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अब सुबह-सुबह कौन आया है दिमाग़ चाटने ? मन ही मन बोलता हुआ मैं अपने छोटे से हॉल में आया। कुर्सी पर एक सज्जन बैठे हुए थे। उम्र लगभग मेरे जितनी। गले में कैमरा और कंधे पर शबनम थैला। मैं ठीक तरह से समझ नहीं पाया कि यह आदमी मुझ से मुलाक़ात के लिए आया है या चंदा माँगने!

’’फ़रमाइए !‘‘ मैं ने कुछ नाराज़गी से कहा।
’’जी, थोड़ा काम था...‘‘ वह आदमी बोला।
’’कहिए।‘‘
’’नेशनल जिऑग्राफ़िक पत्रिका के संपादक से आप की जान-पहचान है, इसलिए मैं आप के पास चला आया।‘‘ उस ने कहा।
’’आप से किस ने कहा?‘‘ मैं ने आश्चर्य से पूछा।
’’आप की ही एक कहानी में इस बात का उल्लेख था,‘‘ वह बोला। लेकिन मुझे याद नहीं आ रहा था कि कौन-सी कहानी में वैसा उल्लेख था। अब कहानी की हर बात अगर मान ली जाए, तो इस बात पर भी विश्वास करना पड़ेगा कि मैं एक बार ऐंड्रोमेडा गैलेक्सी गया था। विज्ञान-कथा की हर बात सच मान कर मन पर लेने वाले उस सज्जन पर मुझे दया आ गई।
’’आप का शुभ नाम?‘‘ मैं ने मीठे स्वर में पूछा।
’’मनोहर सेठ,‘‘ उस ने उत्तर दिया।
’’काम क्या है?‘‘ मैं ने प्रश्न किया।

उस ने अपने थैले में से एक लिफ़ाफ़ा बाहर निकाला। उस में से एक फ़ोटो निकाल कर मेरे हाथ में देते हुए कहा, ’’यह फ़ोटो उस मासिक पत्रिका में छापने के लिए देनी थी।‘‘

मैं वह फ़ोटो देख कर चौक पड़ा। वह फ़ोटो हरी घास पर कोमल धूप का आनंद लेने के लिए लेटे हुए एक ड्रैगन की थी। संभवतः जूम लेन्स का इस्तेमाल कर वह तस्वीर खींची गई थी, क्योंकि तस्वीर में ड्रैगन के दो पाँव हाथी के पाँव से भी अधिक मोटे दिखाई दे रहे थे। पूँछ भी आधी ही दिखाई दे रही थीं। परंतु उस पर पर्वतों की क़तार जैसी हड्डियों की ऊँचाइयाँ स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थीं। गर्दन और पाँव के जोड़ों के पास मोटी चमड़ी की कई परतें दिखाई दे रही थीं। उस का विशाल जबड़ा भी फ़ोटो में आधा ही निकला था। वह फ़ोटो देख कर मुझे स्पीलबर्ग की फ़िल्म ’’जुरासिक पार्क‘‘ की याद आ गई जिस में डायनासोर नक़ली हो कर भी सच्चा एवं जीवंत महसूस होता था। ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी के लिए वह फ़िल्म मैं ने तीन-चार बार देखी थी। लेकिन मेरे हाथ वाली तस्वीर में डायनासोर न हो कर ड्रैगन था।

मॉडल फ़ोटोग्राफ़ी का वह सुंदर नमूना था। मैं नहीं समझता कि अपने भारत में ऐसा काम कोई करता होगा, क्योंकि इस में ख़र्च बहुत आता है। विदेश में ऐसे शौक़िया और व्यवसायी फ़ोटोग्राफ़र बहुत मिल जाएँगे। लेकिन वहाँ पर भी ऐसे प्राणियों की मॉडल फ़ोटोग्राफ़ी फिल्मी दुनिया को छोड़ कर अन्यत्र कहीं नहीं होती। कम-से-कम भारत में तो बिलकुल नहीं।

’’यह फ़ोटो आप नैशनल जिऑग्राफ़िक पत्रिका को भेजना चाहते हैं?‘‘ मैं ने पूछा।
’’जी हाँ!‘‘
’’लेकिन नैशनल जिऑग्राफ़िक वाले यह फ़ोटो नहीं लेंगे।‘‘
’’तो फिर नेचर मैगजीन को भेजिए। वहाँ पर भी आप की पहचान है...‘‘
’’नेचर तो क्या, विज्ञान युग पत्रिका भी यह फ़ोटो नहीं छापेगी।‘‘ मैं ने कहा।
’’लेकिन क्यों?‘‘
’’क्योंकि ऐसी मॉडल फ़ोटोग्राफ़ी कोई पत्रिका नहीं छापती।‘‘

