो हर वक्त तेरी ही बात करता रहता है। वह
इस साल आई.ए.एस. का इम्तहान दे रहा है। कह रहा है कि तेरे
पेरेंटस से बात चलाएँ... तुझ से शादी करना चाहता है।"
मीरा के जिस्म में कितनी ही बिजलियाँ कौंध गईं थीं। उसे
लगने लगा था कि वह भी अजीत से प्यार करती है। वह हर वक्त
उसी के बारे में सोचती रहती थी। उसके रूमानी ख्वाबों में
अजीत का ही चेहरा उभरा करता था। .अकसर उसे अपने ब्याहे पति
के रूप में देखा करती ...एक अनजान–सा घर अजीत का इंतजार
करती शाम के धुँधलके में दरवाज़े पर खड़ी वह... पर तभी उसकी
वास्तविकता, उसकी आकांक्षाएँ उस पर हावी होने लगतीं, अभी
से कैसे शादी कर सकती है। नाच, पढ़ाई, सबका गला बीच में ही
घुट जाएगा और ममी-पापा भी क्योंकर मानने लगे, वे भी तो
चाहते हैं बेटी को पढ़ाना-सिखाना। पर वह खुद बीना से न नहीं
कर सकी थी। शायद ममी मान ही जाएँ तो मीरा कर भी सकती है
शादी, बीना कहती तो है कि अजीत ने कहा है कि शादी के बाद
वह जो भी करना चाहे करती रहे, वह रोकेगा नहीं, तब देखें तो
ममी चाहती क्या हैं? पर ममी ने तो एकदम न कर दी थी फिर
मीरा से पूछा भी था,
"मैं तो सोचती थी तू कैरियर बनाना चाहती है। क्या शादी
करने को मन कर आया तेरा?"
मीरा ने एकदम काटी थी बात, "नेवर! हरगिज नहीं! वह तो बीना
इतना फ़ोर्स कर रही थी तो मैंने कहा-तू खुद ही कर ले ममी से
बात।"
और ममी खिलखिलाकर हँस दी थीं। यह था मीरा का पहला प्यार,
जो अब कभी यादों में भी नहीं उभरता। एक रूपाकारहीन, हवा के
झोंकों पर तैरती हुई खुशबू, जो कुछ देर में अपने आप ही
उड़कर ग़ायब हो जाती है और जिसने उसके शरीर को सबसे पहले छुआ
था। उसके लिए कहीं कोई मीठी भावना नहीं थी इसलिए
प्रतिक्रिया विद्रोह और वितृष्णा की ही हुई थी। यों उतनी
छोटी नहीं थी, पंद्रह की तो जरूर रही होगी, माँ को उस दिन
कॉलेज में काम था। गुरु जी रिहर्सल करा रहे थे घर पर। कोई
मुद्रा सिखाते हुए अचानक उनका हाथ उसकी छाती पर ठहर गया
था। दबाव महसूस होते ही मीरा अलग छिटककर खड़ी हो गई थी।
गुरु जी ने ऐसे दिखाया जैसे कि कुछ हुआ ही न हो लेकिन जब
हरकत बार-बार दुहराई गई तो मीरा ने कह दिया था, "गुरु जी,
आप इस तरह करेंगे तो हम डांस नहीं सीख सकते"
पर गुरु जी ने अपना वही रुख़ रखा था।
"अरे बिटिया, क्या कर दिया हमने! कहीं ग़लती से हाथ लग गया
हो तो इसमें बुरा मानने की क्या बात है?"
मीरा अपनी जगह पर जमी रही थी, हिली नहीं थी। उसकी साँस
तेज–तेज चल रही थी। दिल की धड़कन वह अपने कानों में सुन रही
थी। तब गुरु जी ने जैसे मनाते हुए कहा था, "अरे बिटिया,
इतना बुरा लगा है तो हम ध्यान रखेंगे कि ग़लती से भी हमारा
हाथ कहीं इधर-उधर न लग जाए। अब मुद्रा सिखाने में एकाध बार
हाथ ग़लत जगह तो पड़ भी सकता है। इतना नाराज होने की क्या
बात है?"
