कागा रे मोरे बाबुल से
कहियो... या कागा रे मोरी अम्मा से कहियो... अनेक
भाषाओं में लोकगीतों की ऐसी पंक्तियाँ मिलेंगी...
बाबुल या अम्मा ऐसे आश्रय हैं जहाँ जीवन के हर कष्ट को
विश्रांति मिल जाती है, और कागा वह शक्ति है जो हमें
बाबुल या अम्मा की इस कष्टनिवारक ममतामयी डोर से जोड़े
रखती है। संवेदना और संरक्षण के ये दोनों प्रतीक व संवाहक आज की पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था में
हमारे जीवन से धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं।
कौवे वे भी काले, हमें
क्या किसी को भी फूटी आँख नहीं सुहाते। क्यों कि हम अब
भी उसे अपशकुन के रूप में स्वीकारते हैं। वह पर्यावरण
का सच्चा साथी भी हो सकता है, यह हमारी कल्पना के बाहर
हैं। पर अब वही काला कौवा हमसे लगातार दूर होता जा रहा
है, और यह मंज़र हम सभी अपनी आँखों से देख रहे हैं।
पहले उसे किसी सूचना का संवाहक माना जाता था, यानी वह
एक क़ासिद बनकर हमारे बीच रहता था, पर अब वह क़ासिद
नहीं, बल्कि हमारे आसपास नष्ट होते पर्यावरण के रक्षक
के रूप में मौजूद है। हमारी आँखें भले ही उसे इस रूप
में न स्वीकार करती हों, पर यह सच है कि पर्यावरण का
यह सच्चा प्रहरी अब हमारी आँखों से दूर होता जा रहा
है। अब उसकी भूमिका क़ासिद की नहीं रही। ज़माना बहुत
तेज़ी से भाग रहा है, इंटरनेट के इस युग में भला
पारंपरिक रूप से सूचना देने के इस वाहक का क्या काम?
पर कभी आपने इस काले और
काने कौवे को अपने मित्र के रूप में देखने की छोटी-सी
कोशिश भी की? निश्चित ही नहीं की होगी, पर जब श्राद्ध
पक्ष में घर में माँ कहेगी, छत पर जाओ, इस खीर-पूड़ी
को अपने पुरखों को दे आओ। तब लगेगा कि सचमुच ये काला
कौवा तो हमारे पुरखों के रूप में हमारी मुँडेर पर रोज़
ही बैठता है, और हम
हैं कि इसे भगाने में कोई संकोच नहीं करते। यही होता
है, पीढ़ियों का अंतर, आज की पीढ़ी को यह भले ही
नागवार गुज़रे, पर यह सच है कि यह पीढ़ी भी एक न एक
दिन काले और काने कौवे की कर्कश आवाज़ में पुरखों की
पीड़ा को समझेगी।
काले कौवे को भारतीय
समाज में कभी-भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया।
उसे सदैव अपशकुन से जोड़ा गया। पर जैसे घूरे के दिन भी
फिरते हैं, वैसे ही वर्ष में मात्र कुछ दिनों के लिए कौवे
के दिन फिर जाते हैं। उन दिनों हर कोई लालायित रहता
है, उसे अपने सामर्थ्य अनुसार भोग लगाने के लिए। इन
दिनों उसे खूब ढूँढ़ा जाता है। छत पर खड़े होकर हम
अपने पुरखों को याद करते हुए उसे उन्हीं की आवाज़ में
पुकारते हैं। वह आता है, फिर चला जाता है। हमारे हाथ
पर खीर-पूड़ी की थाली वैसी ही रह जाती है। आँखें भर
आती हैं, हम सोचते हैं, क्यों नाराज़ हैं, हमसे हमारे
दादा-दादी, नाना-नानी, माँ-पिताजी? क्यों नहीं आ रहे
हैं हमारे पास...
