'ब्रिटेन में हिंदी'
संगोष्ठी
प्रवासी भारतीय दिवस से जुड़े
समारोहों की श्रृंखला में एक संगोष्ठी आयोजित की 'द बुक मार्क'
ने। 'ब्रिटेन में हिन्दी'। इस संगोष्ठी में डॉ लक्ष्मीमल
सिंघवी, केसरीनाथ त्रिपाठी और डॉ अशोक चक्रधर के अतिरिक्त
ब्रिटेन से आये हुए, डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव, पद्मेश गुप्त,
उषा राजे, शैल अग्रवाल और तितिक्षा शाह ने अपने विचार व्यक्त
किये। संगोष्ठी का संचालन ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक श्री
दिनेश मिश्र ने किया। गोष्ठी की शुरूआत में श्रीमती शैल अग्रवाल
ने बताया कि विगत 45 वर्षों से हिन्दी को लेकर जो सरगर्मी
बढ़ी है वह हमारे साझे प्रयत्नों का परिणाम हैं। विभिन्न
संस्थाएं यहां हिन्दी का कामकाज देखती है और सबसे अच्छी बात यह है
कि सभी में एक समन्वय की भावना है। श्रीमती उषा राजे सक्सेना
ने विस्तार से बताया कि ब्रिटेन में यू के हिन्दी समिति लंदन
में और भारतीय भाषा संगम यॉर्क में जहां साहित्यिक काम कर
रही हैं वहीं हिन्दी शिक्षण का कार्यभार भी उठा रही है।
बर्मिंघम की 'गीतांजलि
बहुभाषाभाषीसमुदाय' की ओर से इस बार 'ज्ञान प्रतियोगिता'
का आयोजन किया गया और ब्रिटेन से कई विद्यार्थियों को भारत
भ्रमण के लिये भेजा गया। उनमें भारतीय मूल के अतिरिक्त
ब्रिटेन के छात्र भी थे, उन छात्रों में हिन्दी पढ़ने की ललक के
विविध कारणों का हवाला दिया गया। लंदन की केट सुलीवॉन
कहती हैं कि वे भारतीय संस्कृति को जानना चाहती हैं इसलिए
उन्होंने हिन्दी पढ़ना शुरू किया। आमिशाह कहते हैं कि वे विश्व के
अधिकतम लोगों तक पहुंचना चाहते हैं इसलिए हिन्दी पढ़ने में
उनकी रूचि है। ग्रैब्रियल सिंगर फिल्म और संगीत के कारण हिन्दी के
प्रति आकर्षित हुये। नीरज पॉल भारतीय संस्कृति को गहराई से
जानने के लिए एवं भारत का इतिहास समझने के लिए हिन्दी पढ़ रहे
हैं। जेसिका बाथ ब्रिटेन और भारत के बीच ऐतिहासिक संबंधों
में जिज्ञासा रखती
हैं। अनेक कारणों से ये छात्र भारत में आकर
हिन्दी को एक जीवंत लोगों की भाषा के रूप में जानना चाहते
हैं।
श्री पद्मेश ने सभागार में उपस्थित
लोगों से आह्वान किया कि वे यहां ऐसे विद्यार्थियों के लिये
आतिथ्य की व्यवस्था कराएं, क्योंकि सरकारी प्रयत्न हर बार न तो
मुमकिन है और न उनके लिए औपचारिकताएं पूरी कर पाना सम्भव हो
पाता है। उन्होंने ब्रिटेन की दूसरी सहयोगी संस्थाओं का हवाला
दिया और बताया कि भारतीय विद्या भवन के अतिरिक्त आर्य समाज,
हिन्दू कल्चरल सोसायटी, भारतीय ज्ञानदीप लंदन में सक्रिय है,
सरे में महालक्ष्मी सत्संग मंदिर और बालभवन, मिडलैण्डस्
में कृति यू के और गीता भवन का योगदान उल्लेखनीय है।
मैन्चेस्टर में भारतीय विद्या भवन और नॉर्दन आयर्लेण्ड इंडियन
कम्यूनिटी सेंटर, कला निकेतन आदि संस्थाएं हैं जो हिन्दी के
कामकाज को लगातार बढ़ा रही है।
डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने बताया कि
वे लगभग 42 वर्ष पहले लंदन गये थे। तब विश्वविद्यालय में
हिन्दी अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही थी क्योंकि हिन्दी पढ़ने
के लिये कोई आगे आता ही नहीं था। बाहर जाने के बाद
भारतवासी अपनी प्रांतीय भाषाओं को सीखना ज्यादा जरूरी समझते
हैं इसलिए गुजराती, बंगाली, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड,
मलयालम की कक्षाएं तो होती हैं और विद्यार्थी मिलते हैं लेकिन
हिन्दी के प्रति जिज्ञासा नहीं दिखती थी। जब विश्वविद्यालय के
पाठ्यक्रम से हिन्दी निकाल दाी गयी तो सत्येन्द्र जी ने रोते मन
से इस कड़वे सत्य को स्वीकार किया लेकिन उन्होंने बताया कि डॉ
लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के उच्चायुक्त बनने के बाद फिरसे एक नयी
हवा आयी और छठे विश्वहिन्दी सम्मेलन से बाद हिन्दी का कामकाज
ब्रिटेन में बढ़ने लगा और जिन लोगों ने हिन्दी के विकास
में प्रमुख योगदान दिया उनमें हैं के बी एल सक्सेना, पद्मेश,
उषा राजे, तितिक्षा, अनिल शर्मा, डॉ के के श्रीवास्तव, कृष्ण
कुमार महेन्द्र वर्मा, डॉ रूपर्ट स्नेल, दिव्या माथुर, तेजेन्द्र
शर्मा, शैल अग्रवाल, प्रफुल्ल अमीन आदि। बीबीसी लन्दन में
हिन्दी सेवा में कार्यरत अचला शर्मा भी एक लम्बे अर्से से हिन्दी
को बढ़ावा दे रही हैं, गौतम सचदेव और गुलशन खन्ना भी रचनात्मक
योगदान देते हैं।
तितिक्षा
शहा ने कहा कि भाषा को संस्कृति से अलग नहीं किया जा सकता
इसलिये जितने भी सांस्कृतिक आयोजन हम ब्रिटेन में बढ़ाते
हैं, बढ़ाने का प्रयास करते हैं, उतनी ही हिन्दी आगे बढ़ पाती है।
ज्ञान प्रतियोगिता के जरिये भेजे गये छात्र जब लौटकर भारत
से पहुंचते हैं तो कड़वी, मीठी बहुत तरह की अनुभव थैलियां
लेकर आते हैं। यह एकपक्षीय मार्ग नहीं होना चाहिए, यहां भी
उतनी ही ऊष्मा से उन्हें स्वीकार किया जाय जितनी ऊष्मा लेकर वे
वहां से चलते हैं, तो हिन्दी तेजी से प्रगति कर सकती है।
डॉ अशोक चक्रधर ने अपने रोचक
मनोरंजक लंबे वक्तव्य में बताया कि सन् 60 से लेकर अब तक
प्रवासी भारतीयों के बीच कई युग रहे हैं। एक युग था चिठ्ठी की
गंध का युग जब 'चिठ्ठी आई है वतन से चिठ्ठी आयी है' गाना
सुनकर लोग अश्रुधारा बरसाने लगते थे। चिठ्ठी पढ़ते ही नहीं थे
बल्कि सुनते थे और उसमें अपने वतन को महसूस करते थे। इसके
बाद दूसरा युग आया जब थोड़ाथोड़ा पैसा 70 और 80 के बीच
में लोगोंने इकठ्ठा किया और भारत आने का सिलसिला चल
निकला, तब मिट्टी की सुगंध उनको देश में बुलाती थी। अब यह
तीसरा युग भी पूरा हुआ जिसमें मिट्टी की सुगंध और मिट्टी की
दुर्गंध, दोनों जानने के बाद यथार्थ की धरातल पर मन करता है
कि जिस भूमिपर बचपन बीता, जहां से स्मृतियां जुड़ी हुई हैं,
जहां रेखाएं खींचकर गिट्टी खेली गयी उन स्थानों पर कुछ निर्माण