क्लास ख़त्म होने के बाद गुरु जी ने उसे फिर से याद दिलाया
था, "देखो, कुछ भूल-चूक हुई हो तो माता जी से न कहना, वे
यों ही ग़लत–सलत ले लेंगी।"
मीरा ने माँ से कुछ कहा नहीं था, पर गुरु जी इस बारे में
काफ़ी सचेत-से हो गए थे और अकसर उसे छेड़ देते कि बिटिया तो
ग़लती से हाथ लगने से नाराज हो जाती है और इसके बाद वे सहज
हो जाते।
रेस्तराँ में घुसते ही सामने वाली मेज पर के. बी. को बैठा
देख अचंभित रह गई मीरा। अनायास उसी की तरफ़ बढ़ गए पैर।
"हैलो, के. बी.
के. बी. ने आँखें मिचमिचाईं जैसे कि कुछ अनहोना-सा देख रहा
हो।
"तुम यहाँ कहाँ, मीरा? ...मैंने तो सुना था तुम कहीं बाहर
हो।"
"हाँ, न्यूयार्क में हूँ। आजकल छुट्टी मना रही हूँ यहाँ।"
फिर एकदम खामोशी... मधु वेटर के साथ मेज लेने को आगे बढ़
चुकी थी। कुछ पल बाद कहीं गहरे से आवाज निकली थी, के. बी.
के भीतर जैसे कुछ उदासी गड़ी हुई हो।
"तो कैसी हो?"
"बढ़िया।"
चहकी थी मीरा, आदतन। पर उसे शायद यह जवाब नहीं देना चाहिए
थ। शायद के. बी. तो यही सुनकर खुश होता कि मीरा खुश नहीं
है। बढ़िया कह देने से फिर वही दीवार खड़ी हो गई थी दोनों के
बीच। दीवार तोड़ने की कोशिश करते हुए मीरा फिर चहकी, "तुम
कैसे हो?... इस बीच क्या कुछ करते रहे हो?"
के. बी. के चेहरे पर शिकन उभरती दीखी।
"क्या तुम सचमुच यह जानने में दिलचस्पी रखती हो कि मैं
कैसा हूँ?"
उसका चेहरा तंज था। मीरा रेस्तराँ के बीचोंबीच खड़ी किसी
लंबे संवाद में नहीं पड़ना चाहती थी। धीरे से बोली, "कैन वी
मीट?"
के. बी. उसे कुछ पल देखता रहा, फिर अपना कार्ड निकाल उसे
देते हुए बोला, "ये बंदे का नाम-पता है। अगर फुरसत हो तो
फ़ोन मिला लेना।"
और मीरा लगभग भागती-सी मधु के क़रीब आकर बैठ गई पर उसका मन
कहीं और भाग रहा था। पीछे, बहुत पीछे।
सालों का सिलसिला पार करके, उसके एम. ए. के यूनिवर्सिटी
वाले दिन, वहीं मिला था के. बी. खरे। वह फ़िलासफ़ी विभाग में
थी और के. बी. दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में। बहुत भाता
था के. बी. उसे। दोनों ने अपना क्लासों का शेडयूल इस तरह
रटा हुआ था कि जो भी पीरियड खाली होता, एक दूसरे के साथ
बिताते। क्लास ख़त्म होने के बाद घंटों यूनिवर्सिटी
कैफ़िटेरिया में बैठे चाय पीते रहते। शाम को देर हो जाती तो
के. बी. टैक्सी या स्कूटर में उसे घर छोड़ने जाता। तब मीरा
ने सोचा था कि के. बी. उसका सच्चा प्यार है, ऐसा प्यार
जहाँ आत्मा और शरीर दोनों का सम्मिलन हो सके। उन दिनों
मीरा ने यूनिवर्सिटी में भी नृत्य का कार्यक्रम पेश किया
था।
रिहर्सलों के लिए जब वह जल्दी घर जाने लगती तो बहुत गुस्सा
करता था के. बी. "ये क्या रोग पाला हुआ है तुमने... यों ही
पढ़ाई से इतनी कम फुरसत मिलती है, ऊपर से तुम्हारा यह नाच
ये तो जान का दुश्मन हो गया हमारा।"
ये बातें मजाक की ही होती थीं, पर मीरा को महसूस होता था
कि के. बी. सच में कहीं उसके नाचने से जलता है या उसे
नापसंद करता है। पर उस प्रदर्शन के बाद मीरा कुछ दूसरी
यूनिवर्सिटियों में भी प्रदर्शन करने गई थी। एक बार पूरे
तीन हफ़्ते का दौरा किया था। मीरा जहाँ खुद को हर प्रदर्शन
के बाद किसी ऊँचे आसमान पर पहुँचा महसूस करती, वहाँ के .बी
.उसे एकदम जमीन पर ढकेल दिया करता था।
"महीना भर बाहर रही हो, एक ख़त तो डाल सकती थीं"
"वक्त कहाँ था, कहीं टिककर थोड़े रहते थे... शाम को
परफॉरमेंस दी और मुश्किल से सोए कि अगली सुबह फिर गाड़ी
पकड़नी होती या फिर कोई न कोई खाने का आमंत्रण दे देता और
कहीं कुछ वक्त रहता भी तो रिहर्सल करने लगते थे हम लोग।"
के. बी. चिढ़ जाता था।
"आई कैन सी, आई एम नो वेयर इन यूअर लाइफ़"
मीरा को भी गुस्सा आने लगा था के. बी. के रुख़ पर।
"के. बी. प्लीज, आई कांट गिव अप माई डांस फॉर यू... यू नो
इट इज द मोस्ट इंपोर्टेंट थिंग इन माई लाइफ़।"
"यू मीन, मोर दैन मी?"
