(४)
जयदेव ११ बजे आने को थे।
शम्मोजान और कामदार भीखम लाल के अनुवाद को ले कर कुछ
प्रश्न और पाठ की जिज्ञासाएँ थीं। खिड़की से उन्हें आते
देखा तो फुरती से मेज़ पर चाय लगा दी।
जय ऊपर पहुँचे तो वहाँ मैं आप के साथ चाय का मुक़ाबला
कर रही हूँ। सोचा, एक बार तो आपके लिए मैं भी चाय बना
सकूँ। बाद में आप मौका नहीं देंगे।
दशकों के बाद इन पुरानी कहानियों का पाठ पड़तालते हुए
मुझे अपने कपड़ों से एक ख़ास तरह की पुरानी गंध आने लगी
थी। मन–ही–मन बहुत कोफ़्त हुई, मगर जयदेव की तालीम में
बीच का रास्ता नहीं है।
मौसम सर्द था और खुशगवार, इसलिए कायदे से सब कुछ
संपन्न हुआ। शम्मोजान ने कामदार भीखम लाल के काग़ज़ समेट
कर फ़ाइल में रखे और किचन से ताज़ी चाय बना कर ले आए।
हाँ, काम कैसे चल रहा है?
वही बेढंगी चाल और धीमी रफ़्तार जो पहले थी सो अब भी
है।
जयदेव हँसे नहीं।
सुनते हैं आपकी शामें सार्वजनिक हो उठी हैं।
क्या समारोही परिधान की तरह दूर से नज़र आने लगी हैं?
क्षमा करें, शायद मुझे पूछना नहीं चाहिए –
क्यों नहीं जय– मित्र होने के नाते तुम्हें अधिकार है।
आपके साथियों का कहना है कि आपको शाम का शुग़ल भाता है।
इसीलिए यार–दोस्त इकठ्ठा होते हैं।
देखो जय, इतनी सुंदर जगह में अपन ने चिंताओं की हाट
नहीं लगा रखी। उन्हें तो मैं दिल्ली के गोदाम में बंद
कर आई हूँ। वापस पहुँच कर देखूंगी। मज़े–मज़े काम करती
हूँ और खुश रहती हूँ। इस पर भला किस को एतराज़ हो सकता
है? सेमिनार के बाद और डिनर से पहले का वक्त मेरे यहाँ
इसलिए कि मेरा घर डाइनिंग रूम के सबसे निकट पड़ता है।
दोस्तों का वहाँ इकठ्ठा होना भी क्या बुरा है।
जयदेव खामोश रहे।
प्यालों में चम्मच चला कर कहा – वक्त आपका है, किसी और
का नहीं और काम भी आपका है किसी और का नहीं।
मैं हँस दी।
सुक्तियाँ गढ़ने लगे हो जयदेव?
जयदेव अपनी चुप्पी को जैसे तरतीब देते हैं। ... कहाँ
तक पहुँच गया है उपन्यास। भीष्म नियमित रूप से काम
किया करते थे।
दिग्गजों से मेरा क्या मुकाबला। मैं उनकी पंक्ति में
नहीं हूँ।
जयदेव के माथे पर तेवर देख कर कहा, देखो, इतनी बारीक
बातें मेरी दिमाग़ में देर से पैठती हैं और देर से ही
सुलझती हैं। बात की महीन सूइयाँ मुझ पर देर से प्रकट
होती हैं।
जयदेव कुछ ऐसे चकित हुए ज्यों मैंने अनजाने में ही
उनके मकसद को छूने का निर्णय किया हो।
सभी को आपसे बहुत उम्मीदें हैं। पर जय मुझे नहीं। मैं
अपने को दशकों से जानती हूँ। जो चाल पहले थी वही अब भी
है। मैं उम्मीद को अपने से दूर रखती हूँ। इसे ले कर
मुझे कोई हड़बड़ी नहीं।
जयदेव में शिक्षक स्थित हो गया। तीखी आवाज़ में कहा–
सुनते हैं आपने क्षेत्रीयता और स्थानीयता को लेकर कोई
फिकरा कसा है जो अच्छी रुचि का परिचायक नहीं।
समझ गई। – हैरान होने की क्या बात है। बातचीत में लोक
कथात्मक आस्वाद का पुट भी यदा–कदा उभरता रहना चाहिए।
बदले में जय ने तीखे गले से कहा – जिसने मुझे बताया है
उसने खुद भी बहुत बुरा मनाया है कि आपने उसे विशेष रूप
से धमकाया।
लगा, जयदेव खुद प्रदेश बन कर मुझसे सफ़ाई माँग रहे हैं।
देखो जय, अगर हिमाचल में बैठ कर कोई भी हिंदी प्रदेश
यह कहे कि हिमाचल में आकर हम जैसों का हिंदी का
उच्चारण बिगड़ जाता है तो आप कैसा महसूस करेंगे? जयदेव,
तुम भी अब हिमाचली हो – सुन कर कैसा लगेगा? यह सिर्फ़
भाषाई हेकड़ी ही नहीं थी, शिष्टाचार के भी विरुद्ध था।
जो प्रदेश आपका मेज़बान है उसके उच्चारण के बहाने उसकी
अवमानना करना मुझे ग़लत लगा। उच्चारण बिगड़ने और बदलने
की बात करें तो इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, कानपुर, पटना,
भोपाल, जयपुर, चंडीगढ़ के उच्चारणों का क्या हम बारीक
फ़र्क़ नहीं समझते, अपने–अपने स्थानीय रूपों को हम
दूसरों पर क्यों लागू करना चाहते हैं? हिंदी का
स्टैंडर्ड उच्चारण तो सिर्फ़ इलाहाबाद वालों में हैं।
उन्हें ब्रिटिश काउंसिल की तरह इसके कैसेट बनाने
होंगे। एक–दूसरे को दीन–हीन समझने की और दूसरों पर
छींटाकशी की आदत से अपने को उबारना होगा।
जयदेव जल्दी में पीछे मुड़े। मुझे दुख है – मुझे आपसे
इस प्रसंग पर बात ही नहीं करनी चाहिए थी।
जयदेव, अब तुम ग़लत हो रहे हो। तुम मुझे नहीं बताओगे तो
मैं अपने को सुधारूँगी कैसे।
यूनिवर्सिटी में चर्चा थी कि आप अपने तानाशाही स्वभाव
से लोगों को त्रस्त किए रहती हैं। हक़ीक़त इससे ठीक उलटी
है। साफ़गोई से त्रस्त होने की कमज़ोरी हमें छोड़नी होगी।
हँस–हँस कर सहमति और ख़ामोशी से असहमति, यह वयस्क होने
का तरीक़ा नहीं।
जयदेव ख़ामोश हुए रहे। माथे पर तनाव दीखने लगा था।
क्या ताज़ी चाय हों जाए।
जयदेव के गंगा–जमुनी मुखड़े पर कोई घटा उभर आई।
इस बार दालचिनी और अदरकवाली चलेगी न?
