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कक्षा में हमेशा हम सभी छात्राएं एक साथ सामूहिक रूप में ही गाती थीं।  फिर भी तब कोई चारा न था।  इसलिए जैसे–तैसे डरते हुए गाने लगी।  भय और उलझन के कारण तीन जगह पर ताल गीत ठीक नहीं थी।  इस पर गुरूमूर्तिजी 'रूद्रमूर्ति' बन गये।  मुझे एकटक घूरने लगे।  बस, मैं कांपने लगी।  आवाज रूंध गयी।

सच कहूं तो बात यह कि उन दिनों संगीत सीखने में मुझे विशेष रूचि या लगन नहीं थी।  जब मद्रास में थी, मैलापुर के एक घर के 'आउट हाउस' में कोई वृद्धा नारी संगीत पाठशाला चलाती रही।  मां के आग्रह के कारण मुझे भरती होना पड़ा था।

दिल्ली आने के बाद 'गुरू परिवर्तन' हो गया।

एक वर्ष के बाद मां की दौड़धूप के परिणामस्वरूप सभा से गुरूमूर्तिजी को भेजा गया था।
खैर!  . . .
"किसने सिखाया!  ताल बेताल है!"
"  . . ."
"ताल मिश्रचाघु बजाओ।"
"  . . ."
"नहीं मालूम!  जाने दो!  ताल 'रूपकम्' ही सही!"

मेरी आंखें सजल हो गयीं थीं।  उन्होंने देख लिया तो गुस्से के साथ स्वयं जोर से हाथ फर्श पर ताल मारा  . . .टक, टक  . . .।
"यह है रूपकम्, समझीं।"
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।  सिर उठाकर उन्हें देखने का भी साहस नहीं हुआ।
"सुनो!  स्थिति ऐसी है कि तुम्हारे लिए अब मुझे प्रारंभ से, याने सरलि वारिसै से संगीत–पाठ सिखाने पड़ेंगे।"
एकदम चौक पड़ी।  कहां मेरे कीर्तन  . . .और यह सरलि वरिसै।  बाप रे!  मुझे रोना आया। 
"सर!"  धीरे–से मुंह खोला कि नहीं, वे बोल पड़े, "संगीत शास्त्र के लिए राग, भाव और ताल तीनों ही अपेक्षित हैं।  ' रिद्म एंड बीट' दोनों अभिन्न और अन्योन्याश्रित होने पर ही संगीत की शोभा बढ़ती है।  यह भी नहीं मालूम!  बिना सही नींव रखे पचास कीर्तन सीखकर हवाई महल बनवाने का साहस किसने किया?"

गुरूमूर्तिजी चले गये।  उनके जाने के बाद घर में तूफान उठा।
"मुझे इस गुरूजी से संगीत सीखना नहीं।"  मैंने हठ ठान लिया।  "कौन पुनः अ, आ, इ, ई, से  . . . 'सरलि वरिसै' से सीखे? नहीं  . . .मुझसे यह नहीं होगा।"
"उन्होंने यों ही मजाक किया होगा।"
पिताजी यों ही मजाक किया होगा।"
पिताजी ने गुरूमूर्तिजी का पक्ष लिया।  "यही नहीं, तुम्हारे लिए भी तो अपनी गल्तियों को सुधार लेना अच्छा ही है।"
अब मां की बारी थी।
"तो क्या?  . . .इस विस्तार में  . . .इतनी गहराई में जाने की क्या आवश्यकता है?  हमारी बेटी को तो रंगमंच पर संगीत कार्यक्रम थोड़े ही देना है।  कल जब विवाह की बात उठेगी, तो चार गीत गाने होंगे?  बस!  इतना ज्ञान काफी है।"
"मुझे यह संगीत कला, अभ्यास, ब्याह कुछ नहीं चाहिए।  मुझे चैन से रहने दें।"
"हां! हां!  सदा सर्वदा हाथ में कहानी की कोई किताब लेकर चुपचाप बैठी रहो, वही चाहिए।" –– मां को अच्छा संदर्भ मिला मुझे कोसने का।
लेकिन इधर मेरा हठ भी कमजोर नहीं हुआ।
आखिर  . . .
निर्णय हुआ कि पिताजी सभा के सचिव से फोन पर बात करेंगे।  दूसरे किसी संगीतज्ञ का प्रबंध करने की प्रार्थना भी की जाएगी।  सबको यह स्वीकार्य था।

