चित्रकूट में बसत हैं रहिमन अवध नरेस
					
					
					- नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
 
					कभी-कभी ऐसा भी होता है कि देह 
					तो अपने ठौर पर लौट आती है, लेकिन मन नहीं लौटता। कहाँ लौट 
					पाया था कृष्ण का मन द्वारका में, नहीं लौटा, उस मन का ठौर तो 
					रहा ब्रज की गलियों, राधा के चित्त, गोपियों की आँखों और यशोदा 
					के वात्सल्य की चारदीवारी के बीच ही। ब्रज की रज से कृष्ण के 
					मन का साहचर्य कभी नहीं छूटा। मन के और देह के ठौर जब अलग-अलग 
					हो जाते हैं तो मन फिर जहाँ छूट जाता है वहाँ से लौटता नहीं, 
					देह लौट आती है। देह और मन में यही अंतर है। लौटने की मजबूरी 
					और न लौटने की मंशा। यह मंशा ही तो मन की देन है और इसी मंशा 
					के चलते मन चित्रकूट में रह गया और देह लौट आई अपने बंदीगृह 
					में। 
					
					चित्रकूट बहुत पुराना है। इसलिए वाल्मीकि से लेकर संस्कृत के 
					कवियों और तुलसी ने इसकी शोभा को और इससे जुड़ी राम के जीवन की 
					यहाँ घटी घटनाओं को भावविभोर होकर गाया है। इसका उल्लेख जैन 
					तथा बौद्ध साहित्य में भी है। बानगी देखें, वाल्मीकि चित्रकूट 
					की नैसर्गिक शोभा को गाते नहीं थकते। यह शोभा इतनी मनोहारी है 
					कि चित्रकूट रंग से भरपूर पर्वत बन जाता है। राम वैदेही से 
					पूछते हैं कि मन, वचन और देह को वश में कर लेने वाले इन साधनों 
					को देखकर उनका मन प्रसन्न होता है या नहीं। वे जानकी को 
					चित्रकूट पर्वत की शिलाएँ दिखाते हैं और कहते हैं कि देखो, इस 
					पर्वत की सैकड़ों विशाल शिलाएँ जो नीली, पीली, सफेद आदि विविध 
					रंगों की हैं, वे कैसी शोभा को जन्म दे रही हैं और रात के समय 
					इस पर्वत पर जो हजारों जड़ी-बूटियाँ लगी हैं, वे अपनी प्रभा से 
					इतनी दीप्त हो रही हैं कि अग्निशिखर की तरह प्रकाशमान होकर 
					उनकी शोभा बिखेर रही हैं।
					
					अपनी भामिनी को चित्रकूट की विशिष्टता बताते हुए वे कहते हैं 
					कि देखो, इस पर्वत पर कोई स्थान तो घर जैसा, कोई फूल के उपवन 
					जैसा और कोई स्थान तो एक ही शिला से निर्मित दिखाई पड़ता है। 
					यह अद्भुत पर्वत ऐसा प्रतीत होता है, मानो यह पृथ्वी को फोड़कर 
					निकला हो। यहाँ इतने प्रकार के फल, मूल और बहता हुआ स्वच्छ जल 
					है कि इसकी शोभा के सामने कुबेर की अलकापुरी, इंद्र की अमरावती 
					और उत्तरकुरु देश की रमणीयता पराजित होती है। वे चित्रकूट 
					पर्वत पर लगे विभिन्न प्रकार के वृक्षों को माता सीता को 
					दिखाते हैं और बतलाते हैं कि इस चित्रकूट के शिखर कौन-कौन से 
					रंगों के हैं।
					
					माता सीता को वे प्रवहमान मंदाकिनी दिखाते हैं और कहते हैं कि 
					देखो, इस विचित्र तटवाली रमणीय हंस, सारस और तरह-तरह के 
					पक्षियों से सेवित मंदाकिनी को। इस नदी के दोनों तट फलों और 
					फूलों से भरपूर अनेक जाति के वृक्षों से भरे पड़े हैं और यह 
					नदी वैसी ही शोभा से भरपूर है जैसी कि कुबेर की सौगंधिका। वे 
					मंदाकिनी के जल की तुलना मणि की उज्ज्वलता से करते हैं। वे 
					चित्रकूट को अयोध्या की तरह और मंदाकिनी को सरयू की तरह देखने 
					का आग्रह अपनी भामिनी से करते हैं और कहते हैं कि इस चित्रकूट 
					पर्वत और मंदाकिनी नदी को देखने से तथा उनके साथ रहने से वे 
					ऐसा अनुभव करते हैं, जैसे यहाँ रहना अयोध्यापुरी में रहने से 
					बढ़कर हो।
					
