पावस और सर्जन
					
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					श्रीराम 
					परिहार
					भारतवर्ष पृथ्वी की गोद में बसा 
					हुआ ऐसा देश है, जिस पर प्रकृति की ममता अन्य देशों की अपेक्षा 
					सर्वाधिक बरसती है। विश्व के बहुत कम देश हैं, जिनको छह ऋतुओं 
					का उपहार मिला है- वैशाख-ज्येष्ठ—गरमी, आषाढ़-सावन—पावस, 
					भादौं-कुआर—शरद, कार्तिक-अगहन—हेमंत, पौष-माघ—शिशिर, 
					फागुन-चैत—बसंत। ये बारह महीने, प्रत्येक ऋतु दो-दो महीने की 
					होती है। इसमें कौन-सी ऋतु कम महत्त्व की है और कौन-सी अधिक 
					महत्त्व की, ऐसा कहना प्रकृति के चक्र के हिसाब से ठीक नहीं 
					होगा। क्योंकि प्रकृति ने जो चक्र बनाया है, वह अत्यंत 
					कल्याणकारी है। मनुष्य को जो अभी तक की जानकारी है, सौर मंडल 
					में या भूलोक, द्युलोक और स्वर्लोक हैं। पृथ्वीलोक, अंतरिक्ष 
					और द्युलोक, इन तीनों में जितने भी ग्रह-नक्षत्र हैं, इनमें 
					जीवन केवल पृथ्वी पर है। पृथ्वी के जीवन को बहुत तरीके से यह 
					प्रकृति सँभालती है। उसे आगे बढ़ाने के लिये ही ऋतुओं का चक्र 
					है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, इसलिये दिन-रात होते हैं। 
					पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, इसलिये ऋतुएँ होती हैं। वह 
					अपने अक्ष पर झुकी हुई है, इसलिये सारे विश्व में एक समय व एक 
					समान ऋतुएँ नहीं होती हैं।
					
					पावस चिंतन में, साहित्य में, सृष्टि के क्रम में, सृष्टि के 
					संचालन में और सर्जन के संदर्भों में बहुत गहरे पैठा हुआ है। 
					जब कुछ नहीं था—धरती नहीं थी, आकाश नहीं था, सूर्य नहीं था, 
					चंद्र नहीं था, तब क्या था? यह चिंतन की परंपरा कहाँ तक जाती 
					है? सबसे पहले क्या आया? उसे महाकाल की संज्ञा हमने ऐसे ही 
					नहीं दी है। इसका आरंभ कहाँ से है? अंत कहाँ है? आज तक यह कोई 
					नहीं जान पाया। इसलिये समय को हमारे यहाँ चक्राकार स्थिति में 
					अनुभव किया गया है । विश्व में समय की तीन अवधारणाएँ 
					हैं—चक्रीय, रेखीय और सर्पाकार। कुछ मत सर्पाकार मानते हैं, 
					पश्चिम में रेखीय मानते हैं। भारतीय मनीषा समय को चक्रीय मानती 
					है। इस अखंड समय के भीतर हमारा देश है, संपूर्ण ब्रह्मांड है, 
					सौर मंडल है। यह ब्रह्मांड भी उस महाकाल में ही स्थित है। उस 
					महाकाल के संकेत पर सब अपनी-अपनी गति में क्रियाशील हैं। एक 
					घंटा यदि सूर्य न निकले तो संपूर्ण विश्व में हाहाकार मच जाए। 
					सब अपने-अपने नियम से बँधे हुए क्रियाशील हैं, जिसे 'ऋत' कहा 
					जाता है। ऋत को संचालित करनेवाला कोई सत्य है, जो ये सब नहीं 
					थे, तब भी था और ये सब नहीं रहेंगे, तब भी रहेगा। इसे 'सत्य' 
					कहते हैं। जिसके इशारे पर यह सबकुछ चल रहा है, निर्मित हो रहा 
					है, संचालित हो रहा है, रचित हो रहा है, सर्जित हो रहा है, उस 
					नियमावली को 'ऋत' कहा जाता है। ऋत और सत्य दो तत्त्व हैं, जिसे 
					हमारी भारतीय मनीषा ने मानवी सभ्यता के विकास और प्राकृतिक 
					ऊर्जा के विकास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
					
					अलग-अलग पंथों और मतों में भी यह बात आई है। सृष्टि के आरंभ के 
