डाक
में ख़त छोड़ते ही ताहिरा जवाब का इंतज़ार करने लगी, एक हफ्ता
पहुँचने में, एक हफ्ता जवाब में। ठीक पंद्रह दिन में जवाब
आया। सिर्फ तीन जुमले, वो भी छोटे छोटे।
ताहिरा, मेरी जान
कैसी बड़ी बड़ी बातें करने लगी है तू? मैं तो हर वक्त तुझे
ख़त लिखती रहती हूँ, मगर कलम से नहीं। अब भी आँखों में तेरी
सूरत है और हाथ काँप रहा है।
फिर लिखूँगी, मेरी गुड़िया,
तुम्हारी ही ख़ाला
ख़त पढ़ते ही ताहिरा फिर लिखने बैठ गई।
"मेरी बहुत याद आती है न आपको खाला जान, लेकिन मुझसे
ज़्यादा नहीं मैं भी आपकी उस गुड़िया को बहुत याद करती हूँ
जिसे नींद से उठाने के लिए कोलोनी के मुर्गे की बाँग कभी
सुनाई नहीं देती थी, जो सुबह की अँगीठी के धुएँ को दोनों
हाथों में समेटकर उपर हवा में उछालती थी, जिसके दुपट्टे का
पल्ला दूधवाले की साईकल में फँस कर फटते हुए कई बार बचा
था। जिसके बालों में तेल लगा कर आप पहले धूप में बिठा देती
थीं और फिर ख़ुद ही कहती थीं, "अब उठोगी भी या रंग मैला
करने की कसम खा ली है। कितना लिखूँ ख़ाला जान कैसे कैसे
कहकर लिखूँ? आप को तो बिना बताए मेरी बात समझने की आदत है
न बस थोड़ा लिखा ज़्यादा जानें और मेहरबानी करके अगले ख़त से
लिखें कि आप पिछला ख़त लिखने के बाद कितनी देर तक रोई थी?"
ख़त डाक में छोड़ कर जब ताहिरा अपनी गली में मुड़ी तो किसी ने
पीछे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया। मटमैले पैंट कोट वाला
एक खुरदरा सा बुजुर्ग गोरा था। ताहिरा को अपनी तरफ देखते
पाया तो उसकी गिजगिजी आँखों में लार उतर आई। खीसें निपोर
कर बोला,
"तो तुम्हीं हो वो ख़ूबसूरत बला जो उस सुअर बिली की गंदगी
के ढेर में रहती है?"
उसके मुँह खोलते ही मछली, बीयर और टमाटर सॉस से मिली तले
हुए आलुओं की एक बासी भभक उठी। ताहिरा ने अपने दुपट्टे का
पल्ला मुँह पर रखने के लिए हाथ उठाया तो भभकी ने एक हाथ से
उसके हाथ को कस कर पकड़ा और अपनी छाती पर दबा दिया। अपना
दूसरा हाथ उसने ताहिरा की कमर पर रखा और कूल्हों से चिपटी
उसकी रेशमी सलवार को सहलाने लगा।
थर थर काँपती ताहिरा ने चारों तरफ नज़र दौड़ाई। भरी दुपहरी
में कई लोग गली में आ जा रहे थे। कुछ ही हाथ की दूरी पर दो
थुलथुली गोरी औरतें मलबे में फेंकने वाले काले रंग के थैले
पकड़े बतिया रही थीं।
ताहिरा ने भभकी की गिरफ्त से छूटने की कोशिश करते हुए ज़ोर
से चिल्ला दिया,
"छोड़ो मुझे, प्लीज़ जाने दो।" वह कहती गई और बड़ी आजिज़ी से
थुलथुली औरतों को देखती गई। उनमें से एक ने अपने हाथ में
पकड़ा काला थैला नीचे रखा, सुर्ख लिपस्टिक से सने ओठों को
कानों तक खींच कर हँसी और पूछा,
"कोई मदद चाहिए हनी?"