मीरा का रोने को मन हो आया था।
"डोंट आस्क दैट क्वश्चन, बीकाज आई हैव नो आनसर टू इट।"
के. बी. के साथ उसका रिश्ता सालों तक यों ही घिसटता रहा
था, कभी आकर्षण, कभी चिड़चिड़ाहट, कभी खीझ, कभी हँसी। मीरा
को लगने लगा था कि कहीं जंग लग गया है इस रिश्ते को और मन
ही मन उसने निर्णय ले लिया था कि वह शादी नहीं करेगी के.
बी. से। पर के. बी. से कभी खुलकर इस बारे में बात नहीं हुई
थी। उसने न कोई सवाल उठाया, न कभी मीरा को कुछ कमिट करना
पड़ा। वह कई नौकरियाँ लेता-छोड़ता अपने मन का काम खोजने के
संघर्ष में ही लगा हुआ था कि अचानक विजय मीरा की जिंदगी
में आ गया और तब मीरा के लिए के. बी. का रिश्ता तोड़ देना
एकदम आसान हो गया। विजय से शादी का निर्णय लेने पर उसने
के. बी. को इसकी ख़बर देनी भी जरूरी नहीं समझी थी। उसके फ़ोन
आए थे, मिलने की बात की तो मीरा ने मसरुफ़ियत का बहाना बना
दिया था। फिर एक बार वह उसे अपने कॉलेज के बाहर ही मिलने आ
गया था। मीरा की शादी को हफ़्ता भर बचा होगा। बड़ा उत्साहित
था।
"आज मुझे बहुत बढ़िया नौकरी की ऑफ़र हुई है। तुम्हारे साथ
ओबराय में बैठकर सेलीब्रेट करूँगा।"
"पर मुझे आज जल्दी जाना है।" मीरा ने उसकी खुशी को एकदम
नजरअंदाज कर दिया था। के. बी. चौंका था।
"तुम खुश नहीं हो?... मुझे शॉ वैलेस में एक्ज़िकिटिव, परसों
मुझे कलकत्ता फ्लाई करना है।"
के. बी. कुछ साँसों में ही उसे सारी की सारी सूचनाएँ दे
देना चाहता था।
"तुम किस दुनिया में हो, के. बी.? तुम्हें मालूम नहीं कि
मैं शादी कर रही हूँ।"
के. बी. का चेहरा एकदम पीला जर्द हो गया था, ऐसी जर्दी
उसने आज तक किसी चेहरे पर नहीं देखी थी। के. बी. क्या अभी
भी प्यार करता था उसे या यह चोट पुरुष के अहं पर थी? मीरा
को लगा कि वह जर्दी कहीं उसके अपने भीतर उतरने लगी है।
बहुत डर गई थी मीरा, फिर एक मुस्कान ओढ़कर बोली थी,
"आई एम सॉरी, मुझे नहीं मालूम था तुम इस तरह रिएक्ट... पर
पता नहीं क्यों नहीं सोच पाई कि हँसी में उड़ा देने वाली
बात भी न थी यह, आई एम वेरी सॉरी! "
फिर कुछ रुककर बोली, "बेस्ट ऑफ लक, के. बी. ऑल द बेस्ट फॉर
यूअर फ्यूचर" और वह जर्द चेहरा वहीं छोड़कर आगे बढ़ गई थी।
इतने सालों बाद भी उस चेहरे की जर्दी अकसर मीरा की आँखों
में उतर आती है। एक अजीब-सा अपराध-बोध उसे भीतर कहीं
परेशान करता है, पर फिर मीरा संभाल लेती है खुद को।
"नो, दैट वाज द राईट थिंग टू डू... के. बी. और मैं कभी भी
खुश नहीं रह पाते, जब यों ही इतनी खिचपिच होती रहती थी, तब
शादी के बाद तो..."