हाँ।
दोनों चुपचाप चाय पीते रहे। सैर से लौट कर शिव शामिल
हुए तो जयदेव की रुख़ाई पर कुछ चिकनाहट उभरी।
जय ने 'किचन की गड़बड़' देख कर गैस का कार्ड कवर में डाल
कर लटका दिया था जो दीखता रहे और गैस–सिलेंडर के बदलते
ही भगदड़ न पड़ जाए।
अच्छा चलता हूँ। सरोज इंतज़ार कर रही होगी।
हम बाहर लॉन में खड़े–खड़े जाने के क्षण को टाल रहे हैं।
जय, छोटी बातों के लिए अपने को परेशान न किया करो।
अंदर से बाहर बुहार दिया करो। कमरों में गर्द इकठ्ठा
हो जाती है तो उसे साफ़ करना पड़ता है। किसी का
कहा–सुना, नोक–झोंक, तीर–तरकस दिल के अंदर धंस जाए तो
उसे अविलंब अपने से बाहर कर दो। जय, मैं ऐसा ही करती
हूँ, करती रही हूँ। अपनी सीमाओं पर आँख रखते हुए मुझे
यह एहसास हमेशा बना रहता है कि किसी भी कचरे के लिए
मैं अपनी नज़र को क्यों मैला होने दूं? अंदर ही अंदर
खीझ और झुंझलाहट से इसकी कीमत अदा करनी पड़ती है। अपने
निज के खाते से। अपनी दृष्टि में जो निर्मल–निर्मम है
उसे 'आप' 'मै'ं या 'तुम' के स्तर पर ला कर गंदला करें
तो उस प्रदूषण को निकाल बाहर करने में आपको वक्त
लगेगा। आप उस आंतरिक स्वच्छता और संयम को कैसे बरकरार
रख पाएँगे जिसके बल पर भाव और विचार पकड़ में कुछ ही
देर के लिए आते हैं। वह आपको ज़्यादा वक्त नहीं देते।
जय, तुमने भी महसूस किया होगा कि कभी तरंगों से उभरते
हैं कुछ विचार और आप की लापरवाही या किसी व्यावहारिक
हस्तक्षेप से किसी मामूली से साधारण गौण में तिरोहित
हो जाते हैं। अपने को बचाती हूँ इस हानि से। जाने तुम
इसे कैसे देखते हो?
