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मंत्रीजी हँसते हैं। (शंकर बाबू ने मंत्री जी की नकल करते हुए)" आप अपनी सारी डिटेल्स हमारे पी.ए. को दे दीजिए।" कहकर विदा देने की मुद्रा में मंत्री जी के चले जाने के बाद हाथ जोड़ता है।

"तब तो आप जैसे नीति पर चलनेवाले भी मेरे जीजा के चेंबर में जाते हैं। उस समय हमारे जीजा इस तरह बैठे रहते हैं।"

उसने अपने ब्रीफकेस से एक और चित्र निकालकर दिखाया जो मेरे लिए एक आश्चर्य की चीज़ थी। जीजा भी लाल सोफे पर सफ़ेद फोन कान पर लगाए बैठे हैं। पास एक फूलों का हार रखा है। उनके माथे पर भी कंकुम लगा है। पर उनके पीछे की दीवार पर चरखा कातते गांधी जी की फोटो लगी है। उसके जीजा भी 'चप्पंडि, चंप्पंडि' कहते होंगे। शंकर बाबू ने वह फोटो जीजा के एक्शन में रहते ही ली होगी।

"जीजा को अंग्रेज़ी नहीं आती। मुझे ज़ोर से बैठ जाने को कहता है। मुझसे सारा ब्यौरा लेकर घर आकर मिलने को कहता है।" शंकर बाबू की आँखें प्रश्नार्थक रूप से उठी : "आपको मालूम नहीं? एकदम मालूम नहीं? अगर आप इतने मूर्ख हो तो 'गैट ऑन' कैसे होओगे। आज के ज़माने में बिना पैसे चटाये कोई काम होता है क्या? बैंक स्कैम में किसका हाथ ऊपर है? आप जैसे साउथ इंडियन ब्राहृमणों का ही न। गैट ऑन, गैट ऑनर, गैट ऑनेस्ट, यही ज़माने की तीन डिग्रियाँ हैं। मैं पहले ही स्तर में तड़प रहा हूँ। आप तीसरी स्टेज में पहुँच गए। मेरा जीजा भी पहुँच जाएगा। वह अपने गाँव में एक अनाथालय बनवाना चाहता है, रास्कल..."

इस प्रकार बातें करते हुए चेतना का उत्स-सा बनकर हल्का होकर वह काले शरीरवाला व्यक्ति इधर-उधर देखता लाउंज में चक्कर काटने लगा। मैं उसी को देखता गम्भीरता से बैठा था। कहावत है जो मान-मर्यादा छोड़ देता है वह भगवान के समान हो जाता है।

उस कंबख्त शनि से उसी दिन अखबार में छपी बच्ची अमीना की बात उठाकर मुझमें विद्रोह की भावना जगाकर मुझे दुर्बल क्यों बना दिया? यह मुझे उसके दफा होने के बाद पता चला। उसके दफा होने से पहले वह करुणा उत्पन्न करनेवाला किसी दूसरे व्यक्ति-सा लगा था।

"बलात्कार के कारण ही अमीना ने खाड़ी के एक बूढ़े से विवाह किया, यह तो सच है। अगर वह यही बात कोर्ट में कह देती तो उसके बाप को ज़रूर जेल जाना पड़ता। वह बेचारा रिक्शा-चालक था। उसके ढेर-सी बेटियाँ थीं। बाप अगर जेल चला जाता तो उनका क्या बनता? बस, वेश्या ही बनना पड़ता। शक्तिशाली ऊँची जातिवाले अमीर उसका दुख समझ नहीं सकते पर वह सरल बच्ची समझ गई। इसलिए बेचारी ने 'मैंने ही अपनी इच्छा से इस बूढ़े से शादी की' कह दिया। असल में सैक्रीफाइज माने यही होता है। एअरपोर्ट लाउंज में बैठकर हमारे लिए और आपके लिए ऐसी बातें करना वड़ा आसान है ब्रदर। पर अमीना जैसी लड़की का अपना जीवन ही अपने परिवार के लिए त्याग देना - "