					भी बहुत पहले कुछ नहीं था। शून्य था। अँधेरा था। महामौन था। 
					उत्पत्ति की अनेक अवधारणाओं में से एक यह भी है कि सबसे पहले 
					जल की उत्पत्ति हुई। जल से ही सारी सृष्टि का विकास हुआ। 
					भारतीय चिंतन में विशेषकर, जो दस अवतारों की अवधारणा है, उनका 
					क्रम ध्यान देने योग्य है—मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, 
					परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की। डार्विन का विकासवाद बाद 
					में आया। डार्विन की भूमि पर ही वह खारिज कर दिया गया। सृष्टि 
					की उत्पत्ति की अवधारणा में हम ऐसा मानते हैं कि जो जल है, वह 
					सृष्टि के विकास-क्रम का प्राणतत्त्व है, बीजतत्त्व है। 
					'क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंच 
					रचित यह अधम शरीरा।' पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँचों 
					से ही सारी सृष्टि बनी है। जलतत्त्व सबमें सर्वाधिक है। इसका 
					एक प्रमाण तो यह है कि पृथ्वी के ऊपर भी जल तीन-चौथाई मात्रा 
					में है। उसी तरह सारे चेतन प्राणियों में जलतत्त्व की मात्रा 
					अन्य तत्त्वों से अधिक है। पश्चिमी विश्व में जब बसंत आता है, 
					वहाँ का व्यक्ति खुशी मनाता है। हमारे यहाँ मेघों की मनुहार, 
					कोयल की मनुहार, वर्षा की मनुहार, इंद्र की मनुहार, यह सब 
					क्यों होता है? सृष्टि की अनादि यात्रा में वर्षा पहली बार 
					कहीं-न-कहीं तो हुई होगी? जल आया कैसे? जिस दिन पहली बरखा हुई 
					होगी, उसी दिन धरती की गोद से किसी नन्हे अंकुर ने आकाश की तरफ 
					पृथ्वी की सारी सर्जन-क्षमता के साथ आँख उठाकर उत्साह से देखा 
					होगा। जल नहीं होता तो सर्जन नहीं होता। जल के साथ सर्जन का 
					मूल रूप जुड़ा हुआ है। मूलते सर्जन के साथ जल
					का संबंध है।
					सर्जन केवल धरती पर ही नहीं 
					होता। धरती पर दूसरे स्तर पर होता है। ब्राह्मण ग्रंथों की कथा 
					को आधार बनाकर जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' में महाजलप्लावन का 
					संदर्भ रूपायित किया है। हम कल्पना करें कि कितनी बारिश हुई 
					होगी? सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई। सबसे पहली वर्षा पृथ्वी की 
					रचना के बाद हुई। मान।  कि पृथ्वी का जन्म सूर्य से ही 
					हुआ है। करोड़ों वर्षों तक यह ठंडी होती-होती पृथ्वी के रूप में 
					रूपायित हुई—मिट्टी बनी, पहाड़ बने, कछार बने, घाटियाँ बनीं। उस 
					समय जो पहली वर्षा नहीं हुई होती तो क्या हमें वानस्पतिक संसार 
					प्राप्त होता? वनस्पति मनुष्य से करोड़ों वर्षों पहले आई है। 
					उसके बाद मनुष्य का जीवन आया है। वनस्पति का सीधा संबंध तथा 
					पृथ्वी की ऊर्जा का सीधा संबंध पावस से है। वही पहली वर्षा या 
					बार-बार होनेवाली बरखा से अंतरिक्ष में मेघमय आकाश की रचना 
					होती है। सबसे पहला सर्जन कहाँ होता है? सबसे पहला सर्जन गरमी, 
					हवा, जल—इन तीनों के सम्मिश्रण से आकाश में होता है। 
		
					हमारी मनीषा यह कहती है कि सर्जन 
					का यह रथ बिना पुरुष और प्रकृति के गतिमान नहीं हो सकता। सीता 
					प्रकृति हैं और राम आकाश हैं। आकाश का गुण है—शब्द। मैं जो कह 