एकाएक लगा मैं बचकाना बातें कह रही हूँ। जयदेव सामाजिक
व्यवहारों को मुझसे कहीं अच्छा जानते हैं। कहा –
जयदेव, यह मामूली टोटके हैं। हम सभी अपने–अपने ढंग से
इन्हें इस्तेमाल करते हैं।
जयदेव के साथ–साथ सीढ़ियों से उतरी। पब्लिक एंटरी के
सामने हम न जाने फिर रुक गए। कुछ ऐसे लगा मुझे कुछ और
भी कहना है।
मेरे मार्कर फिर ख़त्म होने को हैं। आपको फिर मँगवाने
की तकलीफ़ दूंगी।
जयदेव हँसे – मैं खुश हूँ कि आप काम कर रही हैं।
एक छोटे उपन्यास का पहला ड्राफ़्ट कर चुकी हूँ। दूसरे
पर काम जारी है। और हशमत भी। सुन कर जय खुश हुए। लगा
चेहरे की रौनक लौट आई।
शहर से जो भी चाहिए हो मुझे बताना न भूलें। मैं कल माल
जा रहा हूँ। लिस्ट बना लीजिएगा, किसी को लेने भेज
दूंगा।
मैं जयदेव को उतराई से उतरते देखती रही। पहाड़ी चाल।
(५)
इस बीच कुछ अच्छा हुआ ऐसा कि हम दोनों खुश हुए।
दूरदर्शन के लिए बनाई जा रही फ़िल्म में प्रयाग शुक्ल
मुझे इंटरव्यू करने वाले थे। टीम शिमला पहुँची तो
प्रयाग साथ नहीं थे। मेरे लिए उनकी अनुपस्थिति किसी
संकट से कम नहीं थी। उनको ले कर उम्मीद यह थी कि
प्रयाग की सहज–सुथरी शैली से कुछ कहने का आत्मविश्वास
जुटा सकूँगी।
संस्थान में नज़र दौड़ाई। कोई करें या न करें की सोच में
कोई करना चाहते हुए भी न कर सकने की मजबूरी में, आख़िर
जयदेव से प्रार्थना की गई। वह बहुत उत्सुक नहीं दिखे।
फिर दूरदर्शन के आग्रह पर अपनी स्वीकृति दी।
कैमरे के सामने हम दोनों ही अपनी–अपनी झिझक को ले कर
आश्वस्त नहीं थे। धूप से उजली रौशन मेरी स्टडी को छोड़
कर जब कांता पंत ने हमें बाहर लॉन में बैठने को कहा तो
हम दोनों ख़ामोशी से एक–दूसरे तक पहुँचाते रहे कि खुले
में आवाज़ बिख़र जाएगी। सैलानियों का शोर होगा और शायद
धूप की चौंध में आँखों को भी परेशानी हो। ख़ासा अटपटा
लगा। खीझ हुई, फिर शुरू होते ही सब सहज हो गया।
जय, तुम्हारी ओर से मुझ पर कोई दबाव नहीं था। और, मेरी
ओर से किसी प्रभावी जटिलता का आग्रह नहीं था। क्योंकि
मुझे तुम्हारी आलोचकीय दृष्टि में विश्वास था। कुछ कह
सकने की वजह एक और भी थी कि कैमरे के सामने हम दोनों
नौसिखिए थे और एक–दूसरे के रुआब–तले नहीं थे।
वक्त, तिथि, स्थान और समय को लेकर वह दुपहर मेरे ज़ेहन
में अंकित है।
राष्ट्रपति निवास की ऐतिहासिक इमारत के सामने बिछा लॉन
और हम दो नए–पुराने वक्तों के दो चेहरे – दो रंग।
तुम्हारी ओर से तुमने मुझे पूरी छूट दी है कि मैं वह
कह सकूँ जो मैं कहना चाहता हूँ। जो कहने की रचनात्मक
क्षमता रखती हूँ। यह नहीं कि प्रश्नों के बहाने ऐसा
घेराव हो कि अपने तक न पहुँच सको।
याद कर रही हूँ तुम्हारा वह प्रश्न जिसका जवाब देने
में मुझे अपने स्वभाव की ही परिक्रमा करनी थी।
आप को गुस्सा क्यों आता है?
इत्तफ़ाक़ ही था कि वह प्रश्न और उसका उत्तर दोनों इस
प्रोग्राम के बाहर रह गए। कुल मिला कर वह दुपहर ठीक से
गुज़र गई क्योंकि हम दोनों एक–दूसरे के आत्मविश्वास को
जगा रहे थे। एक–दूसरे के मुंडन नहीं कर रहे थे।
तुम हँस रहे हो जयदेव? तुम कभी–कभार ही हँसते थे।
लगभग वर्ष–भर के बाद जब हम लोग लाउंज में फ़िल्म देखने
को बैठे तो तुम भी मौजूद थे। ... हम दोनों के संवाद
से जो उभर कर आया वह इतना भर था कि दुनिया को कौतूहल
से देखती हूँ।
मैं तुम्हारी प्रश्नोत्तरी देख चुकी थी। विश्वास करो,
तुम्हारी मदद न होती तो मैं ठीक से जवाब न दे पाती,
मैं किसी दूसरे की दौड़ नहीं दौड़ रही थी। दुविधा या
अनिश्चय से दूर तुम अपने प्रश्नों में मेरे लेखन के
हिमायती।
जयदेव, तुम अनमने–से मुझे चुपचाप देखते रहे थे, फिर
झिझक और संकोच से पूछा – क्या यह सब कुछ आप मेरी
जिज्ञासा के उत्तर में कह रही हैं। कहीं गुस्ताख़ी तो
नहीं हो गई।
मैंने जयदेव के स्वभाव की चुपीली अदाओं का मज़ा लिया।
नहीं, इसका संबंध तुमसे नहीं मुझसे है। बड़बोलापन।
अलग–अलग टुकड़ों को जोड़ कर मैं अपने को आश्वस्त कर रही
हूँ।
इसका कोई कारण भी तो होगा?
