दूसरा खिलखिलाकर हँसता
है, उससे कहता है, "आरे बेकूफ, कुँआरी
ना, कटारी, कटारी। गाने भी नहीं आता है।" और वह अपने बेसुरे
स्वर में शुरू हो जाता है,
"तोरा नइहरबा कटारी बहिनिया भौजी"
बाकी लड़के खिलखिलाते हैं
और उनका समवेत स्वर गूँजता है :
"आय हाय, कटारी बहिनियाँ। क्या गाना बनाया है।"
मैं कटारी शब्द का हिंदी-अनुवाद सोचता हूँ, भावनाओं का
अनुवाद नहीं होता। कटारी का मतलब हिंदी में शायद हो तीखे
नाक-नक्श वाली।
कुएँ वाली औरतें कुछ हंसती, शर्माती हैं, पुस्र्ष अपनी
भद्रता में कहते हैं, "ये लड़के बिगड़ गए हैं।"
मैं सोचता हूँ, बसंत आ गया है।
दो बजने को आए हैं, दुपहरिया ढ़लने लगी हैं। मेरे दालान वाले
चबूतरे पर कुछ लोग जमा हो गए हैं। मैं उनसे बातें करने में
मशगूल हूँ, तब तक रंगों की एक पूरी बाल्टी मेरे दालान में
खिड़की के पीछे से आकर बिख़र जाती है। चौकी, हमारे कपड़े,
नीचे का कच्चा फ़र्श, सभी रंगों से भीग जाते हैं। यह अचानक
हुआ हैं, मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, दरवाज़े के भीतर धोबी
जाति की गाँव की एक अधेड़ महिला, जो
मेरी भाभी लगती हैं, खड़ी खिलखिला रही हैं। साथ बैठे कुछ
मित्र नाराज़ होते हैं, कुछ खुश। मुझे हँसी
आती है। मस्ती में कह बैठता हूँ,
"आई ना बाहरा, भीतरी का लुकाइल बानी?
तनी हमहूँ त देखौं कि केतना निमन लाग तानीं।" यानी, बाहर आइए
न, भीतरी क्या छुप रही हैं, ज़रा हम भी तो आपको ठीक से देखें
कि आप कितनी खूबसूरत लग रही हैं।
वे भी चुहल में कम नहीं
हैं।
"मन बात भीतरी आँई, तब नू निमन से
देखब।" यानी, मन है तो भीतर आइए, तब न ठीक से देख पाइएगा।
लोग खिलखिलाते हैं।
कई किशोरियाँ रंग की बाल्टी
लिए, रंगों से सनी, बांस की पिचकारियाँ भरे, मेरे आँगन में
चली जा रही हैं। अंत:पुर में स्त्रियों की खनखनाहट मुखर हो
गई है, रंगों की छप-छप, पिचकारियों का शोर कुछ-कुछ सुनाई
देता है। मैं सोचता हूँ, मेरा आँगन लाल-लाल हो गया होगा, तभी
मेरे गांव के मोहन भैया कहते हैं, "हमरो घरे बोलाहट बा, फगुआ
खेले खातिर, बहुत दिन से अइबे ना कइनी हैं रउआ। मेरी पत्नी
ने भी बुला रखा है फगुआ खेलने के लिए, आप बहुत दिनों से गाँव
आए ही नहीं।"
मैं कहता हूँ, "ओ! जाइल
ज़रूरी बा? अब त सब लोग गावे खातिर आवे लागल बा।" यानी जाना
ज़रूरी है क्या, अब तो सब लोग गाने के लिए जमने लगे हैं, देर
हो जाएगी।
"नाहीं, तुरते चलीं, चल आवल जाई, जले लोग आइहें।" जल्दी
चलिए, जब तक लोग आएँगे, हम लोग चले आएँगे।
मेरे छोटे भाई बाल्टी में
रंग लाते हैं और बाँस की पिचकारी।
मैं कुछ घर छोड़ मोहन भैया के घर पहुँचता
हूँ। उनकी बिटिया, जिसकी शादी उन्होंने पिछले साल की थी,
