कुछ दिनों में रेडियो पर उनका
पहला प्रोग्राम आया। उसी दिन शाम को हमारे घर आते
समय वे सूजी हलवा की एक पोटली लाये। पिताजी को दी,
"मां के हाथ का बनाया हुआ है। आपको देने के लिए अभी
कुछ देर पहले बनाया गया। आप ही के प्रयत्न और
प्रोत्साहन से यह कार्यक्रम संपन्न हुआ। नहीं जानता
कि मैं अपनी कृतज्ञता किन शब्दों में और कैसे प्रकट करूं।"
उनकी वाणी गद्गद् हो उठी।
"ऐसा मत कहें। आपमें क्षमता हैं। परिश्रमी
हैं। आपकी विद्वत्ता के कारण ही यह अवसर मिला
है। आपका भविष्य बहुत अच्छा और उज्ज्वल होगा।
मुझे पूरा विश्वास है।"
पिताजी आत्मीयता के साथ विद्वान की प्रशंसा करने लगे।
गुरूजी इससे अधिक प्रभावित और भावुक हो गये। कहा, "आपका
आशीर्वाद हो, वही पर्याप्त है।"
आर्थिक दृष्टि से उनकी
स्थिति शोचनीय थी। मुश्किल से घर–बार चलता था।
कभी–कभार ट्यूशन की फीस अग्रिम के रूप में बहुत संकोच के
साथ मांग लेते। कभी राशन का चावल, शक्कर आदि भी।
उनके घर में उनकी मां,
पत्नी ललिता और तीन वर्ष की बिटिया थी। नवरात्रि का
त्योहार आया। मां ने उन्हें एक दिन न्योता दिया।
"ललिता को इन दिनों में कभी हल्दी–कुंकुम के लिए साथ
लाइए।"
गुरूजी की पत्नी उतने गौर
वर्ण की नहीं थी, फिर भी चेहरा आकर्षक था।
"गीत गा सकती हो?" मां ने प्रश्न किया।
"विवाह के पहले गाया करती थी। फिर छोड़ दिया।
सब भूल चुकी हूं।"
"समझी नहीं!"
"विवाह के पूर्व जब ये 'लड़की' देखने के लिए आये तो मैंने
मरकतवल्ली का गीत गाया। उस गीत में कहीं गलती हो गयी
तो क्रोध में दांत पीसने लगे। विवाह के बाद ससुराल
आते समय मायके में ही श्रुतिबक्स ऊपर अटाली में छोड़कर चली
आयी। संगीत कला का लक्ष्य आनंदप्राप्ति है।
मुझे तब डर हो रहा था कि कहीं मेरे संगीत ज्ञान के कारण
वैवाहिक जीवन में झगड़ा उत्पन्न न हो। और हां, ये तो
सिद्ध गायक हैं ही। मुझे गीत गाने की क्या आवश्यकता
है?" सहजभाव से हंसते हुए ललिता ने कहा।
पिताजी के प्रयत्नों से
गुरूमूर्तिजी के लिए 'अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र' में एक
संगीत–कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
जब तक मुहूर्त और सुअवसर
न आये, तब तक ही चिंता और व्यग्रता। एक बार अवसर हाथ
आये, फिर एक के बाद एक अवसर आते ही रहेंगे। है न बात
सच? गुरूमूर्तिजी का संगीत कार्यक्रम सुनने के लिए
ऋषिकेश से दक्षिण भारत के एक स्वामीजी आये थे। वे
गुरूजी की कला और विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उनसे
संबंध जोड़ लिया। अपने आश्रम के प्रार्थना गीतों के
लिए राग और लय मिलाकर उन्हें कैसेट में रेकॉर्ड करके सौंप
देने की प्रार्थना की। यह गुरूत्तर दायित्व का कार्य
गुरूजी ने अत्यंत श्रद्धा भक्ति से किया। बस, भाग्य
चमकने लगा। फिर एक समारोह में एक जाने–माने