					मानव के रूप में मंदाकिनी के तट पर विचरते राम उन मृगों को 
					देखते हैं, जो मंदाकिनी के जल को पीकर जाते हैं और जिसमें ऋषि 
					स्नान कर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। इस नीलवर्णी चित्रकूट को 
					निहारते राम की आँखें नहीं थकतीं। वाल्मीकि का यह वर्णन अपने 
					उत्कर्ष को तब छू लेता है, जब वे कहते हैं—
					मारुतोद्धूतशिखरैः प्रवृत्त इव पर्वतः।
					पादपैः पत्रपुष्पाणि सृजद्भिरभितो नदीम्।। (२.९४.८)
					
					अर्थात् देखो सीता, पवन से काँपते इन वृक्षों के हिलने से यह 
					पर्वत नाचता हुआ सा प्रतीत होता और वृक्षों के हिलने से जो 
					पुष्प गिरते हैं तो ऐसा लगता है मानो चित्रकूट पर्वत इस 
					मंदाकिनी को पुष्पांजलि दे रहा हो।
					
					वाल्मीकि रामायण में महर्षि अत्रि के उस आश्रम का भी सुंदर 
					वर्णन है, जहाँ माता अनसूया ने माता सीता को उनके चित्रकूट 
					प्रवास के समय शिक्षाएँ दी थीं। वाल्मीकि का यह वर्णन अद्भुत 
					है। चित्रकूट में राम के निवास करने का उल्लेख अध्यात्म रामायण 
					में इस प्रकार है—
					‘नागराश्व सदा यान्ति रामदर्शनलालसाः,
					चित्रकूटस्थितं ज्ञात्वा सीतया लक्ष्मणेन च।
					
					इसके अतिरिक्त जैन साहित्य व बौद्ध ग्रंथ ‘ललितविस्तर’ में भी 
					चित्रकूट का वर्णन है। महाभारत में चित्रकूट और मंदाकिनी का 
					वर्णन तीर्थ के रूप में किया गया है। महाकवि कालिदास ने रघुवंश 
					में भी चित्रकूट के विशद उल्लेख किए हैं। चित्रकूट के वन में 
					ही जब भगवान् राम निवास कर रहे थे, तभी भरत ने उन्हें पिता की 
					मृत्यु का समाचार दिया था और उस राज्यलक्ष्मी को अंगीकार करने 
					की प्रार्थना की थी, जिसका उन्होंने कभी स्पर्श तक नहीं किया 
					था। इसी चित्रकूट में उन्होंने राम की पादुकाएँ ली थीं। 
					कालिदास का चित्रकूट वर्णन तब और मार्मिक हो उठता है, जब 
					भगवान् राम इतनी सुंदर और उत्कंठित हरिणों से सुशोभित चित्रकूट 
					की भूमि को इसलिए त्याग देते हैं कि कहीं मोहवश भरत यहाँ फिर न 
					आ जाएँ।
					रामस्त्वासन्नदेशत्वाद्भरतागमनं पुनः।
					आशङ्कयोत्सुकसारङ्गं चित्रकूटस्थलीं जहौ॥ १२-२४
					
					चित्रकूट का विशद शब्द चित्रण गोस्वामी तुलसीदास ने किया है। 
					गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में चित्रकूट की धरती की 
					शोभा और कामदगिरि पर्वत की अलौकिकता को ऐसी भाषा में बाँधा है, 
					जो भाषा तो है ही नहीं। कवितावली में तुलसी कहते हैं—
					तुलसी जो राम सो सनेह साँचो चाहिए।
					तौ सेइए सनेह सौं विचित्र चित्रकूट सो॥
					