मेरा वाक्य सुनते ही वह झटके से उठ खड़ा हुआ। किसी विद्रोही कवि की तरह मुझ पर आक्रमण-सा करता हुआ बोला, ’’मॉडल फ़ोटोग्राफ़ी? महाशय, यह फ़ोटो किसी मॉडल की नहीं है, एक सच्चे ज़िन्दा ड्रैगन की है।‘‘

उस का आवेश देख कर मैं थोड़ा पीछे हट गया। मैं ने एक बार फिर वह फ़ोटो ध्यान से देखी। ड्रैगन सच्चा होने की संभावना थी। प्रथम महायुद्ध के पूर्व तक इस प्रकार के महाकाय गिरगिट या छिपकलियाँ अस्तित्व में होंगी, इस की किसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी। पर एक डच पाइलट का हवाई जहाज़ ग़लती से कोमोडो आइलैंड पर उतरा और तब इस ड्रैगन का पता लगा। उस ने स्वयं अपनी आँखों से दस फुट लंबा ड्रैगन देखा था। लेकिन उस की बात पर किसी ने यक़ीन नहीं किया। उलटे उसे पागल समझा गया। मगर जावा के प्राणी-संग्रहालय के अधिकारी मिस्टरअ ओवेन को पता नहीं क्यों उस पर विश्वास हो गया। उस ने अपने एक मित्र को कोमोडो टापू पर भेज दिया। उस ने वहाँ पर कई ड्रैगन देखे। लेकिन वह पाइलट की अपेक्षा अधिक चतुर था। उस ने एक ड्रैगन का शिकार किया और उस की खाल ओवेन को भेज दी। तब कहीं दुनिया को ड्रैगन के अस्तित्व का पता चला।... फ़ोटो देखते समय वह सारा इतिहास मुझे याद आ गया। मुझे मालूम था कि ड्रैगन कोई दंतकथा वाला प्राणी नहीं है। ड्रैगन के विषय में तो कोई गुंजाइश नहीं थी, लेकिन मेरे सामने जो आदमी खड़ा था, उस के संबंध में कोई यक़ीन नहीं था। मुझे शक था कि उस ने कोमोडो आइलैंड तो क्या, भवानी पेठ भी नहीं देखी होगी। अतः मैं ने उस की परीक्षा लेने के लिए पूछा, ’’यह फ़ोटो आप ने स्वयं खींची है?‘‘

’’जी!‘‘ उस का गुस्सा कम नहीं हुआ था।
’’इस ड्रैगन की लंबाई कितनी थी?‘‘
’’कम-से-कम तीस फुट होगी। अधिक ही होगी, पर इस से कम नहीं।‘‘
’’यह तस्वीर आप ने कहाँ खींची? ऑस्ट्रेलिया में या कोमोडो आइलैंड पर?‘‘ मैं ने जाल बिछाया।

’’ ऑस्ट्रेलिया ही होगा। यक़ीनन वह कोई टापू नहीं था।‘‘ उस ने थोड़ा-सा सोच कर जबाव दिया। बस! वह मेरे जाल में फँस गया था। मुझे यक़ीन हो गया कि वह गप हॉक रहा है। मैं ने कहा, ’’मिस्टर, फॉर यूअर इनफ़ॉर्मेशन... ड्रैगन अब केवल कोमोडो टापू पर ही अस्तित्व में है।‘‘
’’लेकिन ड्रैगन ऑस्ट्रेलिया में भी तो थे न?‘‘ उस ने कहा।
’’थे। पर अब नहीं हैं। दरअसल यह एक अनबूझ पहेली है। आस्ट्रेलिया में ड्रैगन के कुछ कंकाल ज़रूर मिले हैं। कोमोडो आइलैंड के ड्रैगनों से उन की अजीब समानता है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार वे ऑस्ट्रेलिया से ही तैरते हुए कोमोडो टापू पर आए। इस संबंध में करोड़ साल तो अवश्य बीत गए होंगे। अतः यह फ़ोटो वहाँ ही होना नामुमकिन है!‘‘ मैं ने कहा।
’’नहीं। यह फ़ोटो वहीं की है और मैं ने ही यह फ़ोटो एक करोड़ साल पहले खींची है।‘‘ वह आदमी बिलकुल शांत स्वर में बोला।
’’आप पगला तो नहीं गए हैं?‘‘ मैं ने अविश्वास भाव से उस ओर देख कर कहा।
’’बिलकुल नहीं !‘‘ वह उसी शांत स्वर में बोला।
’’लेकिन यह कैसे मुमकिन है? एक करोड़ साल पहले आप तो क्या, किसी मनुष्य का अस्तित्व नहीं था धरती पर।‘‘ मैं ने कहा।