ताहिरा की जान में जान आई और हलक में अटक कर रह गई।
लिपस्टिकी औरत ताहिरा से नहीं, भभकी से बात कर रही थी।
भभकी ने ताहिरा के कूल्हों पर फिरते अपने हाथ को ज़ोर से
दबाया और बड़ी सी चुटकी भर के कहा,
"ऐसी कोई बात नहीं, मॅगी। मैं तो इस हूर परी से पूछ रहा
हूँ कि क्या ये मुझे कहीं भी ज़रा सा छू कर देखना चाहती है
कि मैं कितना ऊपर उठ सकता हूँ।"
अब वो ताहिरा के हाथ को अपनी कमीज़ के अंदर घुसेड़ता हुआ
नीचे की तरफ ढकेल रहा था। पूरे ज़ोर से उसे धक्का देकर
ताहिरा भागी। घर के दरवाज़े पर ही बिली दिखाई दिया। ताहिरा
की हिम्मत न हुई कि उससे कुछ कहे या पूछे। क्या उसने वह
देखा था जो ताहिरा के साथ हुआ? या वो बिली के लिए कोई
देखने वाली वारदात ही न थी। वह करन को फोन करना चाहती थी,
लेकिन उसके लिए बिली की इजाज़त लेनी पड़ती। फोन बिली के कमरे
में ही था, ताहिरा कतरा गई।
अपने कमरे में पहुँच कर उसने दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया।
उसका जी चाह रहा था कि किसी रोशन जगह पर एक महफूज़ कोने में
बैठ जाए और दहाड़ें मार कर रोए। लेकिन धूप से चौंधियाई उसकी
आँखों को सारा कमरा घुप्प अँधेरे में खोया लगा। वैसे भी
कमरे की छोटी सी खिड़की के आगे लगे भारी भरकम पुराने परदों
की ओट से रोशनी अंदर आते हुए सहम जाती थी। ताहिरा ने खिड़की
के पास जाकर एक परदा हटा दिया और उसी के साथ टंगी डोरी से
बाँधना चाहा। तभी बाहर से फेंकी एक ईंट खिड़की के शीशे पर
लगी और काँच के कई टुकड़ों समेत कमरे की दरी पर आकर टिक गई।
हटाया हुआ परदा ताहिरा के हाथ से छूट कर फैल गया।
बुत सी बनी ताहिरा कुछ देर चुपचाप खिड़की के पास खड़ी रही।
फिर हल्के अँधेरे को टटोलती हुई बिजली का स्विच जला कर वह
कमरे के दरवाज़े के साथ पीठ टिका अपने आस पास देखने लगी। इस
चौकोर कमरे का कौन सा कोना ऐसा महफूज़ है जहाँ वह अपने
घुटनों पर सिर रख कर आँखें बंद कर ले?
अचानक ताहिरा के सारे बदन में एक ज़ोर से कँपकँपी उठी जैसे
उसने कोई बिजली का नंगा तार छू लिया हो।
"हाँ," उसने लंबी सांस ली, "अब मुझे पता लग गया कि मैं करन
के घर से जाने के बाद खिड़की के पास ही क्यों बैठ जाती
हूँ," वह अब अपने आप से बात कर रही थी।
"मुझे खौफ लगा रहता है कि मेरे अकेले होते ही इस कमरे की
कोई न कोई चीज़ अपना हुलिया बदल डालेगी। किसी न किसी बहाने
मुझसे वह करवा देगी जो मुझे नहीं करना चाहिए।"
वह बोलती जा रही थी।
"नहीं कुछ करवाएगी नहीं, टोकेगी हाँ टोकेगी वह करने से जो
मैं करती रहती हूँ।"
अब वो आँखें फाड़ फाड़ कर सारे कमरे को देखने लगी जैसे हर
छिपे हुए जिन्न का सुराग ढूँढती हो।
