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                     हैदराबाद 
                    के हवाई अड्डे के लाउंज में मैं अकेला हवाई जहाज की प्रतीक्षा 
                    में बैठा था, तभी इस महानुभाव के दर्शन हुए। सफेद टाइट पैंट और 
                    बुश्शर्ट - दोनों ही खादी के थे। वी.आई.पी. लाउंज के योग्य 
                    सज्जनता के लक्षण उसके मुख पर दिखाई नहीं दिए, फिर भी खादी के 
                    कपड़े पहने था इसलिए उसमें अहैतुक साहस रहा होगा। मैंने सोचा, 
                    शायद वह मेरे बेटे की उम्र का हो। पर पिचके गालों और भटकती 
                    लालची आँखोंवाले ऐसे लोगों की आयु का निश्चित अनुमान करना कठिन 
                    होता है। मैं कुंदेर 
                    की पुस्तक 'सर्वग्राही संवेदना' पढ़ रहा था। मुझ पर शायद उसका 
                    प्रभाव रहा होगा। उसने टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में लगातार जो कुछ 
                    कहा, मैं उसको नज़रअन्दाज़ नहीं कर सका। एक वाहियात-सा कैमरा 
                    मेरी तरफ़ बढ़ाकर उसने मुझे बताया कि उसे कहाँ से कैसे थामना 
                    है और किस स्थिति में कैसे-किस बटन को दबाकर फोटो खींचनी हैं। 
                    फोटो खींचने से पहले अपने ज़रा-ज़रा उभरे दाँतों को ढाँकने का 
                    प्रयास करते हुए अपनी अपेक्षाओं को मुझ तक पहुँचाने और उन पर 
                    मेरी प्रतिक्रियाओं से बे-परवाह उसकी स्वप्रतिष्ठा के बारे में 
                    मैं जो देख सका, वह था उसका अपना स्वार्थ-साधन। टूटी-फूटी 
                    अंग्रेज़ी में अपनी बात कहते हुए उसने मुझ नितांत अपरिचित की 
                    विनम्रता को बिना किसी 'डाउट' के स्वीकार कर लिया था। "वहाँ 
                    मिस्टर, वहाँ - गांधी जी के फोटे के नीचे! मैं वहाँ सोफे पर 
                    बैठूँ और फोन उठाकर हँस-हँसकर बातें करते हुए ज़रा मूड बना 
                    लूँ, तब आपको गांधी जी की फोटो, लाल सोफा-सेट, ज़रा-सा हरा 
                    कार्पेट, पासवाली काँच की मेज़, फूलदान में लगे गुलाब और मेरा 
                    स्टाइल - इन सबको फोकस करके मेरा स्नैप लेना है।" एक आँख 
                    मूँदकर मैंने बड़ी विनम्रता से उसका स्नैप लिया। इससे उत्साहित 
                    होकर उसने कई तरह के पोज़ और मुख-मुद्राओं के फोटो खिंचवाये। 
                    एक बार 'चप्पंडि चप्पंडि' (कहिए, कहिए) कहकर खिलखिलाकर हँसा 
                    भी। अब वह अपने 
                    जीजा के घर में बैठा है। यह जीजा उसके स्वजातीय मंत्री का 
                    पर्सनल असिस्टैंट है। वह मिनिस्टर उसका इतना घनिष्ठ है कि यह 
                    उसी के घर में नहाता-धोता है। शायद मुझे 
                    विनीत बनाने के लिए या फिर अपने मुख पर यशोलक्ष्मी की कृपावली 
                    मुद्रा लाने के लिए वह इस तरह की बातें अंग्रेज़ी, तेलुगु और 
                    हिंदी में लगातार करता रहा और अपने उन मूडों को व्यक्त 
                    करनेवाले फोटो मुझसे खिंचवाता रहा। रील की आखिरी 
                    फोटो में वह फोन सुनता हुआ कुछ नोट कर रहा था। (इस बार उसने 
                    अपने ब्रीफकेस से एक पुड़िया निकालकर माथे पर कुंकुम लगा लिया 
