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पर्यटन

सिंगापुर, बैंकाक और पटाया का त्रिकोण
--दीपिका जोशी
 


हम परदेस में थे और बच्चे पढ़ाई के लिए भारत में ही। यों तो कुवैत से भारत ख़ास दूर नहीं और आना जाना लगा रहता था पर दूरियों का अहसास भी बना ही रहता था। देखते ही देखते दस साल बीत गए और बच्चे इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर विदेश में ऊँची पढ़ाई की प्रवेश परीक्षाएँ भी पास कर गए। जीवन की आपा धापी में साथ घूमना और बाहर निकलना कभी हो ही नहीं पाया। बहाना चाहे कोई भी हो समय का हो, सहूलियत का हो या फिर पैसों का। बड़ी इच्छा थी कि बेटों के अमरीका जाने से पहले साथ में कहीं बाहर घूमने चलते!
यह अवसर मुझे ही ढूँढ़ना था।

जब सभी व्यस्त हों तो सब की सहूलियत, सुविधा भी देखनी थी। ज़्यादा घूमने फिरने का शौक मेरा, सो हर बात में कदम बढ़ाने का काम भी मेरा ही होता है। बेटों और पति दोनों के समय का तालमेल बिठाना... ओफ!! एक ओर अपने काम में कुछ ज़्यादा ही व्यस्त रहनेवाले पतिदेव की छुट्टी की चिन्ता तो दूसरी तरफ़ बेटों का कॉलेज, पढ़ाई और सीमा पर पहुँचा हुआ प्रोजेक्ट। लेकिन मेरे उत्साह को समझते हुए तीनों ने सहयोग दिया और मेरा सपरिवार घूमने जाने का सपना साकार होने की आशाएँ बढ़ गई।

सबकी सहमति से सिंगापुर बैंकाक और पटाया की यात्रा का फैसला किया गया। पूरे इन्तज़ाम की ज़िम्मेदारी बेटों ने ले ली। हम ज़रा चिन्तित थे क्योंकि समय पर सारा प्रोग्राम तैयार हो कर फ्लाइट की बुकिंग समय पर होना ज़रूरी था। पर बेटों ने ये काम कर ही दिखाया। हमारी भारत यात्रा शुरू होने से पहले ही हमारे हाथ में आगे का सारा प्लान मौजूद था। भारत पहुँचने के बाद पासपोर्ट पर सिंगापुर का वीसा लगवा लिया गया। थायलैंड का वीसा बैंकाक पहुँचने पर लगवाना था।

इस तरह हमारा यह १० दिन का सफर १६ फरवरी को सुबह ५ बजे की फ्लाइट से शुरू हुआ। साढ़े तीन घंटे की यह बैंकाक तक की दूरी सोते जागते ही पूरी हुई। सफर के पहले पड़ाव में अम्बैसेडर होटल से शुरुआत हुई। थकावट तो कुछ नहीं थीं, सो तुरन्त भ्रमण शुरू हो गया। थायलैंड में भाषा ने सबसे पहला झटका दिया। एक आध ही कोई मिलेगा जो अंग्रेज़ी जानता हो। इस बात को ध्यान में रख कर एयरपोर्ट से होटल के टैक्सी ड्राइवर को पकड़ कर रखना हमने उचित समझा। वह थोड़ी तो अंग्रेज़ी जानता था। बाद में जब घूमने निकले तो वहाँ की महँगाई से पहचान हो गई। वहाँ की मुद्रा को भात कहते हैं जो हर जगह हज़ारों में गिनना बड़ा ही दिल दुखाता है।

हम बैंकाक शहर का जायज़ा लेते हुए थाई मंदिरों की ओर बढ़ रहे थे। नये और पुराने शहर में जो बदलाव आया है उसे हम समझ सकते हैं। थायलैंड में मन्दिरों की संस्कृति अपने भारत जैसी आज भी संजोकर रखी गई है। विशिष्ट पद्धति के काफी रंगबिरंगे इन मन्दिरों को 'वत' कहा जाता है। मन्दिर थाई कलात्मकता और वास्तुशास्त्र के कमाल है। ऐसे ही एक वत में भगवान बुद्ध की सोने की लेटी हुई मूर्ति है। कहते हैं, यह सात सौ साल पुरानी है। १४५ फुट लम्बी इस मूर्ति को आप एक ही समय आँखों में नहीं समा सकते। वत ट्रेमीर में बैठे हुए भगवान बुद्ध दस फुट ऊँचे और पाँच टन सोने के बने हैं। ऐसी मूर्तिर्यों को आँखों से ओझल होने देने को मन नहीं कर रहा था। चायना टाऊन में आप अपनी शाम सुहावनी बना सकते हैं। ख़रीदारी के लिए मनभावन चीज़ों से भरा यह चायना टाऊन हमें कुछ न कुछ ख़रीदने के लिए उकसाता है।

दुनिया की सबसे बड़ी हीरों और जवहरातों की दूकान बैंकाक में हैं। जब वहाँ पहुँचे तो कदम रखते ही थाई लिबास में बन-ठनी महिलाओं ने हमारा स्वागत किया और ठण्डा पेय पेश कर गरमी से राहत दिलायी। दुकान की सजावट, जगमगाहट शब्दों में बयान नहीं कर सकते। भारत में हीरे को सही रूप देने वाले कारीगर आज भी बड़ी तादात में और दुनिया भर में अपनी कला के लिए मशहूर हैं, लेकिन उनके कामों को नवाजा जाता नहीं। इस बात का दुख यहाँ के माहौल में हुआ। यहाँ तो कारीगर सबकी प्रशंसा हँसते-हँसते हासिल कर रहे थे। सब गहनों की कीमतें आसमान छू रही थीं।

दूसरे दिन सुबह थोनबुरी में फ्लोटिंग मार्केट की सैर करनी थीं। नाम से ही पता चलता है कि यहाँ ख़रीदारी और बिक्री छोटी-छोटी नावों में बैठ कर ही की जाती है। सुबह २-३ घण्टे का यह बाजार देखने में बड़ा मज़ा आता है। निशानिया या शौकिया तौर पर हमने भी वहाँ ख़रीदारी की। केन से बनी छतरियाँ, टोपियाँ और न जाने क्या क्या!! इन्ही फ्लोटिंग मार्केट के कनाल से गुज़रते और लोगों के रहन सहन की तरफ़ ध्यान देते हुए हम आगे स्नेक फार्म की तरफ़ बढ़े।

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