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ओ शिरीष
सुन रहे हो न
- डॉ. विद्युल्लता
शिरीष सुनो! सुन रहे हो ना शिरीष तुम, सुनो-एक हुंकारा
तो भरो... और तुम कहते हो इच्छाओं में मुझे मत ढूँढना,
मैं तुम्हारी शीर्ष उम्मीदों में जीवित रहूँगा,
इच्छाओं में हरदम...
शिरीष तुम, अपनी नियति और निरंतरता के बीच, पेड़ों और
फूलों की अपनी ही तानाशाही में अगर जीवित हो तो अपनी
उत्कट औघड़ता के कारण, बेभरोसे की इस दुनिया में तुम
अपनी छोटी बड़ी प्रजाति की झाड़ी और पेड़ों में, अपने
गुलाबी, हल्के पीले और हरे पीले, धूप छाँही रंगों वाले
फूलों में हमेशा खिलते रहो, दुआ करती हूँ...
पिछले साल तुम्हें घर के नजदीक नुक्कड़ पे, खिलखिलाते
देखा था जब एक लम्बी सैर से लौटते तुमने रोक लिया था,
ये कह कर कि रूको ना इतनी भी क्या जल्दी है घर लौटने
की, थोड़ा सुस्ता लो वरना भीग जाओगी- तब धूप वाली हल्की
बारिश हो रही थी, ये भी कि अगर रुकी तुम तो चिड़िया के
ब्याह की कहानी सुनाऊँगा, और मुझे रुकना पड़ा, ऊपर ताका
तो तुम खिलखिला उठे अभिवादन में और बदले में, मेरे
धानी दुपट्टे में अपने रेशमी गोल हल्के पीले गुच्छे
समान फूलों को डाल दिया। देर तक तुम्हें धन्यवाद कहते
निहारती रही मैं फिर पानी रुका तो लौटी घर, तुम्हारी
सफेद हँसी देर रात तक गूँजती रही कानों में...
-इन दिनों तुम्हारे सामने एक दोमंजिला मकान बन जाने की
वजह से तुम एकदम से नहीं दिखाई देते लेकिन ऊपरी डाल और
फुनगियों पे खिले फूल हाथ लहराकर बुलाते ही रहते हैं।
नए डेवलपमेंट की वजह से तुम मेरी राह से थोड़ा परे हो
गए हो, कभी कई दिनों बाद रास्ता बदल के आती हूँ
तुम्हारे पास तो तुम नाराज़ दिखाई देते हो, झुक के नीचे
गिरे फूल चुनती हूँ तो तुम कितना बड़प्पन और बेसब्री एक
साथ दिखाते हो कि दस पाँच फूल गिरा देते हो, मेरी पीठ
पे ही समझ जाती हूँ तुम्हारी नाराज़ी खत्म...
जानते हो शिरीष, इस दुनिया के लोग मेरी समझ से
तुम्हारे प्रति निष्पक्ष नहीं हैं। तुम्हें जानते ही
नहीं - लेकिन मैंने देखा है तुम्हारे फूलों की अद्भुत
संगठित शक्ति को जब वो अलग अलग जमीन पर गिरते तो एक
जगह पे मिलकर सिमटते कालीन से बिछते जाते हैं और एक
मादक गमक से महक जाते हो चारों ओर! मुझे याद आता है वो
प्रेमी जिसने गाया था प्रेमिका के सुंदर पाँव को देख
--कि ''पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी सिर्फ
हमको नहीं इनको भी शिकायत होगी ''यक़ीनन उसने तुम्हें
देखा होता तो प्रेमिका को झुक कर परे कर देता कहता
आहिस्ता वहाँ शिरीष के फूल हैं, देख के चलो प्रिय,
इतने सरल क्यों हो शिरीष तुम?
चमक धमक की इस दुनिया में तुम खुद विज्ञापित नहीं होते
जैसे सेमल, गुलमोहर, टेसू। तुम्हें अपने औषधीय गुणों
के होते हुए भी ''अपनी छवि'' बनाना नहीं आया, जानती
हूँ तुम ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं हो, फिर भी अपनी
लम्बी चौड़ी छरहरी सुडौल काया में तुम लुभाते हो बस!