					रहा हूँ, वह आप तक इसलिये पहुँच रहा है या सुनाई दे रहा है, 
					क्योंकि बीच में आकाश है। आकाश नहीं होता तो हमारी वाणी—परा, 
					पश्यंती, मध्यमा और वैखरी, ये वाणी के चारों रूप संप्रेषित 
					नहीं हो पाते। हम कंठ से कितनी भी जोर से ध्वनि निकालते, पर 
					आकाश नहीं होता तो किसी को सुनाई नहीं देती। यह जो सर्जन की 
					पहली पीड़ा है, आकाश में बादलों के सर्जन के रूप में होती है। 
					निर्माण और सर्जन में अंतर है। भवन का निर्माण होता है। कविता 
					का सर्जन होता है। प्रकृति ने नदी का सर्जन किया है, नदी का 
					निर्माण नहीं किया। सर्जन सॉफ्टवेयर है। भौतिक रूप में मनुष्य 
					द्वारा और पशु पक्षियों द्वारा निर्मित सारी वस्तुएँ निर्माण 
					की प्रक्रिया के अंतर्गत हैं। मनुष्य की मेधा या ऐसी अदृश्य 
					शक्ति, जो दिखाई नहीं देती, लेकिन रहती है, उसकी प्रेरणा से जो 
					रचते हैं, वह 'सर्जन' है। हम जिस प्रज्ञा से कविता लिखते हैं, 
					उससे कविता तो दिखती है, लेकिन वह शक्ति नहीं दिखती, जिसके बल 
					पर हम कविता लिखते हैं। संगणक का सॉफ्टवेयर तो बाद में आया, 
					प्रकृति के पास एक सॉफ्टवेयर बहुत पहले से था। सबसे पहला सर्जन 
					आकाश में बादल के रूप में होता है।
					
					दूसरा सर्जन तब होता है, जब बादल पावस में बरसता है। जब बादल 
					बरसते हैं तो भारतवर्ष का कोना-कोना, पत्र-पत्र, तृण-तृण उसके 
					स्वागत में नृत्य करता है। केवल वानस्पतिक संसार ही नहीं; 
					'लछिमन देखहूँ मोरगन, नाचत वारिद पेखि'। लक्ष्मण मोरगणों को 
					देखो, वे बादलों को देखकर नाच रहे हैं। कोयल की कूक, पपीहा की 
					रट, चातक का संकल्प, तितलियों के रंग-बिरंगे पंख, कितने-कितने 
					नन्हे बीज, विशाल वृक्ष बनने की कामनाएँ लिये पावस के स्वागत 
					में खड़े हो जाते हैं। न जाने कब से सुषुप्त बीज धरती की गोद 
					में बैठा हुआ है। पावस की एक बूँद की नम्रता, आर्द्रता, तरलता 
					उसे 
					मिलती है और उसमें जीवन अंकुरित हो जाता है। यह सर्जन की 
					निसर्गजात प्रक्रिया है। यह एक ऐसी शाश्वत क्रिया है, जिसके 
					बिना सृष्टि का संकल्प-रथ 
					या विजय-रथ आगे नहीं बढ़ सकता।
					
					पावस में जब वर्षा होती है, बदरा घिर घिरकर बरसते हैं तो 
					वानस्पतिक दृश्यावली ही जीवित और प्राणवान नहीं होती है, बल्कि 
					सारे जीव-जंतु अपने जीवन-अस्तित्व के साथ जनमते हैं। हमने एक 
					बात अनुभव की कि ग्रीष्म ऋतु में छोटे-छोटे कीट-पतंगे तो दिखते 
					नहीं हैं, लेकिन जैसे ही पहली वर्षा होती है, असंख्य जीव-जंतु 
					पैदा हो जाते हैं। पावस का सीधा संबंध सर्जन से है। प्रकृति एक 
					संतुलन बनाए हुए है। छिपकली के छोटे-छोटे बच्चे पावस के आगमन 
					के ठीक पंद्रह-बीस दिन पूर्व रेंगने लगते हैं, क्योंकि उनका 
					खाद्य असंख्य कीड़े-मकोड़े हैं, जो पावस के आगमन के साथ पैदा 
					होते हैं। प्रकृति ने सबके भोजन की व्यवस्था कर रखी है तथा 
					संतुलन भी बना रखा है। जीव चार प्रकार के होते हैं—अंडज, 
					पिंडज, उद्भिज और स्वेदज। इसमें दो—उद्भिज और स्वेदज का संबंध 
					सीधा प्रकृति से है। पावस आता है तो कितने जीव धरती पर चलायमान 
