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                     अरे 
                    चाँद, तुम कैसे हमारे दिलों की बात जान लेती हो?'' शकरआरा ने 
                    दुलार भरी आँखों से बहू को ताका। ''सब मेरा कमाल है, अम्मी!'' कमाल ने उठकर समीना के हाथ से 
                    ट्रे ले मेज़ पर रखी।
 ''वाह! क्या कहने हैं? हमारी साली साहिबा ने अपनी बेटी क्या दी 
                    है, हमारी ज़िंदगी जन्नत बना दी है।'' जमाल खाँ ने पकौड़ी 
                    उठाते हुए कहा।
 ''तो क्या अम्मी ने जहन्नुम बना रखी थी, अब्बी!'' कमाल ने हलवा 
                    मुँह में डाला।
 ''नालायक! बाप से मज़ाक करता है!'' शकरआरा ने चाय बनाते हुए 
                    बेटे को प्यार से झिड़का।
 ''देखो भई शकर! बात तो सच है, तुम तो हूर हो, मगर जन्नत समीना 
                    है।"
 इतना कहकर जमाल खाँ ने चाय का घूँट भरा।
 ''आप भी अब्बी! हूर तो जन्नत में रहती है, आप हमेशा से जन्नत 
                    में रहते आए हैं, बस मुझे बनाने के लिए ऐसा कहते हैं।'' रूठे 
                    अंदाज़ से समीना ने कहा और ससुर की प्लेट में गरम पकौड़ियाँ 
                    डालीं।
 ''बस भई, खाना नहीं खा पाऊँगा!'' जमाल खाँ बोल उठे।
 ''बड़ी अम्मी, ज़रा ठहरें। आपके लिए गरम-गरम पकौड़ी छानकर लाती 
                    हूँ।"
 इतना कहकर समीना तेज़ी से उठी।
 ''बस बेटी, तुम बैठो। बाकी आया तल लेगी। वह देखो, लेकर आ भी 
                    गई।"
 शकरआरा ने बहू का हाथ पकड़ उसे रोका।
 बारिश की झड़ी लगी हुई थी। हवा मतवाली हो पानी की फुहारों को 
                    भी अपने साथ ला रही थी। सबके बालों पर पानी की नन्हीं-नन्हीं 
                    बूँदें हीरे की कनी की तरह चमक रही थीं। बादल घुमड़-घुमड़कर 
                    जाने कहाँ से चले आ रहे थे! बारिश की तेज़ी को देखकर ऐसा लग 
                    रहा था जैसे अपने देर से पहुँचने की कमी को वह आज ही
 पूरा कर दिलों से सारे गिले-शिकवे धो डालना चाह रही हो। चाय 
                    खत्म हो गई थी।
 केन की कुरसियों पर बैठे सब बड़ी खामोशी से गिरती बारिश को देख 
                    रहे थे जो, भरे पानी में गिरकर बताशे फोड़ रही थी।
 समीना और कमाल ने आँखों-ही-आँखों में क्या कहा-सुना और कब उठकर 
                    अपने कमरे की तरफ़ चले गए, पता ही न चला। शकरआरा को सफिया याद 
                    आ रही थी। वह होती तो इस बारिश में लाख मना करने पर भी जी भरकर 
                    नहाती कल रात फ़ोन आया था, कह रही थी कि यहाँ पर तीन दिन से 
                    बिजली नहीं है, जिसकी वजह से पानी नहीं है। कल दोपहर को कॉलोनी 
                    में पानी की गाड़ी आई तो सबकी टंकियाँ भरीं, वरना ते सब बिना 
                    नहाए इस गरमी में हाय-हाय कर रहे थे। फ्लैट में वैसे ही दिल 
                    घुटता है, ऊपर से जगह कम, पानी भरने के लिए ड्रम रखने की कोई 
                    सहूलियत नहीं, सिवा बालटियों के... कुछ मोहल्ले तो ऐसे हैं 
                    जहाँ पर रात के तीन बजे से बरतनों की लाइनें सड़क पर लग जाती 
                    हैं। मेरा दिल यह सब देखकर बहुत घबराता है। अजीब-सा लगता है कि 
                    दिल्ली में यह सब भी देखने को मिलेगा! आप कब आ रही हैं, अम्मी? 
                    आप जब भी आएँ जाड़े में आएँ, ताकि आपको परेशानी न हो। आप तो 
                    गरमियों में दो वक्त नहाने की आदी हैं।
 ''नाम बड़ा और दर्शन छोटा।'' शकरआरा ने होंठों ही होंठों में 
                    कहा।
 ''कुछ कहा तुमने?'' चौंककर जमाल खाँ बीवी की तरफ़ मुड़े।
 ''नहीं, कुछ ख़ास नहीं, बस कल रात कही सफिया की बातें याद आ 
                    रही थीं। बच्ची के कंधों पर ज़िम्मेदारी का एकाएक बोझ आ गया!'' 