तब हम समझ लेते हैं
उनकी नाराज़गी का कारण। खीर-पूड़ी की थाली हमें याद
दिला देती है, उन सूखी रोटियों की, जो हम अक्सर ही
उनकी थाली में देखते थे। उनके भोजन में कभी खीर-पूड़ी
रखी गई हो, हमें याद नहीं आता। जब तक उनके स्नेह और
ममत्व की छाँव हमारे साथ था, उनके पोपले मुँह से हमारे
लिए आशीर्वाद ही निकलता। वे हमें टोकते, हम बुरा मान
जाते, फिर तो उनके मनाने के ढंग भी बड़े प्यारे होते।
हम मान भी जाते। उनकी गोद में घंटों खेलते, कभी-कभी
परेशान भी करते, तो वे हमें डाँटते भी। कभी चपत भी
लगाते। हम उनके बारे में न जाने क्या- क्या सोच लेते।
आज वही सोच हमारी
आँखें गीली कर रही हैं। सहसा हाथ गाल पर चला जाता है,
उन्होंने हमें यहीं मारा था ना, पर उसके बाद तो वह
ग़लती हमने नहीं दोहराई, इसीलिए आज ये आँसू हमारे साथ
हैं, अब तो वह सब-कुछ याद आ रहा है, उन्हें कैसी-कैसी
झिड़कियाँ मिलती थी। मकान अपने नाम करने के लिए उनकी
खूब ख़ातिरदारी भी की गई थी। वे तो इस ख़ातिरदारी से
इतने गदगद हो गए थे कि भूल ही गए उन सभी कष्ट भरे
दिनों को। ज़रा भी देर नहीं की उन्होंने रजिस्ट्री पर
हस्ताक्षर करने में। कुछ दिन तक सब ठीक रहा। बाद में
उनके झिड़कियों वाले दिन लौट आए। हमने महसूस किया,
उनकी गृहस्थी ही अलग बसा दी गई। घर का एक कोना उनके
लिए सुरक्षित हो गया। न किसी से बातचीत, न ही किसी से
प्यार-मोहब्बत। अपने ही घर में बेगाने हो गए थे वे।
कैसी पीड़ादायी क्षण
थे उनके। थकी साँसें, जर्जर शरीर, दुर्गंधयुक्त
कपड़े-बिस्तर, खून से सना कफ़, बलगम या फिर थूक। ऐसे
भी जी लेते हैं लोग। वे जीते रहे, अंतिम साँसों तक।
मुझे याद है, उन्होंने एक बार मुझे अपने पास बुलाया
था, प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा था- बेटा, मुझे
भूख लगी है, माँ से कहकर एक रोटी ला दे। मैं दौड़ा था,
एक रोटी लाने। उस समय मैं दौड़ में पिछड़ गया। मुझे
देर हो गई, कुछ क्षण पहले ही माँ ने बासी रोटियाँ
कुत्ते को डाली थी। खून के आँसू कैसे पीते हैं लोग,
उसे उस समय नहीं, पर आज महसूस कर रहा हूँ।
आज वे नहीं हैं,
विडंबना देखो, जो एक सूखी बासी रोटी देने में सक्षम
नहीं हो पाया था, उसे ही कहा गया है कि दादा को
खीर-पूड़ी दे दो। वे कौवे के रूप में हमारी मुँडेर पर
आएँगे। मरने के बाद उन्हें खीर-पूड़ी का भोग! किस समाज
में जी रहे हैं हम? चलती साँसों का अपमान और थकी थमी
साँसों का सम्मान। अगर यही समय का सच है, तो एक और सच
यह भी स्वीकारने के लिए तैयार हो जाएँ हम सब, वह यह कि
अब हमारी मुँडेर पर कभी नहीं बैठ पाएँगे कागा, न ही
किसी के आने की सूचना दे पाएँगे। फिर क्या करेंगे हम?
पॉलीथीन, खेतों में
कीटनाशक, प्रदूषित पर्यावरण, प्रदूषण, घटते वन-बढ़ते
कंकरीट के जंगल। ये सब मिलकर कागा को शहर से दूर भगा
रहे हैं। इन्हें ही हम सब वर्ष के बाकी दिन याद नहीं करते,
मात्र कुछ दिनों तक
इन्हें अपने पूर्वजों के नाम पर याद रखते हैं। इन्हें
भगाने के सारे उपक्रम हमारे द्वारा ही संपन्न होते
हैं। पर्यावरण सुधार की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं
बढ़ाया हमने। केवल एक पखवाड़े तक इन्हें खीर-पूड़ी से नवाजने में संकोच नहीं करते। ऐसे में हमसे क्यों न
रूठें कागा...
इन कागाओं को हम केवल
उन्हीं के उसी रूप में न देखें। अपनी संस्कृति में
झाँककर इन्हें केवल कुछ
दिन नहीं, बल्कि वर्ष भर स्मरण करें। यदि हम उनमें
अपने पुरखों को देखना चाहते हैं, तो हमें उनका भी
ध्यान रखना होगा। यह जान लें कि कागा में पूर्वज हैं,
तो कागा नहीं, हमारे पूर्वज ही हमसे रूठने लगे हैं। यह
पूर्वजों का पराक्रम ही था कि उन्होंने हमें वनों से
आच्छादित संसार दिया। उन्हीं के वैभव ने हमें जीना
सिखाया। आज हम भावी पीढ़ी को क्या देकर जा रहे हैं,
कंकरीट के जंगल, प्रदूषित पर्यावरण, उजाड़ मैदान,
प्रदूषित वायु और जल? इसके अलावा इंसानियत को खत्म
करने का इरादा रखने वाले हैवानों को?
अब भी वक्त है। हम
नहीं चेते, तो प्रकृति ही हमसे रूठ जाएगी। वह खूब
जानती है, अपना संतुलन कैसे रखा जाता है। फिर इसके
प्रकोप से हमें कोई नहीं बचा सकता। प्राकृतिक विपदाओं
का सिलसिला चलता रहेगा। पूर्वजों ने अच्छे कार्य किए,
तो कौवे भी अपना कर्तव्य समझकर पर्यावरण की रक्षा करते
रहे। पूर्वज गए, कौवे हमसे दूर हुए और हम इन दोनों से
दूर हो गए। अभी भी थोड़ा-सा समय है हमारे पास।
बुज़ुर्ग नाम की जो दौलत हमारे पास है, उसे हम न खोएँ।
उनसे सलाह लें, उनका मार्गदर्शन लें, उन्हें आगे बढ़ने
का मौका दें। फिर देखो, कागा ही नहीं, पंछियों का कलरव
हमारे आँगन होगा, हम चहकेंगे, सब चहकेंगे। मुँडेर पर
बैठकर कागा कहेगा- काँव-काँव... और हम फिर से कह
सकेंगे कागा रे मोरे बाबुल से कहियो...
१४
जनवरी २००८ |