पर आज इतने सालों बाद फिर से एक खलबली मच गई है मीरा के
भीतर के. बी. की आँखों की उदासी, उसके चेहरे का व्यंग्य
भरा तनाव मीरा के भीतर नश्तर की तरह गड़ रहा है। मधु पूछती
रही क्या खाएगी? मीरा की भूख मर चुकी थी। मधु ने जबरदस्ती
एक प्लेन डोसा और साँभर आर्डर कर ही दिया था जो मीरा से
निगलते नहीं बना। बोली, "इनके डोसे अब उतने अच्छे नहीं
बनते" और सारा खाना वैसे ही छोड़ दिया थाली में।
बहुत सोचा मीरा ने फ़ोन करे या न, पर दिलोदिमाग़ में ऐसा
हंगामा मचा हुआ था कि हाथ बार-बार फ़ोन की ओर उठता। वह यह
भी जानती थी कि के. बी. का अहम ऐसा है कि वह उसे कभी फ़ोन
नहीं करेगा। तब वह भी खामोश क्यों नहीं रह जाती?... पर फिर
ढेरों सवाल, ढेरों जिज्ञासाएँ उठतीं उसे लेकर, क्या सोचता
है उसके बारे में... उसे भी तो शायद बहुत कुछ पूछना होगा,
और हाथ फ़ोन की ओर उठ जाते। एक शाम नंबर मिला ही लिया था,
पर पूछने पर जवाब मिला था कि के. बी. घर में नहीं है। मीरा
को चैन महसूस हुआ था, अब आराम से कभी दुबारा कोशिश करेगी।
पहली बार की जो नर्वसनेस नसों और साँसों का फूलना था, वह
तो कुछ बस में रहेगा ही।
और सच भी था, अगले दिन उसने सुबह-सुबह फ़ोन किया। खुद के.
बी. ने ही उठाया था। उसके आसपास लोग थे। फ़ोन में आवाजें.
बज रही थीं। बहुत मुश्किल से इतना ही सुन पाई कि शाम चार
बजे वोल्गा में मिलेंगे।
मीरा के भीतर फुलझरियाँ सी दौड़ने लगीं। मन पुलक रहा था।
भूल गई कि पाँच बरसों से वह शादीशुदा है, कि कुछ दिनों में
उसका पति भी छुट्टी पर भारत पहुँच रहा है और उसके बाद उसे
अमरीका लौटना है, कि वहीं उसका घर है। एक बार फिर से
पुरानी मीरा चहक रही थी।
मन में ढ़ेरों तरह की बातचीत के टुकड़े, शब्द, अधूरे और पूरे
वाक्य बनते-बिगड़ते रहे, कभी वह उसे कह रही होती-के. बी.,
मैं तुम्हें कभी भूली नहीं, तुम्हें याद है मेघदूत का
यक्ष! यह मन में बार–बार एक वाक्य–खंड उभरा करता है, एक और
मेघदूत! और जानते हो उस मेघदूत में दूर जाने वाला यक्ष मैं
होती हूँ और नगरी में उदास बैठे यक्षिणी तुम! देखो न कैसे
क्रम उलट गया। कभी मीरा बड़ी बेसब्री से उससे पूछना चाहती-
तुम मेरे बारे में सोचते थे क्या अभी भी तुम्हारी जिंदगी
में सिर्फ़ मैं ही हूँ? क्या सच में अभी कोई दूसरा नहीं
आया?
