मुखिया ने मल्ल-स्थल का
मार्ग बता दिया और फिर भयभीत स्वर में बोला, ''वहाँ मत
जाना। वहाँ मुष्टिक, चाणूर, कूट, शल और तोशल होंगे। वे तुम
लोगों को जीवित नहीं छोड़ेंगे।''
''सूचना के लिए हम तुम्हारे आभारी हैं।'' कृष्ण मुस्कराए,
''किंतु तुम भी सावधान रहो कि तुम्हारे राजा को यह सूचना न
मिल जाए कि तुमने हमें सचेत किया है।''
मुखिया पहली बार थोड़ा मुस्कराया, ''कल से तो सारा नगर ही
सचेत हो उठा है। सारी प्रजा कह रही है कि राजा यदि
यज्ञ-स्थल पर सार्वजनिक रूप से धनुष तोड़ने वाले अपने
शत्रुओं को दंडित नहीं कर सका तो वह किसी का भी क्या बिगाड़
सकता है।''
''ठीक ही तो है।'' बलराम बोले, ''निर्भय होकर जिओ।''
वे मुखिया के बताए हुए
मार्ग पर चल पड़े।
''त्रिवक्रा ने कहा है कि वह हमें पशुओं से मरवाना चाहता
है।'' बलराम ने कहा, ''और यह मुखिया कह रहा है कि वहाँ कंस
के प्रधान मल्ल होंगे। कहीं इसका यह अर्थ तो नहीं कि लोग
उसके मल्लों को ही पशु कहते हैं।''
''बहुत संभव है कि ऐसा ही हो और न भी हो तो क्या।'' कृष्ण
बोले, ''हमने भी तो अपना वृंदावन सारे असुराकार पशुओं से
मुक्त कराया ही था। कंस के पास उनसे भयंकर पशु तो नहीं
होंगे। चलो दाऊ, देखते हैं कि वे निरे पशु ही हैं अथवा
नर-पशु!''
मल्ल-स्थल निकट आ गया था।
दूर से ही संकेत मिल रहे थे कि वहाँ कोई महत्वपूर्ण कार्य
हो रहा है। जन-सूमह उस दिशा में बढ़ा जा रहा था। मार्ग के
दोनों ओर राजकर्मचारी और सैनिक खड़े थे। रथों की संख्या भी
कुछ अधिक ही थी।
वे दोनों अभी मुख्य द्वार से कुछ पीछे ही थे कि बलराम रुक
गए, ''मुझे लगता है कि वे लोग नंद बाबा को पुकार रहे
हैं।''
कृष्ण भी पूर्णत: सचेत थे। बोले, ''मैंने भी सुना है। हमें
यहीं रुक जाना चाहिए। पहले देख लें कि वह बाबा को क्यों
पुकार रहा है। उसके पश्चात जैसा आवश्यक होगा, वैसा ही
करेंगे।''
वे एक वृक्ष की छाया में
रुक गए। उन्होंने देखा कि नंद बाबा तो अभी तक अपने शकटों
के निकट ही थे, किंतु उनके अनेक साथी इधर-उधर हो चुके थे।
पुकारे जाने पर वे वहाँ से उठे और दही, पनीर और मक्खन के
बर्तन लिए हुए दस-बारह गोप कंस के सामने पहुँचे। उन्होंने
वे सारे भांड उसके सम्मुख रख, हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।
''तुम्हारा पुत्र नहीं आया?''
''कौन-सा पुत्र?'' नंद ने पूछा।
''वही, जिसपर तुम सब लोगों को बहुत गर्व है - कृष्ण!
कान्हा!''
''आपने ही तो घोषणा कर दी है कि वह आर्य वसुदेव का पुत्र
है, तो वह मेरा पुत्र कहाँ रहा।''
''तुम तो यही कहते रहे हो न।''
''जब पहले दिन से उसका पालन-पोषण किया है, तो पिता तो उसका
मैं ही हूँ, जनक चाहे आर्य वसुदेव हों।''
''तो तुम यह स्वीकार करते हो कि वह देवकी के आठवें गर्भ की
संतान है?''
''मेरा मानना न मानना क्या अर्थ रखता है महाराज!'' नंद ने
दीन भाव से हाथ जोड़ दिए, ''आपकी आज्ञा हो जाने के पश्चात
मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैं उसका जनक हूँ। महाराज की
आज्ञा ही सर्वोपरि है। वही परम सत्य है। आप इस सूर्य की ओर
अंगुली उठा कर कह दें कि वह चंद्रमा है, तो आपकी प्रजा का
धर्म है कि वह मान जाए कि वह चंद्रमा ही है।''
''तुम मेरा उपहास कर रहे हो नंद!'' कंस क्रुद्ध हो उठा।
''नहीं महाराज! मैं ऐसा दुस्साहस कैसे कर सकता हूँ।'' नंद
निर्भीक स्वर में बोले, ''मैं तो अपनी राजभक्ति का प्रमाण
दे रहा हूँ।''
कृष्ण ने मुस्करा कर बलराम की ओर देखा। बलराम मुख खोले
चकित भाव से नंद को देख रहे थे, ''अब बाबा डरते नहीं हैं
एकदम।''
''तो कहाँ है कृष्ण?''
