मिसेज ऐकेलोफ का क्या हुआ
होगा? योके दौडकर दूसरे कमरे में गयी-लेकिन देहरी पार करते ही ठिठक गयी।
श्रीमती एकेलोफ धुँधली खिडक़ी के पास घुटने टेककर बैठी थीं। उनकी पीठ योके की ओर
थी। रूमाल से ढँका हुआ सिर तनिक-सा झुका हुआ था, जिससे योके ने अनुमान किया कि
वह प्रार्थना कर रही होंगी। वह दबे पाँव लौटकर जाने ही वाली थी कि श्रीमती
एकेलोफे ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘क्यों, योके, तुम डर तो नहीं गयीं ?’’
योके को प्रश्न अच्छा नहीं लगा। उसने कुछ रुखाई से कहा, ‘‘किससे ?’’
श्रीमती एकेलोफ ने कहा, ‘‘हम लोग बर्फ के नीचे दब गए हैं। अब न जाने कितने दिन
यों ही कैद रहना पड़ेगा। मैं तो पहले एक-आध जाड़ा यों काट चुकी हूँ लेकिन
तुम-’’
योके ने कहा, ‘‘मैं बर्फ से नहीं डरती। डरती होती तो यहाँ आती ही क्यों ? इससे
पहले आल्प्स में बर्फानी चट्टानों की चढ़ाइयाँ चढ़ती रही हूँ। एक बार हिम-नदी
से फिसलकर गिरी भी थी। हाथ-पैर टूट गए होते-बच ही गयी। फिर भी यहाँ भी तो बर्फ
की सैर करने ही आयी थी।’’
श्रीमती एकेलोफ ने कहा, ‘‘हाँ, सो तो है। लेकिन खतरे के आकर्षण में बहुत-कुछ सह
लिया जाता है-डर भी। लेकिन यहाँ तो कुछ भी करने को नहीं है।’’
योके ने कहा, ‘‘आंटी सेल्मा, मेरी चिन्ता न करें-मैं काम चला लूँगी। लेकिन आपके
लिये कुछ-’’
सेल्मा एकेलोफ के चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान खिल आयी। ‘आंटी’ सम्बोधन उन्हें
शायद अच्छा ही लगा। एक गहरी दृष्टि योके पर डालकर तनिक रुककर उन्होंने पूछा,
‘‘अभी क्या बजा होगा?’’
योके ने कलाई की घड़ी देखकर कहा, ‘‘कोई साढ़े ग्यारह?’’
‘‘तब तो बाहर अभी रोशनी होगी। चलकर कहीं से देखा जाए कि बर्फ कितनी गहरी
होगी-या कि खोद-खादकर रास्ता निकालने की कोई सूरत हो सकती है या नहीं। वैसे
मुझे लगता तो यही है कि जाड़ों भर के लिये हम बन्द हैं।’’
योके ने कहा, ‘‘मेरी तो छुट्टियाँ भी इतनी नहीं है।’’ और फिर एकाएक इस चिन्ता
के बेतुकेपन पर हँस पड़ी।
आंटी सेल्मा ने कहा, ‘छुट्टी तो शायद-मेरी भी इतनी नहीं है-पर-’
योके ने चौंकते हुए पूछा, ‘आपकी छुट्टी, आंटी सेल्मा ?’
श्रीमती एकेलोफ ने बात बदलने के ढंग से कहा, ‘फिर यह भी देखना चाहिए कि इस
कैबिन में रसद-सामान कितना है-यों जाड़ा काटने के लिये सब सामान होना तो चाहिए।
चलो, देखें।’
योके वापस मुड़ी और अपने पीछे श्रीमती एकेलोफ के धीमे, भारी और कुछ घिसटते हुए
पैरों की चाप सुनती हुई रसोई की ओर बढ़ चली। रसोई के और उसके साथ के भंडारे से
दोनों ही प्रश्नों का उत्तर मिल सकेगा-रसद का अनुमान भी हो जाएगा और अगर बर्फ
के बोझ के पार प्रकाश की हलकी-सी भी किरण दीखने की सम्भावना होगी तो वहीं से
दीख जाएगी। क्योंकि उसका रुख दक्षिण-पूर्व को है और धूप यहीं पड़ सकती है-धूप
तो अभी क्या होगी, पर इस बर्फ के झक्कड़ में जितना भी प्रकाश होगा उधर ही को
होगा।
दोनों ही प्रश्नों का उत्तर एक ही मिलता जान पड़ा-कि जो कुछ है जाड़ों भर के
लिये काफी है। खाने-पीने का सामान भी है और चर्बी के स्टोव के लिये काफी ईंधन
भी, और शायद जितनी बर्फ के नीचे वे दब गयी हैं उसके मार्च से पहले गलने की
सम्भावना बहुत कम है। बर्फ की तह शायद इतनी मोटी न भी हो कि बाहर से उसे काटना
असम्भव हो, लेकिन बाहर से उसे काटेगा कौन, और भीतर से अगर काटना शुरू करके वे
इस एक हिमपात के पार तक पहुँच भी सकें तो तब तक और बर्फ न पड़ जाएगी इसका क्या
भरोसा है? यह तो जाड़ों के आरम्भ का तूफान था, इसके बाद तो बराबर और बर्फ पड़ती
ही जाएगी। उन्हें तो यही सुसंयोग मानना चाहिए कि वे बर्फ के नीचे ही दबीं,
जिससे कैबिन बचा रह गया और अब जाड़ों भर सुरक्षित ही समझना चाहिए। अगर उसके साथ
चट्टान भी टूटकर गिर गयी होती-तब?
इस कल्पना से योके सिहर उठी और बोली, ‘‘चलिये, चलकर बैठें। अभी तो कुछ करने को
नहीं है, थोड़ी देर में भोजन की तैयारी करूँगी।’’
दूसरे कमरे में जाकर बैठते हुए श्रीमती एकेलोफ ने कहा, ‘‘अबकी बार बिलकुल पूरा
क्रिसमस होगा। क्रिसमस के साथ बर्फ जरूर होनी चाहिए और अबकी बार बर्फ-ही-बर्फ
होगी-नीचे-ऊपर सब ओर बर्फ-ही-बर्फ।’’
एक स्वरहीन हँसी हँसकर उन्होंने फिर कहा, ‘‘थोड़ी-सी लकड़ी भी तो पड़ी है-उसको
अगर अभी से लाकर यहीं रख छोड़ें तो सूखी रहेगी और क्रिसमस के दिन भारी आग
जलाएँगे क्योकि गरमाई भी तो बर्फ से कम जरूरी नहीं है।’’
योके ने खोए हुए स्वर में कहा, ‘‘लेकिन आंटी, क्रिसमस तो अभी बड़ी दूर है। तब
तक क्या होगा?’’
आंटी सेल्मा उठकर योके के पास आ गयीं और उसके कन्धे पर हाथ रखती हुई बोलीं,
‘‘योके, तुम्हारी अभी उमर ही ऐसी है न। सभी-कुछ बड़ी दूर लगता है। मुझसे पूछो
न, क्रिसमस कोई ऐसी दूर नहीं है, मेरे लिये...-’’ और वह फिर बात अधूरी छोडकर
चुप हो गयीं।
योके ने एक बार तीखी नजर से उनकी ओर देखा। आंटी सेल्मा क्या कहना चाहती हैं, या
कि क्या कहना नहीं चाहतीं जो बार-बार उनकी जबान पर आ जाता है? क्या वह उनसे
सीधे-सीधे पूछ ले कि उनके मन में क्या है ? क्या सचमुच आंटी सेल्मा का यही
अनुमान है कि वे दोनों अब बचेंगी नहीं-यही बर्फ से ढँका हुआ काठ का बँगला उनकी
कब्र बन जाएगा। बल्कि कब्र बन क्या जाएगा, कब्र तो बनी-बनाई तैयार है और उन्हीं
को मरना बाकी है। कब्र तो समय से ही बन गयी है-उन्हें ही मरने में देर हो गयी
है-इस काल-विपर्यय के लिये भी विधि को दोष नहीं दिया जा सकता।
लेकिन वह आंटी सेल्मा से क्या पूछे-कैसे पूछे? यहाँ सेर करने और बर्फ पर दौड़
करने तो वह स्वेच्छा से ही आयी थी और पहाड़ की अधित्यका में इस काठी-बँगले की
स्थिति से आकृष्ट हो गयी थी, और यहाँ रहने का प्रस्ताव भी उसी ने किया था। आंटी
सेल्मा गड़रियों की माँ हैं-दो लडक़े अब भी गड़रिए हैं, एक लकड़हारा हो गया है,
तीनों नीचे गए हुए हैं और जाड़ों के बाद ही लौटकर आएँगे। यह तो उनका हर साल का
क्रम है- जाड़ों में रेवड़ लेकर नीचे चले जाते हैं और वसन्त में फिर आ जाते हैं।
यों तो आंटी सेल्मा को भी चले जाना चाहिए था, लेकिन न जाने क्यों इस वर्ष वह
यहीं रह गयीं। उन्हें देखकर पहले तो योको को आश्चर्य हुआ था। क्योंकि उसका
अनुमान था कि काठ-बँगला खाली ही होगा, जैसा कि प्राय: इन पहाड़ों में होता है।
फिर उसने मन-ही-मन अनुमान कर लिया था कि बुढिया कंजूस और शक्की तबीयत की होगी
और उसको सामान से भरा हुआ घर खाली छोडकर जाना न रुचा होगा-जाड़ों में काम-काज
तो कुछ होता नहीं, और बर्फ के नीचे उतनी ठंड भी नहीं होती जितनी बाहर खुली हवा
में, बूढ़ों को चिन्ता किस बात की-एक ही जगह बैठे-बैठे पगुराते रहते हैं। अतीत
की स्मृतियाँ कुरेदकर जुगाली करते हैं और फिर निगल लेते हैं।
लेकिन जाड़ों भर यों अकेले पड़े रहना साहस माँगता है-कंजूस होना ही तो काफी
नहीं है, और बुढिया को कहीं कुछ हो हवा जाए तो...
योको ने मानो अपने विचारों की गति रोकने के लिये ही कहा, ‘‘थोड़ी-सी लकड़ी तो
आज भी जलायी जा सकती है-मैं अभी आग जला दूँ?’’
आंटी सेल्मा ने थोड़ी देर सोचती रहकर कहा, ‘‘नहीं, अभी क्या करेंगे? या चाहो तो
रात को जला लेना।’’ फिर थोड़ा रुककर एकाएक : ‘‘या कि तुम्हारी अभी आग जलाकर
बैठने की इच्छा है? मुझे तो आग अच्छी ही लगती है, पर-’’
पर क्या? यही कि लकड़ी अधिक खर्च हो जाएगी? पर वैसा सोचना भी निरी कंजूसी नहीं
है। कम-से-कम ढाई महीने वहाँ काटने की सम्भावना तो उन्हें करनी ही चाहिए-यानी
बचे रहे तो। तीन महीने भी हो जाएँ तो हो सकते हैं। यों यह भी बिलकुल असम्भव तो
नहीं है कि कोई उसे खोजने ही वहाँ आ जाए-घर के लोगों को तो पता ही है और पॉल तो
यहाँ से एक ही दिन की दूरी पर होगा। पॉल तो रह नहीं सकेगा-जरूर उसे ढूँढ़ ही
निकालेगा-लाखों, करोड़ों में तुरन्त पहचान लेता...वह दूसरी टोली के साथ दूसरे
पहाड़ पर गया था और बर्फ से उतरते आते हुए नीचे मिलने की बात थी। ढाई महीने-तीन
महीने! कब्रगाह-क्रिसमस! पाताल-लोक में देव-शिशु का उत्सव। नगर में भगवान! पॉल
ढूँढ़ निकालेगा-पर किसको, या मेरी...
अनचाहे ही योके के मुख से निकल गया, ‘‘नहीं आंटी सेल्मा, मुझे अच्छा नहीं लग
रहा है। आग से शायद-’’
आंटी सेल्मा फिर थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से योके की ओर देखती रहीं फिर उन्होंने
धीरे-धीरे, मानो आधे स्वागत भाव से कहा, ‘‘खतरे की कोई बात नहीं है, योके! वैसे
खतरा तुम्हारे लिये कोई नई चीज भी नहीं है। तुम तो तरह-तरह के खतरनाक खेल
खेलती रही हो। लेकिन एक बात है। खतरे में डर के दो चेहरे होते हैं, जिनमें से एक
को दुस्साहस कहते हैं, कई लोग इसी एक चेहरे को देखते हुए बड़े-बड़े काम कर
बैठते हैं और कहीं-के-कहीं पहुँच जाते हैं। लेकिन धीरज में डर का एक ही चेहरा
होता है, और उसे देखे बिना काम नहीं चलता। उसे पहचान लेना ही अच्छा है-तब उतना
अकेला नहीं रहता। निरे अजनबी डर के साथ कैद होकर कैसे रहा जा सकता है? ...अच्छा,
तुम आग जला लो, फिर मेरे पास बैठो, बहुत-सी बातें करेंगे। मैं तो अजनबी डर की
बात कह गयी- अभी तो हम-तुम भी अजनबी से हैं, पहले हम लोग तो पूरी पहचान कर
लें।’’
१५ दिसम्बर :
कब्रघर के दस दिन। सुना है कि दसवें दिन मुर्दे उठ बैठते हैं और किसी फरिश्ते
के सामने अपना हिसाब-किताब करने के लिये हाजिर होते हैं। लेकिन इस कब्रगाह में
तो हम दो ही हैं, और उठ बैठने का कोई सवाल ही नहीं हुआ-और फरिश्ता भी तो हम
दोनों में से किसको समझा जाए।
आंटी सेल्मा तो बूढ़ी है, और हिसाब करने का दिन उसका ही पहले आएगा। या कि
कम-से-कम उसके मन की अवस्था कुछ अधिक वैसी होगी। लेकिन फरिश्ता क्या मैं हूँ?