मैं गंभीर हो गई।
हाँ है। तुम्हारी निगाह की ठंडी बेचैनी। जयदेव, तुम
परेशान इसलिए नहीं हो कि तुम्हारे प्रश्न अच्छे नहीं
थे – बल्कि इसलिए कि मैं सिर्फ़ तस्वीरें जुटा रही थी।
वह भी तुम्हारे प्रश्नों के सहारे। कामचलाऊ वृत्तांत
और संवाद में काश हम दोनों मिल कर कुछ नया अर्थ या
आयाम जोड़ सकते।
आप सख्त इम्तिहानहान ले रही हैं।
जय, तुम आदतन बहुत कुछ कहने से कतराते रहे हो। ऐसा भी
लगता रहा कि क्योंकि तुम बोलने के नहीं – काम करने और
कम कहने के आदी थे। तो तुलना में हम जैसे ज़्यादा कहते
चले जाने के दोषी भी कहे जा सकते हैं।
महाश्वेता के लेखक और लेखन को लेकर तुम्हारे कुछ ही
फ़िकरे मुझे उस गहरी समझ और प्रतिबद्धता के संकेत देते
रहे जो तुम–सा व्यक्तित्व अपने में जगाए रहता है। तुम
कैसे महाश्वेता के आदिवासी मेले में गए और लौटने में
क्या–क्या मुश्किलें पेश आईं, कैसे स्टेशन मास्टर ने
मदद की। तुम मात्र उन घटनाओं को नहीं उनकी गहरी मानवीय
आस्थाओं को प्रकट करते रहे थे जो तुम्हारी सोच का
मुख्यतम हिस्सा थे।
जयदेव, हमारे दरमियान तकरारें भी कम नहीं हुईं। कहना
होगा कि वह इकतरफ़ा रहीं।
तर्क–असहमति–वाद–विवाद–विरोध–नाइत्तफ़ाकी कुछ कारगर
नहीं हो सकती अगर भिड़ंत दोनों तरफ़ से न हो। तुम बहुत
कुछ को पी जाने और अपने दिल में रखने के माहिर और हम
जैसे जोशीले। लगातार महसूस होता रहा कि जितना कुछ तुम
अपने अंदर रखते हो उसका ख़ामियाज़ा भी तुम्हें खुद ही
उठाना पड़ता है।
शायद ग़लत कह रही हूँ। तुम्हारे चले जाने के हादसे को
भूलने की कोशिश कर रही हूँ। पर इस वक्त इन पन्नों पर
तुम्हें संबोधित करते हुए मैं पहले से बेहतर महसूस कर
रही हूँ। यह समझ कर कि तुम चले गए हो फिर भी तुम हमारे
इस टोले में मौजूद हो। हमारी ख़यालों की दुनिया में।
(६)
ज़िंदगीनामा के अंग्रेज़ी अनुवाद के बारे में हम लोग
कैफ़े में मिल रहे थे।
तीसरी मंज़िल पर स्टडी की खिड़की से देखा। ग्रास कॉटेज
पार कर जयदेव कैफ़े की चढ़ाई चढ़ रहे हैं। चढ़ाई चढ़ने और
उतरने में जय की चाल में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। फुर्तीले
कदम और कंधे पर वही झोला।
मैं लिफ़्ट में नीचे उतर गई।
बाहर धूप में कुर्सियाँ खींच कर बैठे तो आँखों ने
सामने बिछी घाटी फलांगी और जतोग की लाल छतों को
पुतलियों में घेर लिया।
ऑर्डर किया। एक चाय। एक कॉफ़ी।
जय ने इधर–उधर देखा – हर रोज़ कैफ़े में घूमती पालतू
बिल्ली नहीं दीख रही।
वेटर साहिब प्याले ले कर आए तो पूछा – आज बिल्ली मौसी
नहीं दिख रही?
वह कोने में बैठी है। साहिब सुबह कैफ़े के लिए दूध
भगोने में डाला। अभी गैस पर न रखा था कि आधे से ज़्यादा
पी गई।
हम हँसे।
इसका दाँव लग गया।
साहिब कभी नहीं पीती। नाश्ते का इंतज़ार करती है। आज
जाने क्या हुआ। डाँट पड़ी तो रूठ कर बैठी है।
जयदेव कुर्सी से उठे। बिल्ली मौसी के सिर पर हाथ फेरा।
पुचकारा। कटोरी में दूध मँगवाया। लो पीओ – शाबाश, इतना
गुस्सा नहीं करते। मौसी उसी तरह सिर डाले बैठी रही।
आँख तक न उठाई।
साहिब गुस्सा मना रही है। नाश्ता रखा था इसके सामने –
नहीं खाया।
मालूम नहीं दूध पीने का पछतावा है कि डाँट पड़ने की
रुसवाई। लगता है, भूख हड़ताल कर दी है।
लीडर बनने का प्रोग्राम लगता है।
जय ने पूछा – आपने एक्सटैंशन प्रोग्राम में आने को
क्यों मना कर दिया? मैं तो छुट्टी पर हूँ। किसी ने
बताया तो जाना।
जयदेव, इसकी वजह इतनी ही थी कि आप आज शाम कहें कि कल
लैक्चर के लिए आइए तो आप के ख़याल में इसका जवाब क्या
होता? यही न कि नहीं आ सकूँगी। उनसे यही कहा कि तैयारी
के लिए कुछ वक्त देना चाहिए।
जवाब में आयोजक कहने लगे – आप कुछ न बोलें तो भी
चलेगा।
आपको लोग देख तो लेंगे।
मुझे दुख है, आप अपने प्रोग्राम और वक्ताओं दोनों को