					हो जाते हैं। गोगल गाय पैदा हो जाती है। असंख्य कृमि-कीट पावस 
					के आते ही पैदा हो जाते हैं। यह भी है कि वे दूसरे जीवों का 
					भोजन बनकर पैदा होते हैं। उनके पालन के लिये पैदा होते हैं। 
					साँप दूध नहीं पीता है। साँप मणि को एक स्थान पर रख देता है। 
					उसके प्रकाश में कीट-पतंगें आते हैं, उन्हें वह अपना भोजन 
					बनाता है। इतने रोचक, सुंदर और रहस्यमय संसार की रचना 
					प्रकृति-पुरुष ने कर रखी है। 
		
					प्यास सबको लगती है। भय सबको 
					सताता है। निद्रा सबको आती है। मैथुन क्रिया में सब तत्पर होते 
					हैं। सारे जीवों में, जिन्हें हम नग्न आँखों से नहीं देख पाते 
					हैं, उनमें भी ये चार आचार होते हैं। चारों प्रकार के जीवों 
					में उद्भिज का सीधा संबंध पृथ्वी से है। अनेक जीव पावस में 
					असंख्य मात्रा में पैदा होते हैं और दो-चार दिनों में ही 
					समाप्त हो जाते हैं। असंख्य मात्रा में पैदा होनेवाली इल्लियाँ 
					ग्रीष्म में दिखाई नहीं देती। शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत में ऐसी 
					इल्लियाँ पैदा नहीं होतीं। कितना सुंदर, अद्भुत, विचित्र, 
					रहस्यमय, विविधतापूर्ण सर्जन पावस के द्वारा होता है। मनुष्य 
					योनि के साथ ही चौरासी लाख योनियों में भटकने की अवधारणा इन 
					जीव-जंतुओं को देखकर साकार हो उठती है। अनेक योनियों में 
					जल्दी-जल्दी जन्म लेने और मर जाने के क्रम को पावस व्यवस्थित 
					भी करता है। 
		
					पावस मनुष्य को शारीरिक तत्त्वों 
					के आधार पर भी प्रभावित करता है। बादल होते ही अनेक लोगों के 
					शरीर में दर्द या शिथिलता अनुभव होती है। अते हमारे शरीर में 
					जो जल की मात्रा है, वह आकाश में होनेवाले बादलों के जल से 
					जुड़ी हुई है, उसी का अंश है। यह बात भौतिक विज्ञान मान रहा है, 
					जैव विज्ञान मान रहा है और ज्योतिष विज्ञान भी मान रहा है। 
					हमारा चिंतन तो यह स्वीकार करता ही है। छहों ऋतुओं में मनुष्य 
					की क्रियाएँ प्रभावित होती हैं। बसंत में मन उल्लसित होता है। 
					पावस में भीगते ही पिया की याद आती है, भामिनी की याद आती है 
					और एकांतकांक्षिणी प्रिया की याद आती है। पावस की रसभीनी 
					आर्द्रता सीधे-सीधे सर्जन को प्रेरित और उत्फुल्लित करती है। 
					वैश्विक स्तर पर सर्वेक्षण करने से पता चलता है कि सर्वाधिक 
					गर्भाधान पावस ऋतु में होता है। इतनी दूर तक पावस काम करता है। 
					हमारे मनोभावों को प्रभावित और प्रेरित करता है। हमारे 
					स्नायुओं को सक्रिय और सर्जन हेतु सक्रिय करने का नैसर्गिक 
					कार्य पावस करता है। इसलिये कवि आग्रह करता है— 'मेघा बरसो, 
					सरसो, घन बरसो।' 
					जायसी कहते हैं-
					'बरसहिं मघा झकोरि-झकोरी, मोर दुई नयन चुवहिं जस ओरी। 
					रकत के आँसू परहिं भुईं टूटी, रेंगी चली मनो वीरबहूटी।' 
					रीतिकाल के कवि घनानंद कहते हैं- 
					'बदरा बरसै ऋतु में घिरी कै, अँखियाँ नित ही उधरी बरसै।' बादल 
					तो ऋतु में घिरकर बरसते हैं, लेकिन ये ससुरी अँखियाँ उघड़कर 
					बरसती हैं। यह जो भावात्मक आवेग और प्रकृति के संग-साथ 
					क्रियात्मक संवेग है, यह जैविक स्तर के साथ ही हमारी प्रकृति 
