वह
भादों की अंधेरी रात थी। रात के लगभग दस बजे थे।
पानी बरस रहा था। पंद्रह-बीस
दिन की ताड़न के बाद पानी आया था। इसलिए वह फसलों के लिए
तो अमृत बरसा रहा था। उसी अमृत वर्षा में सिक्त होते हुए
दो सज्जन द्वार पर आकर खड़े हुए। आग्रह किया-
'हम अपनी संस्था की ओर से आपका सम्मान करना चाहते हैं।'
मैंने उनसे कहा- 'ये आप लोगों
को क्या सूझी? अरे! दुनिया में और भी सार्थक काम हैं। उन्हें
कीजिए।' पर वे तो ब्रह्मा के पढ़ाए हुए थे। नहीं
माने। मुझसे हां कहलवाकर चले गए। दूसरे दिन
शाम को यह अनुष्ठान शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में
होना था सो हुआ। आयोजन बहुत गरिमापूर्ण ढंग
से हुआ। मेरी थोड़ी-बहुत पढ़ने-लिखने संबंधी
उपलब्धियां थीं, उनका बड़े आदर भाव के साथ बखान
किया गया। पर सम्मानित होते हुए मुझे लगा कि मैं
चीते की पीठ पर सवार हो गया हूं।
यह सच है कि दुनिया
में मान-सम्मान मांगने से नहीं मिलता है। पर
यह भी तो कहते सुना जाता है कि बिन मांगे मोती
मिले, मांगे मिले न भीख। भाग्य की प्रबलता से
बिना मांगे मोती भी मिल सकते हैं। मोती और
भीख दोनों ही व्यक्ति के बाह्य संसार को चमकाती है।
एक धनवान बनाती है। दूसरी पेटवान बनाती है।
लेकिन ये आचरण की भाषा नहीं बोलती। ये वह कुछ
नहीं करती जिससे मन के मोती पर पानी चढ़े। मतलब
यह कि मन की उड़ान के लिए सत्कर्म के पंख चाहिए।
जैसे ही सत्कर्म की बात आती है, वैसे ही हमारे
आचरण की भाषा स्वार्थ के छिलके उतार फेंकती हैं।
जीवन की सामाजिक उपयोगिता की टटोल शुरू हो जाती
है। हमारा जीवन हमारे लिए है, यह सत्य, मोती
और भीख की शिराओं से जुड़ा है हम सामाजिक भी
हैं, यह विचार- सत्य 'सत्यंवद';, 'धर्मचर' के
सूत्रों में बंधा है। इन वेद वाक्यों के अनुसार
आचरण;, समाज में हमारे रहने और दुनिया में
हमारे होने का अर्थ पाता है।
वृक्ष की एकदम पतली डाल
के छोर पर कोई चिड़िया आकर बैठ जाती है। शाखा
चिड़िया के वजन से लचक जाती है। झुक जाती है।
चिड़िया पंखों को तौलकर अपने को संभालती है,
लेकिन वह उसी डाल पर वहीं बैठी रहती है। उसे
विश्वास है
- शाखा भले ही शून्य में ऊपर-नीचे
हो जाए, पर टूटेगी नहीं। उसे गिराएगी नहीं।
चिड़िया और शाखा के बीच का यह विश्वास ही अनेक
फूल, पात, पंख और चहक में रेखांकित होता है। धर्म
की डाल की वह पतली-सी छुगनी जो सत्य के वृक्ष की
है, जीवन के पंछी के बैठने पर झुक भले ही जाए,
परंतु वह उसे गिरने नहीं देगी। सत्य को आचरित करते
हुए भले ही झोंके आएं, स्थिति दोलन की-सी हो
जाए परंतु धर्म और सत्य जीवन को बचा लेते हैं।
यह विश्वास जीवन को अनंत नीलिमा को नापने की
उड़ान देता है।
सत्य वह नहीं, जो
वेदों में लिखा है। शास्त्रों ने जिसकी व्याख्या की
है। सत्य वह जो जीवन की चेतना द्वारा अनुभव किया
गया है। देखे हुए सत्य का विश्वास लिखे हुए से