                    था।) ऐसे में खुद मिनिस्टर ही यहाँ आ जाते हैं। वह ज़रा-सा 
                    उठकर उनको हाथ के इशारे से बैठने को कह रहा है। एक यह पोज़ था। जिस भविष्य 
                    की वह कल्पना कर रहा था, मेरे माध्यम से उसी की अपनी इच्छा वह 
                    पूरी कर रहा था। फिर वह अपना ब्रीफकेस लेकर उठ खड़ा हुआ। उसने 
                    कैमरे से रील निकालकर सावधानी से उसे डिब्बे में लपेटकर रख 
                    लिया। लेकिन उस शनि 
                    ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। कुंदेर को पढ़ने के बहाने मैं अपनी 
                    पूर्व मानसिक स्थिति में लौटना चाहता था, पर वह बगल की कुर्सी 
                    पर ही आ बैठा। उसने अपने ब्रीफकेस में से साज-सामान निकाला। सामने आदमकद 
                    शीशा लगा था। दूसरों का लिहाज करने की मेरी प्रवृत्ति के कारण 
                    उसे डींग मारने का अवसर मिल गया। मेरी आँखों से आँखें मिलाकर 
                    उसने अपने मुँह मियाँ-मिठ्ठू बनना शुरू कर दिया। उसका सिर-पैर 
                    जाने बिना मैं उसकी बातों में दिलचस्पी दिखाने लगा। मैं कौन 
                    हूँ, उसने यह पहले ही पता लगा लिया था। वह अपनी शेखी बघारने 
                    में लग गया। मुझे याद नहीं उस समय मैंने अपने आपको क्या समझ 
                    रखा था। पर उसने मुझ जैसे कइयों को अपने मंत्री जी के चैंबर 
                    में देख रखा था। मैंने उसकी जो तस्वीरें खींची थीं वे उसकी 
                    दैनिक चर्या को ही व्यक्त करनेवाली थीं। 'देखिए' कहकर उसने 
                    अपना एलबम खोला। एक चित्र में 
                    वह फर्नांडिस के गले में हार पहना रहा है। देश-सेवा के अपने 
                    प्रथम चरण में वह ऐसे पक्ष में है जिससे एक पैसे का फ़ायदा 
                    नहीं। इसमें तो धूल ही नसीब होती है। ऐसा चित्र था वह। दूसरी 
                    फोटों में वह एन.टी.आर. के चैत्ररथ का अगुआ है। हाथ उठा-उठाकर 
                    जय-जयकार कर रहा है। उसका एक स्वजातीय लीडर तेलुगुदेशम पार्टी 
                    में मंत्री बन गया था इसलिए लाचार उसे उसके साथ जाना पड़ा। यह 
                    उस समय की फोटो थी। एक और चित्र में वह सिर और मूँछें मुड़ाकर 
                    पेड़ की उन जड़ों-सा दीख रहा था जिन पर जमी मिट्टी धुल गई हो। 
                    राष्ट्रपति के साथ तिरूपति जाकर इनके लीडर ने भी सिर मुँडवा 
                    लिया था। तब इसने भी वैसा ही किया था। तब की तस्वीर है यह। बाकी जीराक्स 
                    प्रतिलिपियाँ हैं। किसी-किसी मंत्री के, किसी-किसी व्यक्ति के 
                    लिए : हो सके तो काम दीजिए वाले अभिप्राय के सिफ़ारिशी पत्र। 
                    उसमें यह भावना थी कि इसके परोपकारी स्वभाव के कारण ही यह सब 
                    चल रहा है। आन्ध्र के मंत्रियों के अलावा उसने केंद्र के 
                    मंत्रियों के भी पत्र दिखाए। अब वह कांग्रेस में हैं। यूथ 
                    कांग्रेस का वही सेक्रेट्री है। बैकवर्ड सैल के मंत्री के लिए 
                    वही स्पीच लिखता है। जीजा पर मंत्री का बहुत स्नेह है। पर जीजा 
                    जी को अंग्रेज़ी नहीं आती, इससे बिना जीजा का काम नहीं चलता 
