दूसरे दिन मौसी आई। आते ही मुझे गले लगा कर रोने लगी। उनकी गोद में मुँह छुपाए मैं
भी रोने लगा। मौसी के कपड़ों से फूलों की सी खुशबू आ रही थी। माँ के कपड़ों से
हमेशा धुएँ की गंध आती थी। पर मेरा मन चाहा कि मौसी के कपड़ों से धुएँ की ही गंध
आती तो कितना अच्छा होता!
उनको समय पर बुलावा नहीं भेजा इसलिए मौसी पिता जी से बहुत गुस्सा कर रही थी। माँ की
याद कर-कर के उनका मुँह भी लाल हो गया। मौसी ज़रा भी माँ जैसी नहीं दिखती। मेरी माँ
साँवली थी, तो मौसी थी गोरी।
दोपहर के वक्त मौसी ने पिता जी से कहा, "मैं रघू को अपने घर ले जाती हूँ। इधर उसकी
परवरिश ठीक से नहीं होगी।
पिता जी चुप रहे।
"तुम्हारे काम पर जाने के बाद वह अकेला पड़ जाएगा। उसके खान-पान का क्या होगा?"
पिता जी ने मेरी तरफ़ देखा।
"अगर उसको भेजा तो मुझसे अकेले में दिन कैसे काटे जाएँगे?"
"तुम मर्द हो। काम शुरू करते ही सब कुछ भूल जाओगे। ये बेचारा मुसीबत का मारा हो
जाएगा।"
मैं बैठकर दोनों के मुँह ताकता रहा। मैं जाना भी चाहता था और नहीं जाना भी। आख़िर
पिता जी ने मेरी दो कमीज़ें, पतलून थैले में रख दिए और बोले, "रघू, तू अपनी मौसी के
साथ जा।"
जब उन्होंने ''जा'' कहा तब न जाने को मेरा जी चाहा। पिता जी मुझे बहुत लाड़ करते
थे। मुझे साथ लेकर वे कई बार छोटे पुल पर मछली पकड़ने जाया करते थे। तब हमारी लाई
गई मछली माँ अच्छी तरह आग में सेंकती थीं। शनिवार के दिन चौराहे पर बड़ा बाज़ार
भरता था। पिता जी उधर छोटी-बड़ी रस्सियाँ बेचने बैठते थे। मैं भी उनके साथ बैठता
था। धूप तेज़ होने पर पिता जी छाता खोलते थे और हम बड़ी अकड़ के साथ उसके नीचे
बैठते थे। उधर पिता जी मुझे चने, मूँगफल्ली वगै़रह देते थे।
आज भी शनिवार था। मगर पिता जी नहीं गए। माँ के जाने के बाद से पिता जी बदल ही चुके
हैं। मेरा तो बिल्कुल दम घुटता है।
"पिता जी, आप भी आइए ना!"
"पगला! पहले तू जा।"
"आप कब आएँगे?"
"आऊँगा।"
"पर कब?"
"आऊँगा एक दिन।"
"जल्दी ही आ जाइए।"
पिता जी कुछ नहीं बोले।
"जल्दी आएँगे न?" मैंने फिर से दुहराया। उन्होंने सिर हिला दिया।
मौसी की अँगुली पकड़ कर मैं झोंपड़ी से बाहर आया। पिता जी दरवाज़े तक आए। जुवांव की
शराब की दूकान के पास पहुँचने तक मैंने बार-बार मुड़-मुड़ कर देखा। पिता जी वहीं
खड़े थे। उत्तम की दूकान के बाद अब झोंपड़ी दिखाई नहीं दे रही थी। पिता जी भी ओझल
हो गए। मौसी की अँगुली छोड़ कर पिता जी तक दौड़ने को मन चाहा। मैंने मौसी की अँगुली
छोड़ी भी पर मौसी ने ही मेरा हाथ मज़बूती से पकड़ लिया।
"रघू, तुम सयाने लड़के हो। है ना?"
मैंने गर्दन हिलाई और चुपचाप उनके साथ चलता रहा।
"हम बस में बैठ कर जाएँगे।"
"बस में बैठकर?"
"हाँ. . ."