अपने नैहर आई है। वह आगे बढ़कर मेरा पाँव
छूती है, मैं आशीर्वाद देता हूँ 'खुश रह।' मोहन भैया की
पत्नी अपने कमरे में अंदर लजाती खड़ी है, घंूघट काढ़े। कोई
दस वर्षों से मैंने उन्हें नहीं देखा है, मोहन सिंह ने कोई
पैंतीस साल पहले कलकत्ते के जूट मिल में मजदूर की नौकरी कर
ली थी तब से उसी नौकरी में रहे, कभी-कभी गाँव
आते।
मोहन भैया मौन तोड़ते हैं,
भोजपुरी मिश्रित हिंदी में,
"अब क्या लजाती हैं, सुरेंदर जी आए हैं नू, बहुत रंग लगाने
को कहती थीं, अब लगाइए ना।"
भाभी का मौन टूटता है,
लज्जा मुखर होकर पिचकारी में बदल जाती हैं, और मैं सराबोर हो
जाता हूँ, रंगों में। रंग तो मुझे भी लगाना है म़ैं सारी
बाल्टी उठाकर उनपर उझल देता हूँ। उनका बदन सिहरता है। साड़ी
भींग जाती है।
उनकी बिटिया हम अधेड़ लोगों की यह रास-लीला देख हँसती
है,
"ठीक कइनी ह चाचा, कहिया से कहत रहली ह कि रउआ आइब त अबकी
फगुआ ज़रूर खेलब।" यानी, चाचा आपने ठीक किया, कब से कह रहीं
थीं कि आप आइएगा तो फगुआ ज़रूर खेलेंगी।
और उसके बाद कई घर,
अधेड़-बूढ़ी होती भाभियाँ, रास्ते में मिली रंगों से भरी
लड़कों, लड़कियों की टोली ग़लियों की
धूल रंगों से भर गई हैं, हर आँगन में, दालान में माटी रंग गई
है। मुझे बनारस का वह विक्षिप्त आदमी याद आता है, उसका वह
गीत :
संऊसे सहरिया रंग से भरीं।
मोहन भैया के दालान से
परंपरागत रूप से होली शुरू होती है। वहाँ जमघट होने लगी है।
तासा, ढ़ोलक, झाल और मजीरे की आवाज़ें आने लगी हैं।
लोगों की, किशोर, युवा, अल्हड़, बूढ़े, सबकी लरजती आवाज़
फगुनी बयार पर चढ़कर वातावरण में तैर रही है। मेरे दालान में
आकर वह टोली जमा हुई हैं। मेरे पिताजी अबीर की थाल आँगन से मँगवाते
हैं, सबो को अबीर लगता है, मैं थोड़ी अबीर पिता
जी को लगा, उनके चरण छूता हूँ।
ढोलक, झाल के स्वर
धीरे-धीरे उपर उठ रहे हैं, एक लड़का शुरू करता है :
"शिव बबा, रउरी लाल धजा, देखि हुलसे ला हमरो शरीर आहो शिव
बबा।"
यह भगवान शंकर की प्रार्थना है, शुभ काम ईश्वर की प्रार्थना
से ही शुरू होता है, हे शिव बाबा, आपकी लाल ध्वजा देख मेरा
शरीर हुलस रहा है। एक समवेत स्वर उठता है:
"हो हो शिव, आ हो शिव।
आ हो शिव बबा, रउरी लाल धजा देखि हुलसे ला हमरो शरीर,
हो देखि हुलसे ला हमरो शरीर आ हो लाला हुलसे ला हमरो शरीर..."
गीत की रफ़्तार तेज होती जा
रही है और आवाज़ ऊँची ढोल, तासे की
आवाज़ों में सभी झूम रहे हैं, तासा वाला लड़का खड़ा होकर
नाचने लगा है, तासा ज़ोर-ज़ोर से पीट रहा है। सभी लोग घुटनों
पर खड़े हो, उसकी तरफ़ मुख़ातिब हो, हाथ भाँजकर
गा रहे हैं :
"रउरी लाल धजा, रउरी लाल धजा, देखि हुलसे ला हमरो शरीर..."