अगले दिन पिताजी शाम को दफ्तर से सभा गये।  जब वापस आये जरा देर हो चुकी थी।  ऐसा समाचार लाये, जिसे सुनकर पहले तो मेरा मन किल्लोलें करने लगा।  परंतु तुरंत अंतर्मन में एक वेदना  . . .कसक भी हुई।
पिताजी ने बताया, "पता चला कि गुरूमूर्तिजी का स्वभाव ही कुछ ऐसा है।  जहां भी जाते, ऐसे ही शास्त्र, संप्रदाय, रूढ़ि आदि की बहस करते हैं।  अंत में बात बिगाड़कर या खुद रूठकर चले जाते हैं।  यह भी सुना कि इसके पहले भी उनके बारे में अनेक शिकायतें पहुंची थीं।  और इन सबके कारण आज उन्हें सभा से ही निकाल दिया गया है।"

आत्मग्लानि से मैं अंदर ही अंदर कुढ़ती रही।
'जो लोग कर्तव्यपरायणता से पूरी निष्ठा और लगन के साथ कार्यरत होते हैं, उन सबकी क्या यही दुर्गति होगी?'  सोचा।  फिर भी मन जरा शांत हो रहा था यह सोचकर कि 'मेरी वजह से उन्हें सभा से निकाला नहीं गया।'

कुछ दिनों के बाद   . . .एक शाम को मैं घर में अकेली थी।

मां–बाप गणेशजी के मंदिर में प्रवचन–कार्यक्रम सुनने के लिए गये हुए थे।
दरवाजे पर घंटी बजी।  दरवाजे के पास जाकर उसमें लगे छोटे 'लेंस' के सहारे उस पार देखा।  गुरूमूर्तिजी खड़े थे।  मैंने दरवाजा नहीं खोला।  अंदर से ही जोर से कहा, "मां–बाप नहीं हैं।"
"बेटी!  जरा दरवाजा खोलो!  कुछ बातें करनी हैं।"
दरवाजा खोलकर मैं कुछ दूर जा खड़ी हुई।  वे अंदर आये।  कुछ झेंपते रहे।
"बैठिए।"
"थैंक्स!"  कहते हुए वे बैठ गये।
"देखो बेटी!  . . ."
"जी!  मेरा नाम श्यामला है।"
"उस दिन जब आया था, तुम्हारा नाम तक नहीं पूछा।  हूं  . . .अगली ट्यूशन के लिए देर हो जाएगी –– इसी जल्दबाजी में था।  लेकिन, देखो!  कोई भी इस पर गौर नहीं करता कि कितना सच्चा हूं।  कितना कर्तव्यपरायण हूं।  कर्मठ हूं!  . . .हां, जमाना बहुत बदल गया है।  आजकल तो सच बोलने के लिए भी दाम चुकाने की नौबत आ गयी है।  पैसा लेकर राग 'कल्याणी' हो या राग'काम्वोदी'  . . .कुछ अंतर देखे बिना जो आगे बढ़ते हैं, उन संगीत–विद्वानों में मैं नहीं हूं।  मेरे अपने सिद्धांत है।  शुद्ध मन और शुद्ध कार्य का मैं पक्षधर हूं।  मेरी यही अभिलाषा है कि लोग कह सकें कि "यह अमुक विद्वान की शिष्या है।  इच्छा है कि मेरी एक विशिष्ट रीति हो।  रसिक जब दूसरों से उस रीति को अलग रूप से पहचान सकें और कहें कि 'वह बहुत बढ़िया है।'  एक यही आशा लिए जीता हूं कि शिष्यों से गुरूजी को गौरव बढ़े।  . . .आयी बात समझ में।"
"सुनो श्यामला!  उस दिन मैंने जो  कुछ कहा था, बुरा मत मानना!  तुम रसोईघर में गाओ या भगवान की मूर्ति के समक्ष दीप जलाकर भजन–कीर्तन करो, गीत–गायन की परिपाटी का स्तर अच्छा होना चाहिए।  त्यागराज भागवतर ने 'राग तोड़ी' में एक कीर्तन  रचा है।  उसका भावार्थ है :
"निद्रा त्यागकर प्रातःकाल उठकर, तंबूरा बड़े प्यार से बजाते हुए सुस्वर, श्रुतिलय के साथ, पवित्र मन और श्रद्धाभक्ति के साथ, जो तुम्हारा रामकीर्तन करें, उन पर तुम्हारी अनुकंपा रहती है।"

