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सुबह उठा। आज ऑफ़िस जाने की कोई जल्दी नहीं थी। एक माह की
छुट्टी ले ली थी। दीपावली अंकों के लिए विज्ञान-कथाएँ लिखनी
थीं। एक-दो कहानियाँ लिख कर भेज चुका था। शुरूआत तो अच्छी हुई
थी। परंतु कल ही एक कहानी वापस आ गई थी। संपादक महोदय को पसंद
न आने के कारण कोई दूसरी कहानी भेजने का आदेश दिया गया था।
वस्तुतः इतनी अच्छी कहानी वापस भेजने की वजह समझ में नहीं आई।
ठीक है। जैसे ’’बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट‘‘, वैसे ही ’’संपादक इज़
ऑलवेज राइट!‘‘ कोई बात नहीं। दूसरी कहानी भेज देंगे। वापस आई
हुई कहानी कहीं और भेज देंगे। दूसरे संपादक को वह अधिक पसंद
आने की संभावना थी। ख़ैर!
तो मैं स्नान आदि से मुक्त हो कर प्रसन्नचित्त से कहानी लिखने
बैठा। काग़ज़ निकाले रोटरिंग पेन खोला। लेकिन कुछ सूझ नहीं रहा
था। एक फ़ोर स्क्वेअर सिगरेट सुलगाई। दो पी चुकने के बाद भी
ज्यों का त्यों बैठा रहा। फिर एक अगरबत्ती जलाई। गणेश की
तस्वीर को प्रणाम किया। काग़ज़ पर ’’श्री‘‘ लिखा। मुझे मालूम
नहीं था कि कुछ न सूझने पर विख्यात लेखक क्या करते हैं। अतः
मैं ख़ामोश बैठा रहा। इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई। उठ कर
दरवाज़ा खोला। बाहर मेरा ’’चैम्पियन‘‘ लड़का खड़ा था।
’’पिताजी, आप से कोई मिलने आया है।‘‘ |