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दहाड़ने
के पहले शेर बन्दूक को चाट रहा है
तेन्दुआ झपटना छोड़
असाध्य वीणा सा पड़ा है
बिच्छू का डंक भी अपनी जगह पर नहीं है
सिर्फ वहां थोड़ी सी रोशनी है इत्ते अंधेरे में
जहां छीना–झपटी करते हुए गुत्थमगुत्था कुछ बच्चे
खाने की किसी चीज के लिए चीख–चीखकर झगड़ रहे हैं
जिन्हें देखकर लगता है झमाझम बरसात में
भीगते पत्थर राष्ट्रीय गीत गाते हुए नाच रहे हैं।
('उजाड़ में संग्रहालय' से)
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उदास
चीजों के बीच
कभी सुनता हूं इस कुर्सी की कराह
जो अपना एक पांव खो चुकी
घुन ने लगभग खोखला ही कर दिया उन्हें
इस मयाल में कीड़े बना रहे निरंतर एक
सुरंग
एक रूदन जैसे वहीं सुनाई दे रहा मुझे।
('सराय में कुछ दिन' से) |
सभ्यता के
साथ अजीब नाता है बर्बरता का
जैसे फूलों को घूरती हिंसक आंख
हमने रंग से नफरत पैदा की
सिर्फ उन दो रंगों से जो हमारे पास थे
उन्हें पूरक नहीं बना सके दिन और रात की तरह
सभ्यता की बढ़ती रोशनी में
प्रवेश करती रही अंधेरे की लहर।
('एक जन्म में सब' से) |
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वर्ष
2003 में प्रकाशित काव्य संग्रहों से संकलित इन
कविता पंक्तियों के माध्यम से जिस काव्य विवेक का
हमें परिचय मिलता है, वह अपने समय की नब्ज पर
सवार है। कविता में इस चेतना को देखकर जहां हमें
इस वर्ष प्रकाशित कविताओं के दायित्वबोध के प्रति
आश्वस्ति मिलती है, वहीं त्रासद जीवन के बढ़ते कद के
प्रति गम्भीर चिंता भी पैदा होती है। चिंतन की इस
प्रक्रिया की सूत्रपात करने वाली कविताओं का पक्ष
हमेशा ही विपक्ष का होता है। जब ये उपभोक्तावादी
संस्कृति का भेद खोलने लगीं और बाजार की
संस्कृति के विस्तार में बाधक बनने लगीं तो
वैश्विक स्तर पर इनको बेहद सुनियोजित तरीके हाशिए
पर ढकेलने का प्रयास शुरू हुआ। इस वर्ष यह प्रयास
व्यापक स्तर सफल हुआ। जिसका परिणाम इस वर्ष
प्रकाशित कविता संग्रहों की संख्या में कमी के रूप
में आयीं। अन्य वर्षों की तुलना में इस वर्ष
आधे से भी कम कविता संग्रह हमारे सामने आए।
यहां पर
मुझे डाना गिओहआ का बहुचर्चित आलेख "कैन
पोएट्री मैटर" याद आ रहा है, जिसका एक अंश
उल्लेखनीय है – "अमेरिकी समाज में कविता एक मुख्य
संस्कृति नहीं, उपसंस्कृति का गौण अंग है और उसका
अस्तित्व केवल वहां के विश्वविद्यालयों और
साहित्यिक लघु पत्रिकाओं में सिमटकर रह गया है।'
इसी तरह की बात फ्रांस में बसे पोेलिश कवि
गाएवस्की कहते हैं – "फ्रेंच कविता कुल दो सौ
व्यक्तियों के लिए लिखी जा रही है।" हिन्दी कविता के
बारे में भी इस चर्चा को इसी लहजे में प्रचारित
किया जा रहा है। यह कार्य वर्षों से हो रहा है
लेकिन इस वर्ष पहली बार इसके प्रभाव का अनुभव
हुआ। प्रकाशकों ने कविता
प्रकाशन में अपनी रूचि
चिंताजनक रूप से कम कर दी है। आखिर वे भी अपनी
पूंजी से सीधे दो–दो हाथ करनेवाली कविता क्यों
पोषित करें? खैर कविता के जीवन के लिए यह एक नए
संघर्ष आगाज है। जो इस वर्ष शिद्दत से उभरकर
सामने आया है।
अगर इस
वर्ष प्रकाशित कविता संग्रहों पर नजर डालें तो
सबसे पहले वरिष्ठ कवि चन्द्रकांत
देवताले का कविता संग्रह 'उजाड़ में संग्रहालय'
हमारा ध्यान आकर्षित करता है। देवताले अपने समय
को खंगालकर जो भविष्य हमें अपनी कविताओं के
माध्यम से दिखाते हैं, वहां पर नारी जीवन का
बढ़ता दर्द, समाज पर काबिज होते हुए अमानवीय
मूल्य और वाष्पित होती हुई संवेदनाओं की तीव्रता
साफ–साफ दिखायी देती है। देवताले की कविताओं में
व्यंग्य एक गंभीर हस्तक्षेप की तरह उभरता है और कहीं
गहराई में जाकर वैचारिक पुष्टता प्रदान करता है।
अपनी अभिव्यक्ति की समर्थता उन्होंने इस संग्रह के
माध्यम पुनः सिद्ध किया है। इस संग्रह के बारे में
रंजना अरगड़े लिखती हैं – " 'उजाड़ में
संग्रहालय' की कविताओं को देखकर हिन्दी
भाषा–क्षमता के प्रति अथाह गर्व और आश्वस्ति का भाव