छोटे से कमरे में ठूँस कर रखा हुआ तमाम फर्नीचर या तो बहुत
बड़ा था या सालों के इस्तेमाल का मारा। भरकम फोर पोस्टर बेड
के ऊपर उबड़ खाबड़ लिहाफों और पैबंद लगे सीले से कम्बलों का
एक ढेर था जिसे तेज़ धूप और ताज़ी हवा की सख्त ज़रूरत थी।
छिलते हुए बदरंग गद्दों से ढकी, छुओ तो कराहती एक ही कुरसी
थी जिसमें एक अकेला बैठे तो पीठ का सहारा देने में लुड़क
जाए और दो जन बैठें तो साँस न ले सकें।
कमरे के बीचो बीच टेड़ी मेड़ी टाँगों वाली एक गोल तिपाई के
आस पास दो भारी लोहे के फ्रेम की कुर्सियाँ थीं जिन्हें
खाना खाते वक्त ज़रा भी खींचना धकेलना पड़े तो नीचे बिछी
बेरंग दरी का छेक और फैल जाए।
बुझी राख से भरी ठंडी फायरप्लेस को भुतहा बनाने के लिए अगर
कोई कमी थी तो सिर्फ एकाध मकड़ी के जाले की, वरना उसके
सामने पड़े पुराने ताँबे और लोहे के काले देगचे तो पहले ही
आग फूँकने और बुझाने के हथियारों से लैस थे।
जो कभी फर्शी दरी रही होगी, अब वह एक बड़ा सा चिथड़ा था जिसे
खींच तान कर उसके पैबंदों को फर्नीचर के नीचे छिपा दिया
गया हो।
फोर पोस्टर बेड कई बार ताहिरा को अकेले पा कर फुसफुसा चुका
था।
"मत सोया करो इसके साथ। यह तुम्हारे ऊपर सवार होकर तुम्हें
कचोटेगा और तुम्हारा दम घोट कर खुद आराम से ख़र्राटे लेगा?"
शाम को करन के आने से पहले जब वह खाने वाली मेज़ पर प्लेटे
सजाती तो कई बार मेज़ की टेड़ी मेड़ी टाँगें ताहिरा के टखनों
या घुटनों से टकरा कर टोकतीं,
"क्यों रोज़ रोज़ उसके लिए ऐसा लज़ीज़ खाना पकाती हो वो तो
तुम्हें रोज़ाना पिल्स ही खाने को कहता है न ताकि उसका मज़ा
बना रहे और तुम अभी माँ न बन सको। तुम्हें क्या जल्दी है
माँ बनने की अभी तो तुम्हें तेईसवाँ साल ही लगा है न मत
फटकने दो उसे अपने पास पिल्स खाकर जो सारा दिन तुम्हारा मन
भारी रहता है उसे पल दो पल के शौक से क्या बहलाना?"
दिन के गुमसुम हल्के उजाले में जब वह बेनागा फायरप्लेस के
उपर वाली मैन्टलपीस की धूल झाड़ती, तो राख की ठंडी ढेरी
नीचे से बुदबुदा कर इल्तजा करती।
"मेरी बात सुनो ताहिरा, कहीं से थोड़ी सी सूखी लकड़ी लाकर बस
एक बार मुझे जलती आग की गरमी दे दो। फिर देखना, मैं किस
होशियारी से इस सारे कमरे को फूँक कर अपने जैसा बना
दूँगी।"
कमरे में इधर उधर जाते जब कभी किसी पैबंद पर उसका पाँव
पड़ता तो पूरी की पूरी फर्शी दरी सिहर उठती।
"मेरी भी मजबूरी है, ऐ खूबसूरत शहज़ादी ऐसी जगह–जगह से छिदी
हुई न होती तो तेरा तिलस्मी कालीन बन जाती। रोज़ दिन में
उड़ाकर तुम्हें ज़ाहिदा ख़ाला के पास छोड़ती और शाम को लौटा
लाती, करन के घर वापिस आने से पहले। मज़ाल थी किसी की जो
गलत–सलत कह–छू कर तुम्हें परेशान करता?"
