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दृश्य चार     

(जूनडब का शाही बाग प्रकाश में जगमगा रहा है। अपार जनसमूह के बीच सुलतान जैनुलाबदीन अपने तख्त पर शोभायमान हैं। उनके दाएं-बाएं नीचे की ओर वज़ीर, दरबारी और दूसरे अधिकारीगण बैठे हुए हैं। सारा माहौल खुशियों से भरा हुआ है। बहुत दिनों के बाद जनता अपने प्यारे महाराज के दर्शन कर कृतार्थ हो रही है। जनता में अपार उत्साह है और लोग आपस में बाते कर रहे हैं- 'वह देखों महाराज वहां पर बैठे हैं, उधर- हां उधर तख्त पर . . .' 'वो रहे श्रीभट्ट- वहां उस तरफ़ दरबारियों की अगली पंक्ति में दाईं ओर की छोर पर।' 'हां-हां, देख लिया। वाह! ऊपर वाले ने क्या नूर बख्शा है उनके चेहरे पर!' तभी बुजुर्गवार दरबारी हलमत बेग खड़े होकर जनता से मुखातिब होते हैं)

हलमत बेग -  साहिबे सदर और हाज़रीन! कश्मीर की अमनपसंद सरज़मीन पर आज आलीजाह एक फरिश्ते को अपने हाथों से प्यार और मोहब्बत का ऐसा नज़राना पेश करने वाले हैं जिसका कश्मीर की तवारीख़ में कोई सानी न होगा। ऐसा नायाब तोहफ़ा जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल होगा।(जनता में जोश-खरोश-तालियां।) वह फरिश्ता है हकीम श्रीभट्ट। श्रीभट्ट ने वह काम किया है जिसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। (तालियां . . .) आलीजाह की जान बचाकर पंडित श्रीभट्ट ने न सिर्फ़ शाही खानदान पर बहुत बड़ा एहसान किया है बल्कि कश्मीर की अवाम और यहां के ज़र्रे-ज़र्रे को अपनी काबलियत का कायल बनाया है।(तालियां एवं आवाज़ें।) हकीम मंसूर और बेटा हैदर, तुम दोनों श्रीभट्ट को बाइज्ज़त आलीजाह के पास ले आओ।
बादशाह - नहीं-नहीं हलमत बेग! मैं खुद उठकर श्रीभट्ट को बाइज्ज़त लिवा लाऊंगा। (तख्त से उठकर श्रीभट्ट के पास जाते है। उनके साथ शाहजदा हैदर और हकीम मंसूर हैं। तीनों बड़े अदब के साथ बारी-बारी से श्रीभट्ट को गले लगाकर उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता तख्त के पास ले आते हैं। जनता में असीम उत्साह और जोश ठाठें मार रहा है। तालियों की आवाज़ से फिज़ाएं गूंज उठती हैं।
श्रीभट्ट - बस आलीजाह, बस! मुझे और शर्मिंदा न करें। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसके लिए मुझे इतनी बड़ी इज्ज़त दी जा रही है।
बादशाह -  नहीं श्रीभट्ट, नहीं। तुम नहीं जानते कि तुमने कितना बड़ा काम किया है- तुम्हारे एहसान को मैं कभी भूल नहीं सकता! तुम को देखकर मुझे जो खुशी हो रही है उसे मैं बयान नहीं कर सकता। तुम्हारी काबलियत की माबदौलत ही नहीं बल्कि मेरी पूरी सलतनत कायल हो गई है। आज मैं तुम्हारा दामन बेपनाह दौलत से भर देना चाहता हूं, आओ मेरे दोस्त, आओ . . .मेरे साथ आओ।
(जनता में जोश और उत्साह -आवाज़ें)
श्रीभट्ट - हुजूर! आलीजाह! यह तो आपका बुलंद इकबाल था जिसने इस नाचीज़ को कामयाबी की मंज़िल तक पहुंचाया।