लगता है एक तरह का नशा छाया
है सबों पर। ऊपर उठते, नीचे उतरते स्वर, ज़ोर-ज़ोर से, झाल,
मजीरे की आवाज़ें, तासा पीटने की आवाज़ और फिर समापन।
दूसरे गीत से पहले, जगत
भैया सबों को डाँटते हुए कहते हैं,
"ए, तासा ठीक से नइखे उठत," यानी तासा की आवाज़ सही तरीके से
ज़ोर से ऊपर नहीं उठ रही है। मुझे याद आता है, बचपन में जगत
सिंह और भृगुनाथ सिंह दो भाई फगुआ गाने के लिए प्रसिद्ध थे,
उनके बिना फगुआ पूरा नहीं होता था, उसी तरह कैलाश काका और
कपिलदेव भैया। अब कोई नहीं रहे। केवल लखदेव काका हैं, कोई
पचासी के आसपास के अवश्य होंगे, लाठी टेकते आ रहे हैं, इस
उम्र में भी फगुआ के ढोल की पुकार वे अनसुनी नहीं कर पाए।
मैं उन्हें सादर पकड़ कर दालान की सीढ़ियों पर चढाता हूँ, वे
कहते हैं, "गोड़ लागीले महराजी।" यानी पंडित जी प्रणाम। मैं
संकुचित हूँ, सोचता हूँ, मैं उन्हें क्या आशीर्वाद दूँ,
मैं कहता हूँ, "काहाँ रह गइनी ह? हमनी राह देखत रहनी ह?" वे
मेरे पिता जी के पास जाकर दीवार से
सटकर बैठ जाते हैं।
जगत भैया फिर कहते हैं,
तासा ठीक से नहीं बज रहा है, अब मेरे हाथों में वह शक्ति
नहीं है, कोई अच्छा बजाने वाला नहीं है क्या? भोला हजरा, जो
जाति से दुसाध हैं और मेरे बचपन के मित्र हैं, दीनानाथ सिंह
की और मुखातिब होकर कहते हैं, "का हो दीनानाथ, बेइजती करईब?"
उनका कहना है कि दीनानाथ, तुम हम लोगों की बेइज्जति करवाओगे
क्या, अरे तासा सँभालो, और ज़रा फगुआ
जमाओ। दीनानाथ आगे आते हैं, तीस पैंतीस के आसपास के युवा, और
उनके तासा की आवाज़ और नेतृत्व पर पूरी टोली झूमने लगती है।
दर्जनों गीतों पर दीनानाथ हम सबों का नेतृत्व कर रहे हैं, शुरुआत
सबों की बैठकर होती है, पर जब स्वर उठने लगता है तो कोई भी
बैठा नहीं रह पाता, समापन खड़े होकर ही होता है। दीनानाथ
स्वर उठाते हैं:
घरहीं कोशिला मैया करेली
सगुनवा,
बने बने राम जी का बीतेला फगुनवा।
यानी माँ कौशल्या इधर घर में सगुन
करवा रही हैं कि रामचंद्र कब आएँगे और उधर श्री राम बन-बन
में अपना फागुन व्यतीत करने को विवश हैं।
मुझे
याद है, यह मेरी माँ का प्रिय फगुआ
था। जब मैं सेना में था और कभी होली में घर नहीं जा पाता था
तो वह अवश्य गाती थी।
ऐसे ही कितने गीत, भक्ति के, रास के, जीवन के, कछ बानगी
देखें :
"हाथ लिए बेलपत्र के दौरा,
मन से महादेव पूजेली गौरा"
यानी हाथ में बेलपत्र की टोकरी लिए, गौरा-पार्वती महादेव शिव
की पूजा मन से कर रही हैं।
राम
खेले होरी, लछुमन खेले होरी,
लंका में राजा रावण खेले होरी,
अजोधा में भाई भरत खेले होरी।
हंसेला जनकपुर के लोग सभी
हो
लइका राम धनुष कैसे तुरिहें?