कार्य हों। इनकी पैतृक स्मृतियां अक्षुण्य रहे इसलिए भारत में हर
प्रकार का खेल खेलने का मन करता है। व्यवसाय का, रोजगार का,
आयातनिर्यात का तो यह एक गिट्टी युग का समापन है जहां एक
टांग से कूद कर अगले आयत में जाना होता है और सारे आयत पार
करने के बाद गिट्टी बिना पीछे मुडे़ और बिना पीछे देखे फेंकी जाती
है। सही खाने में भी गिर सकती और गलत में भी। और जब गलत
खाने में गिर जाती है तो वो सिट्टी पिट्टी गुम की गंध में खो
जाती है। अभी हम सिट्टी पिट्टी गुम की गंध में हैं जहां इंडियन
डायोस्पोरा से भारत भूमि के संबंधों को बढ़ाने में भाषा की
अहमियत को दरकिनार किया जा रहा है।
डॉ सिंघवी ने इस बात को आगे
बढ़ाया और कहा कि वस्तुतः एक युग और आना चाहिये जिसे हम
कहें 'घुट्टी की गंध' का युग। अब हमें बालकों को घुट्टी में
जैसे दवाई दी जाती है उसी प्रकार घुट्टी में हिन्दी देनी पड़ेगी।
और इसके लिये ऐसे पाठ्यक्रमों और ऐसी पाठ्यसामग्री का
निर्माण करना होगा जो उनके अनुकूल हो। सभागार में उपस्थित
डॉ श्यामसिंह शशि और डॉ कमल ने कहा कि केन्द्रीय संस्थान और
हिन्दी की अनेक संस्थाओं ने इस प्रकार की सामग्री बनायी है,
लेकिन परिचर्चा के दौरान डॉ पद्मेश का कहना था कि वह सारी
सामग्री हमारे पास पहुंचती जरूर है लेकिन हमारे किसी काम की
नहीं होती क्योंकि उसमें वहां की आवश्यकताओं को ध्यान में
रखकर सामग्री का चयन, संकलन नहीं किया जाता है। पहले वहां की
आवश्यकताएं समझी जायें और इसके बाद सामग्री का निर्माण हो।
डॉ केशरी नाथ त्रिपाठी ने कहा कि हिन्दी
को वस्तुतः उपयोगितावादी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। जो भाषाएं
हमारी उपयोग में आती हैं उन्हें हम सीखना चाहते हैं गुजराती,
मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड हमारे घर में बोली जाती हैं
इसलिये बच्चों की आवश्यकता बन जाती है कि घर में बेहतर बोल
सके इसलिये बाहर पढ़ कर आयें। हिन्दी अप्रत्यक्ष माध्यमों से सीखी
जाने वाली भाषा है। औपचारिक रूप से उसको बेहतर ढंग से
पढ़ाये जाने की व्यवस्था अभी तक नहीं हुयी है। गोष्ठी काफी देर तक
चली और लोगों ने उम्मीद की कि ब्रिटेन में हिन्दी सेवी एकजुट
होकर कुछ ऐसा करेंगे जिससे कि विदेशों में बसे भारतीयों
में हिन्दी के प्रति जागरूकता बढ़े।
डॉ चक्रधर ने इस बात को भी
रेखांकित किया कि वे दुनिया भर में घूमें हैं और उन्होंने देखा
कि अमेरिका में जो संस्थाएं हैं वे आपस में इस स्पर्धा के रहते
एकजुट नहीं हो पाती। इन्डोनेशिया, सिंगापुर, बॅन्कॉक,
हॉन्कॉन्ग इत्यादि में जो हिन्दी के समारोह होते हैं वे
मनोरंजनधर्मी कविसम्मेलनों से उपर नहीं उठ पाते। गल्फ में
हिन्दी उर्दू का सम्मिलित रूप देखने को मिलता है लेकिन वहां भी
समारोहों में मनोरंजन धर्मी समारोह अधिक होते हैं। अकेला
ब्रिटेन हैं जहां पूर्वी साहित्य की गंभीर गतिविधियों को सब
मिलकर सम्पन्न करते हैं। |