•••
ज़ाहिदा के लिए ताहिरा उस कुँवारी माँ की इकलौती औलाद थी
जिसकी गोद तो भरी थी, मगर कोख नहीं।
एक हुनरमंद कहारन के पुश्तैनी ओसारे से तप कर निकला
बेशकीमती तोहफा थी ताहिरा। गुँधती माटी में सर का एक छोटा
सा बाल भी रह गया होता तो तोहफे में खोट रह जाता।
किसी खानदानी ललारी के सधे हुए हाथों से रंगा सतलहरिया
दुपट्टा थी ताहिरा। महीन चुन्नटों मे बँधा कोई रंग ज़रा सा
भी फैल जाता तो दुपट्टे की लहरियाँ सैलाब बन जातीं।
गुजरात से लाहौर जाती पैसंजर गाड़ी के हिचकोले खाती
बीस–बाइस साल की ज़ाहिदा की गोद में पड़ी, मरी माँ के पेट से
निकली, सतमासी पैदाइश का जिंदा करिश्मा ताहिरा।
लाहौर की रिफ्यूजी कालोनी में एक कमरे वाले घर में रहने की
दरख़ास्त लिखती ज़ाहिदा के कंधे से लगी फूल सी हल्की ताहिरा।
रिफ्यूजी कॉलोनी के शोरोगुल भरे अहाते में ज़मीन पर आगे
पाँव पसारे बैठी हुई ज़ाहिदा के घुटनों और टख़नों के बीच
मुँह के बल लिटाई, बादाम के तेल की मालिश करवाती, पटोले सी
ढीली ढाली ताहिरा। आस पास के घरों की अँगीठियों पर मिट्टी का लेप करती उकडू
बैठी ज़ाहिदा की पीठ से चिपटती, अपने पाँव पर खड़ा होना
सीखती ताहिरा। रस्सी पर कढ़ाई किए पलंगपोश को लटकाती, हाथ उठाए खड़ी ज़ाहिदा
की कमर को अपने सिर से छू कर खिल खिल करती गुड़िया सी गोल
मटोल ताहिरा।
गोरी चिट्टी, भूरी नीली आँखों वाली ताहिरा।
घनी पलकों और घुँघराले बालों वाली ताहिरा।
नाजुक अंगुलियों और नर्म हाथ पैरों वाली ताहिरा।
स्कूल का बैग उठाए कॉलनी के नुक्कड़ से सड़क को मुड़ते हुए
लौट लौट कर ख़ाला को हाथ हिलाकर देखती ताहिरा।
और फिर एक दिन अपने चेहरे को दोनों हाथों से थामे ज़ाहिदा
के काँधों से कहीं उपर सिर निकालती, ज़रा सा झिझक कर पूछती
ताहिरा।
"ख़ाला जान, मैं किस के जैसी दिखती हूँ? अम्मी जैसी?"
"आपा जैसे तो बस घने बाल और लंबी गर्दन है तेरी। कद–काठी,
चेहरा–मोहरा, नैन–नक्श सब रायसाहिब के छोटे बेटे गोपाल
जैसे हैं। बड़ा खूबरू था वो जब मैंने देखा था," ज़ाहिदा ने
कहा और एक ठंडी साँस भरी।
बदरूनिसा से मिलने ज़ाहिदा कभी कभार ढक्की दरवाज़ा गली चली
जाती थी। छुट्टी वाले दिन जाती तो कहीं न कहीं गोपाल दिखाई
दे जाता। कभी घर में, कभी गली में। सीढ़ियाँ उतरते–चढ़ते
एकाध बार ज़ाहिदा का दुपट्टा गोपाल की कमीज़ की कुहनी छू
लेता।
"चाची, मैं पूछ रहा था," कहता हुआ गोपाल रसोई में गपशप
करती बहनों को अपने आने से आगाह करता और फिर चाय या पानी
की फरमाईश करते कुछ देर के लिए दहलीज़ पर टिका रहता।
पता नहीं किस रिश्ते से उसने बदरूनिसा को चाची कहना शुरू
किया था। एक बार 'इविनिंग इन पेरिस' के अत्तर की दो छोटी
छोटी नीली शीशियाँ ले आया और चाची की दे दीं।
"यह दो किस लिए?" बदरूनिसा ने पूछा,"एक तो आपके लिए है
चाची। दूसरी आप ज़ाहिदा को दे दें न" कह कर वह दहलीज़ पर
टिके बिना मुड़ गया। ज़ाहिदा ने शीशी लेने को हाथ बढ़ाया तो
बदरूनिसा ने छोटी बहिन का हाथ अपने दोनों हाथों में ले
लिया।
"मत कुबूल कर ये तोहफा, मेरी लाड़ो। जिस गली में रहना नहीं
उसका पता पूछ कर क्या करेगी?"