मेरे भीतर जैसे दूषित विचार उठते हैं उनको देखते हुए इस कल्पना से बड़ा व्यंग्य
और नहीं हो सकता! फरिश्ता हम दोनों से से कोई है तो शायद आंटी सेल्मा, जिसके
चेहरे पर अचानक कभी-कभी एक भाव दीखता है जो मानो इस लोक का नहीं है-और जिसे
देखकर मैं बेचैन हो उठती हूँ कि कुछ तोड़-फोड़ कर बैठूँ।
१६ दिसम्बर :
एक अन्तहीन, परिवर्तनहीन धुँधली रोशनी, जो न दिन की है, न रात की है, न सन्ध्या
के किसी क्षण की ही है-एक अपार्थिव रोशनी जो कि शायद रोशनी भी नहीं है, इतना ही
कि उसे अन्धकार नहीं कहा जा सकता। हमेशा सुनती आयी हूँ कि कब्र में बड़ा अँधेरा
होता है, लेकिन यहाँ उसकी भी असम्पूर्णता और विविधता है। शायद यही वास्तव में
मृत्यु होती है, जिसमें कुछ भी होता नहीं, सब कुछ होते-होते रह जाता है।
होते-होते रह जाना ही मृत्यु का विशेष रूप है जो मनुष्य के लिये चुना गया है
जिसमें कि विवेक है, अच्छे-बुरे का बोध है। यह उसमें न होता तो उसका मरना
सम्पूर्ण हो सकता। जो चुकता वह सम्पूर्ण चुक जाता, या जो रहता उसका बना रहना ही
असन्दिग्ध होता। यह हमारे युगों से सँचे हुए नीति-बोध की सजा है कि हमारा मरना
भी अधूरा ही हो सकता है-मरकर भी कुछ हिसाब बाकी रह जाता है।
एक धुँधली रोशनी-एक ठिठका हुआ नि:संग जीवन। मानो घड़ी ही जीवन को चलाती है,
मानो एक छोटी-सी मशीन ने जिसकी चाबी तक हमारे हाथ में है, ईश्वर की जगह ले ली
है। और हम हैं कि हमारे में इतना भी वश नहीं है कि उस यन्त्र को चाबी न दें,
घड़ी को रुक जाने दें, ईश्वर का स्थान हड़पने के लिये यन्त्र के प्रति विद्रोह
कर दें, अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दें!... घड़ी के रुक जाने से समय तो नहीं
रुक जाएगा और रुक भी जाएगा तो यहाँ पर क्या अन्तर होनेवाला है, घड़ी के चलने पर
भी तो यहाँ समय जड़ीभूत है। एक ही अन्तहीन लम्बे शिथिल क्षण में मैं जी रही
हूँ-जीती ही जा रही हूँ-और वह क्षण जरा भी नहीं बदलता, टस-से-मस नहीं होता है!
क्या अपने सारे विकास के बावजूद हम मनुष्य भी निरे पौधे नहीं है जो बेबस सूरज
की ओर उगते हैं? अँधेरे में भी अंकुर मिट्टी के भीतर-ही-भीतर की ओर बढ़ता हैं,
रौंदा जाकर फिर टेढ़ा होकर भी सूरज की ओर ही मुड़ता है। कोई कहते हैं कि सब
पौधे धरती के केन्द्र से बाहर की ओर बढ़ते हैं-यानी केन्द्र से दूर हटने की
प्रवृत्ति उन्हें सूरज की ओर ठेलती है। लेकिन इस केन्द्रापसारी प्रवृत्ति को भी
अन्तिम मान लेना तो वैसा ही है जैसे हम पृथ्वी को सौर-मंडल से अलग मान लें।
पृथ्वी भी सूरज ओर खिंचती भी है और सूरज की ओर से परे को ठिलती भी रहती है।
इसी तरह अंकुर भी जड़ों को नीचे की ओर फेंकता है और बढ़ता है सूरज की ओर।
और हम जड़ें कहीं नहीं फेंकते, या कि सतह पर ही इधर-उधर फैलाते जाते हैं, लेकिन
जीते हैं सूरज के सहारे ही, अनजाने ही वह हमारे जीवन की हर क्रिया को, हर गति
को अनुशासित कर रहा है। हम सब मूलतया सूर्योपासक हैं, और हमारे चिन्तन में चाहे
जो कुछ हो, हमारे जीवन में सूर्य ईश्वर का पर्याय है। सूर्य और ईश्वर, सूर्य और
समय, इसलिये सूर्य और हमारा जीवन-जहाँ सूर्य नहीं है वहाँ समय भी नहीं है।
लेकिन मैं जहाँ हूँ क्या सूर्य वहाँ सचमुच नहीं है? क्या काल वहाँ सचमुच नहीं
है? क्या दावे से ऐसा न कह सकना ही मेरी यहाँ की समस्या नहीं है? मैं मानो एक
काल-निरपेक्ष क्षण में टँगी हुई हूँ-वह क्षण काल की लड़ी से टूटकर कहीं छिटक
गया है और इस तरह अन्तहीन हो गया है-अन्तहीन और अर्थहीन।
१८ दिसम्बर :
शाम को हम लोग ताश खेलने बैठे थे। आंटी सेल्मा न जाने कहाँ से एक पुराना डिब्बा
ले आयी थी। जिसमें ताश की जोड़ी रखी थी। मुझसे बोली, ‘‘मुझे खेलना तो नहीं आता,
लेकिन तुम सिखाओगी तो सीख लूँगी। तुम्हारा मन भी लगा रहेगा।’’
ऐसी बात नहीं थी कि वह ताश का खेल बिलकुल न जानती हो। थोड़ी देर बाद जब हम लोग
खेलने लगे तो मैंने पाया कि ऐसा नहीं है कि बुढिया को उलझाए रखने के लिये या
समय काटने के लिये ही हम लोग जबरदस्ती खेल रहे हैं। खेल अपने-आप चल निकला था।
लेकिन एकाएक बुढिया की ओर से पत्ता फेंकने में देर होने पर मैंने आँख उठाकर
देखा-पत्ता खींचते-खींचते वह सो गयी थी, यद्यपि पत्तों पर उसकी पकड़ ढीली नहीं
हुई थी। मैं चुपचाप बैठी रही। अगर उसके हाथ से पत्ते फिसल रहे होते तो लेकर
समेट देती, लेकिन इस हालत में पत्ते लेने की कोशिश में वह जाग जाती। मैं
किंकर्तव्यविमूढ़-सी उसके चहेरे की ओर देखती रही। साधारणतया मैं उसकी ओर प्राय:
नहीं देखती, क्योंकि मुझे डर लगा रहता है कि कहीं मेरी आँखों में कोई छिपा हुआ
विरोध-भाव उसे न दीख जाए, क्या फायदा, जब इस कब्र-घर में जितने दिन साथ रहना
है, रहना ही है...
अब उसका चेहरा देखते-देखते एकाएक मुझे लगा कि वह बड़ा दिलचस्प चेहरा है, जिसे
देर तक देखा जा सकता है। लेकिन अनदेखे ही, क्योंकि बुढिया से आँख मिलने पर शायद
सब कुछ बदल जाता।
चेहरे की हर रेखा में इतिहास होता है और आंटी सेल्मा का चेहरा जिन रेखाओं से
भरा हुआ है वे सब केवल बर्फानी जाड़ों की देन नहीं हैं। लेकिन क्या मैं उस
इतिहास को ठीक-ठीक पढ़ सकती हूँ? आँखों की कोरों से जो रेखाएँ फूटती हैं और एक
जाल-सा बनाकर खो जाती हैं, उनमें कहीं बड़ी करुणा है-एक कर्मशील करुणा, जो
दूसरों की ओर बहती है, ऐसी करुणा नहीं जो भीतर की ओर मुड़ी हुई हो और दूसरों की
दया चाहती हो। लेकिन नासा के नीचे और होंठों के कोनों पर जो रेखाएँ हैं वे इस
करुणा का खंडन न करती हुई भी और ही कुछ कहती हैं...मेरी आँखें सारे चेहरे पर
घूमकर फिर बुढिया की बन्द आँखों पर टिक गयीं। अगर उसकी पलकें पारदर्शी होतीं-एक
ही तरफ से पारदर्शी, जिससे कि बुढिया तो सोई रहती पर मैं उसकी आँखों में झाँक
सकती-तो मैं शायद इस पहेली का उत्तर पा लेती। उन आँखों से पूछ लेती कि बुढिया
के जीवन का रहस्य क्या है-क्या बात है उसके अनुभव-संचय में जिस तक मैं पहुँच
नहीं पाती हूँ।
कि एकाएक मैंने जाना कि बुढिया की आँखें खुली हैं। बिना हिले-डुले अनायास भाव
से वे खुल गयीं थीं और भरपूर मेरी आँखों में झाँक रही थीं। मैंने सकपकाकर आँखें
नीची कर लीं।
बुढिया ने मानो मुझे असमंजस से उबारते हुए कहा, ‘‘मैं सो गयी थी। मुझे माफ
करना।’’ और उसने हाथ का पत्ता खेल दिया।
बात इतनी ही थी। लेकिन न जाने क्यों मुझे लगा कि वह सोई हुई नहीं थी। नींद
में-चाहे कितनी भी ही नींद में-स्नायु कुछ-न-कुछ ढीले होते ही हैं और उनकी
शिथिलता पहचानी जा सकती है। लेकिन बुढिया में कहीं भी उसका कोई लक्षण नहीं दीखा
था-वह मानो एकाएक कहीं गायब हो गयी थी और फिर लौट आयी थी-और उसमें मैं औचक
पकड़ी गयी थी।
२० दिसम्बर :
आज फिर वैसा ही हुआ। बुढिया ने एकाएक आँखें बन्द कर लीं और मुझे लगा कि वह सो
गयी है। लेकिन मैं दुबारा पकड़ी जाने को तैयार नहीं थी। मैंने उसके चेहरे पर
आँखें नहीं टिकायीं, कनखियों से ही बीच-बीच में देखती रही। लेकिन मुझे लगा कि
आंटी का चेहरा सफेद पड़ गया है। मुझे यह भी लगा कि अगर मैं साहस करके आँख उठाकर
देख सकूँ तो पाऊँगी कि उसकी पलकें सचमुच पारदर्शी हैं-बल्कि शायद सारी त्वचा ही
पारदर्शी है।
जब देर तक वह नहीं जागी तो मैंने हिम्मत करके आँखों से, नीचे तक के उसके चेहरे
की ओर देखा। चेहरा निश्चल ही था, लेकिन मुझे लगा कि होंठ न केवल शिथिल ही हुए
हैं बल्कि थोड़ा और कस गए हैं। और गले में एक ओर रह-रहकर एक स्पन्दन भी होता
जान पड़ा-मानो शिराएँ खिंचती हैं और फिर ढीली हो जाती हैं, फिर खिंचती हैं और
फिर ढीली हो जाती हैं। यह तो शायद नींद नहीं है, और बोलना उसमें बाधा देना भी
नहीं होगा...मैंने एकाएक पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है आंटी ?’’
आंटी ने बिना हिले-डुले आँखें खोलकर कहा, ‘‘हाँ, मैं बिलकुल ठीक हूँ-यों ही
थोड़ी शिथिलता आ जाती है।’’
मैं चुप रही। थोड़ी देर बाद आंटी थोड़ा हिली और फिर कुर्सी में ही बैठक बदलकर
पूरी तरह जाग गयी।
मैंने पूछा, ‘‘ओढने को कुछ ला दूँ ?’’
उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। बल्कि जो कहा उससे बिलकुल स्पष्ट था
कि बात टाली जा रही है-कि उन्हें यह पसन्द नहीं कि मैं उनकी तरफ अधिक ध्यान
दूँ।
२१ दिसम्बर
हम समय की बात करते हैं, जो कि एक प्रवाह है। किसका प्रवाह है? क्षण का। लेकिन
क्षण क्या है? यह जानने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। एक ढंग है घड़ी के
टिक्-टिक् के और भी खंड किये जा सकते हैं और माना जा सकता है कि वैसा
छोटा-से-छोटा खंड क्षण है। विज्ञान के तरीके दूसरे भी हैं-निरे गणित से सिद्ध
किया जा सकता है कि समय का छोटे-से-छोटा अविभाज्य अंश कितना होता है और उस अंश
को भी क्षण कहा जा सकता है।
लेकिन ऐसा विज्ञान और ऐसी जानकारी किस काम की? हमारे लिये समय सबसे पहले अनुभव
है-जो अनुभूत नहीं है वह समय नहीं है। सूर्य की गति समय नहीं है, बल्कि उस गति
के रहते क्रमश: जो कुछ होता है उसका होते रहना ही समय की माप है। और अनुभव की
भाषा में ‘क्षण’ क्या है?
