मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


2

दृश्य एक

(कश्मीर की राजधानी नौशहरा के एक मौहल्ले की गली में दो पड़ौसी रमज़ान खां और सुखजीवनलाल बादशाह सलामत सुलतान जैनुलाबदीन की सेहत के बारे में आपस में बातचीत कर रहे हैं।)
रमज़ान शेख - अरे-रे! आज सवेरे-सवेरे कहां चल दिए सुखजीवन लाल?
सुखजीवनलाल -ओह-हो! तुम हो? रमज़ान शेख! अरे भाई . . .रात को नींद बिल्कुल भी नहीं आई। घरवाली भी रातभर करवटें ही बदलती रही। सोचा जल्दी उठकर दरिया में नहा के आऊं।

रमज़ान - 
सुखजीवनलाल -
म-मगर नींद न आने का कोई सबब?
वाह! जैसे तुमको कुछ ख़बर ही नहीं। सुना है बादशाह सलामत की तबियत बिगड़ती ही जा रही है। सारे हकीमों और वैद्यों ने जवाब दे दिया है।
रमज़ान - भाई, सुना तो मैंने भी था कि उनका इलाज करने के लिए ईरान, अफ़गानिस्तान और तुर्किस्तान से शाही हकीमों को बुलवाया गया है।
सुखजीवनलाल - ठीक सुना था तुमने! मगर उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए और अपने-अपने मुल्कों को लौट गए। सुना है कि बादशाह सलामत का फोड़ा नासूर में बदल गया है। यह फोड़ा नहीं, ज़हरबाद है। एक जानलेवा फोड़ा- एक रिसता घाव! अब तो बस ऊपर वाले का ही सहारा है।
रमज़ान - भाई सुखजीवन! तुमने बड़ी ही बुरी ख़बर सुनाई। मैं तो यही समझता था कि बादशाह सलामत ठीक हो गए होंगे। अल्लाह! अब क्या होगा! खुदावंदा! यह तू किस बात की सज़ा हमें दे रहा है? ऐसे नेक और रहमदिल बादशाह के साथ यह ज़्यादती क्यों? नहीं-नहीं सुखजीवन लाल, नहीं . . .ऊपर वाला इतना पत्थरदिल नही हो सकता। ज़रूर कोई रास्ता निकलेगा . . .ज़रूर।
सुखजीवनलाल - हां-हां रमज़ान भाई, उम्मीद तो मैंने भी नहीं छोड़ी है। जाने क्यों मुझे लगता है कि कहीं न कहीं से उम्मीद की कोई किरण फूटेगी ज़रूर!!
रमज़ान -
सुखजीवनलाल -
आमीन मुम आमीन! अच्छा यह बताओ कि क्या शाही हकीम हज़रत मंसूर भी नाकाम रहे?
 अरे भाई, उनकी बात ही क्या है? बताया न दूसरे मुल्कों के नामवर हकीम भी बादशाह सलामत के फोड़े को ठीक न कर सके और लौट गए!
रमज़ान -
सुखजीवनलाल -
ओफ! हां- भूल गया मै! बताया था तुमने . . .म-मगर अब क्या होगा?
बस दुआ करो। शायद हमारी दुआएं काम आ जाएं। बड़े बुजुर्गों ने ठीक ही कहा है - जब दवा काम न करे तो दुआ करो।
रमज़ान -  हां-हां। ठीक है। मैं भी अभी मस्जिद में जाकर बादशाह सलामत की सेहत के लिए दुआ मांगता हूं। नमाज़ का वक्त भी हो चला है . . .चलो चलो। खुदा ताला के दरबार पे आलीजाह की तंदरूस्ती के लिए दुआ मांगे।
सुखजीवनलाल - ज़रूर ज़रूर! मैं भी नहा कर आता हूं।(दोनों चले जाते हैं)