इतनी उतावली की वजह से मीरा वक्त से कुछ पहले ही वोल्गा
पहुँच गई थी। कुछ पल बाहर खड़ी रही। आने-जाने वाले उस पर
कुतूहल की नजर डालकर चले जाते। थोड़ी देर बाद उसे अटपटा
लगने लगा और वह पास की दुकान के शो विंडो में सामान देखने
लगी जैसे कि अभी-अभी दुकान के अंदर जाने वाली हो। उसे कनॉट
प्लेस में पहले से कुछ ज्यादा ही चहल-पहल दीख रही थी। सड़क
पर स्कूटरों, कारों और बसों का कभी न रुकने वाला शोर बना
हुआ था। मीरा कभी शो-विंडो, कभी सड़क को देखने लगती, करीब
बीस मिनट के इंतजार के बाद के. बी. उसे अपनी ओर आता दिखा।
उसने सामने ही स्कूटर पार्क किया और धीरे–धीरे चलता उसकी
ओर बढ़ा। मीरा उसे धीमा-धीमा आते हुए देख बोल पड़ी,
"यहाँ इंतजार में मरे जा रहे हैं और आप चले आ रहे हैं
खर्रामा–खर्रामा"
"ओह, सॉरी, चलो, अंदर चलें।"
वोल्गा में जब मेज पर दोनों एक–दूसरे के सामने बैठ गए तो
अचानक मीरा को लगा उसके पास कहने को कुछ नहीं है। कुछ देर
में चुप्पी बड़ी अटपटी लगने लगी थी, तब के. बी. बोला था,
"तो बोलो, किसलिए मिलना चाहती थीं?"
मीरा को जैसे किसी ने झिंझोड़कर रख दिया हो।
"मैं मिलना चाहती थी तुम नहीं?"
"क्यों, तुम्हीं ने तो बात की थी मिलने की... मुझे अब
मिलकर क्या लेना है?"
फिर गहरी साँस छोड़ते हुए उसने कहा,
"अब क्या फ़ायदा! इट हटर्स मोर, तुम्हारा क्या है, तुम
खिलवाड़ करके फिर चल दोगी"
मीरा को ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी। उसे एकदम झटका–सा लगा,
फिर संभलती हुई बोली,
"आई थाट, वी वर फ्रेंडस।"
इतना कहते ही एकदम बिफर पड़ा था के. बी.।
"वाट फ्रेंडस? फ्रेंडशिप किस बात की? क्या तुम नकार सकती
हो कि मेरे-तुम्हारे बीच फ्रेंडशिप से कुछ ज्यादा था? तुम
स्वार्थी हो, मीरा, घोर स्वार्थी! तुमने सिर्फ़ अपना लाभ
सोचा, तुम्हें ऐश-आराम की जिंदगी चाहिए थी, तुम्हारी जैसी
लड़कियों के लिए शादी का मतलब ही है आरामतलब जिंदगी। इंसानी
प्यार उसके सामने कुछ नहीं ठहरता। ख़ैर, मैं तुमसे कोई
गिले-शिकवे करने नहीं आया हूँ, नाऊ यू हैव यूअर ओन लाइफ़,
आई हैव माईन..."
फिर अपने पर काबू करता हुआ बोला, "बोलो, क्या पिओगी?"
मीरा को चोट लगी थी अब। बड़ी मुश्किल से कहना शुरू किया,
"मुझे यही डर था, के. बी. तुम इसी तरह सोचते होंगे पर सच
बताऊँ हम कभी भी साथ खुश नहीं होते। तुम तो मुझे समूचा
चाहते थे। तुम्हारे लिए इवैन्चुअली मुझे नाच-वाच सब कुछ
छोड़ना पड़ता, वह सब मेरे लिए संभव नहीं था।"
के. बी. ने धीरे से कहा,
"प्लीज! अब इन बातों का क्या फ़ायदा? आई डोंट वांट टु
स्टार्ट अगेन द सेम आर्गुमेंट।"
मीरा के भीतर कितने ही तूफ़ान उठते-गिरते रहे,पर जब तक
वोल्गा से उठे, के. बी. के साथ गुजरा एक-एक क्षण उसके लिए
असह्य हो रहा था। अपने आप पर गुस्सा और पछतावा हो रहा था,
क्यों मिलने की बात उठाई उसने? इतनी नासमझ क्योंकर है वह?
जिन रिश्तों पर राख गिरा दी गई हो, उन्हें भी क्या कभी
लौटा या जा सकता है? और लौटाना किसलिए? आज अगर कहीं के.
बी. लौट भी आए उसकी जिंदगी में तो क्या वह सुखी हो सकेगी?