बादशाह - नहीं श्रीभट्ट नहीं। हम तुम्हारी काबलियत को कम करके नहीं आंक सकते। जिस हुन्नरमंदी से तुमने हमें नयी जान बख्शी है उसे भला हम कैसे भुला पाएंगे? सारे गै़र-मुल्कों हकीमों को तुमने दिखा दिया कि कश्मीर की सरज़मीन पर भी एक ऐसा हकीम मौजूद है जिसकी मिसाल वह खुद है।
श्रीभट्ट - यह हु़जूर की ज़रानवाज़ी है। आपकी हौसला–अफ़ज़ाई के लिए मशकूर हूं आलीजाह। (झुककर सलाम करता है।)
बादशाह - आओ इस तरफ़, इस तख़्त पर मेरे साथ बैठ जाओ। हां मेरे नज़दीक। आओ, और नज़दीक आओ। मेरे पास।
(श्रीभट्ट बादशाह के पास तख्त पर बैठ जाता है। जनता में भरपूर जोश है। तभी एक दरबारी सोने की मोहरों से भरा हुआ एक थाल लेकर आता है और श्रीभट्ट को पेश करना चाहता है।)
बादशाह - पंडित श्रीभट्ट! यह एक छोटा-सा तोहफ़ा है। मैं जानता हूं कि दुनिया की कोई भी दौलत तुम्हारी ख़िदमत का बदला चुका नहीं सकती। मगर फिर भी मेरा दिल रखने के लिए इस नज़राने को तुम्हें मंज़ूर करना होगा। तुम मंजूर करोगे तो मेरे दिल को सकून मिलेगा। तुम चाहो तो कुछ और भी मांग सकते हो।
(जनसमूह में उत्साह/तालियां . . .सारे दरबारी, वज़ीर, अधिकारीगण आदि समवेत स्वरों में 'सुलतान जैनुलाबदीन की जय' आवाज़े बुलंद करते हैं। थोड़ी देर के लिए जयघोष से सारा वातावरण गूंज उठता है। फिर धीरे-धीरे खामोशी छा जाती है और श्रीभट्ट खड़े होकर निवेदन करते हैं।)
श्रीभट्ट - आलीजाह! इन सोने की मोहरों को लेकर मैं क्या करूंगा? मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। बस, मैंने तो अपना फ़र्ज़ पूरा किया। जनता का भी तो फ़र्ज़ बनता है कि वह अपने राजा की सेवा करे।
बादशाह - उसी फ़र्ज़ को निभाने की एवज़ में ही तो मैं तुम्हें इनाम देना चाहता हूं। तुम कुछ मांगोगे तो मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।
श्रीभट्ट -
बादशाह - 
आलीजाह!
ब्हां-हां! बोलो, अपने लिए नहीं तो मेरा दिल रखने के लिए तुम्हें ज़रूर कुछ मांगना पड़ेगा। मांगो क्या चाहते हो?।
(जनसमूह अशांत है। फुसफुसाहट)
श्रीभट्ट -
बादशाह - 
श्रीभट्ट -
बादशाह - 
आलीजाह! मेरी एक इल्तिजा है, एक दरख्वास्त है।
क्या चाहते हो? जल्दी बोलो मेरे दोस्त।
सोचता हूं आलीजाह! कहीं छोटे मुंह बड़ी बात न हो जाए।
बिल्कुल भी नहीं। तुम कुछ बोलो तो!!
श्रीभट्ट - आलीजाह! मेरी दरख्वास्त है कि दूसरे फिरके की तरह ही मेरे फिरके के लोगों को भी सरकारी नौकरी पाने के लिए बराबरी के मौके दिए जाएं। इससे हु़ज़ूर की नेकदिली में चार चांद लग जाएंगे।
बादशाह - खूब, बहुत खूब! श्रीभट्ट! आज तुमने सचमुच मेरी आंखें खोल दी। जो बात मेरे दरबारी, हुक्मरान और वज़ीर आज तक न कह सके, वह तुमने कह दी। बेशक! बादशाह का काम है अपनी अवाम में गै़र-बराबरी को ख़त्म कर बराबरी का दर्जा कायम करना! मेरे बु़जुर्गों ने अगर कोई ग़लत काम किया है, मैं उसे दोहराऊंगा नहीं! आज से ही मेरे मुल्क में फिरकावाराना गैरबराबरी का दर्जा .खत्म होगा। यह मेरा वादा रहा! म-मगर यह तो तुमने अपने लोगों के लिए मांगा है, अपने लिए भी तो कुछ मांगों श्रीभट्ट!