					तुलसी ने चित्रकूट के जो शब्दचित्र खींचे हैं, वे रामचरित मानस 
					के मनोरम स्थलों में से हैं। इन शब्दचित्रों में निसर्ग की 
					अद्भुत शोभा तो है ही, साथ ही वहाँ के निश्छल कोल और भीलों से 
					हुए संवाद की विलक्षण मिठास भी है। कामदगिरि पर्वत साक्षात् 
					राम हैं—
					कामत गिरी भयराम प्रसादा।
					अवलोकत अपहरत विषादा॥
					
					तुलसी ने चित्रकूट को इतना पवित्र बताया है कि यहाँ बसनेवाले 
					पशु-पक्षी और वृक्ष से लेकर तृण तक पुण्यवान हैं—
					चित्रकूट के विहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।
					पुण्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देवदिन राति॥
					गोस्वामी तुलसीदास जो चित्रकूट के पास राजपुर में ही जनमे और 
					पले-बड़े थे, ने चित्रकूट की बाह्य व राम के हृदय की शोभा इन 
					दोनों को साकार किया है। कैसे हैं राम—
					रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
					
					उन्हें केवल प्यार है तो निश्छल प्रेम से। चित्रकूट के कोल और 
					भील राम, लक्ष्मण और सीता को देखकर ऐसे प्रसन्न हैं, जैसे 
					उन्होंने सभी नौ निधियाँ पा ली हों। वे कंदमूल और फल लेकर उनके 
					दर्शन करने आते और उन्हें देखकर चित्रलिखित से खड़े रह जाते 
					हैं, उनके शरीर पुलक से भरपूर हो उठते हैं और प्रेम के आँसुओं 
					के जल की बाढ़ आ जाती है— 
					करहि जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभु गई बिलोकहिं अति अनुरागे॥
					चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥
					
					और राम, वे इन कपटरहित भीलों के वचन ऐसे सुनते हैं, जैसे कोई 
					पिता बालकों के वचन को सुनता है और वे ही उतने ही कोमल वचनों 
					से उन्हें संतुष्ट करते हैं—
					राम सनेह मगन सब जाने।
					कहि प्रिय वचन सकल मनमाने॥
					तथा
					बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
					बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥
					
					रामचरितमानस में चित्रकूट की नैसर्गिक शोभा का मनोहारी वर्णन 
					है। वाल्मीकि भगवान् राम को चित्रकूट पर निवास करने की सलाह 
					देते हुए कहते हैं कि वे चित्रकूट पर निवास करें। वह सुहावना 
					पर्वत है, वहाँ सुंदर वन है, वहाँ हाथी, सिंह, हिरण और 
					पक्षियों का विहार स्थल है। यहीं वह पवित्र सरिता भी है, जिसे 
					अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूयाजी अपने तपोबल से लाई थीं। यह गंगाजी 
					की वह धारा है, जिसका नाम मंदाकिनी है और वह उस डायन के समान 
					है, जो पाप रूपी बालकों को खा जाती है—
					चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥
					सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥
					नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तप बल आनी॥
					सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥
					
					और कैसा है चित्रकूट—
					
					चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥
					अर्थात् चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी 
					नहीं चूकता और जो सामने से मारता है और रहीम कहते हैं कि यहाँ 
					तो अवध नरेश ही बसते हैं और जिस पर विपत्ति पड़ती है, वही यहाँ 
					आता है—
					चित्रकूट में बसत हैं, रहिमन अवध-नरेश।
					जापर विपदा पड़त है, सोई आवत यही देश॥
					