तुम्हारी पीठ पे गर्भावस्था के भार से फुदकती दौड़ती
गिलहरी मुँह में तुम्हारे रुई से नरम फूलों का गोला
बना कर सबसे ऊँची शाख पे ले जाती दिखाई देती है जहाँ
ताजे खिले फूलों की छाया और सुगंध में बिछौना बना शिशु
को जन्म देती होगी तब तुम कितने प्रसन्न होते होगे! और
हाँ क्यों तुम्हें अपनी नर्म सुंदर साल भर हरी रहने
वाली पत्तियों पर गर्व नहीं होता? दुनिया भर के
छायाकार ढलती शाम में इनके चित्र लेकर पुरस्कार जीत
जाते हैं और तुम्हारी पीठ भी नहीं थपथपाते लेकिन जानती
हूँ, वीत रागी हो तुम! जब सारी धरती धू-धू जलती है तब
सारा ताप अपने सर ले लेते हो।
-तुम अपने औषधीय गुण के कारण चाहे जितने दिव्य हो,
सर्पदंश को पल भर में छूमंतर कर देने वाले शिरीष, मैं
दावे से कह सकती हूँ, मनुष्य दंश की तुम शायद कभी भी
कारगर दवा न बन पाओ क्योंकि इस धरती पर मनुष्य सा दंशी
प्राणी नहीं, वो जब चाहे अपने स्वार्थ के लिए तुम्हें
काट डाले। खैर, अद्भुत तो ये भी है कि अपने फूलों को
बिना काँटे के सुरक्षित रखने की कला कहाँ से सीखी
तुमने? हे शिरीष, तुम्हें प्रणाम!
जानते हो शिरीष, तुम्हारा पहला स्पर्श अभिभूत करता है,
कह दूँ यदि तुम मेरे पहले प्रेम हो तो अतिशयोक्ति न
होगी। बचपन में नानी जाने कहाँ से चुनकर लाती,
तुम्हारी हरी हरी गोल कलियों को कोल्हापुरी गहनों की
तरह मेरे कानों में पहना कर खुशी से कहती ''माझी हिरवी
हिरणी" (मेरी हरी हिरणी)। नानी को हरा रंग बहुत पसंद
था और नानी ज़री की चौड़े पाट की सोलह हाथ की हरी साड़ी
के पल्लू में मुझे लपेट लेती, यादों में नानी तुम्हारी
बदौलत ही तरोताजा है -शुक्रिया शिरीष, बहुत ज्यादा!
शिरीष तुम अपने अंग्रेजी नाम ''अल्बिजिया लेब्बेक
बारक'' में कितने पराये लगते हो और शिरीष में कितने
सरल और मासूम! शीर्ष पर तुम्हारे फूल खिलने के कारण
कदाचित तुम्हारा नाम शिरीष हो गया हो, वाकई राजसी
अंदाज़ में शीर्ष पे रहते हो तुम, स्त्री पुरुष दोनों
में समभाव हो तुम, पतझड़ में खिलते हो तो जेठ की लू
थपेड़ों वाली भरी दोपहर अठखेलियाँ करते हो उन्मुक्त हो
खिलखिलाते हो, भला इतनी जीवटता कोई और वृक्ष फूल में
कहाँ?
तुम्हारे जोगिया तन मन के प्रति चाहे जितनी उदासीनता
लोग दिखायें और तुम्हें चाहे न सराहें लेकिन विशेष
बीमारी में दौड़े चले आते हैं लोग तुम्हारे पास और तुम
बिना शिकायत सहयोग कर देते हो तन-मन से, लेकिन
स्वार्थी इस दुनिया का क्या! फिर भूल जाती है। खैर,
तुम अपना काम करो बिना मोल यही बहुत होगा। तुम्हें एक
बात बताऊँ, कल बेटी से बात हुई उसने बताया अमेरिका में
ऊष्ण क्षेत्रों में तुम्हारे सहोदरों की एक पूरी बगिया
ही उन्होंने विकसित कर ली है, इसी कारण महाराष्ट्र और
दक्षिण अरब देशों में भी तुम्हारे वंशज ज्यादा हैं और
यहाँ लोग कहते हैं तुम्हारे फूलों से कचरा होता है।
खेद है, माफ़ करदो शिरीष उनकी सोच को!