समय मात्र अनुभव है, इतिहास है। इस सन्दर्भ में ‘क्षण’ वही है जिसमें अनुभव तो
है लेकिन जिसका इतिहास नहीं है, जिसका भूत-भविष्य कुछ नहीं है, जो शुद्ध
वर्तमान है, इतिहास से परे, स्मृति के संसर्ग से अदूषित, संसार से मुक्त। अगर
ऐसा नहीं है, तो वह क्षण नहीं है, क्योंकि वह काल का कितना ही छोटा खंड क्यों न
हो उसमें मेरा जीना काल-सापेक्ष जीना है, ऐतिहासिक जीना है। वह बिन्दु नहीं है
रेखा है, रेखा परम्परा है और क्षण परम्परामुक्त होना चाहिए।
आंटी सेल्मा इन बातों को नहीं सोच सकती, नहीं तो मैं उससे इस बारे में बात
करती। उसके जीवन में कूछ है जो इन सब बातों से बिलकुल अलग है। वह मेरे लिए
अजनबी है, लेकिन लगता है कि उसमें कुछ ऐसा सच है जो मैंने नहीं जाना। मेरे सच
से बिलकुल अलग और दूसरा सच!...वह सच भी काल-निरपेक्ष नहीं है-सेल्मा भी काल में
ही जीती है जैसे कि हम सब जीते हैं, लेकिन वह मानो किसी एक काल में नहीं जीती
बल्कि समूचे काल में जीती है। मानो वहाँ फिर काल एक प्रवाह नहीं है, उसमें कुछ
भी आगे-पीछे नहीं है बल्कि सब एक साथ है। सब एक साथ है, इसलिए इतिहास नहीं है।
इसीलिए स्मृति है, और उसके साथ ही परस्परता से मुक्ति है-सभी कुछ क्षण है।
यह मैं सोचती हूँ, लेकिन साथ ही मुझे लगता है कि ऐसा सोचना बेईमानी है-कि ऐसा
हो नहीं सकता। बल्कि कभी-कभी उसको देखते-देखते मेरा अपरिचय का भाव इतना घना हो
जाता है कि मेरा मन होता है, उसके कन्धे पकडकर उसे झकझोर दूँ और पूछँू-’तुम कौन
हो?’ मेरी मुट्ठियाँ भिंच जाती हैं और मैं उसके सामने से हट जाती हूँ क्योंकि
मुझे एकाएक अपने आपसे डर लगने लगता है। न जाने क्या कर बैठूँ!
२२ दिसम्बर
विश्वास नहीं होता कि मुझे यहाँ दबे-दबे एक पखवाड़ा हो गया है। रसोई और
भंडार-घर की दीवारों से थोड़ा-थोड़ा पानी रिसकर अन्दर आता रहा है और अब हम
बहुत-सी चीज़ें बड़े कमरे में ही उठा लाए हैं। भंडारे से एक छोटा किवाड़ उधर
का खुलता है जिधर लकडिय़ों का ढेर रखा रहता है। लकडिय़ाँ लाने के लिये रास्ता
बाहर से है, जो कि अब बन्द है। इस किवाड़ को थोड़ा ठेल-ठालकर एक-दो लकडिय़ाँ
खींचने का रास्ता बन गया। लकडिय़ाँ खींचीं तो किवाड़ तनिक-सा और खुल सका, और इस
प्रकार अब थोड़ी-थोड़ी लकडिय़ाँ भीतर लाने का मार्ग बन गया है। लकडिय़ाँ भीग गयी
हैं और किवाड़ खोलने से थोड़ा-थोड़ा पानी भी भंडारे के अन्दर आता है, लेकिन
उसकी चिन्ता नहीं है। हम लोग जो कुछ थोड़ा-बहुत खाना पकाते हैं, बैठने के कमरे
में बड़े स्टोव पर ही, उसी के सहारे लकडिय़ाँ टेक दी जाती हैं जो धीरे-धीरे
सूखती रहती हैं। और दूसरे-तीसरे चिमनी भी जला लेते हैं जिससे एक अनोखा लाल-लाल
प्रकाश कमरे में फैल जाता है। कब्रगाह के अन्दर आग का लाल प्रकाश-क्या यही नरक
की आग है? आज मैं एकाएक आंटी से यही पूछ बैठी। मैंने कहा, ‘‘इस लाल-लाल आग को
देखकर लगता है कि शैतान अभी चिमनी के भीतर से उतरकर कब्र में आ जाएगा हमसे
हिसाब करने।’’ और बात को हलका करने के लिये एक नकली हँसी हँस दी।
आंटी अगर चौंकीं भी तो उन्होंने दीखने नहीं दिया। थोड़ी देर मेरी ओर देखती हुई
चुप रहीं और फिर बोलीं, ‘‘चिमनी से उतरकर शैतान नहीं आता, सन्त निकोलस आता
है-क्रिसमस को अब कितने दिन हैं?’’
मुझे बात वहीं छोड़ देनी चाहिए थी। लेकिन मैंने जिद करके कहा, ‘‘सन्त निकोलस
आता होगा वहाँ ऊपर-कब्र में थोड़े ही आएगा।’’
बुढिया ने पूछा, ‘‘योके, तुम्हारा ध्यान हमेशा मृत्यु की ओर क्यों रहता है?’’
मुझको हठात गुस्सा आ गया। मैंने रुखाई से कहा, ‘‘क्योंकि वह एकमात्र सचाई
है-क्योंकि हम सबको मरना है।’’
कहने को तो कह गयी, पर फिर मुझे क्लेश हुआ। लेकिन साथ-साथ माफी माँगते भी नहीं
बना, मैंने कहा, ‘‘इतने दिनों की निष्क्रियता से मेरी नर्व्ज़ ऐसी हो गयी हैं
कि-’’
बुढिया ने बात को वहीं छोड़ दिया। जितनी परोक्ष मैंने उसकी याचना की थी उतनी ही
परोक्ष क्षमा देते हुए कहा, ‘‘लेकिन क्रिसमस को कितने दिन हैं-दावत होगी। सब
कुछ मैं बनाऊँगी।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं आंटी, सोच लें कि क्या-क्या बनेगा-पर बनाऊँगी मैं ही। आपको
तकलीफ होती है, और मुझे तो काम चाहिए।’’
बुढिया ने कहा, ‘‘अच्छी बात है...’’
फिर सोच लिया कि क्या-क्या बनेगा। कल और परसों शायद हम दोनों के पास ही काफी
काम रहेगा-यद्यपि इस जगह में क्या कल और क्या परसों! और क्या क्रिसमस, सिवा
इसके कि एक दिन को हम बड़ा दिन मान लेंगे-एक दिन को नहीं, घड़ी के एक खास चक्कर
को।
२४ दिसम्बर :
आधी रात।
कायदे से तो इस समय हमें साथ बैठकर क्रिसमस के आगमन का अभिनन्दन करना चाहिए था,
लेकिन हम लोगों में बिना बहस के ही एक मौन समझौता हो गया था कि रात को देर तक
नहीं बैठा जाएगा। एक तो हम दोनों कल और आज के काम से कुछ थक भी गए, दूसरे न
जाने क्यों दिन भर ऐसा लगता रहा कि क्रिसमस की यह खुशी नकली या झूठी तो नहीं है
लेकिन बहुत ही पतले काँच की तरह इतनी नाजुक है कि छूने से ही नहीं, जरा-सी आवाज
से भी टूट जा सकती है-जैसे वायलिन के स्वर से काँच का गिलास चटक सकता है। हम
दोनों मानो ऐसे ही पतले काँच की सतह पर बैठकर हँस रहे हैं, यह एक जादू ही है कि
हमारे बैठने से ही वह काँच टूट नहीं गया लेकिन इतना तो निश्चय है कि
हिलने-डुलने से टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगा। और जैसे उसके काँच के नीचे फिर
और कुछ नहीं है, अतल अँधेरा गर्त है जिसमें हम गिरेंगे और गिरते चले जाएँगे।
बुढिया अभी बड़े कमरे में बैठी है। हम लोगों ने क्रिसमस-तरु बनाना चाहा था,
लेकिन हमारे किसी भी गढ़न्त पर विश्वास करने को तैयार होने पर भी, ईंधन की
लकड़ी और डोर से बाँधकर हमने जो पेड़ बनाया उसे हमारी आँखें स्वीकार न कर सकीं।
उतना झूठ हम नहीं निगल सके और आंटी ने ही कहा कि ‘‘नहीं, इसे रहने दो।’’
फिर थोड़ी देर हम लोग बैठे रहे। मानो किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। इसी खाई
को भरने के लिये मैंने सुझाया, खाना ही खा लिया जाए। वह भी हो गया और फिर हम
लोग आग के पास बैठकर आग की ओर ताकते रहे। एक-दूसरे की ओर न ताकने के लिए कितनी
अच्छी ओट थी वह आग!
लेकिन फिर भी धीरे-धीरे वह मौन बोझिल हो ही आया और उनकी अनदेखी करना असम्भव हो
गया।
मैंने पूछा, ‘‘आंटी, आपको ताश से भविष्य पढना आता है ?’’
बुढिया ने कहा, ‘‘नहीं योके! तुम पढ़ सकती हो ?’’
वहाँ से उठने का मौका पाते हुए मैंने कहा, ‘‘मैं ताश लाती हूँ-आपका भविष्य पढ़ा
जाए।’’
बुढिया ने तनिक मुस्कुराकर कहा, ‘‘मेरा भविष्य! वह पढना क्या आसान काम है?’’
मैंने कहा, ‘‘सभी अपने भविष्य को बहुत अधिक दुर्ज्ञेय और जटिल मानते हैं। उसे
जानना चाहने की उत्कंठा का ही यह दूसरा पहलू है-जितना ही जानना चाहते हैं उतना
ही उसे दुरूह मानते हैं।’’
बुढिया ने वैसे ही मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘नहीं मेरे साथ यह बात शायद नहीं है।
उस दृष्टि से तो मेरा भविष्य बहुत ही आसान है। कुछ भी जानने को नहीं है- न
उत्कंठा है।’’
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? अच्छा बताइए, आप क्या यह नहीं जानना चाहतीं कि अगले
क्रिसमस पर आप कहाँ होंगी-कैसे होंगी?’’
‘‘नहीं, मैं तो जानती हूँ। मैं-यहीं हूँगी और-ऐसे ही हूँगी।’’
मैं थोड़ी देर स्तब्ध रही। यों तो बुढिया की बात सच भी हो सकती है। वह यहीं ऐसे
ही रहेगी, क्योंकि वर्षों से यहीं ऐसे ही रहती चली आयी है। हो सकता है कि हमेशा
से यहीं रहती आयी हो, और हो सकता है कि हमेशा यहीं रहती चली जाए! इन्हीं
पहाड़ों की तरह निरन्तर बदलती हुई, लेकिन अन्तहीन और आकांक्षाहीन!
मैंने फिर कहा, ‘‘लेकिन और भी बहुत-से लोग हो सकते हैं।’’
बुढिया ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘‘मैं अकेली हूँगी, योके। अगर यह जानती न
होती तो शायद इस वर्ष भी अकेली न रही होती। मैं जान-बूझकर यहाँ अकेली रह गयी
थी-तुम्हारा आना तो एक संयोग था जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी।’’
मैंने कहा, ‘‘आंटी, आपको क्या मेरा यहाँ रहना कष्टकर लगा?’’ फिर थोड़ा हँसकर
मैंने जोड़ दिया, ‘‘अगर वैसा है तो मुझे दुख है, पर मेरी लाचारी है। यह तो मैं
कह नहीं सकती कि मैं अभी चली जाती हूँ। वह मेरे बस का होता-’’
बुढिया ने सहसा गम्भीर होकर कहा, ‘‘कुछ भी किसी के बस का नहीं है, योके। एक ही
बात हमारे बस की है-इस बात को पहचान लेना। इससे आगे हम कुछ नहीं जानते।’’
मेरे भीतर फिर घोर विरोध उबल आया। इसको छिपाने के लिये मैं जल्दी से उठकर चली
गयी। खोज में अनावश्यक देर लगाकर जब मैं ताश लेकर आयी और पत्ते बिछाने लगी, तो
बुढिया चुपचाप मेरी ओर देखती रही। फिर एकाएक उसने मुझसे पूछा, ‘‘योके, तुम
चाहती हो कि मैं मर जाऊँ।’’
पत्ते मेरे हाथ से गिर गए और मैंने अचकचाकर पूछा, ‘क्या-यह कैसी बात है
सेल्मा!’ उसे आंटी कहना भी मैं भूल गयी।
उसने कहा, ‘‘मैं बुरा नहीं मानती, योके, तुम्हारा वैसा चाहना ही स्वाभाविक है।
मैं भी चाहती हूँ कि मर जाऊँ, पर मेरे चाहने की तो अब जरूरत नहीं है। मैं जानती
हूँ कि बहुत दिन बाकी नहीं हैं।’’
मैंने सँभलते हुए कहा, ‘‘नहीं, आंटी, अभी ऐसी कौन-सी बात है-तुम तो अभी बहुत
दिन-’’
‘‘तुम्हारा ऐसा कहना ही स्वाभाविक है-तुम्हें कहना ही चाहिए। लेकिन मैं जानती
हूँ। और आज मैं इतनी खुश हूँ कि तुमसे कह ही दूँगी, जिससे कि कल तक यह बात
तुम्हारे लिये पुरानी हो जाए-योके, मैं बीमार हूँ और मुझे मालूम है कि अगला
वसन्त मुझे नहीं देखना है।’’
थोड़ी देर बाद मैंने ताश के पत्ते जमीन से उठाए और यन्त्र की तरह-एक खास तौर
से बेवकूफ यन्त्र की तरह-उन्हें फेंटती रही...