शंकर बाबू ने गंभीरता से अपना मुँह शीशे में कनखियों से देखते यह कहानी बड़े गदगद स्वर में कही। बाद में उसने मेरी आँखों से जब आँखें मिलायीं तो उसके चेहरे का रंग बदल गया। घनिष्ठता के कारण उसके पूरे दाँत उसकी मोटी-मोटी मूँछों के नीचे से झलक गए। आँखों में चंचल रसिकता झाँक गई। बगल में बैठकर मेरे कान के पास आ गया। उसके अपने सिर में लगाए पता नहीं किस कंबख्त तेल की खुशबू से मेरी नाक फटने लगी। उसने अपना एक हाथ मेरी बाँह पर रखकर और पास खिसककर धीमें स्वर में कहा- "कुछ लड़कियों को बूढ़े ही पसंद आते हैं। आपका क्या ख़याल है?" ज़रा रुककर मुझे ही देखते हुए 'मिस्टर' कहकर शब्दों को चबाते हुए आँख मारी। सिगरेट सुलगाकर धुआँ निकालकर सीटी बजाता हुआ मुझे भी सिगरेट देने लगा।

वह मेरे बेटे की आयु का होगा। मुझे लगा वह एक गंदा पुराने ज़माने का बूढ़ा है।
मैंने उसको लात मारकर बाहर क्यों नहीं निकाल दिया, यह सोचकर मुझे आज शर्म आती है। कहानी सुनने का कौतुहल जो मुझमें पैदा हो गया था वह शायद मुझे ही लात मारने की शक्ति रखता था, यह सोचकर मुझे ही डर लगा। किसी भी चीज़ को देख सकनेवाली या दिखा सकनेवाली हो सकती है। इस प्रकार मैं उसकी गलीज नज़रों से घबरा रहा था। तभी याद आयीं बूढ़े एट्स की अदम्य कामुकता भरी कविताएँ। जर्जर बूढ़ा बदमाश लड़की से कहता है, पठ्ठे जवान छोकरे सुख लूट तो सकते हैं पर सुख न दे सकनेवाले कामुक हैं। मेरे पास आ और देख सुख क्या है। ऐसी बातें लिखनेवाला, लार टपकानेवाला कवि मुझे असह्य लगने लगा। तभी शंकर बाबू ने घनिष्ठता से मेरी ओर देखकर सिगरेट का कश लिया।

मेरा दुर्भाग्य यह है कि यह कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। लाउंज के भीतर घुसते समय शंकर बाबू किसी दुविधा में फँसा था - या फिर मुझे ही ऐसा लग रहा था।
उसकी सुनायी कहानी का सारांश यह है :

उसके पिता की जाति का पेशा मकान बनाने की मिस्त्रीगिरी था। वह भी माँ के साथ वहीं, काम करता था। बाप की कमाई पीने में ही उड़ जाती थी। माँ की कमाई से सबका पेट चलता था। उसीसे उसकी और उसकी बहनों की पढ़ाई चली। पिता लीवर डैमेज हो जाने से मर गया। (यह कहानी मेरे अंदर करुण रस पैदा करने के लिए शंकर बाबू ने ज़रा ऊँचे स्वर में ही सुनाई, आगे अपना साहस दिखाने को पीठ पीछे हाथ बाँधे खड़े होकर) शंकर बाबू ने देशसेवा की प्रेरणा अपनी जाति के मंत्री जी से पाई। अपने बुद्धि-चातुर्य से यह उसका ब्रेन बन गया और घर के लिए आवश्यक सभी सामान मुहय्या करने लगा। जब घर की व्यवस्था सुधरने लगी तब मंत्री महोदय ने ही ज़रा रुचि लेकर सरोज का ब्याह अपने निजी सहायक से करा दिया। उसकी जाति में पढ़े-लिखे लोग कम होने से उसे सरोज से बढ़िया पत्नी नहीं मिल सकती थी। सरोज के लिए भी उस बास्टर्ड से बढ़िया स्थितिवाला दूसरा नहीं मिल सकता था। (यह बास्टर्ड शब्द उसी के मुँह से निकला था।)