					फिर यह चित्रकूट का वन जब से राम आए हैं, तब से मंगलदायक हो 
					गया है। यहाँ अनेक प्रकार के वृक्ष हैं, जो फूलते तथा फलते हैं 
					और उन पर लिपटी हुई सुंदर बेलों के मंडप तने हैं। वे कल्पवृक्ष 
					के समान ही सुंदर हैं, मानो वे देवताओं को नंदन वन में छोड़कर 
					आए हों। भौंरों की पंक्तियाँ बहुत ही कर्णप्रिय गुंजार करती 
					हैं और सुख प्रदान करनेवाला शीतल, मंद और सुगंध से भरपूर पवन 
					यहाँ चलती रहती है। नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर 
					आदि पक्षी कानों को सुख देनेवाली और चित्त को चुरा लेनेवाली 
					तरह-तरह की बोलियाँ बोलते हैं—
					नीलकंठ, कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।
					भाँति-भाँति बेलहि बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥
					करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगत बैर बिचरहिं सब संगा॥
					फिर अहेर राम छबि देखी। होंहि मुदित मृग बृंद विसेषी॥
					यह चित्रकूट ऐसा है, जहाँ हाथी, सिंह, बंदर, सुअर, हिरण ये सब 
					आपसी बैर को भुलाकर साथ-साथ विचरते हैं और राम की छवि को देखकर 
					विशेष रूप से आनंदित होते हैं।
					
					गोस्वामी तुलसीदास ने चित्रकूट की शोभा को वर्णित इतने जीवंत 
					रूप में किया है कि उस समय का वनाच्छादित और प्राकृतिक सुषमा 
					से भरपूर चित्रकूट हमारी आँखों के सामने दृश्यमान हो जाता है। 
					मंदाकिनी ऐसी नदी है, जिसकी प्रशंसा गंगा, सरस्वती, 
					सूर्यकुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि पुण्य से भरपूर नदियाँ 
					तथा तमाम सरोवर, सागर और नद उसकी प्रशंसा करते हैं तथा 
					चित्रकूट पर्वत ऐसा है, जिसकी प्रशंसा का गान हिमालय सहित 
					उदयाचल, अस्ताचल, कैलास, मंदराचल और सुमेरु जैसे वे सब पर्वत 
					करते हैं, जहाँ देवता निवास करते हैं और इन सबके कारण वह 
					विंध्याचल पर्वत, जिसका एक अंग चित्रकूट है, आनंद से भरपूर हो 
					उठता है।
					
					चित्रकूट भरत-मिलाप के प्रसंग का जीवंत साक्षी है। गोस्वामीजी 
					की प्रतिभा इस मिलन के वर्णन को काव्य के उत्कृष्ट शीर्ष पर 
					पहुँचाती है—
					कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा।
					उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
					बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
					भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥
					मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
					परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥
					
					लक्ष्मण जैसे ही राम से कहते हैं कि भरत उन्हें प्रणाम कर रहे 
					हैं, तब राम की सुधि जाने कहाँ खो जाती है। वे प्रेम में अधीर 
					होकर कुछ इस तरह उठते हैं कि कहीं वस्त्र गिरता है, कहीं तरकश, 
					कहीं धनुष और कहीं बाण और वे बलपूर्वक भरत को उठाकर अपने हृदय 
					से लिपटा लेते हैं। दोनों भाइयों का यह मिलाप केवल उन दोनों के 
					सुधि को ही नहीं खोता बल्कि उन सभी की सुधि को भी मानो विलुप्त 
					कर देता है, जो इस अद्भुत मिलन को देखते हैं। इस मिलन, इस 
					प्रीति के वर्णन के लिए शब्द नहीं मिलते। मनसा, वाचा और कर्मणा 
					से परे है इस मिलन का वर्णन। इस मिलन में सबकुछ गल गया है—मन, 
					बुद्धि और चित्त, सबकुछ। दोनों भाइयों ने पूर्णतः प्राप्त कर 
					ली है और यह पूर्णता है प्रेम की।
					
					चित्रकूट साक्षी बन गया है प्रेम का और प्रेम की प्यास का भी। 
					तुलसीदास इसी चित्रकूट के घाट पर चंदन घिसते हैं, घाट पर संतों 
					की भारी भीड़ है। तुलसी प्रतीक्षा कर रहे हैं, उनकी आँखें राम 
					को खोजती हैं, कि वे कब उनके सम्मुख आएँ और वे कब उनको तिलक 
					करें, लेकिन राम तो किसी दूसरी मिट्टी के बने हैं, वे तुलसीदास 
					को अवसर नहीं देते। घिसा हुआ चंदन सिल पर रखा है और उसी चंदन 
					से रघुवर अपना तिलक स्वयं कर रहे हैं। भक्ति की ऐसी आराधना और 
					अर्चना केवल राम ही कर सकते हैं, जो तिलक को लगाने की आकांक्षा 
					करनेवाले को, चंदन को और तिलक को इस सभी को धन्य कर देते हैं 
					और संदेश देते हैं कि स्वयं का तिलक करना आस्था को अर्घ्य 
					चढ़ाना है और अपने पुरुषार्थ की दीप्ति को पूरी विनम्रता के 
					साथ, अकिंचन भाव के साथ अपने मस्तक पर भासमान करना है।
					