                    इत्यादि बातें मेरे सामने क्षण-भर में साफ़ हो उठीं। मुझे वह 
                    कथाकार लेखकों के गले पड़नेवाले कॉमिक के पात्र जैसा लगा। 
                    मैंने उसका नाम नहीं पूछा। स्वयं आगे बढ़कर हाथ पसारकर वह बोला 
                    - मैं, शंकर बाबू, यूथ कांग्रेस का लीडर। मुझे ऑल इंडिया 
                    बैकवर्ड सैल के इनवाइटी के रूप मंत्री जी ने नॉमिनेट किया है। "आपका 
                    'एड्रेस' देखकर मुझे 'होप' हो गई।" बाद में खड़ा होकर हँसता 
                    हुआ वह बोला : "आप जैसे 'गेट ऑन' व्यक्ति बिना सूट-टाई के तो 
                    पत्नी से भी नहीं मिलते।" उसकी बात सुनकर मैंने सोचा कि आगे से 
                    कुर्ता-पाजामा नहीं पहनना चाहिए। लाउंज में चक्कर लगाते हुए वह 
                    मेरे बारे में कहने लगा, "आप एक सफल आदमी हो।" यह वह देखते ही 
                    जान जाता है कि कौन क्या है। इसके बिना इस ज़माने में राजनीति 
                    में रहना संभव नहीं। "सफल होने के लिए क्या सिर्फ़ प्रतिभा ही 
                    काफी है? ऊपरवाले की कृपा होनी चाहिए।" दिल्ली के विमान की 
                    प्रतीक्षा में बैठा मैं, उसे बड़ा 'फ्रेंडली' लगा। "हमारे 
                    प्रधानमंत्री जानते हैं कि आप जैसे लोगों को कैसे इस्तेमाल 
                    करना चाहिए। मैं तो इस समय पीठ-पीछे हाथ बाँधकर प्रतीक्षा करता 
                    रहता हूँ।" मित्र शंकर 
                    बाबू को यह पता लग गया होगा कि उस समय मेरा ध्यान वहाँ नहीं 
                    है। यह देखकर उसने एकदम हाथ से लिखा दीखनेवाला परंतु प्रिंट 
                    हुआ राजीव गांधी का ग्रीटिंग कार्ड दिखाया। उसने शीशे से यह 
                    देख लिया कि जिस प्रभाव की उसे आशा थी वह पड़ चुका है। बाद में 
                    उसने एक बहुत बड़ा चित्र दिखाया। वह किसी विवाह का चित्र था। 
                    जब मैंने वह चित्र देखा तब उसकी इच्छा कुछ और थी और मेरे मन 
                    में कुछ और। चित्र में एक सुंदर दुल्हन ने अपनी छाती पर 
                    मोटी-सी चोटी डाल रखी थी। लड़की काली थी। उसके प्रत्येक अंग पर 
                    सोना लदा था फिर भी वह मुझे एक शापग्रस्त सुंदर देवकन्या-सी 
                    जान पड़ी। उसके सामने एक बड़ी तोंदवाला खड़ा था। उसकी गर्दन पर 
                    तह-पर-तह चरबी चढ़ी हुई थी। खिजाब लगे बालोंवाली आधी सफाचट 
                    खोपड़ी। उसकी मोटी तोंद पर चढ़े चमकदार रेशमी कुर्ते में वह 
                    वी.आई.पी. एक मदमाता रसिक जान पड़ा। हाथ जोड़कर उसके खड़े होने 
                    से लगता था कि वह किसी की प्रतीक्षा में हो, ऐसा नहीं लग रहा 
                    था। वह एक दृष्टि में अटकी शिलामूर्ति-सा लगा। बाद में सोचते 
                    हुए मेरे मन में पंखुड़ियाँ-सी खुलने लगीं। शंकर बाबू उस 
                    मोटे का परिचय देने को आतुर था। पर मैंने उस शापग्रस्त कन्या 
                    जैसी दीखती लड़की के बारे में प्रश्न करना शुरू कर दिया। आपकी 
                    बहन का नाम क्या है? क्या पढ़ी-लिखी है? वह भाग्यशाली निजी 
                    सहायक आपके जीजा ही हैं। हाँ, और ये मंत्री हैं यह भी आपके 
                    बताये बिना ही मैं समझ गया हूँ। आपकी बहन की अब कोई संतान है? 