श्रीभट्ट -
बादशाह - 
श्रीभट्ट -
मेरी एक दरख्वास्त और है आलीजाह!
बोलो - मैं अभी उसपर अमल करता हूं।
मेरे फिरके के लोगों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक आज़ादी के साथ ख़ुदा की इबादत करने का मौका मिलना चाहिए . . .और-और . . .
बादशाह -  मैं समझ गया मेरे दोस्त! ज़रूर-ज़रूर ऐसा ही होगा! आज से हर फिरके को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक खुदा की इबादत करने का हक होगा। और आज ही मैं हुक्म देता हूं कि जिजया वसूली को भी ख़त्म कर दिया जाए। मेरे दोस्त! तुम कुछ और मांगना चाहो तो मांगो।
श्रीभट्ट - ख़ौफ़ और दहशत से भागे हुए मेरी बिरादरी के बदकिस्मत लोगों को वापस बुलवाकर उन्हें बाइज्ज़त वादी-ए-कश्मीर में बसाया जाए और हर किसी को बगैर किसी भेदभाव के विद्या की दौलत पाने की छूट दी जाए। बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिए आलीजाह!
बादशाह -  सुभान अल्लाह! भई वाह! श्रीभट्ट तुम तो सचमुच इंसान की शक्ल में फ़रिश्ते हो। तुमने अपनी कौम को ही नहीं अपने नाम को भी रोहानास कर दिया है। तुम्हारी यह कुर्बानी बताती है कि कच्चा इंसान वह है जो खुदग़र्जी से ऊपर उठकर समूची इंसानियत के हक में सोचता है- मरहब्बा। आफरीं तुम एक हकीम ही नहीं वर्ना इंसानियत की रोशनी से जगजगाते हुए एक चिराग़ हो।
श्रीभट्ट - हुजूर! मेरे लिए यह चार बातें चार करोड़ मुहरों के बराबर हैं। आप मेरी इन चार मुरादों को पूरा करेंगे तो समझ लीजिए मुझे मेरा इनाम मिल गया।
बादशाह - तसल्ली रखों मेरे दोस्त! तुम्हारी हर मुराद पूरी होगी! हमारे बु़जुर्गों ने अपनी गैर ज़िम्मेदाराना हरकतों से आपकी कौम पर जो ज्यादतियां की हैं, उस बदनुमा दाग़ को मैं दूर करके ही दम लूंगा। मैं खुद देख्रूंगा कि तुम्हारी हर मुराद जल्द-से-जल्द पूरी कर दी जाए-मगर, अब मेरी भी एक दरख़्वास्त है।
श्रीभट्ट -
बादशाह -
हु़जूर फ़रमाए! क्या ख़िदमत कर सकता हूं?
मैं तुम्हे अपने मुल्क का वज़ीर-ए-सेहत बनाना चाहता हूं ताकि अपनी काबलियत और इल्मोहुन्नर से तुम वतन के लोगों को खुशहाल रख सको। दुनयावी तकलीफ़ों और बीमारियों से उन्हें निजात दिला सको-। पह मेरी दिली ख्वाहिश है-
श्रीभट्ट -
बादशाह -
आलीजाह! इस नाचीज़ को आप बहुत एहमियत दे रहे हैं।
नहीं श्रीभट्ट नहीं। तुम्हें नहीं मालूम कि तुम क्या हो? आने वाली नस्लें तुम पर नाज़ करेगी। कश्मीर की तवारीख़ पर तुम हमेशा आफ़ताब की तरह चमकते रहोगे-
(गले से लगाते हैं और सुलतान अपनी उंगली में से हीरे की अंगूठी निकालकर श्रीभट्ट को पहनाते हैं। जन-समूह में अपार खुशी है। सारा वातावरण खुशियों से गूंज उठता है।)
संगीत धीरे-धीरे मद्धिम होता है।
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9 अक्तूबर 2006 

 
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