दृश्य दो

(बादशाह जैनुलाबदीन रोग-शय्या पर लेटे हुए हैं। कमज़ोरी के मारे उनके अंग-अंग से थकावट झलक रही है। नज़रें उदास हैं और वे किसी गहरी सोच में डूबे हुए हैं। उनके ईदगिर्द उनका बेटा शाहजदा हैदर, शाही हकीम मंसूर, कुछेक व़जीर व दरबारी, रिश्तेदार वगैरह सिर झुकाएं खड़े हैं। बादशाह धीरे-से आंखे खोलते हैं। अपने सामने बेटे हैदर, हकीम मंसूर वगैरह को देख वे बहुत ही धीमी एवं लरजती आवाज़ में कहते हैं।)

बादशाह -  ओफ! अब यह दर्द सहा नहीं जाता बेटा हैदर। खुदाताला यह मुझे किस खता की सज़ा दे रहा है? मैंने तो हमेशा नेकी का दामन थामा था, फिर यह कहर क्यों? क्यों बेटा, क्यों? हकीम मंसूर साहब!!
मंसूर - 
बादशाह - 
आलीजाह!
क्या मैं अब कभी ठीक नहीं हो सकूंगा? सच-सच बोलना मंसूर क्या मेरा यह रिस्ता फोड़ा मेरी जान लेकर ही मानेगा? कश्मीर को इस दुनिया की जन्नत बनाने का मेरा ख्वाब क्या अधूरा ही रहेगा? बोलो मंसूर बोलो . . .!
मंसूर -  हुजूर-हिम्मत रखें। आप यों उदास न हों - खुदा साहब एक दरवाज़ा बंद करते हैं तो दस खोल देते हैं।मुझे तो . . .
बादशाह - नहीं मंसूर नहीं। मुझे झूठी तसल्ली न दो। ओफ़! या अल्लाह! मारे दर्द के सारा बदन जैसे सुन्न हो गया है। हज़ारों-लाखों बिच्छुओं ने जैसे मेरी इस छाती को काट खाया हो!! पूरा बदन ऐंठता जा रहा है! हाय री तकदीर! जाने खुदाताला को क्या मंज़ूर है?
हैदर - अब्बाजान! दिल छोटा न करें! पाक परवरदिगार पर भरोसा रखें। वहीं अब मददगार हैं। सारी रिआया आपकी सेहतयाबी और सलामती की दुआएं मांग रही है। हां अब्बा हुजूर! आप ज़रूर ठीक होंगे!
मंसूर - जी हां आलीजाह! मस्जिदों और दूसरी इबादतगाहों में आपकी सलामती के लिए दुआएं मांगी जा रही है। ग़रीबों और नातवानों में खैरात बांटी जा रही है . . .दरवेश, मुल्ला और फ़कीर रातदिन खुदाताला से आपकी सेहत की दुआएं मांग रहे हैं!
बादशाह - (लंबा निःश्वास छोड़कर) हाय! अफ़सोस! एक छोटा-सा फोड़ा मेरी जान का दुश्मन बन जाएगा, कभी सोचा न था। बेटा हैदर! (कराह कर) अब तो दर्द सहा नहीं जाता ओफ़! ओह!
हैदर - अब्बाजान! आप इस तरह से दिल छोटा करेंगे तो हम सब की रही-सही हिम्मत भी जाती रहेगी। हमें सब्र से काम लेना होगा अब्बू!!
बादशाह - सब्र-सब्र!! कहां तक सब्र करूं? यहां तो मारे दर्द के जान निकल रही हैं- और तुम। अब सहा नहीं जाता बेटा . . .सच कह रहा हूं!!
हैदर - अब्बाजान! (गले से लगता है)
(तभी श्रीवर और सोमपंडित प्रवेश करते हैं)
श्रीवर - 
बादशाह - 
महाराजाधिराज सुलतान जैनुलाबदीन 'बादशाह' की जय! आपका इकबाल बुलंद हो महाराज!
आओ, आओ श्रीवर! क्या ख़बर लाए हो(खांसते हुए) ओफ़! लगता है यह दर्द मेरी जान लेकर ही रहेगा।
श्रीवर - ऐसा न कहिए महाराज! मैं और सोमपंडित अभी-अभी पूरी कश्मीर घाटी घूमकर आए हैं- मालूम पड़ा घाटी के उतर में विचारनाग के निकट एक पहुंचा हुआ हकीम श्रीभट्ट रहता है- उसके हाथों में शफा है महाराज!
सोमपंडित - हां महाराज! मुश्किल से मुश्किल बीमारी को ठीक करने में श्रीभट्ट माहिर है। हम उन्हें अपने साथ ही लाए हैं। आपकी आज्ञा हो तो उन्हें अंदर बुलाया जाए!
बादशाह - (कुछ सोचकर) ठीक है, बुलाओ उन्हें अंदर। देखें शायद उनके हाथों की शफा से मेरा दर्द दूर हो जाए। क्या नाम बताया तुमने उसका श्रीवर?
श्रीवर -
बादशाह - 
पंडित श्रीभट्ट महाराज।
श्रीभट्ट! नाम से ही लगता है कि इस शख्स में कोई बात ज़रूर होगी। श्री का मतलब इकबाल, खूबसूरती, खुशकिस्मती है ना सोमपंडित?
सोमपंडित -
बादशाह -
हां महाराज! बिल्कुल सही फ़रमाया आपने।
 खुदा करे मेरी उजड़ती दुनिया में भी खूबसूरती लौट आए - शायद श्रीभट्ट ऐसा कर सके!! जाओ . . .उसे अंदर ले आओ!