                    उसकी रुचियाँ क्या हैं? पर वह उठकर 
                    खड़ा हो गया। पीठ-पीछे हाथ बाँधकर बड़ी शान से मंत्री के बारे 
                    में बखान कर रहा था - ये पूजा किए बिना कॉफी तक भी नहीं छूते। 
                    सबसे बढ़िया टेलर से ही वे अपने कुर्ते सिलाते हैं। अपनी जाति 
                    में सेकेंड लाईन ऑफ लीडरशिप होना चाहिए, कहकर उसे आगे ला रहे 
                    हैं। उन्होंने ही अपने खर्चे से शादी करायी। पाँचेक कैबिनेट 
                    में वे मंत्री रहे हैं। नेक्सलाइट भी उनसे डरते हैं। सभी 
                    बैकवर्ड लोगों से उन्हें प्यार है। "सरोज, जरा कॉफी बना दो" 
                    कहते वे सीधे रसोई में ही पहुँच जाते थे। अंतिम वाक्य 
                    में भूतकाल का प्रयोग सुनकर मेरा कौतुहल और भी जाग पड़ा। जब 
                    उसने बहन की बात उठायी तब से मैं उसके लिए एक श्रोता भर था। अब 
                    उसके बात करने का लहजा बदल गया था मानो मैं अब नेक्सलाइटों की 
                    धमकियों के बारे में केवल एक श्रोता होऊँ। इसने मंत्री महोदय 
                    को एक भाषण लिखकर दिया था 'लॉ एंड ऑर्डर' के बारे में। उस भाषण का 
                    विषय था नेक्सलाइट लोगों की धमकियों का मुकाबला कर पाना संभव 
                    नहीं, यह भी एक स्वर था। पिछड़ी जाति की समस्याएँ अभी हल करनी 
                    हैं। मेरी माँ, जो इतनी रीलिजस थी, वह भी अब नेक्सलाइटों की 
                    प्रशंसा करने लगी हैं। मेरी बहन भी अब उनसे मिलने को क्यों 
                    तैयार हो रही है? शीशे के 
                    सामने भटकती उसकी छोटी-छोटी आँखें जब मेरा सामना करने लगीं तब 
                    मैंने कठोरता से पूछा, "कौन-सी-बहन?"उसे तनिक तसल्ली हुई। बैठकर उसने ब्रीफकेस से एक और चित्र 
                    दिखाकर कहा, "यह चित्र मैंने उसके अनजाने में ही खींचा है।" यह 
                    कहकर उसने मुस्कराकर मुझे उत्साहित-सा किया।
 उस चित्र में 
                    मैंने देखा - सुखाने को छाती पर बिखराये घने चमकते काले बाल। 
                    उसके शरीर पर नाम को भी एक आभूषण न था। यहाँ तक कि कान में 
                    बालियाँ भी न थीं। सादी हथ-करघे की साड़ी पहले स्नानघर से बाहर 
                    निकलती हुई दीख रही थी। उसे देखने से लगता था कि गुस्सा नाक पर 
                    ही धरा है। वह एकदम जलती पांचाली-सी दीख रही थी। बड़ी बहन के 
                    समान शापग्रस्त सौम्य देवता नहीं। फ्लैश से हैरान हुई 
                    विस्फारित आँखों की कठोर दृष्टि से भाई को जलाये डाल रही थी। 
                    काला मुख, काले बाल, चमकती आँखें! देखने से ऐसा लगा जैसे घने 
                    बादल हों। "यही गीता 
                    है। सबसे छोटी बहन। रोज घर-आँगन बुहारकर पोंछा लगाती हैं। बड़ी 
                    अच्छी रंगोली भी डालती है। अब इसी ने नेल्लूर में हमारे कुल के 
                    लोगों को एकत्रित करके शराब की दुकाने बंद कराने की क्रांति की 
                    है।" यह कहकर उसने व्यंग्यभरी हँसी हँसते हुए एक दीर्घ 
                    विश्लेषण करने को विवश कर दिया था। वह किसी भी 
                    विश्लेषण के बारे में हो सकता है। पर दु:खी मानव-व्यवस्थाओं के 
                    दोषों के बारे में, मानव इतिहास के कलंक के प्रति शंकर बाबू को 
                    किसी प्रकार की परवाह न थी। पर उसकी बातों में यह बात आभासित 
                    हो रही थी कि हमारे जैसे लोग उसकी आगे की बहस में रुचि ले सकते 
                    हैं। "डेमोक्रेसी की आपको ज़रूरत नहीं। चुनाव के बिना 
                    डेमोक्रेसी बची रहेगी? चुनाव के लिए पैसे नहीं चाहिए? वे कहाँ 
                    से मिलेंगे? काले धन से ही न? आगे डेवलपमेंट के लिए रेवेन्यू 
                    नहीं चाहिए क्या? वह कहाँ से आएगा? काले पैसे से ही न? "मोस्ट ऑफ 
                    इट! उसमें ज़्यादा-से-ज़्यादा शराब की बिक्री से। इन 
                    नेक्सलाइटों को भी क्रांति के लिए बंदूकें कहाँ से मिलती हैं? 