राजनीतिज्ञ के हाथों उस कैसेट का विमोचन किया गया।
यश और धन का मार्ग एक साथ खुल गया।
पहला कैसेट ही हजारों की
संख्या में बिक गया। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक
घटना थी।
शादी के अवसरों पर
संगीत–कार्यक्रम के लिए इन्हें निमंत्रण दिये जाने लगे।
साथ ही दूरदर्शन से भी निमंत्रण मिला। इस तरह बहुत
छोटी–सी कालावधि में ही वे अत्यंत प्रसिद्ध हो गये।
मेरी परीक्षाएं निकट आ
रही थीं। इसलिए संगीत अभ्यास अस्थायी रूप से स्थगित
किया गया।
अपनी शादी का निमंत्रण
देने के लिए मोतीबाग की अपनी एक सहेली के घर मुझे खुद जाना
पड़ा। वापसी पर गुरूजी के घर पर भी गयी। देखा,
वहां एक नये किरायेदार थे। उनसे पता चला कि
गुरूमूर्तिजी मुनिरका में एक नये घर में चले गये हैं।
उन्होंने मुझे पता भी दिया।
मैंने बात वहीं नहीं छोड़ी।
पता खोजकर मुनिरका पहुंची।
गुरूमूर्तिजी की पत्नी से ही मिल पायी। उनके हाथों,
गले और कानों पर सोने के आभूषण जाज्वल्यमान थे लेकिन मुंह
की स्वाभाविक कांति और शोभा गायब! उसकी जगह
शोकमुद्रा और रूखापन स्पष्ट था। नयनों में एक तरह की
घबराहट थी। बातचीत में थी वह आत्मीयता या सहजता नहीं
थी। सहमते हुए बाते कीं। गैस, स्टोव, टेबल
फैन, टेलीविजन आदि सभी सुविधाएं वहां पर थीं। घर में
नयी रौनक थी।
मन की बात जबान पर आयी।
मैंने कहा, "लगता है, गुरूजी की उन्नति बिजली की तेज गति
से हो चुकी है। मैं बहुत खुश हूं।"
उन्होंने दीर्घ श्वास छोड़ा। थोड़ी देर के बाद कहने
लगीं, "साथ ही कुछ अवांछनीय आदतों के शिकार भी बने हुए
हैं। कल शराब के नशे में घर आये, एकदम हलचल मचा दी।
असह्य वेदना हुई। क्या से क्या हो गये हैं?
कैसी दुर्गति! अपनी बेटी से यों मारपीट की कि कुछ
कहते नहीं बनता है। पता नहीं कब और कहां जाकर यह सब
समाप्त होगा। मैं बहुत तंग आ गयी हूं।"
"चिंता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा।"
"खाक ठीक होगा! मुझे अब कोई आशा नहीं। मन किसी
पर विश्वास नहीं करता। श्यामला! तुम्हारे पिताजी को
इनके प्रति अत्यंत श्रद्धा भक्ति है। तभी तुम्हारी
शादी के सिलसिले में रिसेप्शन में इन्हें गायन की
प्रार्थना करने के लिए यहां तक आये। आज वह जो
कुछ हैं, यश और कीर्ति –– तुम्हारे पिताजी द्वारा दिखाये
गये मार्ग के कारण ही हैं। उन्हीं के प्रोत्साहन और
सिफारिश के कारण ये इतना नाम कमा सके। धन, मौका सबके
पीछे उन्हीं की कृपा है। उनके प्रति कृतज्ञ होना
चाहिए है कि नहीं? लेकिन तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा
कि ये अपने अहं के कारण उन्हें भूल चुके हैं। उनके
मुंह पर ही साफ इन्कार कर दिया। कैसी धूर्तता?
मुझे तो ऐसा हुआ कि धरती फट जाए और मैं वहीं समा जाऊं!
छिः ऐसा भी कोई करता है? वे कितने बड़े व्यक्ति हैं;
घर आकर इन्हें बुलाया! पर इनका यह दुर्व्यवहार!