बँटवारे के बाद गोपाल ने बदरूनिसा को एक ख़त लिखा जिसे
अमृतसर से लाहौर पहुँचने में करीबन बीस बरस लग गए। दंगे
फसादों के ख़ून–ख़राबे में कुछ डाक के थैले भी ज़ख्मी हुए थे।
मारो काटो से लहू–लुहान एक मुसाफिर ने रात के अँधेरे में
डाक गाड़ी के थैलों में पनाह ली थी और वहीं पर हमेशा के लिए
सो गया था। उसके ज़ख्मों के निशान कुछ थैलों की उपरी परत से
चिपटे ख़तों ने अपने उपर ले लिए थे। गोपाल के लिखे ख़त पर
"बीवी बदरूनिसा, मकान नम्बर चौदह, ढ़लकी दरवाज़ा गली" बच
गया, "गुजरात" धब्बा बन गया। ख़त शहरों शहरों भटका। "यहाँ
नहीं है" के ठप्पे खा खाकर तुड़ा मुड़ा। जब गुजरात के एक
पुराने डाकिये के हाथ पड़ा, तो अपने दोनों हाथ उपर उठा कर
कहा,
"वाह री चिठ्ठी, इतने बरसों बाद तुझे अपना सिरनांवा मिला
है तो ज़रूर ख़ुदा बिछड़ों को मिलाने की अपनी तज़वीज़ में मुझे
शामिल करना चाहता है।"
चौदह नम्बर मकान के नए मालिक को वहाँ रहते दस बरस गुज़र
चुके थे। डाकिए ने ख़त उसे नहीं, बेकरी वाले बख्तियार को दे
दिया। बदरीलाल के नुक्कड़ वाले मकान में अब वही रहता था। जब
तक उसकी घरवाली जीती थी, ज़ाहिदा के साथ ख़तो–ख़ताबत करती
रही। एकाध बार लाहौर जाकर मिल भी आई थी।
गोपाल का ख़त ज़ाहिदा को मिल गया। उसने बार बार पढ़ा। ताहिरा
को पढ़ाया।
अमृतसर
१ अक्तूबर १९४७
चाची,
भाइया जी को हम उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ अपने साथ लाए थे। वो
अमृतसर नहीं पहुँचे। बॉर्डर पार करने से पहले ही खून ख़राबे
में दम तोड़ दिया और अपनी ज़िद रख ली।
इकबाल भापा पुलिस में भरती हो गया है। मैं एल.एल.बी. में
दाख़ला ले रहा हूँ।
आप लोगों की सलामती की दुआ करता हूँ। अपनी ख़ैरियत का ख़त
अमृतसर पुलिस स्टेशन के मार्फत लिखेंगी तो हमें मिल जाएगा।
गोपाल
"जिन लोगों की सलामती माँगी है इस ख़त ने, उसमें तो तू और
मैं भी आते हैं न?" ज़ाहिदा ने ताहिरा से पूछा। और ख़त का
जवाब लिखवा भेजा। इकबाल की मार्फत गोपाल को।
लाहौर
५ जनवरी १९६८
गोपाल भाई जान को ताहिरा का सलाम।
अम्मी के नाम लिखा आप का ख़त मिल गया। वो भी अपनी मर्ज़ी के
खिलाफ ही गुजरात से लाहौर जाने वाली गाड़ी में चढ़ी थी। मगर
उतरी कभी नहीं।
ज़ाहिदा ख़ाला और मैं ख़ैरियत से हैं। मैंने इसी साल बी॰ए॰
किया है।
ख़ाला जान आप सबकी सलामती की दुआ के साथ अपना सलाम कहती है।
ख़त का जवाब आने में मुश्किल से एक महीना भी नहीं लगा।
दिल्ली
१० फरवरी १९६८
ताहिरा बीबी,
अपने भाई जान को लिखा तुम्हारा ख़त पढ़ कर हमें कितनी खुशी
हुई है, इसका शायद ही तुम अंदाज़ लगा सको।
हमारी बेटी चित्रा, तुम्हारे भाई जान और मैं जल्द से जल्द
तुम्हें और ज़ाहिदा को मिलना चाहते हैं। चित्रा इसी साल
आर्ट हिस्टरी में एम॰ए॰ करने लंदन चली जाएगी। कितना ही