					इस चित्रकूट की बार-बार याद आती है। कामदगिरि की परिक्रमा करने 
					के उद्देश्य से पत्नी व पुत्र के साथ गया। साँझ के समय घनघोर 
					वर्षा हो रही थी। वर्षा थमी तो मंदिर पहुँचे, कामतानाथ भगवान् 
					के दर्शन किए और फिर बिना छाते के ही कामदगिरि पर्वत की 
					परिक्रमा करने चल पड़े। वे बादल, जो बरस-बरसकर मौन हो गए थे, 
					फिर मुखर होने लगे और जैसे ही हम कुछ आगे बढ़े, वे अपनी पूरी 
					सामर्थ्य के साथ बरसने लगे। भीगने में देर नहीं लगी, आपादमस्तक 
					भीग गए, विचार किया कि शायद कामतानाथ भी यही चाहते हैं कि उनकी 
					परिक्रमा अविस्मरणीय हो, पूरी तरह निर्मल रूप में ही की जाए। 
					इसलिए लौटने का या कहीं ठौर लेने का प्रश्न नहीं था, यात्रा 
					जारी रही। साथ ही बहते हुए जल के समांतर मस्तिष्क का विचार 
					प्रवाह भी। याद आए तुलसी और उनके राम। हालाँकि यह प्रसंग 
					चित्रकूट का नहीं है। तुलसी ने किष्किंधा कांड में यह अर्धाली 
					गाई है—‘घन घमंड गरजत घनघोरा, प्रियाहीन डरपत मन मोरा।’ 
					घुमड़-घुमड़कर मेघ गरज रहे हैं और राम लक्ष्मण से कहते हैं कि 
					बिना प्रिया के मेरे मन को डर लगता है।
					
					मैं चकित हूँ, जो स्वयं ईश्वर हो, जिसका भाई लक्ष्मण जैसा 
					समर्थ और अपराजेय हो, वह मन से इतना दुर्बल कि बिना प्रिया के 
					जब बादल गरजते हैं तो घनघोर वर्षा के बीच उसका मन डर से भर 
					उठता है। क्या कहना चाहते हैं तुलसी? शायद अपनी ही कहानी, बिना 
					प्रिया के उनका भी मन डर से भर उठा होगा और वे साँप को रस्सी 
					समझकर, उसे पकड़कर अपनी प्रिया रत्नावली के पास पहुँच गए 
					होंगे। यह बाद की और गढ़ी हुई कहानी है कि फिर रत्नावली ने 
					उन्हें कोसा और वे फिर विरक्त होकर रामकथा के प्रणयन में लग 
					गए। मन यही कहता है कि अपने आराध्य राम की तरह ही रहे होंगे। 
					तुलसी और उन्होंने केवल और केवल अपनी प्रिया के प्रेम की 
					सामर्थ्य पर ही विश्वास किया होगा। मुझे लगता है कि इन 
					पंक्तियों का यही संदेश है कि चाहे तुम स्वयं कितने भी बलशाली 
					हो, तुम्हारे सगे-परिजन चाहे कितने पराक्रमी हों, लेकिन अंततः 
					तुम्हारा संबल तो तुम्हारी वह प्रिया ही है, जिसके साहचर्य में 
					रहते हुए तुम अपने आपको पूरी तरह, हर ओर से सुरक्षित अनुभव 
					करते हो।
					