                    ड्रग के पैसे से। पाकिस्तान से, चीन से, जर्मन-विद्रोह से, 
                    लेनिन ने क्रांति की थी न? गांधी जी को भी पैसा बिरला से ही 
                    मिलते थे न? पर उसे पैसे कहाँ से मिले थे? आकाश से बरसे थे 
                    क्या? आप जैसे लोग इंग्लैंड से पढ़कर अपने को सज्जन कहकर 
                    इतराते नहीं - उन देशों के पास जो पैसा आया है वह भी तो गरीब 
                    देशों का खून चूस कर ही तो आया है। इसी तरह साई बाबा जो 
                    अस्पताल बना रहा है, या तिरूपति के तिम्मप्पा का भंडारा - " मैं 
                    वाद-विवाद में हिस्सा नहीं ले रहा था, यह देखकर शंकर बाबू ने 
                    अपने आप हँसना शुरू किया : "यह क्या, सर? आप जैसे लोगों से मैं 
                    जरा अंग्रेज़ी सीखना चाहता हूँ तो आप यों चुप हो गए! मैं आपकी 
                    तरह फॉरेन गया नहीं। संडे, इंडिया टुडे, फाइनांशियल एक्सप्रेस 
                    -जो भी हाथ लगता है, उसे पढ़कर मैंने अंग्रेज़ी सीखी है। हमारे 
                    ऑफिस में ई.पी.डब्ल्यू. पत्रिका आती है। भले ही मैं आपको 
                    इम्प्रैस नहीं कर सका पर हमारे मंत्री जी के लिए मैं ही ब्रेन 
                    हूँ। ये सब विचार मैंने उनको लिखकर दिए और उसी बात को लेकर वे 
                    बोलते हैं और आप जैसे लोग बड़ी गंभीरता से उसका विश्लेषण शुरू 
                    करते हैं। उनके बारे में आप ही कल ई.पी.डब्ल्यू. में लिखेंगे।" ख़ैर, उसके 
                    इतना ज्ञान बघारने पर भी मैं उससे प्रभावित नहीं हुआ। पर मैंने 
                    जानबूझकर जम्हाई लेते हुए कहा, "मैंने तो आपकी बड़ीवाली बहन के 
                    बारे में पूछा था, पर आपने उस बारे में कुछ कहा ही नहीं!" "क्या बताऊँ, 
                    मेरा दुर्भाग्य! शादी के एक महीने बाद ही वह चल बसी।" धरती पर 
                    आँखें गाड़े शंकर बाबू ऊपरी मन से बोला, "उसने सुसाइड कर ली। 
                    मेरी सारी फजीहतों का वही कारण है।" कामरूपी अपने 
                    असली रूप में एक क्षण-भर के लिए ही सही मुझसे बात करेगा, मेरा 
                    यह सोचना भ्रम ही रहा। उसे मुझसे क्या चाहिए था। क्षण-भर में 
                    ही उसकी आँखें शीशे से सोफा और सोफे से शीशे तक भटकने लगीं। 
                    उसका भाषण बड़ा साफ-सुथरा था। सरोज मनोरोगी रही होगी। "हमारा घराना 
                    शिक्षित नहीं था। माँ को पता ही नहीं चला। मेरा तो सारा समय 
                    समाज-सेवा में ही चला जाता था। रोज दौड़-धूप लगी रहती। उसके 
                    लिए कोई कमी न थी। यहाँ तक कि रसोईघर में आकर मंत्री महोदय 
                    कॉफी माँगते थे। सास-ससुर का कोई झंझट नहीं था। जो चाहिए वह 
                    साड़ी, शरीर भर कर गहने -" मेरा स्वर 
                    काँप उठा। मैंने जरा कटु होकर कहा, "आप अच्छी तरह जानते हैं कि 
                    वह क्यों मरी। अगर आप मुझसे बात करना चाहते हैं तो सच सच 
                    कहिए।" शंकर बाबू के 