यानी जनकपुर के सभी लोग हँस रहे हैं
कि राम तो अभी बच्चे हैं, धनुष कैसे तोड़ पाएँगे?
राधे घोर ना अबीर, राधे घोर
ना अबीर,
मंड़वा में अइलें कन्हइया।
यानी राधा, अबीर घोलो न, कन्हैया मंडप में आ गए हैं।
उठ सइयाँ लीख पांती, भेज
नइहरवा,
झूमक मोरा छूटे हो हो कोहबरवा।
यानी सइयाँ (पति के लिए
भोजपुरी संबोधन), मेरे नैहर एक पत्र लिख दो, मेरा झूमक कोहबर
वाले कमरे में छूट गया है। (झूमक, यानी कान की बाली और कोहबर
उस कमरे को कहते हैं जहाँ शादी के बाद पति-पत्नी एक दूसरे से
पहली बार मिलते हैं।)
नथिया में गुँजवा,
लगा द सइयाँ हो,
मोरा नइहरवा अनारी सोनार-वा।
यानी सइयाँ मेरी नथिया में तुम्ही
उसकी गूँज लगा दो, यानी कस दो, मेरे नैहर का सोनार अनाड़ी
है।
और ऐसे दर्जनों गीत, भक्ति
के, रास-रंग के!
चैत का पहला दिन, साल का
पहला दिन, इसी भक्ति और रास-रंग में बीत गया है, हम दरवाज़े
घूम कर फगुआ गाते रहे हैं, फगुआ अपनी भरी जवानी पर है, रात
भी।
अब रात भी काफी हो चुकी है। मेरा बदन अब काफी थक चुका है,
मैं लौटता हूँ, लड़के अभी भी मस्त हैं।
दूसरे दिन मुझे लौटना है
पटना। सुबह ही, कुछ मित्रों के आग्रह पर मुझे अपने विधायक जी
से मिलने जाना पड़ा। पिछले साल की बाढ़ से बड़ी तबाही हुई
है। गन्ने का उद्योग, जो मेरे इलाके के लोगों के लिए एकमात्र
आधार था नगद पैसों का, पूरी तरह ठप है। बिहार की अराजकता
अपनी चरम सीमा पर है। हमारे विधायक वर्तमान सरकार में मंत्री
भी हैं, अत: उनसे मिलना, मिलकर इन समस्याओं का निदान निकालना
ज़्यादा सार्थक हो, यही मित्रों की आशा है। मुझे ऐसी कोई आशा
नहीं है, पर प्रयत्न आवश्यक है।
हम मंत्री जी के घर पहुँचते
हैं, छपवा चौक। रास्ता पक्की सड़क होकर ही है, जिसपर
रक्सौल-काठमांडू-भैंसालोटन जाने वाला पूरा ट्रैफिक दिनरात
दौड़ता है। सुबह में रास्ते में देखता हूँ, मेरे गाँव
की कच्ची सड़क जहाँ पक्की सड़क से मिलती है, वहाँ देवी का एक
छोटा मंदिर है। पर चूँकि ट्रैफिक
बहुत है, सड़क की दोनों तरफ़ कई दुकानें उग आई हैं। दुकानों
में अलग-अलग रंगों के अबीर के ढेर बिक रहे हैं, रंगों का
मेला, सुबह की धूप में चमक रहा है। 'छपवा और मेरे गाँव
के बीच दो और गाँव हैं, दोनों गाँवों
में सड़क की काली पीठ पर बरन-बरन के रंगों का कोलाज, घरों के
बीच सड़क पूरी तरह रंगों से भरी पड़ी है। रात में खूब फगुआ
हुआ होगा।
हम मंत्री जी के घर के
बरामदे में इंतज़ार करते हैं। मंत्री जी तैयार हो रहे हैं।
थोड़ी देर के बाद मंत्री जी खादी के नए धुले सफ़ेद
धोती-कुर्ते में बरामदे में आते हैं। हमारी बातचीत होती है,