					में भी होता है। पत्र-पत्र नृत्य करता है। एक सुनहरी किरण 
					पत्ते पर पड़ी हुई जल-बूँदों या तृण की नोक पर 
					ठहरी हुई जल-बूँद का स्पर्श करती 
					है तो जल की बूँद मोती जैसी चिलकने लगती है।
					
					छहों ऋतुओं की अपनी महिमा 
					होती हैं। छहों की अपनी सुषमा होती हैं। छहों ऋतुएँ 
					सर्जनधर्मिता को निश्चित रूप से अलग-अलग प्रभावित करती हैं। 
					सर्जन की प्रेरणा में भी ये ऋतुएँ पैठी हुई हैं। यदि भारतीय 
					साहित्य के परिप्रेक्ष्य में विश्व साहित्य को देखें तो 
					पश्चिमी साहित्य में अधिकांश कविताएँ वसंत पर लिखी पाएँगें। 
					भारतीय साहित्य में सर्वाधिक कविताएँ पावस पर लिखी हुई हैं। 
					महाप्राण निराला की चौदह कविताएँ पावस पर, बादल पर हैं। पंत 
					ने, प्रसाद ने, महादेवी ने, सबने वर्षा-गीत लिखे हैं। समग्र 
					हिंदी साहित्य में बादल कविता के प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में 
					हृदय-स्थित है। कवि कुलगुरु कालिदास की अमर रचना 'मेघदूतम्' तो 
					बादल को ही मानवीय भावों से पूरित करती है। कालिदास प्रेम और 
					सौंदर्य के गहन काव्य-संदर्भों के कारण महान् कवि बन गए। पावस 
					के आगमन के साथ ही यक्ष को अपनी प्रिया की मधुर याद सताती है। 
					वह मेघ को दूत बनाकर संदेश भेजता है। संदेश भेजता है रामटेक से 
					अलकापुरी को।  पावस की वर्षा मनुष्य की सुकोमल हृत्तंत्री 
					के विरहराग में बजाता है। जायसी की नायिका परदेश में गए 
					प्रियतम की याद करते-करते आशंका करती है—
					नहिं पावस वोहि देसरा, ना 
					पावस न वसंत,
					ना कोयल, ना पपीहरा, जेहि सुनि आवहिं कंत।
					
					जब सारी प्रकृति उल्लसित होती है तो विधाता के रचनाकर्म के 
					समांतर प्रतिभा लेकर पैदा होनेवाला धरती का बेटा मनुष्य, जिसे 
					कवि या रचनाकार के रूप में संबोधित किया जाता है, जब वह इस 
					प्रकृति को देखता है तो उसके भीतर एक शाब्दिक संसार, संसार के 
					समकक्ष एक प्रतिसंसार खड़ा करने की प्रेरणा जागती है, तब वह उस 
					कलम से उस सर्जन को जन्म देता है। ऐसी सर्जनात्मकता द्वारा वह 
					प्रकृति के समांतर सृष्टि अपनी रचना में पैदा कर देता है। 
					इसलिये कवि को दूसरा विधाता या दूसरा स्रष्टा कहा गया है।
					हमारे साहित्य में दूसरा स्रष्टा 
					इसलिये भी कहा है, क्योंकि प्रकृति में रचनाकार की दृष्टि से 
					जो कमी दिखाई देती है, उसे वह अपनी रचना में पूरा करता है। 
					कृति ऐसी नहीं; ऐसी होनी चाहिये। नदी ऐसी नहीं; ऐसी बहनी 
					चाहिये। मनुष्य ऐसा होना चाहिये। मनुष्य कैसा? जैसे महावीर 
					स्वामी, आदि गौतम बुद्ध, आदि राम, आदि कृष्ण आदि। हमारे रोल 
					मॉडल या आदर्श हमें किसने दिए हैं या किसने बताएँ हैं। क्या 
					किसी को सपना आया था? ये सब हमारे सर्जनात्मक साहित्य की देन 
					हैं, जिनसे हम इन महापुरुषों के जीवन को जान सके और उस तरह का 
					जीवन जीने का प्रयास कर सके। हमें रचनाकारों ने ही बताया, 
					जताया—'मनुष्य तू है तो भोर का तारा, प्राते होते ही छुप 
					जाएगा। मनुष्य तू है तो अनंत जलराशि पर तैरती हुई कागज की नाव। 