वह लम्बा बेशऊर सन्नाटा ऐसा नहीं था जिसका क्रिसमस से पहले की रात से कोई
सम्बन्ध जोड़ा जा सके। पर वह सारी स्थिति ही ऐसी विसंगत थी। देव-शिशु के आसन्न
अवतरण का कोई आनन्द, कोई स्फूर्ति मुझमें नहीं थी। आसन्न कुछ लगता था तो दूसरा
ही कुछ जिसे मैं देखना नहीं चाहती, जानना नहीं चाहती, नाम देना नहीं चाहती-पर
छाती पर रखे हुए बोझ-सी एक ही बात बार-बार अपनी याद दिला जाती थी और गले की
साँसले में अटक जाती थी-कि वहाँ सेल्मा और योके के अलावा एक तीसरा भी है और वह
अदृश्य तीसरा देव-शिशु नहीं है...और मानो उसी की धडकन मैं वातावरण में सुन रही
थी और इसलिये उठ नहीं पा रही थी-मुझे लगता था कि उससे वह सहसा मूर्त हो जाएगा
और तब सेल्मा भी जान लेगी कि उसे मैंने बुलाया है।...
पर उसे और सहा भी नहीं जा सका। जब मैंने बलात अपने को उठाते हुए कहा, ‘अब आराम
करो, सेल्मा। गुडनाइट।’
सेल्मा ने कुछ चौंककर मेरी ओर देखा। फिर जो भी कहने जा रही थी उसे रोककर उसने
कहा, ‘‘क्रिसमस मुबारक, सेल्मा। बहुत-से क्रिसमस।’’ फिर थोड़ा रुककर, ‘‘चाहिए
तो था बैठकर गाना, पर...’’
उसने मुझे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘पर कोई बात नहीं, वह मौन में भी उतनी ही
सहजता से आता है-गाना जरूरी नहीं है।’’
मैंने फिर जल्दी से कहा, ‘क्रिसमस मुबारक!’ और जल्दी से चली आयी।
और अब आधी रात।
‘वह मौन में भी उतनी ही सहजता से आता है।’ वह कौन? वह-वह... वही जो सेल्मा और
मेरे बीच तीसरा आया था और वहाँ मौजूद था-अनाहूत...
नहीं, नहीं, नहीं! जो भी आता है, जो भी आएगा, उसे उधर ही रहने देना होगा...
कहीं पॉल भी क्रिसमस मना रहा होगा-कहाँ, किसके साथ? अपने खुले गले से गा रहा
होगा-क्या वह भी इस समय मुझे याद करेगा-मुझे जिसके साथ ही इस बर्फिस्तान में
अकेला होने वह आया था-नथुने फुलाकर खुली बर्फीली हवा को पीने, और पीते-पीते
अनुभव करने कि हमारे भीतर कैसी स्निग्ध गरमाई है-स्निग्ध, मधुर, स्फूर्तिमय
और-हमारी...
पर यह बर्फिस्तान के ऊपर है। खुली हवा में, न जाने किसके साथ, और मैं-यहाँ हूँ,
बर्फिस्तान के नीचे, घुटने में, और मेरे साथ हैं वह, वह, वह...
२५ दिसम्बर :
वहीं पलंग पर बैठ और मेज पर सिर टेके मैं सो गयी थी-शायद पहले थोड़े आँसू आँखों
में चुभे थे धुएँ की तरह, फिर न जाने कब ऊँघ गयी थी, फिर चौंककर जागी थी गाने
की आवाज सुनकर : घड़ी देखी थी तब डेढ़ बजा था। सेल्मा धीरे-धीरे गा रही
थी-गुनगुनाहट से कुछ ही ऊँचे स्वर से-देव-शिशु के आविर्भाव की खुशी का एक गान।
वह बहुत देर पहले से गाती रही हो, ऐसा तो नहीं लगा-शायद बीच-बीच में गाती भी
रही हो-नींद उसे न आती होगी और घड़ी तो उसके पास है नहीं...
उस सन्नाटे में, रुक-रुककर आता हुआ बूढ़ा गान सुनकर न जाने कैसा लगने लगा।
बीच-बीच में बुढिया की आवाज मानो टूट जाती-मानो वह हाँफ रही हो, मानो उसकी
बूढ़ी साँस उखड़ रही हो। फिर वह आवाज के साथ एक जोर की साँस खींचकर फिर गाना
शुरू कर देती और थोड़ी देर बाद मानो एक कराह-सी में तान फिर टूट जाती।
सूना कमरा मानो किसी दबाव में घुटने लगा। मैं उठ बैठी और नंगे पाँव ही
धीरे-धीरे बुढिया के पलंग के पास गयी।
बुढिया उकड़ूँ बैठी थी। होंठों की गति के सिवा किसी गति के लक्षण उसकी देह में
नहीं जान पड़ते थे। उसे देखती हुई मैं भी उसके कन्धे की ओट निश्चल खड़ी रही,
लेकिन न जाने कैसे उसे ज्ञात हो गया कि कमरे में दूसरा कोई है-दूसरा कोई क्या,
कि मैं हूँ-और उसने बिना मुड़े हुए ही कहा, ‘‘मैं अवतरण का गीत गुनगुना रही
थी-बचपन की याद से-लेकिन मैंने क्या तुम्हें जगा दिया?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, आंटी, मुझे नींद नहीं आ रही थी कि तभी मैंने आवाज सुनी और
देखने चली आयी-शायद कुछ जरूरत हो!’’
बुढिया ने कहा, ‘‘मेरी ऐसी भी हालत होगी कि मैं गाऊँ तो कोई समझेगा कि मुझे
तकलीफ है-कि मुझे किसी चीज की जरूरत है-और हाँ, तकलीफ भी है। लेकिन गाती हूँ
खुशी से ही। बैठो, तुम भी गाओगी?’’
‘‘वह गाना तो मुझे नहीं आता।’’
‘‘तो जो आता है वही गाओ। शायद मैं भी गा सकँू-मेरे सब गाने बचपन के ही नहीं
हैं, बाद में भी कुछ सीखे थे।’’
मैं बैठ गयी। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी मुँह से बोल नहीं निकला। सारी
परिस्थिति में कहीं कुछ बहुत ही बेठीक लगा। जैसे अवतरण की बात भी गलत है और
उसके गाने गाना भी गलत। अवतरण अगर हुआ है तो मृत्यु का और वह मृत्यु ऐसी नहीं
है कि गाने से उसका स्वागत किया जाए। वह मेरे कन्धों पर सवार होकर मेरा गला
घोंट रही है। कैसा बेपनाह है वह पंजा, जो छोड़ेगा नहीं लेकिन किसी की उँगलियों
की छाप भी नहीं पड़ेगी। मैंने कल्पना की, मेरे हाथ बुढिया के गले पर हैं और
उसे घोंट रहे हैं-बेपनाह हाथ-नहीं जानती कि उनकी पकड़ भी ऐसी है या नहीं कि कोई
छाप न छोड़े, लेकिन बुढिया के गले की रक्तहीन पारदर्शी त्वचा तो पहले ही ऐसी है
कि उस पर कोई छाप क्या पड़ेगी।
थोड़ी देर बाद बुढिया ने कहा, ‘‘नहीं, यह मेरा अत्याचार है। मैं तो गा सकती हूँ
क्योंकि मैं अन्धी हूँ। अन्धे अच्छा गाते हैं। तुम तो सबकुछ देखती हो-तुम्हें
दृश्य ही अधिक अच्छे लगते हैं, स्वर नहीं। तुम्हें ठंड लग रही होगी, जाओ सोओ।
भगवान तुम्हारा कल्याण करे। क्रिसमस मुबारक!’’
मैंने यन्त्रवत् दोहराया, ‘क्रिसमस मुबारक!’ और लौट आयी।
फिर मैं सोयी नहीं। बुढिया भी शायद नहीं सोयी। गाना तो उसने बन्द कर दिया।
लेकिन बीच-बीच में एक बहुत ही धीमी हुंकार-सी सुनाई पड़ती, जो न मालूम साँस के
कष्ट की थी, या कि बीच-बीच में याद आ जानेवाले गाने की, या कि कराहने की।
सवेरा हुआ-घड़ी का सवेरा। प्रकाश कुछ भी बढ़ता हुआ नहीं लगा बल्कि कमरे में कुछ
घुटन-सी मालूम हुई-मानो जितनी हवा हमारे साथ इस कब्र-घर में कैद हो गयी थी
उसमें से ऑक्सीजनवाला अंश हम लोग पी चुके हैं। मुझे ध्यान आया, ऑक्सीजन ही हमें
जीवित रखती है लेकिन वही हमें गलाती भी है-जीना ही जीर्ण होना है और जब जीने का
साधन ऑक्सीजन नहीं रहती तब जीर्ण होने की क्रिया भी रुक जाती है। इस कब्रगाह
में हमारी पैदा की हुई कार्बन गैस, जो हमें मार देगी, आगे उस कब्रगाह में सड़ने
से हमें बचाती है। फिर-हमारे मर जाने के बाद इस ‘फिर’ के अर्थ क्या हैं यह तो
मैं नहीं जानती!-जब बर्फ गलेगी और लोग हमें ढँूढने आएँगे तब हम यही
ज्यों-के-त्यों सुरक्षित पड़े होंगे-मैं ऐसी ही यहाँ-तब भी समूची किन्तु
कान्तिहीन-और बुढिया वहाँ, वैसी ही विवर्ण पारदर्शी, और इसलिये तब भी एक कान्ति
लिये हुए! इस कल्पना से मुझे बुढिया पर फिर गुस्सा हो आया। पर मैंने अपने को
याद दिलाया कि आज क्रिसमस का दिन है, बड़ा दिन, क्षमा और सद्भावना का दिन। उसकी
बूढ़ी साँसें मुझसे कहीं कम ही ऑक्सीजन खाती होंगी-बल्कि जिस बहुत नीचे स्तर पर
उसका जीवन चल रहा है उस पर तो शायद बिना ऑक्सीजन के ही काम चल सकता है। मैंने
सुना है कि जो लोग बर्फ के नीचे दब जाते हैं, उनकी ऑक्सीजन की जरूरत भी कम हो
जाती है और इसलिये उनका उतनी से भी काम चल जाता है जितनी बर्फ के कणों में बँधी
हुई होती है।...
बड़ा दिन। क्षमा, शान्ति और मानवीय सद्भावना का दिन। प्यार के पैगम्बर का
जन्मदिन। मैंने आयासपूर्वक अपने स्वर में स्फूर्ति लाकर कहा, ‘क्रिसमस मुबारक
आंटी सेल्मा!’
जो जवाब आया उससे मैं चौंकी। आंटी ने कहा, ‘मैंने तो आग जला दी है और कहवा बना
लिया है, आओ। क्रिसमस मुबारक!’
यह सब बुढिया ने कब कर लिया? मैंने तो पैरों की कोई आहट नहीं सुनी। न बरतनों की
खनक। बुढिया बहुत ही चुपचाप काम करती है। लेकिन और नहीं तो उसके पैरों के
घिसटने का थोड़ा-सा शब्द होता। मैं तो यही समझती रही कि मैं लगातार उसका कराहना
सुनती रही हूँ।
नाश्ता करते-करते-नाश्ता तो मैंने ही किया, आंटी ने कुछ नहीं खाया, और कहवे में
भी थोड़ा पानी मिलाकर दो-चार घूँट पिये-आंटी ने कहा, ‘‘मैं कल्पना कर रही हूँ
कि बाहर खूब खुली धूप है-बड़ी निखरी हुई स्निग्ध धूप, जिसके घाम में बदन अलसा
जाए!’’
