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शब्दवृक्ष
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श्रीराम परिहार
एक था बेटा। एक थी बेटी।
दोनों खेलते आँगन में। आँगन में था पेड़। पेड़ पर थे
पत्ते। पत्तों में था घोंसला। घोंसले में थे बच्चे।
बच्चे चिड़िया के। चिड़िया की थी चहक। बच्चों की थी
चें-चें। पत्तों की थी नाक। नाक से पत्ते लेते थे
साँस। साँसों में बसा था हरापन। हरेपन में था पानी।
पानी से था जीवन। जीवन की थी कहानी। कहानी से बना था
संसार। संसार में था सूरज। सूरज में थी आग। आग में था
ताप। ताप से थी गरमाहट। गरमी में थी धड़कन। धड़कनों की
भी भाषा। भाषा में थे शब्द। शब्द टपके थे वृक्ष से।
आँधी चली। वृक्ष उखड़ा। कुल्हाड़ी चली। वृक्ष कटा।
पंछी उड़े। बच्चे भागे। पत्ते सूखे। आँखों का पानी
सूखा। होठों की बानी सूखी। हरापन टूटा। आँगन मैदान
हुआ। छाया गुमी। चेंचें बरबाद हुई। कलरव के घाट सूने
हुए। रिश्तों की नदी में पत्थर उभरे। तह की काई सतह पर
आई। बेटा-बेटी की भाषा खो गयी। भाषा की संस्कृति की
रोटी को कागला ले उड़ा।
क्या रोना निर्जीव की मौत पर? निर्जीव के नाश पर। छाया
के विनाश पर। रोने के और भी हैं कितने बहाने। फिर
वृक्ष पर ही इतना दर्द क्यों उड़ेलना? वृक्ष की मौत से
दुनिया को क्यों परेशान करते हो? प्रकृति के
अस्तित्व-विनाश पर इतने हैरान क्यों होते हो? अरे राजा
नहीं रहा। रानी नहीं रही। वृक्ष नहीं रहा। पानी नहीं
रहा। चीज़ें नाशवान हैं। नष्ट होंगी ही। पेड़ उगा है,
तो उखड़ेगा ही। उदास होना बेकार है। रोना नादानी है।
दुनिया अपने रस्ते चली जा रही है। वह ऐसी ही और ऐसी ही
गति से जाती रहेगी। बम मत मारो। ज़मीन आसमान में धमाल
मत मचाओ।
कैसे न रोयें? क्यों न उदास हों। वृक्ष कटता है तो
भाषा की एक संस्कृति नष्ट होती है। शब्द ख़त्म होते
हैं। एक वृक्ष से कितने शब्द बने हैं। एक जंगल से भाषा
कितने-कितने स्रोतों से समृद्ध होती है। एक शब्द के
आने से भाषा-संस्कृति में कितनी तरह की महक भर जाती
है।
एक वसंत प्रकृति की चित्रकला में कितने-कितने रंगों के
कलशे भर देता है। एक वृक्ष अपने में जंगल, शरद, वसंत,
सब कुछ छुपाए रहता है। वृक्ष का टूटना, भाषा की गली का
बंद होना है। एक पगडंडी का मिट जाना है। एक पनघट का
उजड़ जाना है। एक कुंए का सूख जाना है। एक रिश्ते का
खत्म हो जाना है। एक कम्प्यूटर की फ्लापी धुल जाना है।
दुनिया के नक्शे से एक भरे-पूरे देश का गायब हो जाना
है। बड़े दुःख की बात तो यह कि एक नन्ही चिड़िया की
दुनिया का शून्य हो जाना है।
वृक्ष का शब्द से क्या नाता है? भाषा से क्या रिश्ता
है? क्या भाषा पेड़ ने पैदा की? या भाषा मनुष्य की
काल्पनिक उपज है? या भाषा ईश्वर प्रदत्त होती है?
