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लोकगीतों के बहाने बेला की याद में
- डॉ. सुधा उपाध्याय
आधी रात को खिलने वाला, चाँदनी की मादकता, मोहक, शीतल,
शांत, चित्त को हरने वाला, सबसे होड़ लेकर, सबका हो
जाने वाला, बेला हमेशा से लोकगीतों की शान रहा है।
बेला चमेली को न केवल यौवन, सौरभ बल्कि कलाकार की
कोमलता और रात की नीरवता का भी प्रतीक मान लिया गया
है। कोई जैसे भीतर गुनगना रहा है-
बेला फूलै आधी रात
चमेली भिनसरिया हो...
यह फूल वस्तुत: प्रतिभा का प्रस्फुटन है। धूप के ढलने
का इंतजार इसे इस कदर रहता है कि इसकी अकड़ी-जकड़ी
कलियाँ जिद्द में अड़ियल प्रेमिका जैसी डाल में ही
मुँह बिचकाए इतराती रहती हैं कि आधी रात को ही अपना
घूँघट खोलेंगी, आधी रात को अपना सुवास बिखेरेगीं, पिया
को लुभाएँगी आधी रात। यानी अपने खिलने का शांत, शीतल
और बहुत कुछ कोमल दुधिया चाँदनी बेला को चुनने वाला यह
फूल किसी रतजगे के मालिक जैसा है। इसकी मोह में जो बँध
जाए वह नींद आलस छोड़छाड़ उसके चटकने का इंतज़ार आधी
रात तक करता है। वह फिल्मी गीत की पंक्तियाँ याद हैं
न-
मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को
बेला महका रे महका आधी रात को
ये बेला का ही महात्म है कि जिसने शिव की समाधि भी भंग
कर दी। कामदेव के तीर में बिंध भगवान शंकर को बेंध गए।
सब कहते हैं शिव को श्वेत रंग भाते हैं पर गौरी को
इसकी सुगंध लुभाती है। आश्चर्य तो यह है कि आधी रात को
मदन के तीर का तेज बनकर भगवान शंकर ने कामोदीप्त करने
वाले इस बेला से महागौरी के मन में भी अपनी तृष्णा जगा
दी। आज भी गौरी की पूजा बेला के फूलों के बिना अधूरी
है।
बेला विपरीत परिस्थितियों में श्वेत शुभ्र हँसता
खिलखिलाता अपने जिजीविषा के लिए भी माना जाता है। कहते
हैं दिन में जितनी तेज गर्मी पड़ेगी आधी रात को बेला
उतना ही बिहँसेगा। चाहे महाराष्ट्र की बहु हो या आंध्र
प्रदेश की नवयौवना यहाँ तक कि पारसी वधू को भी बेला के
फूलों की चादर बहुत भाती है। उत्तर भारत के वर का
सेहरा बिना बेला फूलों के अधूरा है और बंगाल में
वर-वधू की सेज शैया बेला चमेली से ही सजती है। हरिवंश
राय बच्चन भी कहते हैं---
बेला चमेली का सेज बिछाया
सोवै गोरी का यार बलम तरसै
यानी सभी राज्यों प्रांतों के लोकगीत सदैव ऋणी रहेंगे
इन्हीं बेला फूलों के। यहाँ मुझे एक भोजपुरी गीत याद आ
गया...