कितनी ही नयी उलझनें नहीं खड़ी हो जाएँगी? उसका विजय,
कृष्णन... कैसे सँभालेगी यह सब, और के. बी. के साथ यह
शुरुआत सिर्फ़ कुछ दिन की ही बात तो नहीं होगी, एक बार शुरू
होकर किसी नए रिश्ते की उलझनें नहीं पड़ने लगेंगी? हाऊ
फुलिश! स्टॉप इट, मीरा! और मीरा ने अपने सारे आवेगों पर
ब्रेक लगा दिया था। पर अब जो घाव के. बी.ने किया था, वह
बरसों बाद भी उभर जाता है तो मीरा अपने में कहीं बहुत
गर्हित, बहुत अपमानित और बहुत छोटा और ओछा महसूस करती है।
तीन-चार दिन बाद जब विजय आ गया था तो मीरा को बेहद राहत
मिली थी। मन को तसल्ली-सी भी थी कि उसका शादी का फ़ैसला
कहीं सही था। के. बी. सिर्फ़ उसके चरित्र के निगेटिव अंशों
पर फोकस किए है, विजय ऐसा नहीं। विजय में कहीं ज्यादा
स्वीकृति है मीरा के व्यक्तित्व की, पर यहाँ मीरा शायद खुद
उसकी विजय की आलोचक बनती जा रही थी। नहीं, मीरा उससे कभी
कुछ कहती नहीं थी पर उसका हर एक्शन मीरा की निगाह से
स्क्रूटनाइज होता था। पर फिलहाल विजय को छुट्टी थी। विजय
उसका नहीं, कुछ दिन के लिए अपने घर-परिवार का है। मीरा की
भी भूमिका बदल गई है। वह व्यक्ति मीरा नहीं, एक भले परिवार
की बहू है। सिर्फ़ दो हफ़्ते के लिए ही नाटक खेला जाना है तो
मीरा क्यों न जी-जान लगाकर सफलतापूर्वक भूमिका
निभाए...सिर्फ़ यह ध्यान नहीं रहता कि इतनी मेहनत से भूमिका
निभा रही है तो यही भूमिका हमेशा के लिए उसका कैरेक्टर रोल
न बन जाए और ऐसा हुआ भी, उसके वापस न्यूयार्क लौट जाने के
महीनों बाद ही जब छोटा देवर एम. बी. बी. एस. ख़त्म करके
उनके पास रेजिडेंसी करने के लिए चला आया था। साल भर
मीरा-विजय के साथ ही रुका था। मीरा के लिए बहुत कष्ट के
दिन बन गए थे। विजय जहाँ केवल शाम को ही घर आता था, वहाँ
अंजन ज्यादातर घर पर ही रहता। मीरा को उसे दिन में चार-बार
मेज-कुर्सी पर बिठाकर खाना ही नहीं खिलाना पड़ता, उसका
कमरा, बिस्तर, कपड़े धोने के सारे काम निभाने पड़ते। ऊपर से
उसकी फ़रमाइश होती-
"भाभी, हमको तो चपाती दिया कीजिए। इन बाजारी रोटियों से
अपनी तसल्ली नहीं होती। न पेट भरता है, न नीयत।"
उसकी उपस्थिति में मीरा एकदम बँध गई थी, बस किसी तरह जब वह
किसी काम से घर से निकलता तभी मीरा को चैन की साँस मिलती।
अंजन शायद घर में सबसे छोटा था या... क्या किसी ने उसे कभी
किसी तरह का दायित्व दिया कि नहीं। यहाँ भी यही उम्मीद
करता था कि उसकी देखभाल की जाए। मीरा को दिन भर उसकी और घर
की देखभाल के लिए भाग-दौड़ बहुत सहज लगती थी अंजन को। कह
देता था,
"भाभी, खूब काम करना पड़ता है आपको, पर अच्छा ही है वर्ना
बिना काम के आदमी बोर भी तो हो जाता है। फिर घर का काम आप
नहीं करेंगी तो और कौन करेगा?"
यों मीरा के पास हफ़्ते में एक बार सफ़ाई करने वाली एक औरत
भी आती थी। अंजन को जब पता लगा कि मीरा उसे सात डालर एक
घंटे के लिए देती है तो उसने आपत्ति की थी,
"इतना महँगा है यहाँ आप खुद क्यों नहीं कर लेतीं? कोई
ज्यादा तो नहीं सफ़ाई का काम"
पर उसने खुद मदद करने का सवाल कभी नहीं उठाया। |