					तू है तो तिनके की नोक पर ठहरी हुई ओस की बूँद। तू है तो साँझ 
					समय डूबते हुए सूरज का शृंगार करती हुई किरण। तू है तो किसी के 
					पाँव की ठोकर से आकाश की ओर उड़ती हुई धूल। लेकिन तू अमरता का 
					वरदान और संदेश लेकर धरती पर आया है। तू मनुष्य, तू जितनी देर 
					यहाँ ठहरेगा, इस संसार को सुंदर बना देखा।' यह रचनात्मक सर्जन 
					कवि के पास ही होता है। इसलिये उसे 'दूसरा विधाता' कहा गया है। 
					पावस और सर्जन के बहुत महीन और लंबे सूत्र हमारे लोक में 
					उपस्थित हैं। जल से सर्जन के रिश्ते बहुत पुण्यश्लोक हैं। 
					इसलिये कहा गया है—'चंद्रमा मनसो जाते।' मन से चंद्रमा उत्पन्न 
					हुआ। इसका प्रमाण समुद्र तट पर हमें मिल जाएगा। चंद्रमा की 
					पृथ्वी से निकटता और दूरी सिंधु जल को किस तरह आकर्षित, 
					उद्वेलित और विस्फारित करती है। चंद्रमा जितना निकट होगा, जल 
					उतना ऊपर चला जाएगा। सैकड़ों लोगों को पूर्णिमा के दिन भावात्मक 
					ज्वार अधिक उमड़ता है। इसलिये विधु पर, चंद्रमा पर अधिक कविताएँ 
					लिखी गईं। चाँदनी रात में टहलते हुए, निर्जन वन में टहलते हुए 
					सर्वाधिक कविताएँ चाँदनी, चंद्रमा और इनसे जुड़े उपमा, उपमान 
					प्रतिमानों और प्रतीकों को केंद्र में रखकर लिखी गईं। अब तो न 
					चाँदनी रही और न देखनेवाले लोग रहे। न वह समय रहा, न पावस का 
					स्वागत करनेवाला पल।
					
					यह पावस हमको हमारी धरती से परिचय कराता है। एक विराट् धरातल 
					पर, जहाँ प्रकृति अपने सर्जन के छंद रच रही है, ललित निबंध लिख 
					रही है। ऐसे प्रांगण में बैठकर हमारा रचनाकार आदिकाल से आज तक 
					अपनी सर्जनधर्मिता को एक गति देता है। हमारी सर्जनात्मकता, 
					किसलिये है और किसके लिये है? पावस की सर्जनात्मकता तो स्पष्ट 
					है—वह सृष्टि के क्रम को बनाए रखने में सृष्टि-नियमों का पालन 
					करते हुए नैसर्गिक सर्जन का विराट् रचती है। क्या इस पावस और 
					प्रकृति से प्रेरणा लेकर सर्जन करनेवाला हमारा जो सर्जन है, 
					हमारा कोई-सा भी सर्जन हो—नृत्य, चित्र, गायन, वादन, अभिनय, 
					नाट्य, और लेखन सब ललित कलाओं में आते हैं। हमारी सर्जनात्मकता 
					के विविध आयाम हैं। ये किसके लिये हैं और क्यों हैं? जब धरती 
					तपती है, पृथ्वी का हृदय फट पड़ता है, पपीहे की प्यास धरती-आकाश 
					को चीरकर एक कर देती है, कोयल पुकार-पुकारकर मनुहार करती 
					है—बरसो रे मेघा-बरसो! पशु पक्षी, वृक्ष, नदियाँ, नीलकंठ सब 
					पावस की प्रतीक्षा करते हैं, तब आकाश पसीजता है और बरसता है। 
					क्या ऐसा दबाव रचनाकार के भीतर भी होता है? घनानंद कहते 
					हैं—'परकाजहिं देह को धारी फिरौं, परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।' हे 
					बादल! तुमने परकाज के लिये देह धारण की है। क्या रचनाकार का 
					सर्जन भी दूसरों के लिये होता है। वृक्ष अपने फल कभी नहीं 
					खाता। नदी अपना पानी नहीं पीती। चिड़िया अपना घोंसला बनाकर उसे 
					संदूक में बंद करके नहीं रखती। कोई भी चिड़िया दूसरी चिड़िया या 
					दूसरे के घोंसले का तिनका चुराकर अपना घोंसला नहीं बनाती है।
					क्या हम इस पावस से, पावस के 
					सर्जन के महत् उद्देश्य से महती प्रेरणा लेकर अपनी 
