भ्रमर ने नटिया के दूर के
रिश्ते की मौसी की जायी बहन से ब्याह किया है। सुलोचना को घर
लाने की बहुत इच्छा थी। इसके लिए उसने कुछ भी उठा नहीं रखा।
शरधा जीजी, केलू बाबा आदि को बीच में रख दामा पुहाण बाबा को
बहुत समझाया। लेकिन उसकी वह लफंगाई आदत, उसके बेढ़ंगे स्वभाव
को देखकर माँ-बाप या सुलोचना कोई राजी नहीं हुए। फिर भी वह
कभी-कभी ठेका या बदले में काम कर लेता है। कोई फॉरिस्ट गार्ड
छुट्टी पर जाए तो महीने दो महीने उसकी जगह काम कर लेता है, फिर
वही बेकार का बेकार!
नटिया ने उस दिन सुलोचना को
पोखर के पास धमकाया था, "देखता हूँ, तुझे कौन ब्याहता है? मैं
ठिकाने बिठा दूँगा!" आज तक सुलोचना भूली नहीं है वह बात! नटिया
की भंगिमा और आवाज़ कभी-कभी याद आ जाती है तो वह घबरा-सी जाती
है।
नटिया बनाम नट, बनाम नटवर की
मोटी-मोटी बाघ-जैसी मूँछें, उन पर चिपटी नाक और हड़ीले गाल
देखकर कोई भी डर जाएगा। बचापन से ही सुलोचना को उससे कोफ्त रही
है। फिर उसकी टेढ़ी-मेढ़ी आदत, कड़ा मिजाज़ और उस पर उसका आगे
बढ़कर मामलातकार बनने की आदत - शुरू से ही उसके प्रति मन में
घृणा भर चुकी है। अब तो लम्बे-लम्बे बालों और मूँछों की कली के
कारण तो एकदम अजीब लगता है।
उस दिन गाँव में यात्रा
(मेला) हो रही थी। जखरा ऑपेरा पार्टी 'कंसासुर-वध' स्वांग (एक
तरह का नाटकीय प्रदर्शन) रच रही थी। भ्रमर और सुलोचना गाँव में
स्वप्नेश्वर महादेव के मन्दिर के प्रांगण में यह स्वांग देख
रहे थे। नट भी एक पिक्का सुलगाये हुए यात्रा देख रहा था।
बीच-बीच में जब सखी का कोई गाव-गीत आता तो वह अश्लील
टिप्पणियाँ करने से नहीं चूकता। यात्रा खत्म होने के बाद
धक्कम-धक्की करते सब लोग भीड़ में लौट रहे थे, सुलोचना को लगा,
बायीं ओर पीछे से किसी ने हाथ बढ़ाया है। कसकर उसे भींचकर भीड़
में कहीं गायब भी हो गया। चीखती-सी उसने भ्रमर को आवाज़ दी।
भ्रमर कुछ कदम पीछे छूट गया था। उसने दौड़कर आगे आकर पूछा,
"क्या बात है?"
आगे नटिया जा रहा था। उसे
दिखाकर इशारा किया। भ्रमर ने जाकर पीछे से नटिया को धर पकड़ा।
नटिया बहाना बनाते हुए बोला, "क्या क्या बात है? किसके बदले
किसे पकड़ रहे हो?"
दोनों में तू-तू मैं-मैं हो
रही थी - कुछ लोग इकठ्ठा हो गए। आखिर बीच-बचाव हुआ। नटिया और
भ्रमर दोनों ने एक दूसरे को कहा - "ठीक है, देख लेंगे!"
तब से सारे गाँव में यह बात
फैल गई कि नटिया और भ्रमर में ठन गई है। जल्दी ही कुछ घटेगा!
दो दिन बाद। हाट वाले दिन मदन
साहू की दुकान के आगे नटिया ने सबको सुनाकर कहा, "मैं उसका खून
पी जाऊँगा।" उधर भ्रमर भी कुछ दूर काँसा-पीतल की दुकान के आगे
सना बेहरा को सुनाकर कह उठा, "मैंने उसे खत्म न कर दिया तो
मेरा नाम भ्रमर साहू नहीं!"
क्रमश: दिन बीतते गए। लोग-बाग
धीरे-धीरे नट-भँवरे के झगड़े-झंझट की बात भूल गए। छह-सात महीने
निकल गए इसी तरह। एक दिन भोर तड़के ही सुलोचना जंगल की ओर से
दौड़ी-दौड़ी हाँफती-सी आकर घर में घूसते ही अचेत! भँवरा और कुछ
युवक उधर पास खड़े बतिया रहे थे। दौड़ आए, किसी तरह सुलोचना को
होश में लाए। पूछा, "बात क्या हुई?" सुलोचना ने बताया, "साँझ
तक बछिया जब नहीं आई तो ढूँढ़ने मैं जंगल की ओर गई थी। कोई
झुरमुटे से निकल अचानक आ झपटा। खींचा-तानी चली। आम के पेड़-तले
खींचता ले गया। जान बचाकर किसी तरह भागी गिरती-पड़ती आ गई।
बाबरानियाँ काँटों का बोझ लिए जंगल से लौट रही थीं। उन्होंने
भी हल्ला मचाया।
मगर वह तो अँधेरे में भाग छूटा।'
"कौन था वह?" सबने एक स्वर
में पूछा।
"नटभाई!" सुलोचना ने धीरे से
कहा।
बस भँवरा के सिर भूत सवार।
फरसा लेकर नटिया के घर की ओर तेज़ी से चल पड़ा। साथ ये
चार-पाँच छोकरे। हाथ में लाठी लिए ये भी लैस। नटिया पिछवाड़े
बाड़ी में से होते हुए जंगल में भाग गया। आठ-दस दिन तक गाँव
में दिखाई ही नहीं पड़ा। इसके बाद जब गाँव लौटा तो भँवरा उसकी
ताक में रहने लगा।
गाँव में काना-फूसी हुई - बस
अब दो में से कोई जाएगा। गाँव के नाले के पुल पर बैठा पैर
हिलाते हुए नट कह रहा था - सबको सुना सुनाकर, "अब की देख लँूगा
उसे!" भँवरा भी महादेव मन्दिर के आगे सबको सुनाकर कह आया, "उसे
जब तक ज़िन्दा न जला दिया, चैन से नहीं बैठूँगा।"
गाँव में कुछ युवकों में
चर्चा चली - देखना है, अब पहले कौन किसे खत्म करता है। भगवान
ही जानें।
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