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2003 की कविता में समय की दस्तक

—प्रदीप मिश्र

इस वर्ष हिन्दी कविता के अच्छे अनुवाद भी उपलब्ध हुए। इनमें मलयालम कवि अयप्प पणिक्कर की कविताओं का अनुवाद रति सक्सेना ने 'मेरी दीवार पर' शीर्षक से किया, अनिल जन विजय ने रूसी कवि येव्गेनी यव्तुशेंको की कविताओं की मूल रूसी से हिन्दी में 'धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा' शीर्षक से अनुवाद किया, सुरेश सलिल ने तुर्की कवि नाजिम हिकमत की तिरपन कविताओं का अनुवाद 'देखेंगे उजले दिन' शीर्षक से किया, अनामिका ने दुनियाभर में नारी विमर्श पर लिखी गयी कविताओं का संकलन और अनुवाद 'कहती हैं औरतें' शीर्षक से किया, मुसलमानों पर फ्रांसीवादी ताकतों के कहर पर केन्द्रित कविताओं का संकलन 'दीवार–ए–शब' नाम से जाबिर हुसैन ने किया, रमेश दवे ने आफ्रीकी कविताओं का अनुवाद 'काले आदमी चलोगे नहीं चांद पर, कविता सूरीनाम' के माध्यम से पुष्पिता ने सूरीनाम के पहले कवि मुंशी रहमान खान से लेकर जीत नराइन तक के कवियों की महत्वपूर्ण संकलन हिन्दी पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया।

इस वर्ष से मैं एक और साहित्य के क्षेत्र को परम्परागत साहित्य वार्षिकी शामिल करना चाहता हूं। वह है इंटरनेट के माध्यम से सामने आने वाली कविताएं। इनमें ज्यादातर या तो किसी प्रवासी लेखक की रचनाएं हैं या ऐसे युवा रचनाकारों की जो दूसरे पेशे में होते हुए भी साहित्य के प्रति गहरी आसक्ति रखते हैं। पिछले दिनों अनुभूति–अभिव्यक्ति, हिन्दी नेस्ट तथा लिटरेट वर्ल्ड कुछ और हिन्दी की वेब साइटों के साहित्य ने तेजी से अपनी पहचान अर्जित की है। इनको बिना ध्यान में रखे हिन्दी कविता पर बात पूरी नहीं होगी। हिन्दी लेखक जो वेब साइटों के माध्यम से अपनी पहचान अर्जित कर रहे हैं उनमें प्रमुख रूप से उषा राजे सक्सेना, पूर्णिमा वर्मन, सुषम बेदी, अश्विन गांधी, ब्रजेश शुक्ल, इन्दू, विश्वमोहन तिवारी तथा अंशुमान अवस्थी आदि की रचनात्मक उर्वरा को रेखांकित किया जाना चाहिए। कुछ उदाहरण यहां पर प्रासंगिक होंगे जैसे उषा राजे जी की कृति 'प्रवासी कवियों की कविताएं' में लिखती हैं –
उदास लम्हों और उभरते अंधेरे के बीच मैं
बीते गौरव को किसी महत्वपूर्ण अध्याय सा
पढ़ने का अथक प्रयास करती हूं
कुछ अदृश्य अर्धजली उंगलियां
मृत आस्थाओं और सम्बन्धों की
गर्म राख कुरेदने लगती है।

यहां पर जो उषा जी की संवेदना में जो निज पल्लवित होता है, उसका सरोकार व्यापक है। अभिव्यक्ति हृदय के तारों को स्पंदित करती है। इसी तरह से पूर्णिमा वर्मन अपनी काव्य कृति 'वक्त के साथ' में लिखती हैं –
वक्त शिल्पी की तरह
दीवारों पर
खुद उकेरता है
इतिहास।"
या 'मेरे गांव' कविता में उनकी पंक्तियां हैं –
मेरे गांव में कोई तो होगा
कम्प्यूटर पर बैठा मेरी राह देखता
मेरी पाती पढ़नेवाला
मेरी भाषा
मेरा दर्द समझनेवाला।

इन काव्य संस्कारों में जो दायित्वबोध है, वह साहित्य के स्वस्थ भविष्य की तरफ इशारा करता है। एक तरफ तो वे वक्त के माध्यम से उस इतिहास की तरफ केन्द्रित करती हैं, जो नैसर्गिक है और दूसरी तरफ प्रामाणिक भी हैं। अश्विन गांधी की पंक्तियां –
आरजू हजार
जिन्दगी की तलाश
देश से परदेस
सब छोड़ना था
दूर–दूर जाना था
मंजिल की पुकार थी।

प्रवासी संवेदना की उत्तम अभिव्यक्ति है। सृजन के इस पक्ष से परिचित होना भारतीयों के लिए बहुत महंगा है। अतः सारे वेब साइटों को हर पाठक नहीं पढ़ सकता है। सरकार को इस क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाना पड़ेगा।

गीत संकलनों में 'मेरे गीत' शीर्षक से वरिष्ठ कवि रामदरश मिश्र के गीतों का संग्रह आया। यह उनका दूसरा गीत संग्रह है। उनके चर्चित गीतों की पंक्तियां – 'नन्हें–नन्हें पांव डगर पर चलना सीख रहे हैं' या 'पथ सूना है तुम हो हम हैं आओ बातें करें'। रामदरश मिश्र ने हिन्दी साहित्य की कई विधाओं में खूब लिखा है। उनके गीतों में लोकगीतों के संस्कार स्वाभाविक रूप से समाहित होते हैं तो कथ्यों में प्रगतिशील कविताओं की छाया भी दिखाई देती है। कुमार रवीन्द्र का गीत संग्रह 'सुनो तथागत' भी इस वर्ष प्रकाशित गीत संग्रहों में महत्वपूर्ण है। यश मालवीय के चर्चित गीत संग्रह 'सुनो सदाशिव' के तर्ज पर इस संग्रह का नाम होने के कारण इसके अंदर पाठक को यश के गीतों के आस्वाद की तलाश होगी। यह इस संग्रह के लिए खतरा है। कुमार रविन्द्र मूलतः नवगीत के सृजक हैं अतः इनसे नव गीत की परम्परा में जिसमें डॉ•शंभुनाथ, देवेन्द्र कुमार, गिरिजाकुमार माथुर, नईम, यश मालवीय तथा रमेश रंजक आदि जैसे बड़े गीतकारों के संस्कारों की अपेक्षा बनती है। लेकिन वे बहुत ठीक से आश्वस्त नहीं कर रहे हैं। 

 इस वर्ष हिन्दी गीत की विकास यात्रा में मील का पत्थर की तरह नईम का ताजा गीत संग्रह 'लिख सकूं तो' आया। यह संग्रह हर गीत प्रेमी को जहां संतुष्ट करता है, वहीं गीत की सीमाओं का अतिक्रमण करके छंदमुक्त कविता के समकक्ष कथ्यों को अभिव्यक्त भी करता है। अंत में इस संग्रह से गीत पंक्तियों को देखें – 'लिख सकूं तो प्यार लिखना चाहता हूं।' काश! आनेवाले समय के रचनाकार भी इस शाश्वत प्यार को सम्प्रेषित करने की कोशिश करते और हमारे सामने प्यार का इतना गहरा धुन्ध छा जाता कि उसमें पृथ्वी की सारी घृणा और नफरत घुलकर नष्ट हो जाती।

 
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