मैं कभी इन्हें क्षमा नहीं करूंगी। मैं हार गयी हूं।
दिल टूट गया है। इन्हें क्या हो गया? क्यों
मुझ पर ऐसा बीत रहा है? " कहते–कहते वे रो पड़ीं।
गला रूंध गया।
पिताजी ने यह बात मुझे
नहीं बतायी थी। जिस गुरूजी को महान संगीतज्ञ और
विद्वान समझ रखा था, उन्हीं के हाथों उनकी वह छवि टूटे यह
शायद पिताजी बर्दाश्त न कर सके। उन्हें भारी दुःख
हुआ होगा और यह बात मन ही मन दबाकर चुप हो गये होंगे।
मैंने यही सोचा।
मेरी शादी दिल्ली में ही
संपन्न हुई। परंतु गुरूमूर्तिजी के घर से कोई नहीं
आया।
कभी–कभार जान–पहचान के या
परिचित लोगों का संबंध वैसे ही बीच में रूक जाता है जैसे
कि रेलगाड़ी में यात्रा के दौरान उत्पन्न होनेवाला
स्नेह–संबंध। यह बात भी वैसे ही भुला दी
गयी।
कभी फुरसत मिलने पर गाने
का मन होता तो गुरूजी की याद आती। गाने लगती तो उनकी
मधुर आवाज स्मरण हो आती। दिल दुखने लगता।
मां ने एक बार एक चिठ्ठी
में उनके बारे में कुछ लिखा था। वे आजकल बड़े आदमी
बन गये हैं। समाज में जाने–माने हो गये तो हमें
पहचानते नहीं। शायद शर्म आती होगी! मधुरगीत के
पांच–छः कैसेट, हिंदी भजन के दो कैसेट उनके निकल चुके
हैं। सुनने में आया कि उनका 'रेट' भी, ट्यूशन के लिए
चार सौ रूपये से कम नहीं हैं। एक बार, अभी हाल ही
में, एक शादी के रिसेप्शन में मैं और तुम्हारे पिताजी
दोनों गये। उनका संगीत–कार्यक्रम था। बड़े चाव
के साथ बैठे रहे। रात के सात बज चुकने पर भी
वे मंच पर नहीं आये। बड़ी देर से जब आये, नशे में
लड़खड़ाते रहे। सारा शरीर कांप रहा था। हमें
बहुत दुःख हुआ। हमने घर की राह ली। बाद में मालूम
हुआ कि गुरूजी ने विद्वान के हाथ से वायलन उठा लिया था और
घुमाते हुए आक्रोश और अट्टहास के साथ खलबली मचा दी थी।'
यश अपने आप में एक नशा
है। . . .उस पर शराब के नशे की क्या जरूरत है?
कहीं पढ़े हुए ये वाक्य मुझे याद आये, "जिंदगी में सफलता
से मैं घबराता हूं, क्योंकि वह मुझे भी परिवर्तित कर
देगी।'
अंग्रेजी के एक–दो साप्ताहिक, मासिक पत्रिकाओं में
गुरूमूर्तिजी की विद्वत्ता की आलोचना पढ़ने को मिली।
साथ ही इतर समाचार भी .. . .।
दो वर्षों के बाद
छुट्टियों के दिन माता–पिता से मिलने पति और बच्चों के साथ
मैं दिल्ली आयी।
कनॉट प्लेस का चक्कर काटे
बिना दिल्ली घूम आने का मजा कैसे? हम सब एक
दिन वहां गये। खरीद–फरोख्त के चक्कर में इधर–उधर
बिखर गये।
पुस्तक की एक दूकान के
सामने 'वे' खड़े थे। सर के बाल सफेद; मुंह पर
झुर्रियां; आंखें काली और अंदर धंसी हुई। और
साथ ही एकदम लाल!
एक क्षण के लिए
दुविधा हुई, "बोलूं या नहीं?"
तुरंत . . . .
"जी! नमस्कार!"