बड़े हल्केपन से देखने के आदी हैं। माफ़ कीजिएगा मैं
नहीं आ सकूँगी।
जयदेव कुछ बोले नहीं।
मुझे कोफ़्त हुई। क्या कुछ ग़लत हुआ।
नहीं, पर कुछ ठीक भी नहीं हुआ। आप पिछले महीने आर्मी
हेडक्वार्टर में तो गई थीं।
हाँ, हफ्ता दस दिन की सूचना थी। अच्छा रहा। मैंने
ज़िंदगीनामा से पाठ किया। पहले परिचय दिया फिर
रेजीमेंटस के विभिन्न टुकड़े पेश किए।
जयदेव, व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए यह बहुत कीमती था।
आर्मी हेडक्वार्टर बिल्डिंग के लंबे बरामदे मुझे मेरे
बचपन की याद दिला रहे थे। सीज़न में एक बार हमें दादा
साहिब की ओर से 'ट्रीट' मिला करती थी। हमारी सेनाओं के
रेजिमेंटल इतिहास बहुत दिलचस्प है। कश्मीर हाउस की
डिफ़ेन्स लायब्रेरी में काम कर चुकी हूँ। ज़िंदगीनामा
में फ़ौजियों के प्रसंग उन्हीं की भाषा में लिखना मेरे
लिए चैलेंज था। फिर महायुद्ध के समय भरती पर अलग–अलग
रेजिमेंटों के साफ़ों का बयान। मैं इस सब को शहराती
ज़बान में, मुहावरे में प्रस्तुत करती तो ग़लती करती।
ज़िंदगीनामा के पाठ का पूरा मिज़ाज और उसकी भाषा किसानी
खुरदरापन लिए हैं, इसके पंजाब में स्थित होने के
बावजूद गुरुदयाल सिंह साहिब को कम मुश्किल नहीं पड़ी।
जयदेव बोले – इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की इच्छा
है। मुश्किल होगा पर कर सकूँगा।
हम एक–दूसरे को अविश्वास से देख रहे थे।
इसका परा ध्वनि–संसार किसी भी अनुवादक के लिए चुनौती
है।
'समरहिल' में 'सिक्का बदल गया' का अनुवाद आप को कैसा
लगा?
अनुवाद आसान नहीं था पर आपने कर दिया। यह छोटी–सी बात
नहीं।
पंकज द्वारा की गई इंटरव्यू कैसी लगी आपको।
कहूँगी अच्छी आई है।
बेहतर हो सकती थी। वक्त का होना और कम होना इसकी
क्वालिटी को तय करते हैं।
लगा, जयदेव कहीं खो गए हैं। गंभीर।
वही तनाव।
जय किसी ज़ाहिरा होड़ में नहीं थे लेकिन समझ नहीं आता
निरंतर बने रहने वाला उन पर यह कैसा दबाव था। जल्दबाज़ी
आने की, जाने की। काम की।
जयदेव, 'समरहील' की इंटरव्यू पर एक प्रतिक्रिया ज़रूर
तुमसे बाँटूँगी।
नाश्ते पर दर्शन के प्रोफ़ेसर विमलांशु बोले – आपकी
इंटरव्यू देखी।
लंबी ख़ामोशी इतनी लंबी कि मैं परेशान हुई।
इंतज़ार।
प्लेट का ऑमलेट ख़त्म हो गया।
प्लेट उठा ली गई।
नारंगी छील ली गई।
वह भी ख़त्म हो गई।
कुर्सी से उठते–उठते गहरी सोच की मुद्रा में कहा –
अच्छा होता अगर कोई महिला आपका इंटरव्यू करती।
उनके चेहरे पर की गंभीरता देखती रही। फिर खिलखिला कर
हँसी और छेड़खानी के अंदाज़ में – आपको मालूम हो कि पंकज
सिंह पुरुष नहीं स्त्री है। और मैं बिचारी भी मात्र
स्त्री नहीं लेखक हूँ। लेखक जो स्त्री भी है।
वह पल भर को कुछ हतप्रभ से हुए, फिर युगों की विचारक
मुद्रा को चेहरे पर बिछाए–बिछाए कुर्सी से उठ गए।
जयदेव, मैंने उस सुबह अपने को दलित महसूस किया। फिर
जाने कैसे अपने को दिलासा दिया कि इन मुद्राओं और
भंगिमाओं को झेलने के लिए हमारा सफ़र लंबा होगा।
लिंग–भेद को पाटने के लिए नई भाषा का आविष्कार करना
होगा। रचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण देना होगा।
जयदेव पहले गंभीर हुए, फिर हँसे। ऐसी बहुत–सी घटनाएँ
आपने इकठ्ठा कर रखी होंगी। ऐसी बातों की सूची से इस
समस्या का कोई हल नहीं होगा। अभी कड़ुवे घूँट पीने
पड़ेंगे।
जय व्यंग्य से मुस्कुराए। क्या इन रुकावटों को निकालने
के लिए अगले दस बरस काफ़ी होंगे?
नहीं, कम से कम अगली शती के पच्चीस बरस! मन ही मन सोचा
एक और पहलू मरदाना जो हमारे निकट गंभीर मसला है वह अब
भी तमाशे की तरह देखा जा रहा है। नहीं, जयदेव यह तर्क
के लिए भी नहीं चलेगा।
इसका जवाब हाँ और न दोनों। जयदेव सहज दीखने वाले
लेखन–अभ्यास पर कुछ पूछ रहे हैं। मैं अपने को लिखने के
आतंक से कैसे बाहर रखती हूँ?