मैंने कहा, ‘‘ऐसी कल्पना से क्या फायदा? और बाहर धूप हो भी तो हमें क्या जो-’’
‘‘हमें क्यों नहीं कुछ? जो हमारे भीतर नहीं है वह हम बाहर कैसे दे सकते
हैं-कैसे देना चाह सकते हैं? खुली, निखरी हुई, स्निग्ध, हँसती धूप-मैं बाहर
उसकी कल्पना करती हूँ तो वह मेरे भीतर भी खिल आती है और मैं सोच सकती हूँ कि
मैं उसे औरों को दे सकती हूँ। नहीं तो-कितना ठंडा अँधेरा होता है उसके भीतर,
जिसे मरना है और सिवा मरने के और कुछ नहीं करना है।’’
मैंने कुछ छिडककर कहा, ‘‘क्रिसमस के दिन कैसे ऐसी बात कर सकती हो तुम आंटी?’’
आंटी ने बड़े सरल सहज भाव से कहा, ‘‘मुझे कैंसर है।’’
जो सन्नाटा हम दोनों के बीच में आ गया उसके पार मानो कमन्द फेंकते हुए बुढिया
ने फिर कहा, ‘‘धूप, खिली, खुली, हँसती हुई धूप-क्रिसमस के दिन की धूप! योके,
मेरा तो इतना दम नहीं है-तुम क्यों नहीं गातीं-तुम्हारा गला इतना सुरीला है।’’
मैंने कहना चाहा, अभी तो तुम कह रही थीं कि जो भीतर नहीं है वह बाहर कैसे दिया
जा सकता है? लेकिन यह मुझसे कहते न बना। मैंने कहा, ‘‘गाऊँगी, आंटी सेल्मा,
गाऊँगी। पहले मुझे इस अँधेरे कब्रगाह का आदी तो हो जाने दो।’’
बुढिया ने दोहराया, ‘आदी।’ और फिर हाथों से एक ऐसा इशारा किया जिसका अर्थ कुछ
भी हो सकता था।...
३० दिसम्बर :
अब मुझसे और नहीं सहा जाता। सोचती हूँ कि यह कैसी परिस्थिति आ गयी है कि मुझे
सब ओर बर्फ का भी ध्यान नहीं रहा है-कि मैं यह भी भूल गयी हूँ कि हम दोनों एक
ही कब्र के साझीदार हैं। और सोचती हूँ तो केवल एक बात-कि अब साझीदार कब हट
जाएगा, और मैं इस कब्र में अकेली रह जाऊँगी।
यह नहीं कि मैं कब्र में रहना चाहती हूँ। यह नहीं कि मैं अकेली अलग होना चाहती
हूँ । शायद यह भी नहीं कि मैं नहीं चाहती कि वह भी कभी इस कब्र-घर से बाहर
निकले। लेकिन मैं जानती हूँ कि उसके बारे में मेरे कुछ भी चाहने या न चाहने से
कुछ नहीं होता है। मैं ही नहीं, वह भी यह जानती है।
और ठीक यहीं पर फ़र्क़ है। वह जानती है और जानकर मरती हुई भी जिए जा रही है। और
मैं हूँ कि जीती हुई भी मर रही हूँ और मरना चाह रही हूँ...
उसमें किसी तरह का विरोध नहीं है-न मेरे प्रति, न मेरे हिंस्र भावों के प्रति,
न मृत्यु के ही प्रति। और यह मेरी समझ में नहीं आता, मुझे स्वीकार नहीं होता।
कैसे कोई जीता हुआ प्राणी जिजीविषा से परे हो सकता है? हम सब कुछ में अनासक्त
हो सकते हैं, पर जीवन से कैसे हो सकते हैं? कहीं-न-कहीं जरूर बुढिया में कोई
झूठ है। कोई आत्म-प्रवंचना है। हो सकता है कि वह गहरे में छिपी हो-लेकिन यह
नहीं हो सकता है कि वह हो ही न।...
उसकी बीमारी शायद दिन-दिन बढ़ती जा रही है, वह कुछ खाती नहीं है और लगभग पीती
भी नहीं है, और दिन-ब-दिन अधिक विवर्ण और पारदर्शी होती जाती है। जीता-जागता
प्रेत। इसमें भी शायद उतना विरोधाभास नहीं है-लेकिन ठोस प्रेत! और उससे से अधिक
अस्वीकार्य और असंग है उस ठोस प्रेत का कारुण्य भाव-एक बाहर को बहता हुआ सबकुछ
को सहलाता हुआ कारुण्य! प्रेत किसी पर तरस कैसे कर सकता है? बल्कि प्रेत होता
वही है जो अपने पर तरस खाते हुए मरता है-नहीं तो प्रेत-योनि में कोई जा ही नहीं
सकता! प्रेत होने के लिये अतृप्त तो दुनिया में सभी मरते हैं, तो क्या सभी
प्रेत हो जाते हैं? लेकिन जो अतृप्त आकांक्षा अपने ही पर तरस खाने की प्रवृत्ति
पैदा करती है, जिसमें पैदा करती है, वही प्रेत होता है। लेकिन बुढिया की दया
अपनी ओर मुड़ी हुई नहीं है। और कभी-कभी मुझे लगता है कि वह प्याला-तश्तरी भी
उठाती है, या कि आग की ओर हाथ बढ़ाती है, तो मानो इन निर्जीव चीज़ों को भी
दुलारती और असीसती है। आग को असीसती है-वह, जिसे आग को देखकर रिरियाना चाहिए
क्योंकि अभी उसके भीतर की आग बुझ जाएगी और वह हो जाएगी-क्या? राख-राख से भी कम।
उसे देखते-देखते मेरा मन होता है कि जोर से चीखूँ, कि जलती हुई लकड़ी उठाकर
उसकी कलाइयों पर दे मारूँ जिससे उसका आग को असीसने का दुस्साहस करनेवाला हाथ
नीचे गिर जाए-एकाएक जिसके सदमे से उसकी हृद्गति बन्द हो जाए।
३१ दिसम्बर :
उसके सामने ही नहीं, अपने सामने भी कभी मेरा मन होता है कि चीख पड़ूँ कि अपने
बाल नोच लूँ, कि आईने के सामने खड़ी होकर अपने को मारूँ, छोटी कैंची उठाकर अपने
गालों में चुभा लूँ, कि नहेरने से अपने माथे, नाक-कान-ठोड़ी पर घाव कर लूँ, कि
पानी का जग उठाकर आईने पर पटककर उसके और आईने के भी टुकड़े-टुकड़े कर दूँ। आईने
के भी और उसमें झाँकते हुए अपने प्रतिरूप के भी जो इतनी बेहयाई से मुझे ताकता
है और मेरी सब अराजक जिज्ञासाएँ वापस मेरे मुँह पर मारता है।...
उसको वहीं छोडकर मैं चली आयी थी और अपने बिस्तर पर बैठी रही थी। काफी देर बाद,
सोने की तैयारी करने से पहले मैंने झाँककर देखा तो वह आज रात देर तक जागने का
अवसर था, क्योंकि आधी रात को नए साल का अभिनन्दन करने का कायदा है, लेकिन मैंने
उसकी कोई चर्चा नहीं की थी और क्रिसमस के लिये उत्साह दिखानेवाली बुढिया ने भी
देर तक जागने का प्रस्ताव नहीं किया था। इसीलिए मैं सोने चली आयी थी। पर वह तो
बैठी है न! न मालूम जाग रही है या सो रही है-न मालूम होश में भी है या कि बेहोश
है-पर निश्चल बैठी है। मैंने जाकर कहा, ‘‘आंटी सेल्मा, चलो सोओ। मैं सुला
दूँ?’’
आंटी सेल्मा ने सिकुड़ते कन्धे सीधे करते हुए कहा, ‘‘नहीं योके, मैं अभी बैठी
हूँ-तुम सो जाओ।’’
मैंने कहा, ‘‘नए साल का अभिनन्दन करने बैठी हो?’’
उसने कहा, ‘‘हाँ! या कि शायद सिर्फ नए दिन का। क्योंकि साल का कोई भी दिन किसी
दूसरे दिन से किस बात में कम है! बल्कि मैं तो सोच सकती हूँ कि कोई भी दिन साल
का दिन क्यों है-दिन ही में क्या कम जादू है?’
बात पूरी-की-पूरी मुझसे नहीं कही गयी थी, बहुत कुछ स्वगत ही थी। पर मुझे ये सब
बारीक बातें उस समय नहीं रुचीं। मैंने रुखाई से कहा, ‘‘हाँ, लेकिन रोज-रोज तो
तुम जागरण नहीं करती हो।’’
उसने कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, योके, मुझ बुढिया की सब बातें संगत नहीं होतीं-कुछ
यों भी मुँह से निकल जाती हैं।’’
उसके स्वर में जो चिड़चिड़ापन था, उफ! उससे मुझे कितनी तृप्ति मिली! तो बुढिया
का कवच भी नीरन्ध्र नहीं है, कहीं उसमें भी टूट है-कहीं-न-कहीं वह भी मृत्यु से
डरेगी और रिरियाकर कहेगी कि नहीं मैं मरना नहीं चाहती। एक प्रबल, दुर्दमनीय
उल्लास, एक विजय का गर्व मेरे भीतर उमड़ आया। मैंने कहा, ‘‘आंटी, तुम क्यों
बैठकर माला के मनकों की तरह दिन और घडिय़ाँ गिनती हो? दिन जिस गति से जाएँगे उसी
से जाएँगे-न गिनकर हम उन्हें आगे ठेल सकते हैं, न झोंककर रोक सकते हैं। जो काम
करना है करते चलो। जीना है तो जीते चलो, बस!’’
उसने कहा, ‘‘हाँ, वह तो है। माला के मनके ही गिन रही हूँ। यह नहीं कि उससे कुछ
बदलेगा। लेकिन जिसे माला के मनके ही गिनने हों उसे वैसा न करने का बस कहाँ
है?’’
‘‘किसके लिए क्या तय है, इसका निश्चय अपने आप करते चलना तथा भगवान को अपने ऊपर
ओढ़ लेना नहीं है?’’ मैंने कोशिश की कि मेरे मन में व्यंग्य का भाव जितना तीखा
था प्रकट उतना न हो, लेकिन व्यंग्य उसे दीखे ही नहीं, यह मैं बिलकुल नहीं चाहती
थी।
बुढिया एकाएक खड़ी हो गयी। उसका खड़ा होना भी इस समय मेरे लिये बिलकुल
अप्रत्याशित था, पर उसने जो कहा वह मुझे अब भी अघटित लग रहा है। उसने कहा,
‘‘हाँ योके, मैं भगवान को ओढ़ लेना ही चाहती हूँ। पूरा ओढ़ लेना कि कहीं कुछ भी
उघड़ा रह न जाए। तुम नहीं जानतीं कि जिसे माला की मणि तक नहीं पहुँचना है उसके
लिये एक-एक मनके का रूप कितना दिव्य होता है।’’
उसने अपने पारदर्शी हाथ मेरे कन्धे पर रख दिये और कहा, ‘‘देखो योके, मेरी आँखों
में देखो। क्या तुम्हें नहीं दीखता कि भगवान के सिवा मेरे पास कुछ नहीं है ओढने
को!’’
मैं जल्दी से कन्धे छुड़ाकर लौट आयी। जहाँ उसके हाथ पड़े थे वहाँ अब भी बर्फ की
दो कटारें-सी मुझे चुभ रही हैं।
लेकिन उधर शायद बुढिया ने कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया है। वह स्वर गाने का नहीं
है-शायद कोई प्रार्थना दुहरा रही है।
उफ, कब फटेगी यह कब्र, या कि कब निकलेगी वह बेशर्म जान-उसकी या मेरी या दोनों
की!...
५ जनवरी :
फिर वही एकरूपता, एकरसता...अब लगता है कि इस डायरी का सहारा भी छूट जाएगा।
क्योंकि इसमें भी लिखने को कुछ नहीं है, दोहराने का ही है। फिर एक दिन, फिर एक
दिन घड़ी का एक और चक्कर और फिर एक और चक्कर।...
नए साल के दिन जब मैंने फिर सवेरे-सवेरे सेल्मा को गाते सुना तो मुझे क्रोध हो
आया। सवेरे किसी तरह अपने पर जोर डालकर मैंने औपचारिक ढंग से उसे नए साल की
बधाई दे दी और उसकी बधाइयों के लिये धन्यवाद दे दिया। फिर उसके बाद दिनभर हम
लोग कुछ अजनबी-से रहे। यों इसके सिवा कुछ हो भी नहीं सकता, क्योंकि वह एक बार
उठकर कुर्सी पर बैठ जाती है तो फिर वहाँ से बहुत कम हिलती-डुलती है। केवल
नितान्त आवश्यक होने पर ही वहाँ से उठती है। और मैं, मैं बाहर तो जा नहीं सकती,
मुझे यहीं अपनी मांसपेशियों को चालू रखने के लिये इधर-उधर जाना पड़ता है-तीन
कमरों के इस घर में न जाने कितने चक्कर काटकर तब कहीं यह सन्तोष पा सकती हूँ कि
हाँ, मेरी पेशियाँ अब भी मेरे ही वश में हैं-अपनी इच्छा से हाथ-पैर हिला सकती
हूँ, मुट्ठियाँ भींच सकती हूँ, किसी चीज को हाथों में जकड़ सकती हूँ, ईंधन की
लकडिय़ाँ उछाल सकती हूँ, और अगर कभी इस कब्र-घर से निकलने का अवसर आया तो सीधी
चल भी सकूँगी-हाँ, अगर कयामत के दिन किसी फरिश्ते के सामने जाकर खड़े होने के
लिए यहाँ से निकलना हुआ तब भी सीधी खड़ी हो सकूँगी।...