अब शंकर बाबू एक उलझान में फँस गया था। उस बास्टर्ड की एक ही हठ है। छोटी बहन गीता से उसकी दूसरी शादी करा दो। मंत्री महोदय भी वहीं आग्रह कर रहे हैं। वे मुझे सैकिंड लाइन ऑफ लीडरशिप के लिए तैयार करना चाहते हैं न।

शंकर बाबू इस बात की चर्चा घर में उठा नहीं सकता था। माँ मंत्री और जीजा को ऐसी - ऐसी गालियाँ देती है जो कि सिर्फ़ उसकी ही जाति में संभव है। वह भी बीमार रहती है - हार्ट वीक है, ब्लड प्रेशर, 'डायबटीज'। पैसा क्या आकाश से बरसता है? जीजा ही दे सकते हैं। पर माँ कहती है : उस हरामजादे की पाप की कमाई नहीं चाहिए। मैं आस-पड़ोस के घरों में चौका-बर्तन करके कमा लूँगी। गीता भी 'मैं नेल्लूर में अपनी जाति के लोगों के साथ रहकर क्रांति करूँगी', कहती है। एकदम डरपोक है, रात को माँ के साथ ही सोती है। पर कॉलेज में उसकी संगति ठीक नहीं, बस।

"जीजा भी इंतज़ार करते-करते थक गया। मुझे भी 'घर में पाँव मत रखना' कह दिया था। उस हरामजादे करप्ट मंत्री ने भी मुझसे बात करना बंद कर दिया था।" कल सुबह शंकर बाबू मान-मर्यादा ताक पर रखकर जीजा के पास बंगले में गया। जीजा पूजा कर रहा था। बास्टर्ड पूजा किए बिना कॉफी भी नहीं पीता। शंकर बाबू धीरे से सीधा रसोई में गया। उसकी पसंद की फिल्टर कॉफी तैयार करके इंतज़ार करने लगा। कॉफी बनाने में सरोज पारंगत थी। हर बात में ब्राह्मणों जैसी। बास्टर्ड जीजा कुंकुम चंदन लगाकर अपनी हर रोज़ की कलेक्शन के लिए चमचमाती पेंट-बुश्शर्ट पहनकर तैयार हो गया। स्टेनलेस स्टील के गिलास में मैंने महकती कॉफी सोफे के सामने तैयार करके रखी थी। उसने रोते से स्वर में पूछा, "गीता मान गई क्या? मंत्री मुझे डिसमिस कर देंगे। उनकी तो एक ही ज़िद है।" शंकर बाबू ने माँ की बीमारी बताकर आँसू गिराए। (मेरी सहानुभूति पाने को शंकर बाबू अपने और जीजा दोनों के हाव-भाव दिखा रहा होगा - यह शक मेरे मन से हटा नहीं)

"गीता मान जाएगी। उसे हमारे मंत्री जी के क्रांतिकारी विचारों में विश्वास है।" इस प्रकार शंकर बाबू ने रील छोड़ी। माँ की दवा-दारू के बहाने उस कंजूस से एक हज़ार रुपए ऐंठें। वह नए-नए ताज़ा नोटों की गड्डी थी। (ब्लैक मनी बड़ा शुभ होता है ब्रदर" कहकर एक हँसी की फुलझड़ी छोड़ता आगे चल दिया।)

उस दिन पूरे समय हैदराबाद के स्लमों में घूम-घूमकर जो काम करना था, किया। उसकी बात सुननेवाला एक दल है। नेक्सलाइट भला क्या खाकर इनके सामने टेरर पैदा करेंगे? गीता ओर उसके दोस्तों को डराने-धमकाने का प्लान उस दल को बताकर शाम को घर गया। माँ रसोई में खाँसती हुई दूध गरम कर रही थी। दूध स्टोव पर रखा था। गीता कुछ पढ़ती हुई नोट बना रही थी। सदा की तरह उसके बाल बिखरे थे और साड़ी फटी हुई थी।

"माँ" कहकर उसने पुकारा। फिर धीरे से बोला : "यह लो एक हज़ार हैं। ये तुम्हारे ट्रीटमेंट के लिए हैं, जीजा ने दिए हैं। गीता को मनवा लो कहा है।" यह कहकर शंकर बाबू चुप खड़ा हो गया।