(श्रीवर और सोम पंडित महल के बाहर जाकर कुछ देर बार श्रीभट्ट को अपने साथ अंदर लिया लाते हैं)
दृश्य तीन
(मोहल्ले की गली में सुखजीवनलाल और रमज़ान खां आपस में बातें कर रहे हैं।)

सुखजीवनलाल -
रमज़ान -
सुखजीवनलाल - 
रमज़ान -
सुखजीवनलाल -
अरे भाई वाह! सुना तुमने रमज़ान खां! कमाल हो गया - कमाल!!
क्या?क्या हो गया? बड़े खुश नज़र आ रहे हो!
बस कुछ मत पूछो - कमाल से भी बढ़कर कमाल हो गया। हां।
 भाई कुछ बोलोगे भी या यों ही।
 कमाल नहीं भाई, जादू। हां जादू!! साक्षात जादू। सात दिन में ही श्रीभट्ट ने वह कर दिखाया जो दूसरे हकीम तीन महीनों में भी न कर सके। सच में श्रीभट्ट के रूप मे ऊपर वाले ने कोई फ़रिश्ता भेजा था।
रमज़ान - 
क्या? हमारे आलीजाह ठीक हो गए? तुम सच कहते हो सुखजीवन भाई?
और नहीं तो क्या . . .कौन सी दुनिया में रहते हो तुम? तुमने मुनादी नहीं सुनी? आज रात ज़ूनडब के शाही बाग में श्रीभट्ट का खुद महाराज वज़ीरों, दरबारियों और जनता की मौजूदगी में एक खास जलसे में अभिनंदन करेंगे और बहुत बड़ा इनाम भी देंगे।
रमज़ान - शुक्र है पाक परवरदिगार का कि हमारे ग़रीबपरवर आलीजाह ठीक हो गए। भाई सुखजीवन, यह ख़बर सुनकर सचमुच मेरा रोम-रोम खुशियों से भर गया है। मैं आज रात उस जलसे में ज़रूर हाज़िर हूंगा- तुम भी चलना।
सुखजीवनलाल -

 हां-हां मैं भी जाऊंगा। दोनों चले चलेंगे साथ-साथ।

पृष्ठ : 1.2.3

आगे—

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।