लेकिन सेल्मा के बीच के कमरे में कुर्सी पर बैठे रहते ही यह भी आसान नहीं है।
मैं दबे पैरों ही इधर-उधर आती-जाती हूँ, निरन्तर मुझे सतर्क रहना पड़ता है।
उसकी उपस्थिति को कभी क्षण भर के लिये भी नहीं भूल सकती हूँ। यहाँ तक कि अपनी
उपस्थिति का अनुभव करने का ही मौका मुझे नहीं मिलता जब तक कि मैं रात को अपने
पलंग पर अकेली नहीं हो जाती! मानो इस घर में वही वह है, मैं हूँ ही नहीं, जब कि
जीती मैं हूँ और जीने की जरूरत भी मुझे है! और वह तो जीने-न-जीने की सीमा-रेखा
पर अद्र्धमूर्छित ऐसे बैठी है कि यह भी नहीं जानती कि वह कहाँ पर है।
कैसे, जो जीवित नहीं हैं वे उन पर इतना कड़ा शासन करते हैं जो जीवन से छटपटा
रहे हैं!
लेकिन कल तो थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ था। कहना चाहिए कि कल सवेरे ही पहली बार ऐसा
हुआ कि इस कब्र में कुछ घटित हुआ।
मैं सवेरे रसोई-घर की ओर जाने के लिए बैठने का कमरा पार करने को जा रही थी कि
मैंने चौंककर देखा, सेल्मा अपनी कुर्सी है। एक बार तो उसे देखकर ऐसा लगा कि वह
रात भर वहीं बैठी रही है, बल्कि उस कुर्सी का अंग ही है और सनातन काल से वहीं
पड़ी है। क्या वह रात भर सोयी नहीं? मुझे याद था कि रात को जब मैं सोने जाने के
लिये मुड़ी थी तब वह भी अपने कमरे की ओर चली गयी थी। लेकिन उसके बैठने की
मुद्रा से पल-भर मुझे अपनी स्मृति पर ही सन्देह हो आया। मैं पूछने ही जा रही थी
कि बुढिया ने कहा, ‘‘तुम्हारे लिए कहवा बनाकर रसोई में रख दिया है, मैं पी चुकी
हूँ। और कुछ नहीं खाऊँगी।’’
यह कुछ असाधारण तो था, लेकिन एकदम अनहोना भी नहीं था-पहले भी कभी-कभी वह मेरी
प्रतीक्षा किये बिना नाश्ता कर लेती थी। मैं चुपचाप रसोई में चली गयी। मेरे लिए
नाश्ता लगा हुआ रखा था। बरतन धोने की बेसिनी में कोई जूठे बरतन नहीं थे। क्या
बुढिया ने अपना तश्तरी-प्याला धोकर भी रख दिया, या कि उसने कुछ खाया ही नहीं
है?
मैंने लौटकर बुढिया से पूछा, ‘‘तुमने सचमुच नाश्ता कर लिया है? मुझे तो कहीं
लक्षण नहीं दीखते!’’
‘‘मुझे जितनी जरूरत है उतना मैंने ले लिया।’’
मैं लौट गयी। नाश्ता करके मैंने बरतन धोकर रख दिये।
न जाने क्यों मेरा मन इस बात पर कुढ़ता रहा कि उसने मेरे लिये नाश्ता बनाकर रख
दिया था और स्वयं शायद कुछ नहीं खाया था। फिर बैठक में जाकर मैंने कहा, ‘‘आंटी,
मेरे लिए कष्ट करने की जरूरत नहीं है, खासकर जब तुम्हें खुद कुछ भी न लेना
हो।’’
‘‘मैंने कहा तो, कि जितनी मुझे जरूरत थी, मैंने ले लिया।’’
मैंने कुछ चिड़चिड़े स्वर में कहा, ‘क्या ले लिया था? एक प्याला गरम पानी?’
मैं चिड़चिड़े स्वर से बोली थी, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैंने ऐसा कुछ कहा था
जिस पर वह इतनी बिगड़ खड़ी हो।
वह बोली, ‘‘हाँ, एक प्याला गरम पानी बल्कि तुम सच ही कहना चाहती हो तो आधा
प्याला गरम पानी। मैंने तुमसे कह दिया कि जितनी मुझे जरूरत थी मैंने ले लिया।
मैं क्या खाती-पीती हूँ इससे तुम्हें क्या मतलब? तुम यहाँ मेहमान हो, लेकिन
इससे-’’
मैं सन्न रह गयी। क्या यह सेल्मा ही बोल रही है?
फिर मैंने किसी तरह रुकते-रुकते कहा, ‘‘ठीक है, मैं पूछने वाली कोई नहीं होती।
लेकिन स्वतन्त्रता मुझे भी चाहिए। यहाँ मैं अपनी इच्छा से कैद नहीं हुई, और न
बीमार आदमी से सेवा लेकर स्वस्थ आदमी अपने को स्वतन्त्र महसूस कर सकता है।’’
मैं नहीं जानती कि यह बात उसे तकलीफ देने के लिये ही कही थी या नहीं। फिर भी
उसे जरूर बहुत तकलीफ हुई होगी, क्योंकि उसने कहा, ‘मेरी बीमारी की बात बार-बार
दोहराने की जरूरत नहीं है-मैं जानती हूँ कि मैं बीमार हूँ। मैं क्या जान-बूझकर
हुई हूँ, या कि तुम्हें सताने के लिए बीमार हुई हूँ? और स्वतन्त्रता-कौन
स्वतन्त्र है? कौन चुन सकता है कि वह कैसे रहेगा, या नहीं रहेगा? मैं क्या
स्वतन्त्र हूँ कि बीमार न रहूँ-या कि अब बीमार हूँ तो क्या इतनी भी स्वतन्त्र
हूँ कि मर जाऊँ? मैंने चाहा था कि अन्तिम दिनों में कोई मेरे पास न हो। लेकिन
वह भी क्या मैं चुन सकी? तुम क्या समझती हो कि इससे मुझे तकलीफ नहीं होती कि जो
मैं अपनों को भी नहीं दिखाना चाहती थी उसे देखने के लिए-भगवान ने-एक-एक अजनबी
भेज दिया?’’
थोड़ी देर चुप रहकर उसने कहा, ‘‘मुझे माफ करो, योके, थोड़ी देर मेरे पास से चली
जाओ! मैंने तुम्हें साक्षी नहीं चुना और भरसक कोशिश करूँगी कि तुम्हें कुछ न
देखना पड़े-जितने पर मेरा वश नहीं उतना तो तुम मुझे क्षमा कर दो!’’
क्यों उसे तकलीफ होती देखकर मुझे सन्तोष होता है? लेकिन तकलीफ तो शायद उसे
बराबर रहती है-क्यों उसे तकलीफ से टूटते हुए देखकर होता है-क्या यह एक अत्यन्त
विकृत ढंग की जिजीविषा नहीं है!
लेकिन क्या मेरा यह मानना ही ठीक है कि वह हार ही रही है, टूट ही रही है?
तकलीफउसे है, और वह उसे पूरी तरह छिपा भी नहीं सकी है। लेकिन उतने से ही तो हार
नहीं सिद्घ होती-कम-से-कम टूटना तो नहीं सिद्घ होता, अगर छिपा न सकने को एक ढंग
की हार मान भी लिया जाए।...
दोपहर तक हम एक-दूसरे से नहीं बोले। मैंने सोचा कि कुछ खाने को बना लूँ, और
उससे पूछ भी लूँ कि वह क्या लेगी, लेकिन जब भी उसके पास जाने की बात सोचती तो
लगता कि हम दोनों के बीच कोई सामान्य भाषा नहीं है-कम-से-कम इस समय तो नहीं है।
मन-ही-मन कुढ़ती हुई मैं अपने कमरे में बैठी रही और सेल्मा बैठक में अपनी
अभ्यस्त कुर्सी पर अपनी अभ्यस्त जड़-मुद्रा में।
लेकिन नहीं, वह बैठक में नहीं थी। एकाएक मैंने उसका स्वर सुना तो वह भंडारे से
आ रहा था। वह स्वर नि:सन्देह उसी का था, लेकिन उसके स्वर से कितना भिन्न, कितना
अभ्यस्त! मैं दबे-पाँव जाकर भंडारे के किवाड़ की ओट खड़ी हो गयी। बुढिया भंडारे
में चीज़ें इधर-उधर रख रही थी-रख नहीं, पटक रही थी। और साथ-साथ बुड़बुड़ाती जा
रही थी-गालियाँ-मानो जिस भी चीज को छू, उठा या पटक रही थी उसके अस्तित्व को
कोस रही थी। और मानो भंडारे की चीज़ों को कोसकर ही उसे सन्तोष न हुआ हो, उसने
भंडारे के बाहरवाले किवाड़ को झँझोडकर खोला और फिर उसके पीछे से एक लकड़ी
खींचते हुए लकड़ी को भी गालियाँ दीं। फिर वह लकड़ी उठाकर मानो किवाड़ को पीटने
ही जा रही थी कि वह उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गयी और एक बेबस कराह उसके मुँह
से निकल गयी। फिर उसने अपने हाथ की ओर देखकर उसे भी एक गाली दी, ‘निकम्मा मुरदा
हाथ!’
मैंने भंडारे में जाकर पूछा, ‘‘आंटी सेल्मा, मैं कुछ कर सकती हूँ?’’
बुढिया सकपका गयी और थोड़ी देर विमूढ़-सी मेरी ओर देखती रही। फिर एकाएक
खिलखिलाकर हँस पड़ी-एक अद्भुत, अप्रत्याशित, अकल्पनीय खिलखिलाहट-और बोली, ‘‘मैं
माफी चाहती हूँ, योके! मैं अपना गुस्सा इन सब बेजान चीज़ों पर निकाल रही थी। अब
कुछ हलका लगने लगा है। गालियाँ भी अजीब चीज हैं-बचपन में सुनी हुई गालियाँ
बुढ़ाने में काम की जान पडने लगती हैं!’’
मैंने कुछ पसीजकर कहा, ‘‘माफी माँगने की कोई बात नहीं है, सेल्मा! मैं तो कहने
जा रही थी कि तुमने मुझे इस भूल से बचा लिया कि मैं तुम्हें अमानुषी समझने
लगूँ। जो गालियाँ दे सकते हैं वह जरूर इनसान हैं।’’
बुढिया ने भंडारे से बाहर आते हुए कहा, ‘‘बस अगर इतने ही सबूत की जरूरत थी तब
तो बड़ी आसान बात है! बल्कि यह सबूत तो मैं इतना दे सकती हूँ कि तुम उससे मुझे
अमानुषी समझने लगो!’’
इस छोटी-सी घटना से पायी हुई निकटता दिन भर बनी रहती, अगर भंडारे से आकर कुर्सी
पर धप् से बैठते ही बुढिया मूर्छित-सी न हो जाती। मैंने उसे सहारा देने की
कोशिश की, लेकिन उसने हाथ के इशारे से मुझे रोक दिया। उस अत्यन्त दुर्बल हाथ
में आज्ञापना का कुछ ऐसा बल था कि मैं उसे छू न सकी, उसके पास भी न जा सकी।
जैसे फिर क्षण-भर में हम दोनों अजनबी हो गए।
रात को उसने कहा, ‘‘कल एपिफानिया का त्योहार है। कल...लेकिन योके, तुम ईश्वर को
मानती हो?’’
मैं नहीं सोच पाती कि मुझे किसी से यह सवाल पूछने का साहस हो सकता है। यह भी
नहीं सोच सकती कि इसका जवाब क्या दे सकती हूँ-कैसे दे सकती हूँ। मैंने कहा,
‘‘मैं नहीं जानती।’’
‘यों तो मैं भी नहीं कह सकती कि मैं जानती हूँ, कि मैं सचमुच मानती हूँ। लेकिन
कभी जब यह बात सोचती हूँ कि मैं मरने वाली हूँ, और तब मुझे ध्यान आता है कि तुम
यहाँ उपस्थित हो-जब मैं अपने से अलग एक सजीव उपस्थिति के रूप में तुम्हारी बात
सोचती हूँ-तब मुझे एकाएक निश्चित रूप से लगता है कि ईश्वर है-कि सजीव उपस्थिति
का नाम ही ईश्वर है-कोई भी उपस्थिति ईश्वर है। क्योंकि नहीं तो उपस्थिति हो ही
कैसे सकती है?’’