आगे उन्होंने उक्त पंक्तियों को भावसहित गाकर सुनाया।  कितना अच्छा गाते थे।  जब गीत समाप्त हुआ, उनके नयन आदर्र हो चले।

उसी समय बाहर कार रूकने की आवाज आई।  माता–पिता जीने से ऊपर चढ़ आये।
"वाह!  गुरूमूर्तिजी!  आइए, आइए।"
"कल्याणी!  देखो विद्वान के लिए कॉफी बनाकर ले आओ।"
पिताजी ने उनका स्वागत किया।
अतिथि–सत्कार में उनको कोई पराजित नहीं कर सकता।
"जी नहीं!  मैं यह बताने आया हूं कि उस दिन भले कुछ सख्त कहा हो, लेकिन मुझे बुरा मत समझें।"
"गुरू महाशय को पूरा अधिकार है कि शिष्या से गलती होने पर सुधारें।  इसमें बुरा मानने की क्या बात है?"
गुरूमूर्तिजी ने बड़ी कृतज्ञता के साथ उन्हें देखा!
"कल्याणी!  पत्तल पर खाना परोस दो।  ये यहीं खायेंगे।" –– पिताजी ने मां से कहा।
"जी नहीं।" –– गुरूजी सकुचाते रहे।
"सुनें।  मुझे भूख लगी है।  दोनों खाते हुए आगे बातचीत करेंगे।  आइए!"

दोनों भोजन करने के लिए उठे।

पांच मिनट में मां ने उनके लिए व्यंजन परोसे।  गरमागरम सांबर, साग–सब्जी, टमाटर का रस्सम  . . .।  गुरूमूर्तिजी शायद बहुत भूखे थे।  जल्दी–जल्दी खाते रहे।  भरपेट खाकर संतुष्ट हुए।

उठकर हाथ धोये।  "अन्नदाता सुखी भव।  आप दीर्घायु हों।  अतिथि की भूख का अनुमान करके प्रेमपूर्वक आपने भोजन कराया, ऐसा करूणभाव आजकल दिल्ली में देखना बेहद आश्चर्य है।"
पिताजी का अट्टाहास गूंज उठा।
"श्यामला के लिए कल से ही आप ट्यूशन आरंभ कर दीजिए।  सप्ताह में दो कक्षाएं लें, पर्याप्त होंगी।  अपनी फीस बताएं।  जो भी हो, वही दे दूंगा।  अपनी जान–पहचान की दो–चार जगह आपके बारे में बताऊंगा।  बात बन जाएगी।  आप कहां रहते हैं?"
"मोतीबाग 'सी' दो में एक सर्वेंट रूम में हूं।"
"आप पता दीजिए!  'वायस ऑडिशन' के लिए आवेदन कीजिए।  रेडियो में आधे घंटे का गीत कार्यक्रम अवश्य मिल जाएगा।  मेरा एक मित्र है।  वह इस दिशा में सहायता करेगा।"

नौकरी चली जाने से खाली हाथ जो थे, उन्हें एक ही दिन में सीढ़ियों के ऊपर चढा देने का प्रयास किया पिताजी ने।  ऐसा लगा कि अत्यधिक प्रसन्नता के कारण गुरूमूर्तिजी रो पड़ेंगे।

मेरी ट्यूशन शुरू हुई।

उनकी आवाज सुमधुर  और गंभीर थी।  अनायास सभी स्वर लहरियां उचित स्थान पर सुस्वर गूंजते थे।  स्पष्ट था कि ज्ञान और श्रम दोनों के तालमेल ने उनकी उन्नति में साथ दिया है।  संगीत कला के प्रति तब मुझे कोई विशेष अभिरूचि नहीं थी।  लेकिन उनके अधीन शिक्षाभ्यास प्रारंभ करने के बाद मैं श्रद्धा–भक्ति के साथ वह कला सीखने लगी।  अब विशेष रूचि और निष्ठा भी होने लगी।

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