’’जी हाँ! इसीलिए तो मैं उस काल में चला गया था।‘‘
’’उस काल में चले गए थे?‘‘ वह ऐसे बोल रहा था मानो मुंबई चला गया था! और जल्द वापस भी आ गया है।
’’आप के पास क्या टाइम मशीन है?‘‘ मैं ने पूछा।
’’जी हाँ! मेरे पास टाइम मशीन है।‘‘ उस ने उत्तर दिया।
’’लगता है आप विज्ञान कथाएँ बहुत पढ़ते हैं। लेकिन महाशय, विज्ञान कथाओं में वर्णित सब सच नहीं होता।‘‘ मैं ने कहा।
’’लेकिन सब झूठ भी तो नहीं होता। विज्ञान कथा-साहित्य में उल्लिखित बहुत सारी कल्पनाएँ अब साकार हो चुकी हैं। आर्थर सी क्लार्क की भूस्थिर उपग्रह की कल्पना...‘‘
’’वह सब ठीक है। लेकिन एच.जी. वेल्स की टाइम मशीन आज तक तैयार नहीं की है।‘‘ मैं ने कहा।
’’लेकिन मैं ने की है!‘‘ उस ने आत्मविश्वास और गर्व से कहा।

मैं ने सोचा, यह आदमी सचमुच ही पागल है। फिर सोचा, कहीं गप तो नहीं हाँक रहा है? तब एक विचार मेरे मन में आया। इस से गपशप लड़ा कर क्यों न विज्ञान-कथा के लिए एकाध विषय ही प्राप्त कर लिए जाएँ?
’’आप ने अगर सचमुच ही टाइम मशीन तैयार की है, तो आप को अवश्य ही नोबेल प्राइज़ मिलना चाहिए!‘‘
’’लेकिन मुझ पर यक़ीन कौन करेगा?‘‘ वह खिन्नता से बोला। उसे मेरा कहना सच लग रहा था।

’’आप ठीक कह रहे हैं। आप ने अगर यह फ़ोटो न दिखाई होती, तो मैं भी आप पर यक़ीन नहीं करता। टाइम मशीन पर बैठते समय आप ने कैमरा साथ में ले जा कर अच्छा किया।‘‘ मैं ने कहा।
उस ने गले में से कैमरा निकाला। उसे छोटे बच्चे-सा सहलाता हुआ बोला, ’’इसी कैमरे से यह फ़ोटो खींची थी।‘‘
’’देखूँ!‘‘ उस ने वह कैमरा मेरे हाथ में थमाया। ’’ओलिम्पस‘‘ का लेटेस्ट मॉडल था।
’’कैमरा तो बहुत सुंदर है। आप ने ड्रैगन की इतनी अच्छी और जीवंत फ़ोटो खींची है कि उस पर यक़ीन करना कठिन था। इसलिए शुरू में थोड़ा शक हो रहा था। भला यह फ़ोटो खींचते समय आप को डर नहीं लगा?‘‘ मैं ने पूछा।
’’डर तो लगा। मैं ने अपनी आँखों से ड्रैगन को शिकार करते हुए देखा था।‘‘ उस ने बताया।
’’लेकिन मैं ने तो कहीं पढ़ा है कि ड्रैगन कभी अपना शिकार ढूँढ़ने नहीं जाता।‘‘