बाढ़ के पानी की निकासी के प्रयत्नों, गन्ने के लिए विदेशी
निवेश आदि पर कोई आधे घंटे बातचीत होती है। मुझे मंत्री जी
की मिलनसारिता, आम लोगों की उन तक पहुँच, समस्याओं के बारे
में उनके कुछ मूल विचार अच्छे लगते हैं।
तभी सामने कोई एक दर्जन लोग
बाल्टी में रंग लिए आते हैं, कुछ रंगों से भीगे कपड़ों में
हैं, कुछ की नंगी पीठ पर ही रंग बिखरे पड़े हैं। मंत्री जी
भाँप जाते हैं कि ये लोग रंग खेलने
आए हैं, लोगों से मिन्नत करते हुए कहते हैं, उन्हें आज ही
पटना जाना है, अत: वे पूरी तरह तैयार होकर जाने के लिए निकले
हैं, कृपया उन्हें रंग न लगाया जाए। अपने इस विनय में वे
मुझे भी ढाल के रूप में प्रयोग करते हैं, "आ हई पंडी जी
अमेरिका से आइल बानी, ई लोग उहाँ रंग-वोंग ना खेले। रहे दीं
सभे, काल्ह फगुआ हो गइल नू।" यानी, देखिए, ये पंडित जी
अमेरिका से आए हैं, ये लोग वहाँ रंग-वंग नहीं खेलते हैं। आप
लोग रहने दीजिए, अरे कल फगुआ हो गया न।"
लेकिन उनकी यह दलील, उनकी
मिन्नत कोई सुनने वाला नहीं है। एक आदमी, आधी फटी बनियान
पहने, रंगों से ढँके चेहरे पर लाल
अबीर लगाए, सामने आते हैं, कहते हैं, "मंत्री जी आज अमिरका
ना, सर्गा से केहू आवे, फगुआ त खेलहीं के बा। आ रउआ पटना चल
जायेब, अबहीं त बेरा बा।" उनकी बात मुझे अच्छी लगती हैं,
मंत्री जी आज अमेरिका ही नहीं, स्वर्ग से भी कोई आए, फगुआ तो
खेलना ही है। और आप पटना चले जाइएगा, अभी तो पूरा दिन पड़ा
है।
और हम पर बाल्टियाँ उझल दी
जाती हैं आज कोई मंत्री नहीं, कोई मजदूर नहीं। फगुआ के रंग
से सबों को नहाना है, 'संउसे सहर' को।
मंत्री जी खाने का आग्रह करते हैं, "पूआ बनल बा पंडी जी,
मगावतानी।" यानी पूआ बना है, मँगवाता
हूँ। ह़मारी परंपरा है होली के दिन पुआ खाने की। मैं नकार
जाता हूँ, लौटना है। मेरी
लौटती यात्रा है, पटना से दिल्ली का जहाज़,
चैत का झक-झक दिन, दाहिनी तरफ़ गंगा जी दीखती हैं, सोन पार
करने के बाद, कोइलवर पुल के उस तरफ़ आरा जिला आएगा अपनी
अक्खड़ता तथा स्वतंत्रता-सेनानी बाबू कुँअर
सिंह के लिए प्रसिद्ध, उनकी वीरता की प्रशंसा में लोग होली
गाते हैं, "बाबू कुँअर सिंग तेगवा
वहादुर, बंगला में उड़ेला अबीर, आ हो लाला बंगला में उड़ेला
अबीर।"
मैं गुनगुनाता, गुनता
चुपचाप बैठा हूँ, सोचता अभी बनारस आएगा, मुझे याद आता है
श्री विश्वनाथ गली का वह विक्षिप्त आदमी और उसका फगुआ संउसे
सहरिया रंग से भरी
कहाँ जा रहा हूँ मैं यह
रंग-भरा शहर छोड़कर -
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