पर एकदम से वह बिखरे बालोंवाली गीता उठ खड़ी हुई। वह चंडी-सी दीख रही थी। बड़े भाई के हाथ से हज़ार की गड्डी छीन ली। आँधी की तरह स्टोव की ओर बढ़ी। खाली हाथों से ही उबलते दूध का पतीला उतारकर पटका और नोटों की गड्डी जलते स्टोव पर रख दी।

यह सब सुनाते समय शंकर बाबू मुझे वास्तव में दिग्भ्रांत-सा दीखा। पूरे दिन मजदूरी करने पर भी माँ को दस रुपए मजदूरी नहीं मिलती। पैसा-पैसा जोड़कर बाप से छीन-झपटकर कुछ पैसे ले लेती। पर ऐसी माँ भी नोटों की उस गड्डी में आग लगते देखकर चुप थी। गीता उस गड्डी को ऐसे देख रही थी मानो उस गड्डी के साथ भाई को भी जला डालेगी। दोनों हाथ ज़मीन पर टिकाये माँ चुपचाप बिलख रही थी। बुढ़िया का दिमाग़ ख़राब हो गया था। पहले तो शंकर बाबू हक्का-बक्का रह गया। पर सह न सका। स्टोव को लात मारकर उसने जलाती हुई नोटों की गड्डी को खाली हाथों से झपट लिया और पोचे से लपट खा गये नोटों को पोंछ जेब में डाल लिया।

वह अपने को रोक न सका। वहीं सब्ज़ी काटने का हँसिया रखा था, उसे उठाकर गीता का झोंटा पकड़कर उसकी गर्दन पर वार करने को बढ़ा। पता नहीं तब गीता में कहाँ से शक्ति आ गई। उसने भाई को लात मारी। हँसिया छीनकर उसे मारने उद्यत हुई। माँ ने 'अरे' कहकर उसके हाथ से हँसिया छीन लिया। और अपने सिर पर मारना शुरू कर दिया। वह झगड़ा पड़ोस के ब्राहृमण को सुनाई दिया। गीता इतने से ही चुप नहीं रही। झाडू लेकर उसे मारती हुई घर से बाहर ढकेल दिया।

शंकर बाबू को पता नहीं क्या सूझा कि उसने कुछ सोचते हुए झट से झुलसी नोटों की गड्डी जेब से बाहर निकालकर पूछा, "बैंकवाले इन्हें बदल देंगे न?" बाद में उसने अपनी कहानी आगे बढ़ाई।

शंकर बाबू अपनी पार्टी के दफ्तर में जाकर 'दी वीक' और 'संडे' के पुराने अंक पढ़ता रहा। सुबह तक सब शांत हो जाएगा, सोचकर घर पहुँचा।

दरवाज़ा खुला था। माँ मरी-सी मुँह ढाँपे पड़ी थी। "गीता कहाँ है?" इसने पूछा। माँ से कोई उत्तर न मिला। इसने माँ के मुँह का पल्ला हटाया। माँ को हिलाया। उसने आँखें खोली। इसने डाँटकर पूछा, "गीता कहाँ है?" उसने तब भी उत्तर न दिया। वह हिली-डुली भी नहीं। अपने आप आँखें खोल और बंद कर रही थी। "तुम्हें इस तरह मरने की हालत में छोड़कर वह लोफर, छिनालपना करने कहाँ गई है?" कहते हुए इसने दीवार से सिर दे मारा। तब भी माँ ने होठ न खोले। वह बाल बिखरे मुनि जैसे हो उठी थी।

शंकर बाबू को लगा कि उसका एक चैप्टर खतम हो गया। उसने निश्चय किया कि आगे से उस लोफर मंत्री से बात नहीं करेंगे और उस बास्टर्ड जीजा के पास भी नहीं जाएगा। अब उसके पास एक ही उपाय बचा था। "मंत्री का 'राइवल' एक और इनकी ही जाति का है। उसे पोटेंशियल राइवल कहना चाहिए। वह ग्रेनाइट मर्चेंट हैं। वह तेलुगु-देशम का सिंपेथाइजर भी है। बहुत पैसेवाला है। उसे मेरे जैसे युवकों की सहायता चाहिए थी। समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे इम्प्रैस किया जाय। इसीलिए आपसे ये फोटो खिंचवायी।"