अच्छा हो अगर उसके जाने से पहले आप दोनों कुछ दिन हम सब के
साथ हमारे पास रहो।
चित्रा के जाने में अभी दो तीन महीने हैं। वो तुम्हें
मिलने को बहुत उतावली हो रही है। तुम्हारा ख़त आते ही
तुम्हारे यहाँ आने का इंतज़ाम तुम्हारे भाई जान कर देंगे।
ज़ाहिदा को ज़रूर साथ लाना। और हम सब का सलाम कहना।
तुम्हारे भाई जान यहाँ मैजिस्ट्रेट हैं। मैं मोतीलाल नेहरू
कालेज में हिस्टरी पढ़ाती हूँ।
तुम्हारे ख़त के इंतज़ार में बड़े प्यार से,
तुम्हारी भाभी
मालती
•••
मोतीलाल नेहरू कालेज में मालती के कलीग और इंग्लिश विभाग
के हैड डाक्टर शिवनाथ जुत्शी अपने भतीजे करन को चित्रा से
मिलवाना चाहते थे। जम्मू कश्मीर युनिवर्सिटी से पोलिटिकल
साईंस में एम॰ए॰ करने के बाद वो एक साल के लिए कॉमनवेल्थ
फेलोशिप लेकर लंदन जाने वाला था।
मोतीबाग में गोपाल मलिक के ग्राउंडफ़्लोअर वाले फ़्लैट में
उस दिन सुबह से ही आना–जाना लगा था। छुट्टी का दिन था।
मिलने वाले चित्रा को लंदन जाने की बधाई देने आते, और
ताहिरा को मिल कर जाते। शाम को करन जब अपने चाचा के साथ
पहुँचा तब भी चार पाँच लोग गोपाल और ताहिरा को घेरे बैठे
थे। नए आने वालों का स्वागत करने के लिए गोपाल को उठते
देख, करन ने दोनों हाथ जोड़ कर अपना माथा छुआ और फिर एक
सरसरी नज़र आस पास दौड़ा कर कहा,
"मुझे खुद ही आप दोनों को पहचान लेने का मौका दीजिए, सर।
आप मैजिस्ट्रेट गोपाल मलिक हैं, और जो आप के बायें हाथ
बैठी हैं, वह आपकी बेटी चित्रा है।"
गोपाल उस से हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़े ही थे कि करन ने
उन्हें बड़े ही नाटकीय तरीके से फौजी सलाम ठोका।
"मैं पूरी इमानदारी से कसम खा कर कहता हूँ, सर मैंने
बाप–बेटी की ऐसी खूबसूरत हमशकल जुड़वाँ जोड़ी नहीं देखी।"
गोपाल मुस्करा दिए। करन के कंधे पर अपना हाथ रख कर पूछा,
"तुम करन हो न तुम्हें तो अपने चारों तरफ खूबसूरती देखने
की आदत होनी चाहिए भई। कश्मीर की वादी तो खूबसूरती की
जन्नत है।"
"कश्मीर की वादी न सर मगर मैं तो दिल्ली की बात कर रहा
हूँ। पिछले एक महीने में कनाट प्लेस के कई चक्कर लगा चुका
हूँ। लगता है अच्छी सूरतें मोतीबाग से बाहर नहीं निकलतीं
आजकल।"
गोपाल अब हँस दिए। ताहिरा के सिर पर अपना हाथ रखा और कहा,
"यह ताहिरा है। मेरी छोटी बहिन।"
"ताहिरा?" करन ने दुहराया।
"हाँ, परसों ही लाहौर से आई है।" गोपाल कुछ रूक कर बोले,
"बँटवारे में गुम गई थी। अब मिली है।"
करन ने ताहिरा को उपर से नीचे तक बड़े गौर से देखा। थोड़ी
देर चुप रहा और फिर बड़े ही तपाक से बोला।
"यह गुम कैसे हो सकती है सर? इन्हें देखकर तो देखने वालों
के होश–हवास गुम हो सकते हैं। एक बार दिखाई दे जाएँ तो
दुबारा देखने की उम्मीद में भूख–प्यास गुम हो सकती है।"
कमरे में बैठे हुए सभी लोग अपनी बातचीत छोड़ कर करन और