’’आप ठीक फ़रमा रहे हैं।‘‘ उस ने मेरे हाथ से अपना कैमरा लेते हुए कहा, ’’टाइम मशीन पर सवार होते समय मैं ने सोचा भी नहीं था कि कभी इस ड्रैगन से भेंट हो जाएगी। एक करोड़ साल पूर्व की पृथ्वी देखने की लालसा मेरे मन में ज़रूर थी। दरअसल मेरी टाइम मशीन में अभी भी एक छोटा-सा दोष शेष है। यानी उस में कोई लोकेशन निश्चित नहीं किया जा सकता। इसी कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं ठी कहाँ जा पहुँचा हूँ। मगर यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वह कोई टापू नहीं था। उस काल का दृश्य ही कुछ निराला था।....शांति...ज़बरदस्त ख़ामोशी... अनादि अनंत शांति! प्रदूषण न होने के कारण किसी छोटी-सी पहाड़ी पर खड़ा हो कर नज़र फेरने पर सौ किलोमीटर दूर का वातावरण साफ़ दिखाई देता था। उस जंगल में मैं काफ़ी देर तक घूमता रहा। तभी अचानक मेरी नज़र इस ड्रैगन पर पड़ गई। उस की पीठ मेरी ओर थी। तीस-पैंतीस फुट लंबा अवश्य रहा होगा वह ड्रैगन। मैं मंत्रमुग्ध हो कर उस की तरफ़ देखता रहा। इतने में नज़दीक की झाड़ियों में से एक ड्रैगन निकल आया। पहले की तुलना में वह काफ़ी छोटा था। सात-आठ फुट का होगा। झाड़ियों और पेड़ों की काफ़ी आवाज़ हुई। पर पहले वाले ड्रैगन को उस की आहट सुनाई नहीं दी। शायद वह सुन नहीं सकता होगा।....‘‘

’’आप ठीक कह रहे हैं। मैं ने भी कहीं पढ़ा है कि ड्रैगनों को बहुत कम आवाज़ें सुनाई देती हैं।‘‘ मैं ने कहा।
’’...हाँ, तो उस छोटे ड्रैगन के नज़दीक आते ही बड़े ड्रैगन ने अपनी गर्दन पीछे मोड़ कर उस की ओर देखा। फिर वह सब कुछ एक क्षण में ही घटित हो गया। बड़े ड्रैगन ने अपनी पूँछ से छोटे ड्रैगन पर ज़ोरदार प्रहार किया। फलस्वरूप वह छोटा ड्रैगन हवा में दस-पंद्रह फुट ऊपर उछला और फिर बड़े ड्रैगन के ठीक सामने आ गिरा। ज़ोर से गिरने के कारण उस की बहुत सारी हड्डियाँ टूट गई होंगी या वह घबरा गया होगा, क्योंकि वह चुपचाप ज़मीन पर पड़ा रहा। अचानक बड़े ड्रैगन ने अपनी लाल जीभ बाहर निकाली। मुझे लगा मानो उस के मुँह से ज्वाला बाहर फूट पड़ी है। हाथी जैसे मोटे पाँवों से वह आगे बढ़ा। जबड़ा खोल कर उस ने छोटे ड्रैगन का सिर अपने मुँह में पकड़ा और निगलना शुरू किया। छोटे ड्रैगन की हड्डियाँ टूटने की आवाज़ आ रही थी। उस ने अपनी छोटी पूँछ से प्रहार करने का प्रयास किया लेकिन बड़े ड्रैगन पर उस का कोई असर नहीं हुआअ। वह आराम से उसे निगलता रहा। अंत में उस की हिलने वाली पूँछ भी उस के मुँह में चली गई। फिर वह बड़ा ड्रैगन वहीं पर बड़े आराम से लेट गया।‘‘
’’आप ने यह सब खुद देखा?‘‘ मैं ने हैरानी से पूछा।
’’जी हाँ!‘‘
’’उस की फ़ोटो भी आप ने खींची होगी?‘‘
’’हाँ। दरअसल वह दृश्य इतना अजीब था कि फ़ोटो निकालने की भी सुध नहीं रही। यह फ़ोटो छोटे ड्रैगन को निगलने के बाद की है।‘‘ उस ने कहा।

उस के पश्चात् वह कुछ देर तक ख़ामोश रहा। सामने की दीवार की ओर एकटक देखता रहा। मैं ने पीछे मुड़ कर देखा, एक छिपकली किसी छोटे कीड़े को निगल रही थी। मैं मन ही मन हिसाब लगाने लगा - इस छिपकली को कितना गुना बड़ा करने पर ड्रैगन बन जाएगी? पर वह दृश्य मुझ से देखा नहीं गया।
मैं ने सिर हिला कर कहा, ’’आप ने एक बहुत बड़ा अवसर खो दिया।‘‘
’’वह कैसे?‘‘ उस ने स्वयं को संभाल कर पूछा।