                    ठंडी साँस भरी शकरआरा ने।
 जमाल खाँ ने उनको गहरी नज़रों से देखा फिर धीरे-से कहा-
 ''हाँ...उसे वहाँ आराम भी बहुत है! अगर वहाँ की ज़िंदगी उसे 
                    भाती न तो कब की लौटने की बात किसी-न-किसी बहाने से कहती, मगर 
                    वह उलटा तुम्हें बुला रही है। इसका मतलब है कि वह वहाँ खुश है। 
                    फिर मियाँ के साथ अकेली है जिसकी हसरत तुम शादी के बाद अरसे तक 
                    पाले रहीं। उसे तो बिना मुँह-माँगे मुराद मिल गई। इसलिए मेरी 
                    परी बेगम, आप बेटी की फिक्र न करें।''
 ''बात तो कोई आपसे बनाना सीखे।'' शकरआरा की भवें तनीं।
 ''मतलब?'' चौंककर बोले जमाल खाँ।
 ''यही कि बेटी के बहाने मुझ पर ताने मार दिए!'' शकरआरा ने कहा 
                    और उठने लगीं।
 ''बैठो, तुम्हें मेरी कसम! इस उम्र में भी तुम्हें अपनी बातों 
                    का खुलासा देना पड़ेगा?'' जमाल खाँ ने मिन्नत-भरे स्वर में 
                    कहा!
 ''और नहीं तो क्या... कितनी बार कहा कि मेरी मिसाल देकर बातें 
                    न क्या करें, मगर...'' रूठे स्वर में शकरआरा बोलीं।
 ''चलों, छोड़ो इन बेकार की बातों को। यह बताओ इन संदली कलाइयों 
                    में इस बार हरी-हरी चूड़ियाँ क्यों नहीं हैं? सावन तो शुरू हो 
                    गया है।'' जमाल खाँ ने लहजा बदलकर बेगम की कलाइयाँ पकड़ते हुए 
                    कहा।
 ''हाँ, सच है, इस बार 'करेली' पहनी ही नहीं। पता नहीं 'मासूमा' 
                    अभी तक आई क्यों नहीं, वरना तो हर माह चूड़ियों से भरा झाबा 
                    लेकर खड़ी रहती है।'' शकरआरा बोलीं।
 ''उसका बुढ़ापा है। बेहतर है, कल ही हाशिम को भेज उसकी ख़ैरियत 
                    पुछवाएँ और मदद की ज़रूरत हो तो उसका पूरा ख़याल रखें...हमारी 
                    अम्मा को भी उसी ने सुहाग की चूड़ियाँ पहनाई थीं फिर फुफिया, 
                    बहनों और अब आपके बाद बेटियों को। अब ऐसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने 
                    वाले रिश्ते कहाँ मिलते हैं?'' जमाल खाँ ने गहरी आवाज़ से कहा। 
                    उनका आँखों में हलकी उदासी की परत छा गई। गिरती बारिश को देखने 
                    के बहाने जाने किस-किसको देखने लगे।
 ''अम्मी, हम लोग अभी आते हैं।'' कमाल ने शकरआरा के कंधे पर हाथ 
                    रख प्यार से कहा।
 ''इस बारिश में? पिछली बार की तरह फिर कार कहीं फँस गई तो?'' 
                    शकरआरा ने बेटे का हाथ थपथपाया।
 ''अब्बू लेने आ जाएँगे पिछली बार की तरह...'' कमाल ने कहा और 
                    आगे बढ़ते हुए बोला, ''आओ समीना, बारिश रुक गई तो ड्राइव का 
                    सारा मज़ा जाता रहेगा।''
 ''यह बारिश अब रुकने वाली नहीं है, चलेगी दो-तीन दिन तक यों 
                    ही।'' जमाल खाँ ने सिगार सुलगाते हुए कहा।
 ''खाने के वक्त तक आ जाना, दलभरी और शामी कबाब बनवाने जा रही 
                    हूँ।'' शकरआरा ने कुर्सी से उठते हुए कहा।
 ''मुझे बच्चा समझकर आप कब तक रिश्वत देती रहेंगी! हम आ 
                    जाएँगे।'' इतना कह कमाल ने समीना को बाएँ हाथ से अपने करीब कर 
                    दाहिने हाथ से छतरी खोलकर दालान की सीढ़ियाँ पार कीं और गैराज 
                    की तरफ़ बढ़े।
 जमाल खाँ उनको जाता देख बड़े अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कराए, फिर 
                    मन-ही-मन बोले- 'बड़े होकर बेटे बाप की ही नकल करते हैं। इस 
                    मौसम में मैं कब चैन से बैठता था। सच है, जवानी के जज़्बे ही 
                    कुछ और होते हैं।''
 गिरती बारिश में कार गैराज से निकल सड़क की तरफ़ मुड़ी। उसी 
                    लमहा बादल ज़ोर से गरजा और आसमान पर बिजली तड़पकर रह गई। 
                    शकरआरा के बढ़ते कदम ठिठक गए। कान पर हाथ रखे वह पल-भर खड़ी 
                    रहीं फिर मुड़कर बोलीं, ''कमाल की बचकाना हरकतें मुझे फिक्र 
                    में डाल देती हैं। अब इस तूफ़ानी मौसम में...आपको रोकना चाहिए 
                    था न।''
 ''भूलो मत,. शकर! उसके और मेरे पैरों के जूतों का नंबर एक हो 
                    गया है।''
 ''आप भी बस...'' कहती हुई शकरआरा बावर्चीखाने की तरफ़ मुड़ीं।
 ''आप जनाब, गरम चाय मँगवाइए और ज़रा देर हमारे पहलू में आकर 
                    बैठें!
 यह तनहाई और आप जैसा साथी, खुदा हमारे ऊपर हमेशा की तरह आज भी 
                    मेहरबान है!'' जमाल खाँ ने सिगार का कश ले कहा!
 उनकी बात सुन शकरआरा के चेहरे पर इस उम्र में भी खून दौ़ड़ 
                    गया। झेंपते हुए बोलीं, ''अभी आई।''
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