ज़्यादा होता है। यह सत्य चिन्मय द्वारा चिन्मय के
साक्षात्कार का साक्षी होता है। यह अंशी और अंश के
बीच की रस-भूमि से निपजता है। जिसे भक्ति कहा
जाता है। भक्ति सत्य की पोषक है। उसकी विस्तारक भी है।
भक्ति मन को निर्माल्य बनाती है। निर्मल मन में
ही सत्यानुभव स्थायी रूप से रहता है। इसलिए अपने
अनुभव के द्वारा जांचा-परखा सत्य ही वाणी तक आना
चाहिए। वाणी द्वारा विस्तारित सत्य ही कर्म में फलित
होना चाहिए। यह फल समाज में जब सकारात्मक
आनंदमय प्रभाव से नवजागरण करता है, तब ही
जीवन की सामाजिकता सार्थक होती है।
सह अस्तित्व में विश्वास
रखते हुए उसके पालन हेतु कर्म ही धर्म है। 'धर्मो
रक्षति रक्षितः' की धारणा ही स्वार्थ से परे हटाकर जीवन
को अन्य जीवन से जोड़ते हुए 'सर्वे भवंतु
सुखिनः' तक ले जाती है। यह धरती किसी एक व्यक्ति की
तो है नहीं। न ही इसे पृथ्वी पर रहने वाले किसी
जीव ने बनाया। ऐसी स्थिति में इस पर रहने वाले
सारे जीवों का बराबर हक है। इस भाव के धारण से
जो कर्म की मर्यादा तय होती है, वह ही धर्म है। इस
धारणा से अनुशासित कर्म जिस सामाजिकता का
निर्माण करता है, उसमें केवल मनुष्य ही नहीं रहते,
सारे जीव-जंतु, पेड़-पौधे, तृण-पहाड़;,
सर-सरिता सब रहते
हैं। वह समाज मनुष्यों का होते हुए भी उसमें इन सबके लिए
जगह होती है। सबका साहचर्य होता है। यह सब जब तक कर्म के
ललित में फलित नहीं हो जाता, तब तक सच्चे अर्थों में
धर्म की स्थापना नहीं होती। धर्म उपदेश की नहीं,
कर्म की भाषा बोलता है।
जलौधमग्ना धरा पर इस
प्रकार के सत्य और धर्म की स्थापना के लिए जिन्होंने
कर्म किए;, उन्हें हमने अवतार मान लिया। ये अवतारी
पुरूष जीवन भर सत्य-धर्म की ख़ातिर स्वयं को
होम करते रहे। इनका अपना कुछ भी नहीं रहा। कर्म,
केवल कर्म। मर्यादित कर्म। ललित कर्म। ऐसा
कर्मयोगी शताब्दियों में एक होता है। वह अपने
लीलावपु से आनेवाले हज़ारों वर्षों की संस्कृति
रच देता है। वह मर्यादा की ख़ातिर सब तज देता है। वह
सत्य की ख़ातिर सारी मर्यादाएं तोड़ देता है। यह पृथ्वी
तब उबरती है। हिंसक संस्कृति की जगह सनातन संस्कृति
जन्म लेती है। मनुष्य ऊंचा उठता है। बादलों को
आमंत्रण देने के लिए धरती उठकर पर्वत बन जाती है।
मेघ धरती के आंचल में बरस-बरस जाते हैं। धरती
की कोख हरी हो जाती है। झरने धरती की गोद में
शिशुओं-सी किलकारी भरते हैं। रसधार झरती है।
सिंधु गहराने लगता है। मर्यादा पुरूषोतम के
कांधे रखा धनुष फूलों सरीखा हो जाता है। वांशी
रव से शरद की चांदनी झरने लगती है।
मानवीय स्तर पर सत्य
विविध ललित कलाओं एवं ज्ञान-विज्ञान में
अभिव्यक्त है। इन सबमें सत्य की आभा ही कर्म के
माध्यम से आभासित और व्यंजित होती है। ललित
कलाएं तथा ज्ञान-विज्ञान मानव को कभी
भावों के समुद्र की सैर कराते हैं और कभी विचारों
के गगनचुंबी शिखरों पर खड़ा कर कहते हैं
- "मनुष्य तू अक्षय शक्ति का स्रोत है। तू अपरिमेय