’’किसी ज़माने में ऑस्ट्रेलिया में इन्हीं ड्रैगनों का साम्राज्य था। लेकिन डायनासोर जैसे ही ये महाकाय ड्रैगन भी पृथ्वी पर से ग़ायब हो गए। यह रहस्य ही बना रहा कि आखि़र वे ग़ायब क्यों हो गए। मशहूर फ्रेंच जीवाशास्त्री पेरी फ़ेफ़र ने सन् साठ में इस ड्रैगन के कंकाल का अच्छी तरह से निरीक्षण और अध्ययन किया। उस ने एक सिद्धांत भी स्थापित किया था कि इन ड्रैगनों ने अपने ही बच्चों को खाना शुरू कर दिया था। परिणामस्वरूप इन की संख्या धीरे-धीरे घटती गई और एक दिन वे ड्रैगन लुप्त हो गए। लेकिन उस के इस सिद्धांत को मान्यता नहीं मिली। अगर आप ने वह फ़ोटो खींची होती, तो उस के सिद्धांत का समर्थन करने वाला एक ठोस सबूत मिल गया होता।‘‘ मैं ने कहा।
’’भला इस में कौन-सी बड़ी बात है? मैं पुनः उस काल में जा सकता हूँ। अगली बार मैं आप को ऐसी ही तस्वीरें खींच कर ला कर दूँगा।‘‘ वह बोला।
’’पर आप की तस्वीरों पर कोई यक़ीन नहीं करेगा।‘‘
’’आप तो करेंगे न?‘‘

’’मेरे करने से क्या होगा? दरअसल आप के पास जो टाइम मशीन है, उस पर भी कोई यक़ीन नहीं करेगा। इसलिए अपनी बात प्रमाणित करने के लिए आप को इस फ़ोटो से भिन्न कोई सबूत दिखाना पड़ेगा।‘‘ मैं ने कहा।

’’तो फिर मैं ऐसा करता हूँ, अगली बार अपने साथ बंदूक ले जाता हूँ। एक ड्रैगन का शिकार करता हूँ और उस की खाल ही ले आता हूँ सबूत के तौर पर। फिर तो यक़ीन होगा न?‘‘ उस ने पूछा।

’’नहीं, नहीं ! ऐसा मत करना।‘‘ मैं ज़ोर से बोल पड़ा। मैं ने किसी अंग्रेज़ी विज्ञान-कथा में पढ़ा था कि एक आदमी टाइम मशीन पर बैठ कर भूतकाल में चला गया था। ग़लती से उस के हाथों से एक तितली मारी जाती है। उस छोटी-सी मामूली घटना के कारण आगे चल कर सारे पर्यावरण का संतुलन ही बिगड़ जाता है। इसलिए मैं ने उस से पूछा, ’’ड्रैगन की इतनी बड़ी और भारी खाल क्या आप टाइम मशीन से ला सकेंगे?‘‘

’’कह नहीं सकता।‘‘ उस ने उत्तर दिया। उसे यह सब सच लग रहा था। मेरे सामने एक हास्यजनक दृश्य खड़ा हो गया जिस में वह एक ड्रैगन का शिकार कर रहा था। मुझे शक था कि इस ने ज़िन्दगी में कभी छिपकली भी मारी होगी या नहीं।
’’अगर मैं ड्रैगन का एक अंडा ले आऊँ तो?‘‘
’’अंडा?‘‘ मैं ने चौंक कर कहा।
’’हाँ, अंडा। एक ड्रैगन को अंडे देते हुए मैं ने स्वयं अपनी आँखों से देखा है। शुतुर्मुर्ग़ के अंडे जितने बड़े थे वे अंडे !‘‘ उस ने कहा।
’’पर एक अड़चन है।‘‘ मैं ने कहा।
’’कौन सी?‘‘
’’आप उस लोकेशन में पुनः कैसे जा सकेंगे? आप ही ने तो बताया था कि आप टाइम मशीन में वह दोष है।‘‘ मैं ने उसे याद दिलाया।
’’हाँ। आप ठीक कह रहे हैं।‘‘ उस ने सिर खूजला कर कहा, ’’लेकिन यह कोई बहुत बड़ी अड़चन नहीं है। यह दोष मैं दस-पंद्रह दिन में ठीक कर दूँगा।‘‘
’’तो फिर कोई बात नहीं।‘‘ मैं ने कहा।