                    हाव-भाव बदल गए। अपरिचित व्यक्ति के प्रति जो किंचित मात्र 
                    नम्रता रहनी चाहिए, वह भी उड़ गई। घनिष्ठता में जो घृष्ठता 
                    राहती है उसी ढंग से मुझे भी एक सभा मानकर वह मेरे सामने आ 
                    खड़ा हुआ। कनखियों से शीशे में देखते हुए किसी दूसरे से बात 
                    करने की तरह मुझसे कहने लगा। उसकी कच्ची 
                    आयुवाली बहन गीता की तरह मुझे बात करते देखकर उसे आश्चर्य हुआ। 
                    "बिना नीति खोये भी कुछ लोग सफल होते हैं। उदाहरण के लिए आप ही 
                    को लीजिए।" कहकर फिर से अपनी गलत-सलत अंग्रेज़ी में उसने कहना 
                    शुरू किया।  उसकी बात से 
                    यह ध्वनित हो रहा था कि वह अंग्रेज़ी में बात करने की 
                    प्रैक्टिस के लिए बात कर रहा है। उसके इस कटु सत्य को मुझे सह 
                    भी लेना चाहिए। टेबल के पीछे 
                    मंत्री जी बैठे हैं। वहाँ एक कोने में बैठा सब देख रहा है। 
                    "उदाहरण के लिए आप! आप नहीं तो आपकी क्लास का कोई और। वहाँ आते 
                    हैं। खड़े होकर झुककर नमस्कार करते हैं। (शंकर बाबू दाँत 
                    निपोरता हुआ हाथ जोड़कर मेरे सामने खड़ा हो गया) मंत्री जी 
                    आराम से सिर उठाते हैं। आँख से बैठने का इशारा करते हैं। तब 
                    मैं डरता-डरता बैठ जाता हूँ। (शंकर बाबू सामनेवाले सोफे पर 
                    अपराधी की भाँति सिर झुकाये दुबककर बैठता है।) अब मेरे लिए 
                    समस्या है। अंग्रेज़ी में बात करूँ? या फिर तेलुगु में? तेलुगु 
                    में बात करने से यह भाव निकलता है कि मंत्री जी को अंग्रेज़ी 
                    नहीं आती। इसलिए मैं अंग्रेजी में शुरू करता हूँ। "सर, आपका 
                    नेक्सलाइटों के द्वारा पहुँचाई हानि का विश्लेषण बहुत बढ़िया 
                    था। राजनीति में डाक्टेट लेनेवाले हम जैसों की भी आप जैसी 
                    इनसाइट नहीं। (अब शंकर बाबू अपना स्वर बदलकर, 'वह स्पीच इस 
                    पूअरमैन ने लिखी है' कहकर अपनी ओर उँगली से इशारा करता है) 
                    मंत्री जी बेशर्म होकर फूल उठते हैं। ऐनक साफ़ करके पहन लेते 
                    हैं। तेलुगु में ही कहते हैं, "मित्रता बनाये रखिए। मैं आपके 
                    लिए क्या कर सकता हूँ?" तब मैं 'हाँ' 'हूँ' करता खखारकर गला 
                    साफ करता हुआ प्रार्थना करता हूँ (शंकर बाबू ने मेरे स्वर की 
                    नकल की)। "लास्ट टाइम ही मुझे पब्लिक सर्विस कमीशन का चैयरमैन 
                    बनना था, सर। हमारे मुख्यमंत्री को बैकवर्ड लोगों में दिलचस्पी 
                    नहीं है, सर। एक भी बैकवर्ड किसी युनिवर्सिटी का वी.सी. नहीं 
                    बना। आप तो बैकवर्ड लोगों का साथ नहीं छोड़िए। आप ही पर हम 
                    लोगों का विश्वास है। इस समय पी.एस.सी. में मुझे चांस देना ही 
                    होगा, सर।" |