मैं चुप रही।
थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, ‘एपिफानिया ईश्वर की पहचान का दिन है। मैं सोचती
हूँ कि कल मुझे भी वह दीख जाता, मैं भी उसे पहचान लेती। योके, अगर मैं कल मर
जाऊँ तो तुम्हें कैसा लगेगा? कभी एकाएक लगता है कि समय आ गया है। लेकिन मैं
नहीं चाहती हूँ कि बर्फ के पिघलने से पहले मैं मर जाऊँ। और खास कुछ
नहीं-तुम्हें अपना बन्दी बनाकर रखना नहीं चाहती। अपनी तरफ से मैं तैयार हूँ।
जिस दिन तुम्हें स्वतन्त्रता मिलेगी उसी दिन मैं जा सकूँगी, मुझे भी सूरज दीख
जाएगा!’’
पहले मैं मृत्यु की बात पर उसे टोक देती थी। अब उसे व्यर्थ मानकर छोड़ दिया है।
उसे मृत्यु की बात करनी होगी तो करेगी ही, मेरे रोकने से रुकेगी नहीं! और फिर
शायद ठीक ही कहती है, और मुझे इस विचार का आदी हो जाना चाहिए।
मैंने कहा, ‘‘शुक्रिया सेल्मा! मैं तो चाहती हूँ कि तुम अभी और कई वर्ष की बर्फ
देखो-कई बर्फों के बाद की धूप!’’
उसने मुस्कुराकर फिर हाथ से वही अनिर्दिष्ट इशारा किया जिसका कुछ भी अर्थ हो
सकता है।...
६ जनवरी :
रात में मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी। लगा कि भूकम्प हो रहा है, सारा मकान थरथरा रहा
है। फिर एकाएक कहीं धमाका हुआ और फिर ऐसा लगा कि एक तीखा ठंडा झोंका कमरे में
घुस आया है। थोड़ी देर मैं सुन्न-सी बैठी रही, फिर मुझे ध्यान आया कि अगर धमाका
मैं सुन चुकी हूँ तो ऊपर से बर्फ का बोझ हट गया होगा, और तभी यह समझ में आया कि
धमाका उसी का था। मैं उछलकर खड़ी हो गयी। मेरा मन हुआ कि उसी समय जाकर दरवाजा
खोलकर देखूँ, खुलता है कि नहीं। कि किसी तरह अपने को सँभालकर कम्बल ओढकर लेट
गयी। इतने में ही बदन ठिठुर गया था।
किसी तरह कुछ घंटे बिस्तर में बिताकर उठी तो सोचा कि पहले नाश्ता कर लेना
चाहिए। बैठने का कमरा पहले की अपेक्षा कहीं अधिक ठंडा हो गया था, और ऐसे में
दरवाजा खोलने की कोशिश मूर्खता ही होगी।
नाश्ता करने के बाद ही लगा कि कमरे के प्रकाश का रंग कुछ बदल गया है-कुछ उजाला
हो गया है। बुढिया के घुटनों पर एक कम्बल डालकर मैंने जाकर द्वार खोलने की
कोशिश की। वह नहीं खुला, और मैं फिर बैठ गयी। बुढिया ने कहा, ‘‘ऊपर से बर्फ
शायद हट गयी। पर अभी बाहर निकलना तो नहीं हो सकता, और ठंड भी होगी। शायद आजकल
में थोड़ी धूप भी दीख जाए।’’
आज बहुत दिन बाद मैंने सहज भाव से आँखें उठाकर बुढिया के चेहरे की ओर भरपूर
देखा। वह चेहरा कुछ-एक दिन में ही काफी बूढ़ा हो गया था। सभी रेखाएँ अधिक
स्पष्ट और गहरी और निर्मम हो गयी थीं और उनके माध्यम से जीवन जो भी नि:संग और
निष्करुण सन्देश देना चाहता था वह और भी विशद और असन्दिग्ध हो उठा था।
मैंने पूछा, ‘‘आंटी सेल्मा, मैं एक बात अक्सर सोचती हूँ-पूछना चाहती हूँ-वह
क्या है जो तुम्हें सहारा देता है, जबकि मुझे डर लगता है?’’
बुढिया ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद बोली, ‘क्या सचमुच ऐसा है?
मुझे किसका सहारा है, मैं नहीं जानती हूँ। ईश्वर का है, यह भी किस मुँह से कह
सकती हूँ? शायद मृत्यु का ही सहारा है। वह है, बिलकुल पास है, सामने खड़ी
है-लगता है कि हाथ बढ़ाकर उसका सहारा ले सकती हूँ? ईश्वर...ईश्वर का नाम लेना
तो बड़ा आसान है, लेकिन बड़ा मुश्किल भी है। और मौत और ईश्वर को हम अलग-अलग
पहचान भी तो कभी-कभी ही सकते हैं। बल्कि शायद मन से ईश्वर को तब तक पहचान नहीं
सकते जब तक कि मृत्यु में ही उसे न पहचान लें।’’
मैंने धीमे स्वर में कहा, ‘‘यह मेरी समझ में नहीं आया। बल्कि मुझे तो यही
सिखाया गया है कि ईश्वर है, इसीलिए मृत्यु नहीं है। मृत्यु केवल भ्रम है।’’
‘‘सिखाया तो मुझे भी यही गया है। लेकिन भ्रम भी क्या कम ईश्वर है? और ईश्वर की
कौन-सी पहचान हमारे पास है जो भ्रम नहीं है? जब ईश्वर पहचान से परे है तो कोई
भी पहचान भ्रम है। ईश्वर को हम कैसे जान सकते हैं? जो हम जान सकते हैं वे कुछ
गुण हैं-और गुण हैं इसलिए ईश्वर के तो नहीं हैं। हम पहचानते हैं अनिवार्यता, हम
पहचाने हैं अन्तिम और चरम और सम्पूर्ण और अमोघ नकार-जिस नकार के आगे और कोई
सवाल नहीं है और न कोई आगे जवाब ही...इसीलिए मौत ही तो ईश्वर का एकमात्र पहचाना
जा सकनेवाला रूप है। पूरे नकार का ज्ञान ही सच्चा ईश्वर-ज्ञान है, बाकी सब सतही
बातें हैं और झूठ है।’’
मैं अवाक् बुढिया को देखती रही। यह क्या बर्फानी वीरान में रहनेवाली गड़रियों
की माँ की भाषा है! या कि यहाँ और भी कोई रहस्य है-और छिपा हुआ झूठ?
७ जनवरी :
ठिठुरती हुई रात में मुझे धीरे-धीरे फिर बुढिया पर क्रोध आने लगा। ज्यों-ज्यों
मैं मन-ही-मन उसकी कही हुई बातें दोहराती त्यों-त्यों मुझे लगता कि उनमें छिपा
हुआ मेरे प्रति पैना व्यंग्य है, और यह मरती हुई बुढिया अपनी अन्तिम घडिय़ों में
भी मेरे स्वस्थ युवा जीवन का अपमान कर रही है, मुझे नीचा दिखा रही है। मैं
क्यों बाध्य हूँ यह सहने को, उसके द्वारा यों जलील किये जाने को? मैं अगर ईश्वर
को नहीं मान सकती तो नहीं मान सकती, और अगर ईश्वर मृत्यु का ही दूसरा नाम है तो
मैं इसे क्यों मानूँ? मैं मृत्यु को नहीं मानती, नहीं मान सकती, नहीं मानना
चाहती! मृत्यु एक झूठ है, क्योंकि वह जीवन का खंडन है। और मैं जीती हूँ और
जानती हूँ कि मैं जीती हूँ। कभी ऐसा होगा कि जीती न रहूँगी तब जाननेवाला भी कौन
रहेगा कि मैं जीवित नहीं हूँ-कि मैं मर चुकी हूँ? मौत दूसरों की ही हो सकती है,
जिनका होना और न होना दोनों ही हम जान सकते हैं-या मानते हैं। लेकिन अपनी
मृत्यु का क्या मतलब है? वह केवल दूसरे को देखकर लगाया हुआ अनुमान है-कि दूसरे
के साथ ऐसा हुआ इसलिए हमारे साथ भी होगा। लेकिन दूसरे ने अपने होने को जैसा
जाना, क्या हमने भी उसके होने को ठीक वैसा ही जाना? क्या ‘वह है’ और ‘मैं हूँ’
ये दोनों बुनियादी तौर पर अलग-अलग जाति के, अलग-अलग दुनियाओं के ही बोध नहीं
हैं? ‘वह है’ के जोड़ का बोध यह भी है कि ‘वह नहीं है’, लेकिन ‘मैं हूँ’ के साथ
उसका उलटा कुछ नहीं है, ‘मैं नहीं हूँ’ यह बोध नहीं है बल्कि बोध का न होना है।
लेकिन उस ठिठुरती हुई रात में मैंने यह भी सोचा कि उस बुढिया को शायद यह बोध भी
है कि वह ‘मैं हूँ’ को भी जानती है और ‘मैं नहीं हूँ’ की अवस्था में भी जी सकती
है। यही तो उसकी सम्पूर्ण नकार की बात का मतलब था! और इस न होने के बोध की
सम्पूर्णता मेरी ठिठुरन के ऊपर एक नए आतंक-सी छा गयी।
क्या है यह ‘न होना’? मैं पलंग पर उठ बैठी और उठ खड़ी हुई। गले पर गरम शाल
लपेटकर मैंने ड्रेसिंग-गाउन पहन लिया और इधर-उधर टहलने लगी।
होना और न होना। न होना...होना, न होना! होना और न होना-और एक साथ ही होना और न
होना...एकाएक मैंने पाया कि मैं केवल इन शब्दों को सोच ही नहीं रही हूँ बल्कि
धीरे-धीरे दोहरा रही हूँ, और दोहराने के साथ-साथ मेरे हाथों की मुट्ठियाँ बँधती
और खुल जाती हैं।
होना और न होना। खुले हाथ और बँधी हुई मुट्ठियाँ। मेरे नाखून मेरी हथेलियों में
गड़ जाते हैं और वहाँ दर्द होता है, और उस दर्द से मैं पहचानती हूँ कि मैं हूँ।
होने का दर्द! न होने का दर्द कैसा होता है? और फिर मुझ पर एकाएक कोई भूत सवार
हो आया। मेरा मन हुआ कि कुछ तोड़-फोड़ कर दूँ। यह जो नाखूनों के गड़ने से होने
का दर्द होता है उसे और गहरा और विस्तार के साथ अनुभव कर सकूँ-कि जिऊँ और गड़ूँ
और जिऊँ और अनुभव करूँ कि मैं जीती हूँ।...
मैं एकाएक मोजोंवाले पैरों से ही बुढिया के कमरे की ओर बढ़ गयी। किवाड़ बन्द
नहीं थे। मैं धीरे से परदा हटाकर भीतर चली गयी। अँधेरे में थोड़ी देर आँखें
फाड़-फाड़कर देखती रही, मैंने पहचाना कि बुढिया का आकार उसके पलंग पर निश्चल
पड़ा है। मैं पास गयी और झुककर मैंने देखा, उसके सफेद चेहरे को, जो उस अँधेरे
में भुतहा लग रहा था, रेखाएँ कुछ घुल-सी गयी हैं, और बन्द आँखों की कोरों की
सलवटें सीधी हो रही हैं, मैंने और भी पास से झुककर देखा-इतनी पास से कि अगर
बुढिया का चेहरा एक ओर चादर से न ढँका होता तो मेरी घनी साँस का स्पर्श उसका
गाल छू जाता!
होना और न होना-होने का दर्द, न होने का भ्रम। भ्रम नहीं, न होना ही सच्चा
ज्ञान है। ईश्वर का भ्रम। मेरे हाथ अवश से बुढिया की गरदन की ओर बढ़ गए और मैं
मानो केवल उसकी स्वचालित गति की साक्षी हो गयी। मैंने देखा कि वे दो हाथ बुढिया
की गरदन के आगे अर्धमंडलाकार घिर गए हैं-गरदन को उन्होंने अभी छुआ नहीं है
लेकिन इतने पास हैं कि एक रोएँ की सिहरन भी दोनों की छुअन बन जा सकती है-और वे
दोनों हाथ काँप रहे हैं। किसी दुर्बलता के कारण नहीं बल्कि अपने कड़ेपन के कारण
ही।
मैं हाथों के ऊपर थोड़ा और झुक गयी। मुझे याद आया, बुढिया कहती थी, धूप निकलकर
आए तो अच्छा है...लेकिन मरे हुए गोश्त को इससे क्या कि धूप है या नहीं है-सिवा
इसके कि धूप होगी तो सड़न होगी?
क्या ये हाथ-ये समर्थ और कर्मठ हाथ, जिसमें एक स्वतन्त्र इच्छा और कारक शक्ति
है, मेरे ही हाथ हैं? क्योंकि उन पर झुका हुआ जो व्यक्ति इतनी पास से उन्हें
देख रहा है वह व्यक्ति ‘मैं’ नहीं है। कितनी पास हैं बुढिया की मुँदी हुई
पलकें-क्या उनके नीचे जो आँखें छिपी हुई हैं वे बुढिया की ही हैं, या मेरी, या-
लेकिन वे आँखें अपलक खुली थीं और बुढिया एकटक मुझे देख रही थी। उसने जरा भी
हिले-डुले बिना कहा, ‘मेरा तो खुद कई बार मन हुआ कि तुमसे कहूँ, मेरा गला घोंट
दो-कहने का साहस नहीं हुआ। लेकिन तुम रुक क्यों गयीं?’