वह कुर्सी पर से उठता हुआ बोला, ’’तो ठीक है। मैं आज से ही इस काम में लग जाता हूँ।‘‘ फिर वह अपना कैमरा और थैला गले में लटकाता हुआ झटके से बाहर निकल गया।

उस के जाने के बाद मैं ने घड़ी देखी। उस पागल आदमी ने मेरा लगभग एक घंटा बर्बाद किया था। पर मैं परेशान नहीं हुआ। उस ने मुझे एक विज्ञान-कथा लिखने का अंडा दे दिया था।

मैं सोचने लगा। अगर वह सचमुच ड्रैगन का अंडा ले आया तो? तो मैं उसे पेशवा पार्क में रख दूँगा। उस अंडे को देखने के लिए लोगों की लाइन लग जाएगी। फिर एक रात को उस अंडे में से एक ड्रैगन बाहर निकलेगा। उसे देखने के लिए तो संसार भर के जीवशास्त्री इकट्ठे हो जाएँगे। फिर वह ड्रैगन धीरे-धीरे बड़ा होने लगेगा। और एक दिन पिंजड़ा तोड़ कर बाहर निकलेगा... पुणे शहर में घूमने-फिरने निकलेगा, अख़बारों में उस के बारे में पेंशनरों के पत्र छपेंगे... जुरासिक पार्क जैसी ’’पेशवा पार्क‘‘ नाम से कहानी लिखने में कोई हर्ज नहीं था। फिर मैं उस जोश में अपने कमरे में चला गया।

दशहरा बीत गया। दीपावली भी बीत गई। दीपावली अंकों की रद्दी फुटपाथों पर दिखाई देने लगी। दीपावली अंकों में प्रकाशित कहानियों के पारिश्रमिक से मैं ने एक सफ़ारी सूट भी सिलवा लिया। दो-चार बार पहना भी। लेकिन वह टाइम मशीन वाला आदमी नहीं आया। अर्थात् मुझे यक़ीन भी था कि वह नहीं आएगा। परंतु जब मेरी पत्नी दीवार पर रेंगने वाली किसी छिपकली को मारने, भगा देने के लिए कहती, तब बरबस उस आदमी की याद आ जाती।

एक दिन सुबह सीढ़ियाँ चढ़ते समय डाक देखने के लिए लेटर बॉक्स खोला। पड़ोसी देवधर महाशय के नाम आया नेचर पत्रिका का अंक दिखाई दिया। उन का लड़का न्यूयॉर्क में रहता है। उस ने वहीं पर नेचर का चंदा भर दिया था और अंक पुणे के पते पर भेजने के लिए कहा था। इस कारण मुझे लाभ हुआ था। पत्रिका मुफ़्त में पढ़ने की सुविधा प्राप्त हो गई थी।

मैंने वह अंक निकाला। चार मंज़िलें चढ़ कर ऊपर आया। घर के अंदर आअ कर धीरे से वह अंक रैपर से अलग किया। अंक उलट-पुलट कर देखा। नेचर का वह अंक ’’ ड्रैगन विशेषांक‘‘ था। बीच वाले दोनों पृष्ठों पर एक बड़ी फ़ोटो थी। फ़ोटो देख कर मैं चौक पड़ा। उस के नीचे छपा विवरण पढ़ने लगा, ’’ऑस्ट्रेलिया में खुदाई करते समय ड्रैगन का चालीस फुट लंबा कंकाल मिला है। उस की तुलना में कोमोडो आइलैंड वाले आज के ड्रैगन बहुत छोटे - यही कोई सात-आठ फुट के होंगे...‘‘

वैसे यह ख़बर सनसनीखेज़ हो सकती थी। परंतु उस से भी ज़्यादा सनसनीखेज़ ऐसी दो वस्तुएँ वैज्ञानिकों को उस कंकाल में से प्राप्त हुई थीं - एक वस्तु थी - मनुष्य की खोपड़ी के टुकड़े। और दूसरी वस्तु थी - एक कैमरा!
कमाल है! एक करोड़ वर्ष पूर्व के ड्रैगन के कंकाल में एक कैमरा!
मैं ने वह फ़ोटो आतिशी शीशे से देखी। चपतरे बने हुए उस कैमरे पर लिखा ’’ओलिम्पस‘‘ शब्द बिलकुल साफ़ दिखाई दे रहा था।

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११ नवंबर २०१२

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