गोपाल को ही देख रहे थे। एक पुरज़ोर ठहाके की आवाज़ हुई,
जिसमें डाक्टर शिवनाथ जुत्शी भी शामिल थे। अब कहीं जाकर
उन्हें गोपाल से हाथ मिलाने का मौका मिला।
"बड़ा हाज़िरजवाब और खुश मिज़ाज है आपका भतीजा, जुत्शी
साहिब।" गोपाल ने कहा, "फ़े.लोशिप का टॉपिक जो भी हो, इसके
हाथ लग कर दिलचस्प हो जाएगा।"
"कहता तो है कि पार्लियामेंट्री प्रणालियों और परंपराओं की
जानकारी हासिल कर के किसी पोलीटिकल पार्टी में शामिल हो
जाऊँगा।" डॉ॰जुत्शी बोले।
"यहाँ या वहाँ?" गोपाल ने करन को ज़रा छेड़ कर कहा।
"इस का फैसला तो मौका–माहौल देखकर ही
होगा न सर। इस वक्त तो बस यही तय किया है कि लंदन में रह
कर अंग्रेज़ी बोलना सीखूँगा।"
"क्यों बर्खुरदार? अंग्रेज़ी तो तुम अब भी अच्छी ख़ासी बोलते
हो। उसके लिए लंदन जाना? बात कुछ बनी नहीं।" गोपाल को करन
से चुहल सी करने में लुत्फ आ रहा था।
"बात ही तो बनती है सर। कोई मामूली सी बात भी अगर ब्रिटिश
एक्सेंट में अंग्रेज़ी बोल कर कहें, तो उसमें काफी वज़न आ
जाता है।" करन ने कहा और फिर निहायत संजीदगी से बी बी सी
वाले एक्सेंट की बखूबी नकल करते हुए बोला,
"आई कैन नौट से इट विद एब्सोल्यूट सरटेनिटी फ्रॉम दिस
डिस्टेंस बट इट अपियर्स दैट विजय हज़ारे इज़ गोइंग टु बी
डिक्लेयर्ड एल बी डब्ल्यू।"
कमरे में फिर एक खुला हुआ ठहाका उठा। गोपाल ने हँसते हुए
करन की पीठ ठोकीं और बोले,
"बहुत खूब" फिर ड्राइंगरूम के अंदर की तरफ खुलते हुए
दरवाज़े की ओर बढ़ते हुए कहा,
"मैं चित्रा को बुलाकर लाता हूँ। तुम उससे मिलना चाहते थे
न?"
करन ने गोपाल का रास्ता रोक लिया।
"एक मिनट रूक जाइए सर, मुझे आपसे कुछ पूछना है।"
गोपाल ने सिर हिलाकर हामी भर दी। करन अब ताहिरा की तरफ
बढ़ा, फिर जिस कुरसी पर वो बैठी थी, उसके पास खड़ा हो गया।
"मैं पूछना चाहता हूँ सर कि आपकी बहिन बोल तो लेती है न?"
गोपाल दरवाज़े की तरफ जाते जाते मुड़ आए।
"ताहिरा, अगर तुम कहो तो इस बातूनी के लिए तुम्हारी तरफ से
मैं कुछ कह दूँ?"
"कहिए न भाई जान।" ताहिरा बड़े अदब से बोली और कुर्सी से उठ
कर गोपाल के पास खड़ी हो गई।
"तुम्हारी अम्मी कभी कभी एक गज़ल गुनगुनाया करती थी। उसी का
एक शेर याद आ रहा है," गोपाल ने ताहिरा की पीठ पर अपना हाथ
रख कर कहा और करन की तरफ देखा।
"प्लीज़ सर इनकी तरफ से कहिए तो कुछ भी कह दीजिए," करन
बोला। "मैं ही नहीं, यहाँ बैठे सभी लोग सुनना चाहेंगे।"
"अच्छी बात है। सुनिए, शेर ग़ालिब का है। ताहिरा की अम्मी
उनकी ग़ज़लें अक्सर अपने रेडिओ प्रोग्राम में गाती थीं।" वह
बोलते बोलते रूक गए जैसे कुछ और याद आ गया हो।
"हमारे साथ रहना शुरू किया तो गाना छोड़ दिया पर गुनगुना
देती थी कभी कभी।"
कमरे में एकदम ख़ामोशी छा गई। गोपाल ने शेर कहा,
"है कुछ ऐसी ही बात कि चुप हूँ
वरना क्या बात कर नहीं आती।" |