बनमा में फूलेली बेइलिया
अति ही रूप आगर मलिया त हाथ पसारे
तू हौसिजा हमार
जनि छुवा ये माली जनि छुवा
अबहिं तो हम हैं कुँवारि
आधी रात फुलिहैं बेइलिया तो होइबौ तोहारे।
यहाँ प्रकृति अपना रूप सजाए बैठी है और वहाँ वन में
बेला की अत्यंत रूपवती कली चिटक गई। माली ने हाथ
पसारा, हमारी बन जाओ। कली ने कहा मत छुओ हे दुलहा, अभी
मैं कुँवारी हूँ। आधी रात को जब बेला की कली जब चटकेगी
तब मैं तुम्हारी हो जाऊँगी।
बेला सबके मन में अपना आसन जमाए है। क्या उत्तर प्रदेश
क्या बिहार, क्या योगी क्या भोगी। ऐसे कई लोकगीत मन की
गाँठों को खोलते हैं, कानों में यौवन का रस घोलते हैं-
एक फूल फूलै खड़ी दोपहरिया
दूसर फूल फूलै आधी रात हो गोरिया
प्रेमी इधर आसक्त इंतज़ार में बैठा है कि कब आधी रात
हो, कब चुन चुनकर वह बेला चुने, अपने हाथों से प्रिय
की वेणी बुने, प्रेमिका को लुभाए, मनुहार करे। ठीक ऐसे
ही भोजपुरी में योगी साधक एकांत में साधना करता हुआ
देवी को प्रसन्न करने के लिए बेला के फूलों का इंतज़ार
करता है। भक्त गाता है-
"ए मैया कौन फूलवा रहेलु लोभाय
सेवक राऊर बाँट जो है हो"
"ए सेवका बेला फूल रहिलै लोभाई
सेवकावा मोर रथ साजै हो।"
बेला की सुगंध जितनी मादक है उतना ही रसमय उसका पुष्प।
भँवरा उसके रस से मदमस्त हुआ जाता है। फिर प्रेमी हो
या साधक, कराह कर कह उठता है-
रसै हि रसे रस पियले
भँवरा मतबलबा हो लाल
माति गइलै सीतला मैया
के दरबरबा हो लाल।
कहते हैं बसंत से ही बेला का खिलना-खिलखिलाना, आधी रात
को ही प्रारंभ हो जाता है। फिर मिलन हो या विरह की
घड़ियाँ, दोनों ही स्थितियों को बेला का रूप रंग गंध
उद्दीपक बना देता है-
मोरा अँगनवा में बेला की बहार बा
डिप्टी भी बैठे कलकटर भी बैठे
सबसे सुन्नर सैंया हमार बा
यहाँ बेला को एक नए रूप में देखना चाहती हूँ। यदि हम
ग्रीष्म ऋतु को सामान्य व्यक्ति का संघर्षमय जीवन मान
लें तो बेला के इन फूलों से हमारा तादात्म्य और भी
आत्मीयता से बढ़ जाता है। जो सच्चा कलाकार है वह कभी
भी यश, प्रतिष्ठा, पुरस्कार का भूखा नहीं होता। उसे
लोकप्रियता नहीं लोकमंगल प्रिय है। ठीक ऐसे ही बेला का
फूल है जो चुपचाप आधी रात को खिलता है। दिन दोपहर की
सारी गर्मी और उमस को चीरकर सबके मन जीवन में शांत
चित्त शीतल सुगंध बिखेर देता है। वह एक साथ प्रेमी और
तपस्वी दोनों को लुभाता है। मेरा मानना है कि बेला के
फूलों का पूरा विकसित होना वस्तुत: कलाकार की संपूर्ण
प्रतिभा का विकास है। जिसे किसी छद्म प्रचार या
आत्मप्रदर्शन की ज़रूरत नहीं। ठीक इसी तरह मैं यह भी
मानती हूँ जैसे प्रतिभा परिपक्व होने के लिए समय लेती
है ठीक ऐसे ही बेला का फूल किसी साधक कलाकार की तरह
एकांत साधना में लीन रहता है। रवींद्रनाथ टैगोर भी कह
गए हैं-
बेला फूल दुटि करे कूटि फूटि
अधर खोला रे न पड़े गैलो
छेले बेलाकार कुसुम तोला रे।
आखिर में इस फूल के लिए, इसके नवसृजन की परंपरा के लिए
बस इतना ही कहना चाहूँगी कि साधना और मन को साध लेना,
बेला की प्रवृत्ति है। प्रतिभा चाहे व्यक्ति की हो या
समूह की, बेला की हो या चमेली की, वे ऐसे ही प्रकृति
का यौवन सजाते रहेंगे। बेला जब-जब चटकता है प्रेमी का
मन और साधक का प्रण दोनों को लुभा लेता है।
१५ जून २०१५ |