मुझे लगा मेरे साथ हमदर्दी की जा रही है। दुपहर को
हल्का करने को कहा –
अपने एक हिस्से को उन्मुक्त खुला छोड़ना होता है और
दूसरे को संयम से कसना होता है। अपने को ढंकने से आप
पर वह सब हावी हो जाता है जिससे आप छुटकारा पाना चाहते
हैं। हवा के लिए उस छोटे–से झरोखे को खुला रखना होता
है जहाँ से हवा का संचार होता रहे।
जयदेव कुछ गंभीरता से कुछ बचाव से देखते रहे। फिर कहा
– क्या यह ज़रूरत सिर्फ़ स्त्री लेखक की है।
मैं कुछ सख्त कहूँगी। वह आपको बुरी लगेगी। सो इस
विवाद को यहीं ख़त्म करते हैं।
हम लोग कैफ़े से उठे और घर जा बैठे। ... मुझे दुख है
मैं कुछ ज़्यादा ही कह गया।
एक ताज़ी चाय और हो जाए।
आप नहीं मैं ताज़ी चाय ले कर आता हूँ।
डाइनिंग टेबल पर रखे थैले में से जय ने सरोज के बनाए
ताज़े गुलाब जामुन बाउल में रखे और चाय के साथ ले आए।
भारतीय जिह्वा का स्वाद – मिठाई देखते ही बैकुंठ धाम।
मीठा–मीठा चखते रहो – मीठा–मीठा खाते रहो और
तीते–नमकीन मुद्दों से अपने को बचाते रहो।
कौन नहीं जानता कि पीढ़ियों के दरमियान बिछी दूरियाँ और
फ़ासले अबूर कर मित्रताएँ कायम रखना आसान काम नहीं।
अपने–अपने धंधे और पंक्ति की खूबियाँ और ख़ामियाँ,
एक–दूसरे की विशेषताएँ और व्याधियाँ, दोनों ओर हावी
सामाजिक संघर्षों की तल्ख़ियाँ किन्हीं भी मैत्री
संबंधों को या तो अपने मतलब के लिए बीन लेती हैं या
धीरे–धीरे उन्हें कुतर देती हैं।
मित्रों का चुनाव अब एक पेचीदा और उलझा हुआ दर्शन है।
सोच–विचार कर संपादित–संकलित मित्र चयन। मैं तुम्हें
उभार दूं – तुम मुझे बघार दो। मेरी सुगंधि महके और
तुम्हारी महिमा लहके। दोनों पहियों की गाड़ी पटरी पर
दौड़ रही है। एक–दूसरे में कुछ सुंदर–सुहावना खोज
निकालने का तो वक्त ही कहाँ है। न पहले–सा रोमांस और न
फंतासी। सामाजिक गलियारों से उभरते कामकाजी व्यावहारिक
गुण अपने–अपने बचाव के लिए जो भी कर न गुज़रें।
अमैत्री के इस संक्रमण काल में दोस्ती–मित्रता अब हर
दिन ख़तरे में। आज है तो कल नहीं। सुबह है तो शाम नहीं।
विरोधी ख़ेमों की टेलीफ़ोनें क्रॉस कर रही है। बेहद कोमल
मुलायम औज़ारों से एक को दूसरे के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा
है। कौन किस पर नज़र रखे हैं यह सब किसी को मालूम है और
किसी को भी मालूम नहीं। ज़ाहिरा शिष्टाचारी खेल हैं और
लुकी–छिपी रणनीतियाँ। मैत्री और दुश्मनी अब दोनों
सामाजिक धंधे है। तेज़ी से उभरने वाले ग्राफ़। इन्हें हर
दिन अंकित करते मित्रता के रखवाले शातिर मित्र। इसे
टोक दो। इसे हाँक दो। इसको आँख दिखा दो। उसको गले लगा
लो। इसकी फ़ाइल खोल दो। जयदेव, सचमुच हैरानी होती है,
यह सोच कर कि हमारी मित्रता का ब्योरा इन
चुस्त–दुरुस्त दायरों के तो बाहर रहा। तुम एक अच्छे
दोस्त की तरह मुझ जैसी पुरानी तारीख़ की सुविधा और
साहित्यिक छवि की सुरक्षा को लेकर चिंतित होते रहते।
हाँ, साहित्यिक छवि।
शहर की साहित्यिक सभाओं के तज़किरे हमने एक–दूसरे के
सामने कभी नहीं किए। शिमला–निवासी जयदेव कुछ झुंझलाते,
फिर कुछ कहते–कहते रुक जाते। हम दोनों वर्तमान
स्थितियों को अपने–अपने ढंग से पढ़ते। मैं दिल्ली वालों
की निगाह से और जयदेव ठेठ शिमलाई संवेदना से। हम दोनों
पहचानते थे उस विपरीत को जो अपने–अपने खेल के मैदान
में खेला जाता है। कभी पिट जाता है और कभी पीट दिया
जाता है।
मैंने बहाने से एक दिन कहा – जयदेव, ये निमंत्रण
टैक्सी मीटर से जुड़े हैं। अगर पार्टी ने टैक्सी इंगेज
कर रखी है तो चलेगी, नहीं तो जहाँ खड़ी है खड़ी रहेगी।
हम जानते हैं तथाकथित अनचाहे ग़लत लोगों को समारोह
संपन्न हो जाने के बाद निमंत्रण पोस्ट किए जाते हैं।
जयदेव, जिस दिल्लीबाज़ी की तुम उस दिन बात कर रहे थे –
वैसे खेल सब जगह चालू हैं। दिल्लीबाज़ी, शिमलाबाज़ी,
लखनऊबाज़ी और न जाने क्या–क्या। हम कहाँ अनजान हैं इन
बारीक बौद्धिक हथकंडों से और हार–जीत की बाज़ियों से।
तालीमयाफ़्ता नुक्ताचीनियाँ!