तुम्हें लोगों ने थोड़ा व्यापारिक तो बनाया लेकिन
व्यवहारिक नहीं होने दिया, इसमें अब तुम्हारी भी थोड़ी
बहुत गलती तो है, तुम फिर भी खुश हो। तुम्हारे फल
पत्तियों से भरी एक पारदर्शी थैली तुमसी ही महकती हुई
कुछ साल पहले दुबई के एक मॉल बाजार'' से खरीद लाई थी,-
वार्डरोब में आज भी वो इठलाती कपड़ों को महकाती है
-लेकिन एकांत- पार्क में वो युवा शिरीष, जिसे मैं आठ
वर्षों से जानती हूँ, एक लम्बी प्रदक्षिणा के बाद जब
उसके पास पहुँचती हूँ सुस्ताती हूँ जरा देर तो, मेरे
दुःख-सुख का वो संगी सफेद सिरस, अपनी धूप मिली हँसी
उलीचता है, अपनी वैशाख की नई छितराई पत्तियों के बीच
से शर्माता झाँकता है, तो उपकृत हो जाती हूँ। वो मेरा
शिरीष, मुझे उससे प्रेम है!
कालोनी के जिस घर आँगन में तुम खड़े हो उस मालिक की
निष्ठुरता देखो, तुम उसे छाया देते हो भीनी सुगंध से
उसका घर महकाते हो उसकी काली कार पे हल्के पीले फूलों
से सज जाते हो और वो बड़ी बेरहमी से तुम्हें सड़क पे
गिरा देता है -मेरे घर आँगन में तुम होते तो, तुम्हें
मनमानी करने देती, अपनी सफेद कार को फूलों से भर जाने
देती, तुम्हें अंदर तक चहल कदमी करने, ठहरने देती अपने
घर-बाहर को महकने देती!
आज उधर से निकली तो देखा बड़ी बेरहमी से बाई तुम्हारे
फूलों को बुहार कर घर से बाहर कर रही थी, उसे रोक कर
तुम्हारी भीनी सुगंध को आत्म सात करने और ताजे फूलों
को चुनने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था, घर
लौट कर गीले दुपट्टे में तुम्हे लपेट कर सिरहाने रख
सोई कल रात, इतने नर्म, दैवीय आभा वाले शिरीष! आखिर
तुम मेरा पहला प्रेम हो। तुम सिरसा, सिरस या शिरीष,
चाहे जिस नाम से पुकारे जाओ, अपने गुणों में
सर्वश्रेष्ठ बने रहोगे। कितने अच्छे हो तुम, कभी आत्म
विलाप नहीं करते, मनुष्य पर अपने निज़ी दुखों को नहीं
थोपते, दूसरों के दुःख ताप अपने में समेटते राधाकृष्ण
भाव उत्पन्न करते हो सब में, ईंट के भट्टे को पकाते
हुए भी तुम्हारी लकड़ी सृजन के अर्थों में समिष्टि के
दर्द का आख्यान बनती है, जलकर ईंट बनने में सहयोग और
ईंट में अपनी तपिश देकर मनुष्य के लिए सुखों की छाँव
बन घर बन जाना कितना आसान है तुम्हारे लिए!
मैं अभिभूत हो जाती हूँ जब कालिदास के चित्र में तुम
शकुंतला के कानों में पहुँच कर प्रेम के सोपान को पूरा
करते हो और चित्रकार को संतुष्ट भी...
तुम मानो या ना मानो मैं तुम्हारी शकुंतला हूँ... और
तुम कहते हो इच्छाओं में तुम्हारी शीर्ष उम्मीदों में
जीवित रहूँगा, इच्छाओं में हरदम!
मैंने सोचा है इस बारिश अपने घर एक नन्हा शिरीष रोप
दूँगी, ताकि मृत्यु आने तक अंतिम साँसों तक आँखों की
अंतिम रौशनी में तुम ही तुम रचे बसे दिखाई देते रहो।
शिरीष तुमने सुना ना मुझे!
१५ जून २०१६ |