					सर्जनात्मकता को विश्वहित में और उससे भी बड़ी बात सृष्टिहित 
					में करुणा की शब्दधारा द्वारा प्रवाहित कर सके? करुणाजनित 
					महाकाव्यों के चरित्रों ने भारतवर्ष को कितने-कितने कोणों से 
					समृद्ध किया है। यह सर्जनात्मकता कितने विराट् धरातल पर 
					संपूर्ण विश्व के मानव को कल्याण के भाव से देखती भी है और 
					जोड़ती भी है। यह पावस नहीं बरसता तो यह सृष्टि इतनी सुंदर नहीं 
					होती। यह धरती इतनी ममतालु नहीं होती। नर्मदा इतनी तरल नहीं 
					होती। विंध्याचल इतना अचल नहीं होता। सतपुड़ा इतना सुषमावान 
					नहीं होता। पावस में नृत्य करती, धरती की ओर आती हुई बूँद 
					हरी-हरी दूर्वा पर बरसकर अपने सौंदर्य के साथ अपने अस्तित्व को 
					मिटाकर धरती को सर्जन धर्म हेतु 
					सन्नद्ध नहीं करती तो क्या इतना सुंदर संसार हमको प्राप्त हो 
					सकता? हम पावस के सौंदर्य से सिक्त होकर अपने सर्जन को बहुत 
					दूर तक सृष्टिहित में स्फुरित कर सकें। धरती के बचाव और मनुष्य 
					की श्रेष्ठता के लिये हमारी सर्जन सक्षम हो। वर्षा होती है, 
					क्योंकि चींटी की गति भी कायम रहे और हाथी की सूँड़ को भी पानी 
					मिले, वृक्ष की टहनी को भी पानी मिले तथा सारे जीव-जंतुओं को 
					प्राण-रस मिले।
					बिना करुणार्द्र हुए क्या बादल 
					धरती पर सर्जनात्मकता पैदा कर सकता है? पीड़ा को घनीभूत होना 
					पड़ता है। न जाने कितना रोना पड़ता है वाल्मीकि को! न जाने कितना 
					रोना पड़ता है वेदव्यास को। साहित्य के खाने या खंड या 
					विभाग-प्रभाग नहीं होने चाहिये। वादों और मतवादों ने साहित्य 
					को बाँट रखा है। क्या रस को भी बाँटा जा सकता है? क्या तलवार 
					से जलधार को काटा जा सकता है? क्या आकाश में दीवार बनाई जा 
					सकती है? क्या मिठास को तोड़ा जा सकता है? उसी तरह साहित्य को 
					खंड-खंड विभाजित किया जा सकता है? साहित्य के डिब्बे नहीं बनने 
					चाहिये। एक अखंड जीवन, एक सर्जनात्मकता, एक अखंड सृष्टि, एक 
					अखंड रसबोध, एक अखंड साहित्य-सर्जनकर्म। यही दृष्टि और दृश्य 
					पावस पैदा करता है, यही उद्ंदेश्य हमारी सर्जनात्मकता का भी 
					होना चाहिये। सर्जनात्मकता कल की प्रेरणा और कल के पथ को 
					प्रशस्त करने में सहायक बने। पावस भी और मानव की सर्जनात्मकता, 
					दोनों श्रेष्ठता की रचना के पथ का पाथेय बने। यह धरती कर्मलोक 
					है, यहाँ कर्म तो करना ही है। कर्म करना है अर्थात् सर्जन करना 
					है। कविता न लिखें। एक सुंदर बैलगाड़ीबना। एक सुंदर जहाज बना। 
					सुंदर सॉफ्टवेयर बना। यह सब सर्जन ही तो किया। जीवन में एक 
					पावस का ज्वार उमड़ा और मेधा से सुंदर कृति सर्जित हो गई। जल के 
					भीतर तरलता नहीं होती तो अंकुरण नहीं होता। मनुष्य के भीतर 
					मेघा की द्रवणशीलता नहीं होती तो सर्जन नहीं होता। सर्जन के 
					अनेक आयाम हैं, अनेक रूपायन हैं, अनेक सौंदर्य प्रकल्प हैं। 
					सर्जनात्मकता सृष्टि के कल्याण और मंगलविधान से जुड़ी हुई हो। 
					पावस लोकमंगल से जुड़ा हुआ है। हमारा सर्जन भी लोकमंगल का विधान 
					रचनेवाला हो, तभी पावस और सर्जन के संदर्भ सार्थक और अमर 
					होंगे।
					१ जुलाई २०२१