संभावनाओं से भरा है। तू स्वयं को जान। किसी
से डर मत। अभय हो। मुक्त हो। सबकी सुध रखते हुए
कर्म कर। कर्म। केवल कर्म।" मनुष्य की अंतस्प्रेरणा
उसे अपने को जानते हुए स्वयं से बाहर निकालती है।
भीतर के सत्य को हथेली पर रखकर वह धरम-करम में
प्रवृत होता है, तो तिनकों में भी स्फुरण पैदा
हो जाता है। वह स्वयं को समझकर स्वार्थ के दायरे
तोड़ता है तो वह स्वयं का होते हुए सबका हो जाता है।
सबका होना और सबका होकर रहना बड़ा कठिन है।
लेकिन जो इस कठिन को जीत लेता है, वही सूरमा
है। वही बंधन जयी है।
ललित कलाओं और
ज्ञान-विज्ञान के भीतर भी उसी 'धर्मों रक्षति
रक्षितः' का यदि पालन और अनुसरण नहीं होता, तो
वह ज्ञानâविज्ञान कितना ही पदार्थवादी उन्नति
वाला क्यों न हो;, वह जीव-संस्कृति का पोषक
नहीं हो सकता। ऐसे ज्ञान-विज्ञान से समाज
का ऊपरी परिवेश तो समृद्ध दिखेगा, परंतु मन खोखला
होगा। जबकि सनातन सत्य तो 'उजला मन, मैले
हाथ' की बात करता है। मैले हाथ से तात्पर्य मिट्टी सने
हाथों से है। कर्म की निष्ठावान फलवती भूमिका से
है। मनुष्य की सार्थकता जानने में नहीं, करने में
है। आत्मानुभूति ही ललित कलाओं और
ज्ञान-विज्ञान के सोपानों पर लिखी जाती है
और उन्हीं की गहरी उजली रश्मियां जीवन को उसकी
संपूर्णता में आलोकित करती हैं। संपूर्णता-बोध ही
अखंड जीवन दृष्टि देता हैं दुनिया को उसके सुख-दुःख;,
गुण-अवगुण;, पाप-पुण्य सहित समझने की समझ
देता है। इसके बाद व्यक्ति सत्य और धर्म के सही स्वरूप
को सही माध्यम से सही समाज के लिए सच्चे कर्म के
रूप में बोता है। इस स्थिति के पश्चात व्यक्ति गोता
नहीं खाता।
इस प्रकार सत्य-धर्म
को जीवन की अनेक विध शिवत्व पूर्ण व्याख्याएं देने
वाला व्यक्ति ही सम्मान का अधिकारी हो सकता है।
उन्नीसवीं शताब्दी में विश्वात्मा स्वामी विवेकानंद
और बीसवी शताब्दी में महामानव महात्मा गांधी
ने मानवता के त्राण का पांचजन्य फूंका। उसकी ध्वनि
से अंधकार में भटकती हुई मानवता को अंतस्ज्योति
मिली। स्वयं में स्थित सत्य की ताकत का भान हुआ।
मानव जागा। भीतर से समृद्ध हुआ। बाहर से मुक्त
हुआ। इसलिए ऐसे ही जन सम्मान के सही पात्र हैं।
विश्व मानव के हृदय-मस्तिष्क ने ऐसे माहपुरूषों
को श्रद्धा से विभूषित किया और आदर्श भी माना। हृदय
के सिंहासन पर बैठाया। सम्मान इन महापुरूषों के
सामने नतमस्तक हो गया।
यह सब
सोचते-सोचते पाया कि मुझमें तो ऐसा कुछ भी
नहीं। मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे यह
श्रीफल, यह माला ग्रहण कर इतरा सकूं। मेरे भीतर एक
दहशत दस्तक देती है। मैं स्वयं को सम्मान के चीते पर
बैठा पाता हूं। जब तक सत्य और धर्म का संतुलन
साधे इसकी पीठ पर सवार रहूं, तब तक ही ख़ैर है। जहां
गिरा कि यह चीता मुझे खा जाएगा। मैं धरती पर नंगे
पांव पैदल चलते रहना चाहता हूं।
1 फरवरी 2006
|