वेदों, उपनिषदों और ब्राह्मणों में भाषा को जिस स्तर
पर वंदनीय बताया गया है, वह सर्वथा दैवी ही हो सकती
है। कहा गया है कि ब्रह्म के जितने रूप हैं, उतने ही
शब्द हैं। यजुर्वेद में कहा गया है- तस्मिन
हतस्वुर्भुवनानि विश्वा । उस परमात्मा में ही संपूर्ण
लोक स्थित है। तब वृक्ष कहां अलग हुआ? वृक्ष भी तो लोक
में ही स्थित है। लोक के सारे स्वरूपों में शब्द की
संभावना है। उनके नाम है। रूप हैं। रूप हैं। यह नाम
रूप उन वस्तुओं को मनुष्य ने ही दिए हैं।
भाषा के पीछे ईश्वरीय शक्ति मनुष्य की विवेकशीलता के
रूप में होती है। व्यक्ति संसार में जिन चीजों के
संपर्क में आता है, उनका बिम्ब मनुष्य के मष्तिष्क पर
पड़ता है। उन बिम्बों को मनुष्य के मष्तिष्क की शक्ति
रूप, गुण, आकार के आधार पर नाम देती है। अज्ञानी को इन
बाह्य वस्तुओं से जुड़कर भी कोई बोध नहीं होता।
क्योंकि उसके मष्तिष्क की विवेक नामक शक्ति शून्य होती
है। विवेक तो प्रकृति प्रदत्त होता ही है। अतः भाषा के
मूल में दैवी शक्ति काम करती है तथा उसके विस्तार और
स्वरूप निर्धारण में व्यक्ति की कल्पना, उसके भीतर
स्थित मिथक, बनते हुए बिम्ब, प्रकृति का साहचर्य और
परिवेशगत क्रीडाएँ, ध्वनियाँ संग्रहित होती हैं।
डेविड पियर्स कहते हैं-' किसी चीज़ को हम वही नाम
क्यों देते हैं, जो हमने दिया है। इसे समझाने का हमारे
पास कोई तर्क नहीं है। यह इच्छा कि नाम देने की
बुनियाद को समझा जाए, असल में भाषा को पार कर जाने का
उपक्रम है।'
यह इसलिए कि हम चीज़ों को देखते भी भाषा की ही दृष्टि
से हैं और भाषा में ही उनका संसार रचते हैं। हमारी
भाषा द्वारा नाम न देने के बाद भी उनकी स्थिती वैसी ही
थी। पेड़ को हमने पेड़ कहा। नहीं कहते तो भी वह रहता
ही एक जीवित वनस्पति रूप में।
स्वामी शून्यानन्द (अजातशत्रु) कहते हैं- 'आत्मा रूपी
यह शून्य भाषा रचकर खुद को खोजता है और भाषा की पकड़
में नहीं आता। भाषा सदा परेशान रहती है। अन्त में
छटपटाती हुई भाषा जब इसी आत्मा (शून्य) को खोज लेती है
जिससे यह उपजी थी, तो उलझन खत्म हो जाती है, क्योंकि
तब भाषा नष्ट हो जाती है। आदमी की मुक्ति का रास्ता आज
भाषा के अध्ययन में है। भाषा ही वह खलनायिका है जिसने
आदमी को निगल लिया है। अब इसी पूतना को नष्ट करने की
जरूरत है। सारी भाषा शून्य को खोजती है। याने वह स्वयं
को नष्ट करने की राह पर बढ़ती है। अंत में भाषा अपने
को नष्ट कर लेती है, जिसका मतलब है, प्रश्न और उत्तर
से बरी हो जाना। यही मोक्ष है।'
उत्तर आधुनिकता चीख चीखकर कहती है कि भाषा का पीछा
किया जाए, तो वह छुप जाती है। मगर उत्तर आधुनिकता यह
नहीं बताती कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि जिस तत्व से
भाषा का संसार जन्म लेता है, वह शून्य है। निर्गुण
निराकार है। उत्तर आधुनिकता दरअसल भाषा को नष्ट करने
की कोशिश है जिसका अंतिम परिणाम है भाषा के पार चले
जाना। अर्थात हर वक्तव्य, पाठ, इतिहास, व्याख्या सब
अपने अन्तर्भूत खण्डन पर खड़े हैं।
यह तय है कि जिस निराकार की स्थिति मनुष्य के भीतर है,
उसी निराकार की सत्ता सृष्टि में है। सृष्टि के
रेशे-रेशे में है। संसार की अनेक स्थितियाँ और बाहरी
आवरण के कारण उस सत्ता को हम सीधे-सीधे जान नहीं सकते।
इन्ही आवरणों में एक भाषा भी है। खुद को जानने या
संसार को जानने की स्थिति में मनुष्य के पास की भाषा
भी मिट जाती है। भाषा को नष्ट करके ही खुद को और संसार
को जाना जा सकता है। संसार की सत्ता से शब्द से भिड़ा
जा सकता है, परन्तु संसार को जानते-जानते शब्द नष्ट हो
जाते हैं। 'अविगत गति कछु कहत न जाये।' क्योंकि वह खुद
अव्यक्त है, जिससे भाषा उपजी है। कबीर कहते हैं-
'नाद नहीं था, बिन्द नहीं था, करम नहीं था काया।
अलख पुरुष की जिह्वा नहीं थी, सबद कहां से आया।।'