जगता है। इस संग्रह में पशुओं की उपस्थिति पाश्विक
समय का वस्तुगत प्रतिरूप बनकर आती है।"
विष्णु
खरे का संग्रह 'काल और अवधि के दरम्यान' इस बार
फिर गद्य के संस्कार में
काव्यात्मकता अर्जित करनेवाली कविताओं के साथ
हमारे सामने आया। विष्णु खरे की भाषागत और
शिल्पगत तकनीक हिन्दी कविता को एक नया स्वरूप देती है।
इनका यह कार्य अत्यन्त कठिन है। इनकी कविताओं में
बहुत बरीक काम होता है जो कविताओं को गद्य से
अलग करता है। इस तकनीक का लाभ यह है कि वे कविता
के कथ्य को निबन्ध और शब्द चित्र की हद तक स्पष्ट और
ग्राह्य बना देते हैं। इनके इस संग्रह के बारे में
इब्बार रब्बी लिखते हैं – "मुक्तिबोध, शमशेर,
नागार्जून और रघुवीर सहाय के बाद यह उतना ही
बड़ा और नया कविकर्म है।"
अशोक
वाजपेई की नई–पुरानी कविताओं का संचयन
पुरखों की 'परछी में धूप' का प्रकाशन भी इसी वर्ष
हुआ। यह इनका चौथा संचयन है। अशोक वाजपेई
को अनुभूतियों की गहनता के लिए जाना जाता है।
इन्होंने अपनी कविताओं में प्रेम और स्मृतियों
के जो कलात्मक दृश्य प्रस्तुत किया है, वह हिन्दी कविता
के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी है। इनके बारे में
भारत भारद्वाज लिखते हैं – "अशोक वाजपेई के इस
संकलन से गुजरना कवि की नई संवेदना से
परिचित होना है।" नरेन्द्र जैन की कविता संग्रह
'सराय में कुछ दिन' भी इस वर्ष के महत्वपूर्ण
संग्रहों में शुमार हैं। नरेन्द्र जैन देवताले
और विष्णु खरे के बाद की पीढ़ी के विशिष्ट कवि हैं।
इनके पूर्व के दो संग्रह काफी चर्चित रहे हैं। इनके
काव्यगत संस्कारों में भी मुक्तिबोध की गूढ़ता
मिलती है और समाज का निचला तबका नायक की तरह
से दाखिल होता है। इसलिए इनकी कविता में
रामलीला, गरीब की जीवन शैली, सन्निपात और
सांची का इतिहासबोध आदि जैसे विषय पर्याप्त
मात्रा में मिलते हैं और पूरी सम्प्रेषणीयता के
साथ पाठक के मानस पटल पर दर्ज होते हैं। नरेन्द्र
जैन के इस संग्रह की समीक्षा में ललित कार्तिकेय
की टिप्पणी सटीक है – "समाज की मुख्यधारा और
मुक्तिपरक महाख्यान, दोनों ही के द्वारा बनाये गये
सांस्कृतिक सहज बोध से दूर वे उन लोगों,
जगहों, चीजों, दृश्यों, स्मृतियों, सोचों,
रंगों और संवेदना के कवि हैं जो शायद हाशिये
के भी हाशियों पर धकेल दिए गए हैं, बड़बोले
और कपटी और लुभावने और घोर उपभोक्तावादी
विज्ञापनी संसार में जिनके लिए कोई जगह नहीं
बची है।"
इनके
अलावा युवा कवियों में एकांत श्रीवास्तव (बीज
से फूल तक), हेमंत कुकरेती (चांद पर
नाव), अनिता वर्मा (एक जन्म में सब), अलखनंदन
(घर नहीं पहुंच पाता), अरविंद चतुर्वेदी (सुंदर
चीजें शहर में बाहर), महेंद्र गगन (मिट्टी जो कम
पड़ गयी), प्रेमशंकर (नर्मदा की लहरों से), मानिक
बच्छावत (पत्तियां करतीं स्नान), मुकेश प्रत्युश (यह
आवाज किसकी है), सुधीर मोता (यह कठिन राग),
दिनेश जुगरान (मेरा उजाड़ पड़ोस), जितेन्द्र
श्रीवास्तव (अनभै कथा), मुक्ता (जाने क्यों
बार–बार), अनिल त्रिपाठी (एक स्त्री का रोजनामचा),
किरण अग्रवाल (गोल–गोल घूमती एक नाव),
मोहन राणा (इस छोर पर), हृदयेश्वर (मुंडेर पर
सूरज), राकेश वत्स (जरा और कविता), शम्स तनवीर
(सपने जिनके ताबीर होते नहीं देखे जा सकते हैं)
तथा अक्षय गोजा (आत्म विजय की ओर) का कविता
संग्रह भी इस वर्ष प्रकाशित हुआ। इनको पढ़कर लगता
है कि हिन्दी के युवा कवियों की चेतना अपने
पूर्वर्ती अग्रज कवियों से जहां अनुभव ग्रहण कर
रही है, वहीं पर अपनी स्वतंत्र वैचारिक विश्लेषण भी
रख रही है। अतः ये ज्यादा पठनीय और मननीय बनते
हैं। इन कविताओं से गुजर कर हिन्दी कविता के प्रति
आस्था और बढ़ती है। यहां पर उपभोक्तावादी संस्कृति
पर हेमंत कुकरेती की एक पंक्ति उदाहरण के लिए रखा जा
सकता है – "कई बार ऐसा हुआ कि नहाने के लिए पानी
लेने गया और साबुन के भाव बिकते–बिकते
बचा।"
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