''कृष्ण और बलराम को तो आपके राजपुरुष आर्य अक्रूर अपने
साथ अपने रथ में बैठा कर ले आए थे। उन्होंने देवी रोहिणी
को भी उस रथ पर बैठने नहीं दिया।'' नंद बोले, ''वे दोनों
लड़के तो हमारे साथ आए ही नहीं। क्या वे अक्रूर के प्रासाद
में अथवा आपके अतिथिगृह में नहीं हैं?''
''नहीं! वे तुम्हारे साथ तुम्हारे डेरे पर थे।''
''हाँ! हमारे साथ देवी रोहिणी थीं। संभव है वे अपनी माता
से मिलने आए हों। देवि रोहिणी खीर बहुत अच्छी...।''
''अच्छा जाओ अपने स्थान पर बैठो।'' कंस अपने राजपुरुषों की
ओर मुड़ा, ''इसे ले जाकर वहाँ विशिष्ट जन के मध्य बैठा दो।
धूर्त कहीं का।''
नंद महर को राजा, मंत्री, मंडलेश्वरों तथा राजपुरुषों से
कुछ दूर विशिष्ट जन के मध्य बैठा दिया गया। कृष्ण ने
दृष्टि घुमा कर देखा : उन्हें अनेक गोप मल्ल प्रजा में
बैठे दिखाई दे रहे थे।
''अब चलें?'' बलराम उतावले हो रहे थे।
''चलिए।''
''किधर से चलें?''
''तोरण से चलते हैं, प्रकट रूप से।'' कृष्ण बोले, ''अब छुप
कर क्या जाना।''
वे दोनों आगे बढ़े और
मुख्य द्वार के बीचों-बीच आ पहुँचे। कृष्ण चकित थे कि अब
तक न तो कंस अथवा उसके साथियों ने कृष्ण को देख कर कोई
विशेष प्रतिक्रिया प्रकट की थी और न ही किसी ने उन्हें
पकड़ने अथवा उनपर आक्रमण करने का प्रयत्न किया था।
जनसामान्य में कुछ हलचल अवश्य थी। कदाचित यह वे लोग थे,
जिन्होंने कल संध्या समय उन्हें हाट इत्यादि में देखा था।
कंस ने उनकी ओर देखा। उसका चेहरा तमतमा गया। वह अक्रूर की
ओर मुड़ा, ''ये ही हैं?''
''हाँ महाराज! ये ही दोनों वसुदेव के पुत्र हैं।''
कंस ने कोटपाल की ओर देखा, ''कल सायं इन्होंने ही मथुरा
में उत्पात किया था?''
''हाँ महाराज!''
कंस अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ, ''कुवलयापीड़!''
अक्रूर का मन काँप गया।
कुवलयापीड़ कंस का मदांध हाथी था। जब किसी भयंकर अपराधी को
सार्वजनिक मृत्युदंड का आदेश होता था तो उसे खुले मैदान
में कुवलयापीड़ अपने पैरों तले रौंदता था। उसे इस काम के
लिए प्रशिक्षित किया गया था। लगता था कि वह हाथी अब एक
प्रकार से हिंस्र हो चुका था। उसे लोगों को रौंद कर उनका
भुरकस बनाने में आनंद आता था।
''दाऊ! त्रिवक्रा ने ठीक सूचना दी थी। यह है वह पशु, जिसको
हमारी सेवा करने के लिए तैयार किया गया है।''
''इसका क्या करना है?'' बलराम ने पूछा।
''करना क्या है।'' कृष्ण हँसे, ''आँख मिचौनी खेलते हैं।
बहुत दिनों से खेली भी नहीं है।''
''प्रद्योत!'' कंस ने ऊँचे स्वर में पुकारा, ''कुवलयापीड़
को कृष्ण के स्वागत के लिए प्रस्तुत किया जाए।... और
देखो, कुवलयापीड़ कोई उत्पात न करे। चारों ओर से घेर लो।
आवश्यकता हो तो शूलों से वेध दो।''
कंस के सैनिकों ने एक
वृत्त बना लिया था। उन सबों के हाथों में लंबे-लंबे शूल
थे।
''दाउ! इनके हाथ तो अभी से काँप रहे हैं।'' कृष्ण
मुस्कराए, ''और चतुराई देखो, मामा यह नहीं बता रहा कि
किसको शूलों से वेधना है। वह हमें घेर कर मारना चाहता
है।'' बलराम ने कुछ नहीं कहा। उनकी दृष्टि सैनिकों के
दूसरे वलय पर थी। वे सैनिक धनुष-बाण से सज्जित थे।...