यह बिना जिह्वा के उपजा शब्द मनुष्य के मष्तिष्क की
वही शक्ति है जो मनुष्य के अंतर्जगत को अभिव्यक्त करने
का माध्यम बनती है। इस दृष्टि से देखें तो ब्रह्म की
भाषा संपूर्ण सृष्टि है, क्योंकि वह सृष्टि के कण-कण
में अभिव्यक्त हो रहा है। मनुष्य स्वयं को अभिव्यक्त
मन, वचन और कर्म के स्तर पर करता है। वह निरंतर कर्म
में व्यक्त होता रहता है। वह वाणी में स्वयं को प्रकट
करता है। दोनों के केन्द्र के रूप में मन की स्थिति
है। मन को भी विवेक हस्तक्षेप करता रहता है। सृष्टि
में मनुष्य भी है. जब सृष्टा सभी वस्तुओं में स्वयं को
अबिव्यक्त करता है, तो मनुष्य में भी वह अभिव्यक्त
होता है। वृक्ष में भी वह व्याख्यायित हो रहा है।
मनुष्य की अभिव्यक्ति उसके संसार से जुड़ी है। उसके
संसार में तमाम वस्तुएँ हैं। उनमें से एक पेड़ भी है।
प्रकृति भी है। पेड़ भी अभिव्यक्त होता है-अंकुर में,
तने में, डालियों में, टहनियों में, पत्तों में, फूलों
में, फलों में, बीज में। प्रकारान्तर से इन सबसे परम
प्रकृति ही अभिव्यक्त होती है। इन सबको भी हम भाषा के
माध्यम से जानते जानते भाषा से परे हो जाते हैं। पेड़
से सही-सही जुड़ने पर न भाषा रहती है, न पेड़, न हम।
हमारी समूची सांस्कृतिकता वृक्ष-जन्मा है। पीपल के
पत्ते पर बीज रूप में सृष्टि बत जाती है। जीवन की आखें
पत्ते पर खुलती हैं। विश्व अश्वत्थ वृक्ष के रूप में
शनैः शनैः विकसित होता है। वृक्ष पर दो पक्षी-ईश्वर और
जीव बैठे हुए हैं। ईश्वर स्वयं कुरुक्षेत्र के मैदान
में कहते हैं- 'मैं वृक्षों में पीपल हूँ।' क्या ये सब
हमारे रहस्य भरे संवादों वाले अध्याय हैं? नहीं। यह
अनुभव का चाक्षुष सत्य है। इसलिए एक वृक्ष की
अभिव्यक्ति को हम मंत्र पुष्प की तरह अनुभव करते हैं।
सदाजीवा हरिद्र अंकुरा दूर्वा में वासुदेविक पावित्र्य
देखते हैं। विल्वपत्र में शिव की अनायास उपस्थिति पाते
हैं। इस तरह सम्पूर्ण वानस्पतिक जगत में हम अपने ही
अनुष्ठानों की सम्पन्नता की वैदिकता अनुभव करते हैं।
लेकिन इस संसार में रहने के लिए भाषा जरूरी है। संसार
में व्यवहार के लिए भाषा जरूरी है। संसार की चीज़ों से
संवाद के लिए संसार स्तर पर शब्द जरूरी हैं। हम अनुभव
करते हैं एक अरण्य संस्कृति, जो अपनी जीवन विधि का
सारा अस्तित्व वृक्ष के साथ बंधन किए हुए हैं। हम
जंगलों में रहते हैं। हमारा जीवन ही वृक्ष है। वृक्ष
है, तो हमारा जीवन है। वृक्ष नहीं, तो जीवन नहीं।
हमारी सारी भाषा ही वृक्ष के पत्तों-सी है। हमारी
फसलें वृक्षों में जन्मती हैं। हमारी पलकों पर वृक्ष
उगते हैं। हमारे सपनों में वृक्ष आते हैं। वृक्ष को
देखकर हम समस्त निसर्ग को देख लेते हैं। पर्यावरण को
छू लेते हैं। वृक्ष प्रतिनिधि है- प्रकृति का। वृक्ष
हमारे पूर्वज हैं। उन्हीं से हमारे घर हैं। हमारे जल,
जंगल, ज़मीन हैं। हमारा परिवेश है। परिवेश की वस्तुएँ
वृक्ष की वंशज हैं। प्रत्येक वस्तु को हमारे द्वारा
दिया गया नाम है। अर्थ है। वृक्षों के संदर्भ हैं।
कथाएँ हैं। मिथक हैं। अभिप्राय हैं। वृक्ष भाषा स्रोत
हैं। साहित्य हैं। संस्कृति हैं। वृक्ष हमसे बात करते
हैं। वृक्ष नहीं होंगे तो हम किससे बात करेंगे ? किससे
पार जाकर हम स्वयं को जानना चाहेंगे?
समुद्र के गर्भ में उगी नन्ही काई के पास करोड़ों वर्ष
का अनुभव है। उसके अनुभव को सुनने की न भाषा हमारे पास
है और ना ही कान। सैकड़ों वर्षों से जटाएँ फैलाए
वटवृक्ष की भाषा को सुनने की शक्ति हमारे पास अभी भी
नहीं आयी है। लेकिन उनके सम्पर्क में आकर हमने अपनी
भाषा की स्थली में अभ्यारण बनाए हैं। आँगन में खेलते
हुए बेटा-बेटी उन्हीं अभ्यारण्यों में निकल जाना चाहते
हैं। आँगन के कोने में गीली मिट्टी की खिड़की से एक
अंकुर झाँकने लगा है। बस थोड़ी ही देर में वह आँगन के
बेटा-बेटी से बात करने वाला है।
१३ जून २०१० |