एक बड़ी लम्बी चीख मेरे मुँह से निकल गयी और मैं दौडकर अपने बिस्तर में घुस
गयी। फिर काफी देर बाद मुझे लगा कि मैं रो रही हूँ। लेकिन मेरी आँखों में
बिलकुल आँसू नहीं थे। सिर्फ ठठरी बेतरह काँप रही थी।...
न जाने कैसी सोयी और कैसे जागी। जो हुआ था उसके बाद सवेरा कैसे हो सकता है, मैं
नहीं सोच सकती थी। और बुढिया के सामने मैं कैसे जा सकती हूँ, यह तो सवाल भी मैं
अपनी कल्पना के सामने नहीं ला पा रही थी। लेकिन जब मैंने बैठक में झाँका तो
वहाँ कोई नहीं था। मैं दबे-पाँव रसोई में गयी। मैंने नाश्ता तैयार किया और वहीं
खा भी लिया। फिर एक तश्त में कहवा रखकर बुढिया के कमरे में गयी। वह पलंग पर
निश्चल पड़ी थी। मैं न जान सकी कि वह सोयी है या जाग रही है। और शायद उसने
जान-बूझकर ही आँखें नहीं खोलीं। मुझे इसमें सुविधा ही थी-मैंने तश्त पलंग के
पास ही तिपाई पर रख दिया और बाहर चली आयी।
दोपहर हो गयी थी जब उसने दुर्बल स्वर में मुझे पुकारा। मैं उसके कमरे में गयी
और उसके सिरहाने खड़ी हो गयी, जहाँ वह मुझे न देख सके-या कम-से-कम मुझे उससे
आँखें न मिलानी पड़े। लेकिन उसने ठोड़ी ऊँची करके और पलकें चढ़ाकर मेरी ओर देखते
हुए कहा, ‘‘योके, थोड़ी देर मेरे पास आकर बैठ सकती हो? मुझे तुमसे बातें करनी
हैं। और आज उठ नहीं पा रही हूँ।’’
कहते हैं कि आसन्न मृत्यु की एक गन्ध होती है। हम इनसानों ने उसे पहचानने की
शक्ति खो दी है, लेकिन जानवर पहचान सकते हैं और उसे पाकर बेचैन हो उठते हैं। यह
भी सुना है कि कैंसर के रोगियों के अन्तिम दिनों में यह गन्ध इतनी स्पष्ट होती
है कि मनुष्य भी पहचान सकते हैं। क्या मेरी कल्पना ही थी कि मुझे लगा, बुढिया
का कमरा उस विशेष मृत्यु-गन्ध से भरा हुआ है। क्या कल्पना में ही इतना बल था कि
मुझे उबकाई-सी आने लगी? मैंने किसी तरह अपने को सँभाला और एक चौकी खींचकर उसके
पास बैठ गयी। आँखें मैं उससे नहीं मिला सकी लेकिन मैंने किसी तरह कहा, ‘‘रात के
लिए मुझे क्षमा कर दो। मैं पागल हो गयी थी।’’
बुढिया ने कहा, ‘‘क्षमा तो मुझे माँगनी है-तुम्हें ऐसी परिस्थिति में डालने के
लिये। यह कुछ अच्छी स्थिति नहीं कि कोई कुछ करना चाहे और कर न सके।’’
लेकिन मैंने तिलमिलाकर कहा, ‘‘लेकिन यह चाहना ही कितना गलत और भयानक है-’’
‘‘वह कुछ नहीं। भयानक होता तो चाहा कैसे जाता है? लेकिन मैंने ही तुम्हें ऐसे
संकट में डाला कि तुम्हें अपने भीतर ही दो हो जाना पड़े। सचमुच ही मैं ही
अपराधी हूँ, और तुम्हें क्षमा करना होगा।’’
मैं चुप रही। क्या कहती? वह भी काफी देर तक चुप रही, फिर उसने कहा, ‘‘नहीं कर
सकतीं क्षमा? इतना आश्वासन मैं और देती हूँ कि कल जैसा अवसर फिर नहीं आएगा। मैं
ही मौका नहीं दूँगी-नहीं दे सकूँगी। लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे क्षमा कर
दो-इतना ही नहीं, मैं चाहती हूँ कि तुम अपने मुँह से कह सको कि तुमने कर दिया
क्षमा। क्योंकि उससे तुम्हें भी आगे शान्ति मिलेगी।’’
मैंने कहा, ‘‘अपराधी तो मैं हूँ, और मैं दुर्बल हूँ जो कि दुगुना अपराध है और
इसी की कुढन मुझे कुराह पर ठेलती है जो कि और अपराध है।’’
उसने कहा, ‘‘न न, योके, यह अपराध को खाहमखाह ओढना है। तुम जो अपने को स्वतन्त्र
मानती हो वही सब कठिनाइयों की जड़ है। न तो हम अकेले हैं, न स्वतन्त्र हैं।
बल्कि अकेले नहीं हैं और हो नहीं सकते, इसलिए स्वतन्त्र नहीं हैं, और इसीलिए
चुनने या फैसला करने का अधिकार हमारा नहीं है। मैंने तुम्हें बताया है कि मैं
चाहती थी कि मैं अकेली मरूँ। लेकिन क्या यह निश्चय करना मेरे बस का था? क्या
मैं अपनी मनपसन्द परिस्थिति चुन सकी? और तुम-क्या तुम स्वतन्त्र हो कि मुझे
मरती हुई न देखो? ऐसी सब स्वतन्त्रताओं की कल्पनाएँ निरा अहंकार हैं-और उसी से
स्वतन्त्रता को छोडकर कोई दूसरी स्वतन्त्रता नहीं।’’
मैंने हिचकिचाते हुए कहा, ‘‘लेकिन तुम स्वतन्त्र हो सेल्मा, मुझे तो लगता है कि
तुम स्वतन्त्र हो! और शायद तुम्हारा यह कहना ठीक है कि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ।
क्योंकि तुम्हारी इसी बात पर मुझमें कुढन होती है।’’
बुढिया ने देर तक कोई जवाब नहीं दिया। पर जो कहा वह जवाब नहीं था, यद्यपि कहा
ऐसे ही ढंग से गया कि मेरी बात का जवाब दिया जा रहा है। उसने कहा, ‘‘बहुत बड़ा
वरदान है जवान होना!’’
फिर काफी देर तक उसने कुछ नहीं कहा तो मैंने पूछा, ‘‘लेकिन तुम तो कुछ बात करने
वाली थीं?’’
‘‘अरे, वह! मुझे तो माफी ही माँगनी थी, वह मैंने माँग ली। तुमने दे दी-यह तो
तुमने अभी नहीं कहा, लेकिन मैं कहला लूँगी। और कुछ-’’
वह फिर थोड़ी देर चुप रही। फिर एक लम्बी साँस लेकर बोली, ‘‘मैं थक जाती हूँ।’’
मुझे ध्यान आया कि उसने दिन भर कुछ नहीं खाया है। पहले दिन भी लगभग कुछ नहीं
खाया था। बल्कि इधर कई दिनों से कुछ नहीं खा रही है। मैं कहा, ‘‘पहले तुम्हारे
लिये कुछ ले आऊँ-थोड़ा-सा गरम शोरबा या कहवा ही।’’
उसने संक्षेप में कहा, ‘‘जितनी मेरी जरूरत है, मैं ले लेती हूँ-जितना ले सकती
हूँ।’’
बात खत्म नहीं हुई थी लेकिन इसके बाद वह पलकें मूँदकर देर तक चुपचाप पड़ी रही
तो मैंने बुलाना उचित नहीं समझा और चुपचाप उठ आयी।
११ जनवरी :
इस काठघर में-लिखकर मैं देखती हूँ कि मैंने कब्रघर नहीं लिखा है, काठघर लिखा
है-क्या मेरे भीतर कहीं कोई छिपी हुई आशा है?-अब पहले जैसा अँधेरा और झुटपुटे
के बीच का-सा प्रकाश नहीं है। ऐसा प्रकाश है जो पहचाना जा सकता है, जो बड़े
निर्मम भाव से चेहरे की रेखाएँ और उनकी सलवटों में छिपाना चाहनेवाली जीवन की
बेशर्मी को उघाडकर रख देता है। वह प्रकाश जिसमें किसी चीज की ओर देखते डर लगता
है क्योंकि वह पलटकर वापस मेरी ओर देखती है और उस देखने ही में कैसी डरावनी हो
आती है। यह मेज, यह पलंग, यह आईने का चौखटा, यह आईने में मेरी परछाईं, ये मेरे
अपने हाथ-पैर, ये मेरी उँगलियों की गति। कैसी भयानक है पार्थिवता, स्थूलता, यह
गतिमत्ता! मैं मुट्ठी बन्द करती और खोलती हूँ, और मुझे अपनी उँगलियों की गति से
डर लगने लगता है। मुझे नहीं लगता कि मैं उनको चलाती हूँ-वे अपने-आप चलती हैं,
और कैसा आतंकित करनेवाला है यह विचार कि मेरी उँगलियाँ और यह मेरी उँगलियाँ
अपने आप मुझसे स्वतन्त्र एक अपने निरात्म मन से चलती हैं! और उससे भी कितना
अधिक भयानक है यह मानना कि अपने आप नहीं चलतीं बल्कि मेरे द्वारा चलाई जाती
हैं। क्योंकि तब क्या मैं भी वैसी ही निरात्म हूँ?
इस प्रकाश में सेल्मा को देखना आसान नहीं है। लेकिन अच्छा ही है कि मुझे उसकी
ओर देखना भी नहीं पड़ता और उससे बोलना भी बहुत कम पड़ता है। वह कमरे से लगभग
नहीं निकलती, पलंग से भी लगभग नहीं उठती, और जब उठना होता है तो मेरा सहारा
लेने से इनकार करके मुझे कमरे से बाहर भेज देती है। रात में कभी सुनती हूँ कि
वह उठी है, एक कदम के बाद दूसरा घिसटता हुआ कदम सुनाई पड़ता है। फिर तीसरा और
फिर चौथा...मेरे भीतर एक सशंक प्रतीक्षा उमड़ आती है। मैं तने हुए स्नायुओं और
सुई-सी एकाग्र श्रवण शक्ति से वह घिसटना सुनती रहती हूँ और कदम गिनती रहती हूँ
जब तक कि अन्त में पलंग की हलकी-सी चरमराहट के साथ एक चरम क्लान्ति का ‘ऊँह!’ न
सुनने को मिल जाए-उस चरम क्लान्ति का, जो चरम उपलब्धि के साथ आती है-मानो जो
कुछ करना चाहा गया था सब कर लिया गया, और कुछ करने को बाकी नहीं रहा। और तब
एकाएक ऐसा लगता है कि जीवन पैरों के घिसटने के सिवा कुछ नहीं है, और उसके
बीच-बीच जो मुझे अपना ध्यान आता है वह धोखा है, मैं नहीं हूँ और केवल पैरों का
घिसटना है।...
१२ जनवरी :
इस बिना कफन की कब्र से क्या वह पहले की ही अवस्था अच्छी नहीं थी? बर्फ के नीचे
दबकर मर जाना भी मर जाना है। लेकिन वह दबकर मरना तो है-उसमें कार्य और कारण की
संगति तो है! लेकिन यह बिना दबे, बिना बर्फ को छुए भी अहेतुक मर जाना-यह मानो
हमारे जीवन के अनुभव का अपमान करता है। और हम मरने पर भी अनुभव का खंडन सहने को
तैयार नहीं। शायद यह हमारे करुण विश्वास का-विश्वास की कामना का फल है कि अगर
अनुभव है तो हम भी हैं, और अगर काई अनुभव हमें हुआ है तो हमारे मर जाने पर भी
वह नहीं मरता और एक धनात्मक उपलब्धि के रूप में बचा ही रह जाता है। इस करुण
विश्वास के सहारे हम यह मान लेना चाहते हैं कि हमीं बचे रह जाते हैं। लेकिन सब
झूठ है-कुछ नहीं बचता-हम नहीं बचते, बचने को रहे भी, यह भी नहीं कह सकते!
मृत्यु-मत्यु-उसी की एकमात्र प्रतीक्षा, ऊपर बर्फ हो या न हो-और हाँ, कैंसर भी
हो या न हो! क्या सेल्मा की प्रतीक्षा मेरी प्रतीक्षा से इसलिए भिन्न है और
मुझे नहीं है, या कि भिन्न इसी बात में है कि उसके पास कारण की संगति का सबूत
है और मेरे पास वह भी नहीं है? क्या मैं ज्यादा लाचार, ज्यादा दयनीय-ज्यादा मरी
हुई नहीं हूँ? क्या मुझे ही ज्यादा कैंसर नहीं है-वह कैंसर जिसे हम ज़िन्दगी
कहते हैं? |