कृष्ण देख रहे थे कि चाहे रंगभूमि के बाहर ही सही, किंतु
एक वलय उनके अपने साथियों का भी था।
कुवलयापीड़ ने अपनी ऊपर
उठी हुई सूँड में पुष्पों की एक लंबी माला थाम रखी थी,
जैसे कृष्ण को माला अर्पित करने की तैयारी हो।
महावत ने कुवलयापीड़ को हाँक दिया था। कुवलयापीड़ भी अपना
प्रिय खेल खेलने की व्यवस्था देख कर प्रसन्न था। वह बड़े
उत्साह से आगे बढ़ रहा था।
''महाराज!'' कृष्ण पुकार कर बोले, ''खेल नियम के अनुसार
होना चाहिए। आदेश दें कि यदि कृष्ण ढंग से स्वागत न करवा
सके तो उसे शूलों से वेध दिया जाए और कुवलयापीड़ ढंग से
स्वागत न करे, बीच में ही भागने लगे, तो सैनिक उसे भी
शूलों से वेध दें।''
कंस ने सायास अट्टहास किया, ''तुम अपना पक्ष सँभालो
कृष्ण! कुवलयापीड़ अपना दायित्व अच्छी तरह समझता है।''
कृष्ण ने कमर कसी और अपनी घुँघराली अलकें समेट लीं। वे
यथासंभव कुवलयापीड़ से अधिकतम दूरी पर चले गए थे। सैनिक
सावधान हो गए, कहीं कृष्ण उनके अवरोध से बाहर न निकल
जाएँ। कुवलयापीड़ हुमक-हुमक कर उनकी ओर बढ़ रहा था। सहसा
कृष्ण उसकी ओर दौड़े और उसके निकट आकर स्वयं को अद्भुत कौशल
से उछाल दिया। कुवलयापीड़ उनको ढूँढ रहा था और वे उसकी पीठ
पर जा पहुँचे थे।
महावत ने अकस्मात उनको
अपने निकट पा, जैसे घबरा कर अपने अंकुश से उन पर प्रहार
करने का प्रयत्न किया। कृष्ण ने अपने हाथ से अंकुश को थामा
और पैर की ठोकर से महावत को भूमि पर फेंक दिया। महावत
सावधान था, अन्यथा क्षण भर में ही वह कुवलयापीड़ के पैरों
से कुचला जाता। कुवलयापीड़ भी समझ रहा था कि उसे अपने महावत
को नहीं कुचलना है। पीठ पर बैठे कृष्ण ने जब अंकुश से उसे
कोंचा तो उसकी समझ में आया कि उसका आखेट कहाँ है।
कुवलयापीड़ ने अपनी सूँड
से कृष्ण को लपेटने का प्रयत्न किया, किंतु वह संभव नहीं
हुआ तो उसने धक्का मार कर उन्हें नीचे गिरा दिया। कृष्ण
उसके सामने भूमि पर थे और वह अपना पैर उठा कर उन पर रखने जा
रहा था। कृष्ण सर्प की सी गति से सरक कर उसके पैरों के बीच
में चले गए। वे उसके अगले और पिछले पैरों के मध्य थे; और
उसकी सूँड वहाँ तक पहुँच नहीं पा रही थी। कुवलयापीड़ पीछे
हटा और उसने अपने बड़े-बड़े नुकीले दाँतों से उनको छेद डालने
के लिए जोर से भूमि पर आघात किया... किंतु कृष्ण वहाँ से
हट चुके थे और कुवलयापीड़ के वे बड़े-बड़े दाँत अपनी ही शक्ति
के वेग में धरती में जा धँसे। उन्हें खींच कर मिट्टी से
निकालने में ही वह समझ गया था कि दाँत हिल गए थे। रंगभूमि
की धरती पीट-पीट कर कठोर की गई थी। शक्तिशाली कुवलयापीड़ ने
उसी धरती पर अपना सिर पटक लिया था। वह अपनी पीड़ा को
सँभालने का प्रयत्न कर रहा था कि उसे आभास हुआ कि कृष्ण
उसकी पूँछ से लटके ही नहीं थे, उसे उखाड़ लेने के लिए
प्रयत्नशील थे।... उसके बड़े-बड़े दाँतों से रक्त बह रहा था।
वह पीड़ा से कराह रहा था और अब उसकी पूँछ टूटने को हो रही
थी। वह अपनी सूँड़ को अपनी पूँछ तक नहीं ले जा सकता था।
कुवलयापीड़ क्रोध से पागल हो उठा।... और कृष्ण यही चाहते
थे।
अब कुवलयापीड़ बिना
सोचे-समझे आक्रमण कर रहा था। महावत उसकी पीठ पर था ही नहीं
कि उसे संयत कर, कोई दिशा-निर्देश करता।... इस प्रकार के
आक्रमण से बचने के लिए कृष्ण को केवल उस स्थान से हट जाना
था, जहाँ कुवलयापीड़ आघात कर रहा था।... और सहसा कृष्ण
क्षमता भर अपने पूरे वेग से भागे।
कुवलयापीड़ प्रसन्न हो गया। वह उन्मुक्त भाव से उनका पीछा
कर रहा था। हाथी के भय से सैनिक वलय टूट चुके थे। किसी को
हाथी के पैरों तले कुचला जाना पसंद नहीं था। जब सैनिक थे
ही नहीं तो कौन किसको रोकता और कौन किसको मारता।...