दिलों पर बिछी हरी घास पर धूप–छांह की अठखेलियाँ।
यहाँ–वहाँ गुपचुप–गुपचुप फिर गीलेपन में हुमसती है
सीलन और धूप के सेंक से उग आती है आनंदित करने वाली
धूप की खुंबियाँ, चिट्टी दूध। श्वेत पवित्र चमकीली और
कभी–कभी ज़हरीली। इन्हें प्रमाण की क्या ज़रूरत?
क्या अपने आप फूट आए, स्वयं अपना प्रमाण देने को।
आबोहवा कि मौसम?
हैलो!
हैलो! जयदेव बोल रहा हूँ। कैसे हैं आप।
अच्छी हूँ। जयदेव बहुत दिन से हम लोग मिले नहीं।
मन ही मन कई बार सोचा पर हाथ के काम निबटने में ही
नहीं आते।
हमारे जाने के बाद आपको बहुत वक्त मिलेगा।
शिमला में आपका न होना बहुत अखरेगा।
मैं हँस दी।
एक के जाने से शहर खाली नहीं होते? हाँ ज़रा इस बीच
आपके संदेसे मिलते रहे हैं। दिमाग़ तेज़ करने वाली
ब्राम्ही बूटी भी।
कल आपको कागज़ भिजवा रहा हूँ। आपके पैसे बचे हुए थे।
जय सब हिसाब–किताब अभी क्यों ख़त्म कर रहे हो। इतनी
जल्दी छुटकारा पाना मुश्किल होगा!
जयदेव चिंतित स्वर में बोले – आप ठीक तो हैं। मैं आपको
लेकर कुछ चिंतित हूँ।
इसे अपने से बाहर रखो जय। शिमला में क्लोरीन की गंध
फैल रही है। नाक–मुंह सिकोड़ने की जगह इससे पुण्यलाभ भी
तो किया जा सकता है।
बुरा न मानें तो मेरा एक सुझाव है –
कहें।
आज के हालात में संवादहीनता ही सब से बड़ा सुख है।
ऐसी समझदारी की क्या सचमुच मुझसे अपेक्षा की जा सकती
है?
यह तो एक कठिन और जटिल प्रयास होगा। फिर इससे एक
मर्मस्पर्शी दिलचस्प प्रसंग जुड़ा है।
जयदेव का एक लंबा मौन!
हैलो, जय!
जी, वह प्रकरण सुन चुका हूँ।
मैं हँसी।
अब तुम्हें पूछना चाहिए कि क्या सचमुच में अनिवार्य
था?
मुझे हैरत हो रही है सोच–सोच कर – मनगढ़ंत काल्पनिक
आक्षेप गढ़ने का कौशल मेरे पास नहीं है।
ऐसा न होता तो अच्छा होता।
ध्यान से सुनो जयदेव मैं अपने निज के अनुशासन की कायल
हूँ। अपनी ओर से पहले कभी छेड़छाड़ नहीं करती।
दोनों ओर की टेलीफ़ोन तारों पर कोई संगीन आरोप लटकता
रहा। जानती थी कुछ भी कहने की पहल जयदेव की ओर से नहीं
होगी।
गाड़ी में सामान लग चुका हैं।
मैं और शिव प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हैं। सामने की घाटी सांझ
के उजियारे में झम्म झम्मा रही है। ... हम हल्का
महसूस कर रहे हैं यह सोच कर कि हम शिमला से वैसे ही
विदा ले रहे हैं जैसा हमने चाहा था। अदिति और अन्य
मित्र हमारे साथ खड़े हैं। हाथ में कैमरा है। हम नीचे
उतर रहे हैं और तस्वीरें बन रही हैं।
गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म से सरकती है और हम हँसी–खुशी ग़र्मजोशी
से दोस्तों से विदा लेते हैं।
गाड़ी की खिड़की से हर परिचित मोड़ और पेड़ की पहचान की जा
रही है। जयदेव से मुलाकात नहीं हुई होगी। वह हमें
समरहिल पर ज़रूर मिलेंगे।
समरहिल की सुरंग से निकलते ही आँखें प्लेटफ़ॉर्म पर गड़ा
दीं। शिवालिक यहाँ खड़ी नहीं होती तो भी जयदेव हमें
दीखेंगे ज़रूर!
लंबे–लंबे डग भरते, गाड़ी के साथ–साथ भागते जयदेव हमें
देख लेते हैं।
गुडबाइ,
गुडबाइ।
(७)
'ऐ लड़की' पर सुबह का संगोष्ठी सत्र ख़त्म हुआ। हम लोग
संस्कृति केंद्र आनंद ग्राम के सुहावने लॉन में
एक–दूसरे से बतिया रहे थे। खाना लगने को था।
सामने देखा के. बी. वैद्य और जय साथ–साथ खड़े हैं।
तसल्ली हुई। जयदेव के कल्चर ऑफ़ पैस्टिश वाला दुराव
कहीं न था। गए बरस जब के. बी. और चंपा कुछ दिन शिमला
में बिता कर दिल्ली लौट रहे थे तो उन्हें छोड़ने स्टेशन
चली गई। प्लेटफ़ॉर्म की जगह मैंने समरहिल का टिकट ले
लिया था।
के. बी. बोले – गाड़ी के चलने का वक्त हो गया। अब गाड़ी
से उतरिए।
आपके साथ दिल्ली जा रही हूँ। मेरे पास रिज़र्वेशन है।
और सामान?