पिता जी, माँ और मैं एक बार मेले में गए थे। तब बस से ही गए थे। आज फिर से बस की
मुलायम सीटों पर बैठने को मिलेगा, यह सोच कर मैं खुश हो गया और मौसी की अँगुली कस
कर पकड़ ली।
मौसी का घर हमारी झोंपड़ी से बड़ा था। सफ़ेद चूने से पुता। उस रात बेहद बारिश हुई।
पर ज़रा भी चुआ नहीं। हमारी झोंपड़ी में जगह-जगह पानी चूता था। सब जगह बर्तन
रखते-रखते माँ ऊब जाती थी। अगर ज़्यादा ही चूने लगे, तो पिता जी सीढ़ी पर चढ़ कर छत
की मरम्मत करने लगते और माँ या मैं चिमनी का प्रकाश दिखा कर, "इधर चूता है उ़धर
चूता है" ऐसा बताते।
आज अगर छत चूने लगे, तो पिता जी को दिया कौन दिखाएगा? मौसी की बगल में सोते हुए ये
विचार मेरे दिमाग में आ रहे थे।
"मौसी. . ." मैंने पुकारा।
"चुपचाप सो जाओ।" मौसी ने मेरी पकड़ और भी मज़बूत कर ली और मुझे थपथपाने लगी। उस की
साड़ी की गंध मेरी नाक में घुसी। माँ की बगल में सोते हुए धुएँ की अच्छी-सी गंध आती
थी। सुरंग की साड़ी से भी वही खुशबू आती है, जैसी कि माँ की साड़ी से आती थी। उस
गंध का चिंतन करते हुए मैं मौसी की बगल में घुसा।
मौसी ने मुझे वहाँ की पाठशाला में पढ़ने भेजा। मेरा पहले वाला स्कूल इससे बेहतर था।
स्कूल के सामने ही बरगद का पेड़ था। उसकी जटाओं को पकड़ कर हम इधर से उधर झूलते थे।
वैसे तो इस स्कूल के रास्ते पर भी एक इमली का पेड़ था। ढ़ेर सारी इमलियाँ मिलती
थीं। जेब भर कर इमली लेते समय मुझे शिरी और बेंदित की याद आती थी।
हमारी झोंपड़ी के पास एक नाला था। हम कई बार नाले पर जाते थे। डुबुक-डुबुक कर के
डुबकियाँ लगा कर नहाते थे। मौसी के घर के पास नाला नहीं था, कुआँ था। मौसी सुर-सुर
कर रस्सी खींच के गागर से कुएँ का पानी निकाल कर मेरे सर पर उंडेल देती। पूरे बदन
में साबुन लगाती। घर पर मैं अकेला ही नहा लेता था। मैंने माँ को कभी मुझे नहलाने
नहीं दिया। मैं क्या अब नन्हा-सा बच्चा था? पर मौसी सुने तब न! मुझे गुस्सा आता था।
"आठ बरस का घोड़ा, पर कौए जैसा नहाता है! गंदा कहीं का।" ऐसा कह कर मौसी मुझे साबुन
रगड़ती थी। आँखों में झाग जा कर मेरी आँखें भी जलने लगती थीं। मुझे लगता था कि मैं
मौसी को भींच लूँ। पर मैं कुछ नहीं करता था। बेचारी माँ को मैंने कई बार भींचा था।
पिता जी के साथ कभी-कभी मैं भी नदी पर जाता था। तब हम दोनों कंकड़ ले कर एक दूसरे
की पीठ मलते थे। उस याद से पिता जी के पास जाने को मेरा मन ललचाया। जब मौसी मेरे
गीले बाल पोंछने लगती, तब मैं आँखें बंद कर के वही सोचता रहता।
मौसी की कोई संतान नहीं थी। मौसी, मौसा और उसकी माँ इतने ही लोग वहाँ रहते थे।
पड़ोस में भी मेरी उम्र की कोई लड़का नहीं था। जो बड़े थे, वे मुझे अपने खेल में
शरीक़ होने नहीं देते थे। मैं बहुत ऊब जाता था। तब मौसी अपना काम छोड़ कर मेरे साथ
खेलती थी। मौसी, अंटों से खेलना नहीं जानती थी। लेकिन पाँच कंकड़ वाला खेल वह बहुत
ही अच्छा खेलती थी। पिट्ट-पिट्ट कर के कंकड़ पकड़ती थी। मौसी के पास बहुत-बहुत गजगे
थे। मौसी के साथ खेलने में बहुत मज़ा आता था। मैं ठगा भी लूँ, तो मौसी की समझ में
कुछ नहीं आता था। जब पूरे अंटे मेरे हो जाते, तब वह मुझे गोद में बिठाकर, "बड़ा
होशियार है मेरा राजा बेटा!" ऐसा कह कर हँसती थी।
जब मैं स्कूल जाने निकलता तब मौसी आँगन में खड़ी रह कर मुझे देखती थी।
"ठीक से जाओ।"
"हाँ मौसी।"
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