					बरसात में भीगते-भीगते मुझे यही सबकुछ याद आता रहा। मन कितना 
					संवेदनशील और सामर्थ्य से भरपूर होता है। यह चित्रकूट में 
					अनुभव हुआ। चित्रकूट जैसे स्थान महज तीर्थ नहीं होते, वे 
					स्मृतियों के ऐसे वन होते हैं, जो भरपूर होते हैं। फूलों से 
					लदे पेड़ों से, जिनके नीचे से गुजरो तो पगडंडियों पर भी 
					स्मृतियों के असंख्य फूल बिछे होते हैं और ऐसे ही फूलों से 
					मस्तक भी अभिषिक्त होता रहता है, फिर यही फूल आपकी अभिव्यक्ति 
					बन जाते हैं, जीवन भर की निधि बन जाते हैं।
					
					चित्रकूट जैसे स्थान इतिहास की निधि भर नहीं रहते बल्कि वे 
					जीवंत स्पंदन बने रहते हैं। वहाँ जाओ तो आप उस युग की धड़कनों 
					को सुन सकते हो, जिस युग में राम अपनी भार्या सीता और अपने 
					अनुज के साथ आकर कामदगिरि के शिखर पर एक कोने में अपनी कुटिया 
					बनाकर रहने लगे थे। आज कुटिया दिखाई नहीं देती और न ही राम और 
					सीता, लेकिन संवेदना घनीभूत होकर रात में पहरा देते धनुर्धारी 
					लक्ष्मण को आज भी देख लेती है। आस्था इस संवेदना की आँख कब बन 
					जाती है, मालूम नहीं होता।
					
					चित्रकूट से जाने कितनी कथाएँ जुड़ी हैं। कामदगिरि के दरवाजे 
					के द्वार लोग दिखाते हैं और यह भी कहते हैं कि अभी भी 
					राम-दरबार अंदर लगा हुआ है। फिर सीता रसोई से लेकर रामघाट, 
					हनुमानधारा, गुप्तगोदावरी और माता सती अनसूया के आश्रम जैसे 
					अनेक स्थान हैं, जहाँ जाकर आप चित्रकूट की महिमा में आपादमस्तक 
					डूबे अपने आपको अनुभव करते हैं।
					
					यह चित्रकूट का वह पक्ष है, जिसके बारे में हम जानते हैं, 
					लेकिन चित्रकूट जाने पर वहाँ एक और चित्रकूट दिखाई देता है, 
					जहाँ की हवा में डकैतों की कहानियाँ तैरती हैं, एक अनजाना भय 
					वहाँ के निवासियों के मन में समाया रहता है, आधा चित्रकूट मध्य 
					प्रदेश में है और आधा उत्तर प्रदेश में। कामतानाथ की परिक्रमा 
					भी इन्हीं दोनों प्रदेशों के बीच से होती है। यह चित्रकूट का 
					वर्तमान है, जिसका कोई संबंध त्रेता के राम से नहीं है। पर्यटन 
					केंद्र के रूप में इसे विकसित करने का प्रयास किया गया है। 
					हमारे यहाँ एक नई संज्ञा प्रचलित हो गई है, ‘धार्मिक पर्यटन’। 
					मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इस संज्ञा का आशय क्या है? शायद 
					सरकारें सोचती हैं कि अकेली आस्था उन्हें पर्याप्त राजस्व नहीं 
					दिला सकती, उसे पर्यटन से जोड़ो। परिणाम यह है कि पर्यटन 
					प्रमुख है और आस्था गौण। राम कहीं बहुत पीछे छूट गए हैं।
					
					लेकिन सच तो यह है कि चित्रकूट राम का घर है। राम व्यक्ति नहीं 
					हैं, रस हैं, जिनके स्मरण का आस्वाद सच्ची आस्था करती है। 
					चित्रकूट अनुभव है, उस मिटती संवेदना का बचा हुआ छोटा सा अंश 
					है, जो आज भी राम के मूल्यों को आज के समय में प्रतिष्ठित होते 
					हुए देखना चाहती है।
					
					चित्रकूट स्थान नहीं, भाव है, जो ज्वार के रूप में मनमानस में 
					उठा करता है और जिसकी लहरों पर राम के उस लोकव्यक्तित्व की 
					किरणें अठखेलियाँ करती रहती हैं, जो केवल अयोध्या का न होकर 
					पूरे लोक का हो गया था और जिसकी व्याप्ति आज भी लोक के बीच ही 
					है।
					१ नवंबर २०२१