ज़रूरत पूरी हो जाएगी।
हम हँसते रहे। एक–दूसरे पर तंज कसते रहे। समरहिल पर गाड़ी
रुकी। मैंने के. बी. और चंपा से विदा ली और नीचे उतरने
को हुई। सामने जयदेव खड़े थे।
जयदेव आप?
हाँ मैं ही।
जयदेव डिब्बे में चढ़े। पहले के. बी. के पाँव छुए। के.
बी. ने बड़े भाई की तरह बाँह से घेर लिया।
चंपा के पाँव मत छूना जयदेव, वह नाराज़ हो जाएगी। मुझसे
बहुत छोटी है।
हम दोनों ने हाथ हिला विदा दी और जयदेव के घर की ओर चल
पड़े।
फिर चाय – टैरेस पर सूर्यास्त। फिर लंबी सड़क से मेरा
घर को लौटना।
'ऐ लड़की' की संगोष्ठी में दोनों सहभागिता कर सके – इसे
लेकर मैं खुश थी। आलोचकीय उष्मा को अपने में जज़्ब कर
रही थी। लंच के बाद एकाएक जयदेव कहीं गुम हो गए। कुछ
ग़लती तो नहीं हो गई। जयदेव की संकोची तुनकमिज़ाजी से हम
सभी वाकिफ़ रहे हैं।
वह लौटे तो चेहरा दमक रहा था। वह सिगरेट की दौड़धूप में
थे। उनकी प्रस्तुति अच्छी रही थी। कार्यक्रम में गुणा
हुई थी और मुझ में संतुष्टि का संचार।
जय किसी सेमीनार के लिए विदेश जाने की तैयारी में थे।
पासपोर्ट पेपर सब सुभीते से मिल चुके हैं। अब
मुख्तसर–सी तैयारी ही बाकी है।
तैयारी।
जयदेव, दिल्ली में इंद्रदेव के घर पर तुम्हारी इतनी
अच्छी देख–रेख होने के बावजूद, धीरज तसल्ली उम्मीदें
सब बेकार लगती थीं।
ऐसी छटपटाहट होती कि गुज़रे हुए बरसों को तुम्हारे आगे
बिछा दें ताकि तुम कुछ देर तो उन पर चल सको।
पर –
(८)
उस शाम आकाश निर्मल था। निथरा हुआ। इतना शुभ धुला हुआ
कि सागर की झलक दे। हम तुम्हारे टैरेस पर से सूर्यास्त
देख रहे थे। रंगों की निराली छिड़कन। घाटी पर छाई ढलते
सूरज की लालिमा पहाड़ी वैभव में छितरी हुई। स्टेशन की
ओर लगे जंगल के साथ–साथ पड़े गमलों में इतराती नन्हीं
कतरीली पत्तियाँ। किस ने इन नुकीली हरी–हरी आकृतियों
को संवारा होगा, आँखों के आगे कुछ ऐसा अपूर्व घट रहा
था जो हम सब के होने से बड़ा था। भव्य था।
तुम अंदर गए और कमरा ले कर लौटे। इस शाम को उतार तुम
इसे स्मृति की डिबिया में संजो रहे थे। जाने क्यों यह
गंभीर क्षण हम में से हर किसी को चुपके–से कह रहा हो
कि ऐसी संझीली सोंधी शामें घटित होती रहेंगी। आँखें
इन्हें देख–देख सुख पाती रहेंगी। पर इस शाम को एक साथ
निहारते हुए हम कभी स्मृति की चिलमन के बाहर कभी अंदर,
बड़े विशाल लैंडस्केप में समरहिल का स्टेशन एक टिमका भर
सामने दीख रही है एक लंबी सुरंग की गोलाई। मुख द्वार
उन सुरंगी अंधेरों का जो सिर्फ़ सुरंग में स्थित होते
हैं। जय, उस शाम तुम्हारे अतिथियों ने जो भी सोचा हो –
यह आभास तो किसी को नहीं था कि जब हम दुबारा लौट कर
शिमला जाएँगे तो तुम्हें वहाँ नहीं पाएँगे।
पर जयदेव लगता है तुम कहीं गए नहीं हो।
तुम हो क्योंकि मैं तुम्हें लिख रही हूँ। बहुत कम अरसे
में, अपने दूर–पास के सीमित कोणों में से जितना–भर देख
सकी तुम्हें – उसे ही दोहराने की यह कोशिश–भर है।
कभी–न–कभी ऐसी कोई सर्विस ज़रूर चालू होगी जिसके द्वारा
गए हुओं को लिखित पहुँच सके।
जय, मेरी डायरी में दर्ज तुम्हारा फ़ोन नंबर झाँक रहा
है। तुम अपनी जगह मौजूद रहोगे। नंबर मिलाने पर तुम
नहीं, सरोज बोलेंगी या अनु या अतुल, उनकी आवाज़ों में
घुली–मिली आवाज़ कुछ–कुछ तुम्हारी भी होगी ही।
तुम कहीं गुम नहीं हुए हो जयदेव, तुम्हारे हस्ताक्षर
कहीं न कहीं से देर तक झाँकते रहेंगे।
अगर शिमला पहुँची तो तुम्हें फिर समरहिल के स्टेशन पर
ही तलाश करूँगी।
गुड–बाइ!
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