"कौन? पहचान न पाया।" –– खुरमुरी आवाज में
प्रश्न किया। 'उनकी वह मधुर आवाज कहां चली गयी?'
"आपकी शिष्या श्यामला।"
"आहा! ला मिनिस्ट्री के श्री रामस्वामीजी की बेटी!
माता–पिता कुशल तो हैं न?"
अप्रत्याशित, यह कुशल–क्षेम का प्रश्न मेरे लिए आश्चर्य की
बात थी।
"हां जी! सब सकुशल हैं।"
"तुम कहां रहती हो?"
"जयपुर में।"
मेरी नजर उनकी गंदी धोती, कुरते पर टिकी थी।
"जी! क्या आपकी तबीयत खराब है?"
"नहीं! तबीयत तो ठीक हैं। लेकिन मन टूट गया
है।" . . .हमें आगे उन्नति करनी है। बढ़ना है।
लेकिन अहं को बढ़ने नहीं देना है।' ललिता ने मुझे
यही समझाने के लाख प्रयत्न किये। सब व्यर्थ।
आखिर दम घुटकर रोगग्रस्त होकर वह चल बसी! उसके भी
पहले . . .प्यारी बेटी थी। एक दुर्घटना के
कारण छह मास तक की खींचातानी रही . . .और फिर सब
खतम। बस अब साथ में मांजी हैं। पगली–सी हैं।
हमें सुखी रहने के लिए तो यश और धन चाहिए न? लेकिन
जब वे मिल जाते है तब चैन–सुख दूर चले जाते हैं।
सुख–शांति के लिए लालायित होकर मन भटकने लगता है।
लेकिन . . .नहीं . . .। मुझे कुछ भी समझ
में नहीं आता। जब उस दिन की याद करता हूं जब सारे
संसार को अपनी मुठ्ठी में समझता रहा, बहुत ग्लानि होती है।
क्या हो गया था मुझे। अहं? लज्जित होता हूं कि
क्या ऐसा मदोन्मत्त व घमंडी था? बड़ी आत्मीयता और
श्रद्धाभक्ति के साथ कत्तनुवारिकी गीत गाकर प्रसन्न
होनेवाला 'गुरूमूर्ति' कभी का नष्ट हो चुका है। साथ
ही और क्या–क्या नष्ट हो गये –– यह हिसाब–किताब अभी पूरा न
कर पाया हूं।
"संगीत–साम्राज्य के शासक
सप्तस्वर हैं। आरोहण और अवरोहण में उन स्वरों को
निर्दिष्ट स्थान पर ही ध्वनित होना है। अगर
स्थानांतरण हो जाए और आरोहण के ऊपर अवरोहण के स्वर गायें
जाएं तो असंगति है; अपस्वर हो जाएगा। है कि
नहीं? वैसे ही मानव को चाहिए कि वह उन्नति, अवनति
में समरस भाव और एक मन के साथ समाज में व्यवहार करे।
स्थानांतरित स्वर की भांति अपने जीवन के अपस्वर का कारण
स्वयं मैं ही हूं। आजकल संगीत कार्यक्रम, ट्यूशन कुछ
नहीं हैं। आखिरी कैसेट जो निकला, उसकी बिक्री भी
संतोषजनक नहीं। अपनी तबाही का कारण मैं ही हूं!
सिर्फ मैं! उत्तरोत्तर उन्नति करते जाते समय सदा
ऊंचाई की ओर ही नहीं, नीचे भी झुककर देखना है। नहीं
तो मेरी तरह पांव फिसलकर गर्त में . . .अधोगति की ओर
. . .। पिताजी से कहना कि एक दिन उनसे मिलने आऊंगा।"
और गुरूमूर्तिजी विदा लेकर चले गये।
पीछे से तभी मेरे पति इस ओर आ रहे थे। नजदीक आने पर
पूछा, "कौन हैं ये? जो अभी जा रहे हैं?"
"टूटा हुआ एक स्वर है।"
मेरे पति को यह बात समझ में नहीं आयी होगी।
|