दौड़ते-दौड़ते सहसा कृष्ण भूमि पर गिर पड़े... देखने वालों
का कलेजा मुँह को आ रहा था और बलराम को क्रोध आ रहा था।...
क्या कर रहा है यह कृष्ण ! क्या आवश्यकता थी कुवलयापीड़ के
आगे-आगे भागने की। वह हाथी इस समय इतना तो आहत हो चुका था
कि कृष्ण किसी भी अन्य प्रकार से उसे पीड़ित कर सकता था। और
कुछ नहीं तो उस पर आरूढ़ होकर उसके अंकुश से उसे मार-मार कर
उसके प्राण ले सकता था। पर यह सदा अपनी ही कोई चतुराई
दिखाने के प्रयत्न में रहता है। अब यह कुवलयापीड़ के मार्ग
में भूमि पर पड़ा है। उठ कर न भाग सका और हाथी ने उसे कुचल
दिया तो?...और बलराम को पहली बार लगा कि वे व्याकुल हो उठे
हैं और इस युद्ध में हस्तक्षेप करना चाहते हैं...
कुवलयापीड़ कृष्ण के सिर
पर आ पहुँचा था और कृष्ण दो बार उठने का प्रयत्न कर पुन:
गिर चुके थे। स्पष्ट लग रहा था कि उनमें अब उठने की भी
शक्ति नहीं रह गई थी। कुवलयापीड़ ने अपनी सूँड में लपेट कर
उन्हें उठा कर जोर से भूमि पर पटकने का प्रयत्न किया किंतु
कृष्ण उसकी सूँड की पकड़ से फिसल कर फिर से धरती पर आ गए
थे। इस बार कुवलयापीड़ ने अपने लंबे तीखे दाँतों को उनके
शरीर में भोंक देने के लिए पूरे वेग से प्रहार किया।...
किंतु उसके दाँत धरती से जा टकराए। कृष्ण लोट कर एक किनारे
हो चुके थे।... कुवलयापीड़ के दाँत उसकी सूँड के समान ही
झूल रहे थे। कृष्ण ने स्फूर्ति से उठ कर उसका एक दाँत पकड़
कर खींच लिया। दाँत कृष्ण के हाथ में था और कुवलयापीड़ रक्त
बहाता हुआ, पीड़ा से पागल होकर चिंघाड़ रहा था।
महावत अपने हाथी की रक्षा
में आ गया था। उसके हाथ में खड्ग था। उसने ज़ोर से प्रहार
किया। कृष्ण पीछे हट गए थे और उन्होंने कुवलयापीड़ का दाँत
महावत के पेट के आर-पार पहुँचा दिया था। उसके पश्चात महावत
नहीं उठा।
अब कृष्ण के हाथ में एक शस्त्र था। वे कुवलयापीड़ पर पीछे,
दाएँ, बाएँ - तीन ओर से उसी के दाँत से प्रहार कर रहे थे।
उसका दाँत अंकुश से भी अधिक पीड़ा देने वाला था। कुवलयापीड़
तड़प-तड़प कर उन पर झपटता था; किंतु उसमें अब वह स्फूर्ति
नहीं रह गई थी और न ही उतना बल ही दिखाई दे रहा था। रक्त
के फव्वारे उसके शरीर से फूट रहे थे।... और कृष्ण का बल
जैसे कई गुना हो गया था।... कुछ ही क्षणों में कुवलयापीड़
धरती पर आ गिरा और कृष्ण कूद कर उसके ऊपर जा चढ़े।
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