शंकर बाबू के भविष्य की कहानी सुनाने का उत्साह मुझमें बचा नहीं था। उसकी बतायी हर बात एक से दूसरी गुथी हुई-सी लगी। मेरे एकमुखी होने पर भी, वह अनेक चेहरे लिए मेरे सामने आया।

आगे चलकर वह कुआँ खुदवा सकता है, साड़ियाँ बँटवा सकता है, मकान बँटवा सकता है, पेड़ लगवा सकता है, इतिहास में अपने नाम की एक छोटी-सी चेंपी लगवा सकता है।

अपने क्षेत्र को सुदृढ़ करने के लिए स्लम के लोगों का जीना हराम कर सकता है। यही बाल - बच्चेदार किसी दूसरे की झोंपड़ी में आग लगा सकते हैं। उस घास की झोंपड़ी में सोया बच्चा आग में भुन भी सकता है।

कुछ दिन बाद एक ठंडी सुबह मफलर-सा लपेटे वाकिंग जानेवाला एक सद्गृहस्थ कह रहा था : "छि, बेचारे! पर इतना न होता तो इन कंबख्तों की अकल ठिकाने कैसे लगती! अब देखो कैसे ठंडे पड़ गए हैं।" इतिहास में यह सब अनिवार्य है।

स्मृति के सुखद झरोखों में झाँकें तो हिटलर अपनी माँ से बहुत प्यार करता था। पत्नी के मरते समय स्टालिन दुख में अकेला पड़ गया था। उसने उस मध्यरात्रि के बहुत बड़े भोज में पैपर के स्वादवाली वोदका को 'थम्सअप' कहकए गटागट पीने के बाद मूँछें पोंछ ली थीं। उसने ही अच्छी तरह खिला-पिलाकर अचार के मर्तबान से दीखनेवाले ख्रश्चेव को भालू की तरह नचाया था। वह कभी-कभी अपने लाल सैनिकों के साहस की बातें याद आने पर रो देता था। महान दुष्ट राजा चिक्कवीर राजेन्द्र ने भी बुढ़िया से पूछा था, "दादी, मैंने तुम्हारे किस कान में बचपन में मूता था?"

या फिर उत्कट प्रार्थना करके जो अपेक्षा होती है, उससे मिलनेवाला आश्चर्य भविष्य के चरित्र में जिसे हम घास समझते हैं, वह भी दूर्वा बन सकती है। शंकर बाबू भी एक साँझ अपनी ढलती आयु में अकेला बैठकर जब सोच में डूबेगा, तब उसे उसका उधम दिखाई दे पाएगा। तब गीता का नोटों की गड्डी को जलते स्टोव पर रखना, और माँ का चुपचाप उसे निहारना और स्वयं उसका हैरान होना, गुस्से की आग में ताज़े नोटों के झुलसते समय विकसित प्रेम का भी शुद्ध हो जाना, सरोज का मरकर इन सबको जागृत कर देना यह सब याद आ सकता है।

अब शंकर बाबू जागृत हो धारदार बर्छी की तरह दिखाई देता-सा लगा। मुझे देखकर वह आत्मीयता से हँस रहा था। शीशे के सामने खड़े हो उसने बाल सँवारे। उत्साह का उत्स बन वह आंध्र के पक्षों का बलाबल और अपने लोगों की मूर्खता का विश्लेषण करने लगा।

"मुझे एक विद्यारण्य मिल जाय तो मैं एक राज्य का निर्माण कर सकता हूँ सर। मैं इस तरह हारनेवाला आदमी नहीं हूँ।" कहकर वह ब्रीफकेस लेकर उठ खड़ा हुआ और मुझे 'गुडलक' कहकर चला गया।

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१६ सितंबर २००२

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