राज-ज्योतिषी :- नगर-श्रेष्ठि!. . .यज्ञादि कर्म अपनी
फलान्विति के लिए ग्रह-गतियों के मुखापेक्षी हैं। इस भासमान
जगत में हम जिसे प्रतिफल की संज्ञा देते हैं उसका अनन्य आश्रय
सच्चिदानंदघन परमात्मन् ही है जिसकी चिति-शक्ति ही समस्त
कार्य-कारण संबंधों की नियंता है।
वररुचि :- तो, यही वह ऋत है जिसपर इस जगत का आनंदोल्लास
अवलंबित है, आचार्य?
राज-ज्योतिषी :- हाँ वररुचि!, और उस वैश्विक ऋत का ही
लघुतम प्रतीक है सत्य. . .जिसके संबंध में श्रुति कहती है. . .
'अणोरणीयान् महतो महीयान्! . . .सबके भीतर. . .सबका स्वामी!
नगर-श्रेष्ठि :- अहा!, कितनी सरलता के साथ आपने गूढ़
रहस्यों का उद्घाटन किया है।
(नेपथ्य से तुरही की ध्वनि।
वररुचि कुशासन से उठकर कक्ष में राजपथ की ओर खुले गवाक्ष की ओर
जाता है और गवाक्ष से राजपथ पर होने वाली उद्घोषणा का
दृश्यावलोकन कर रहा है। राज-ज्योतिषी व नगर-श्रेष्ठि सावधान
होकर राजपथ पर राजपुरुषों द्वारा की जा रही उद्घोषणा को सुन
रहे हैं।)
(उद्घोषणा का स्वर)
(सुनो! सुनो! नगरवासियों
सुनो!. . .आर्यावर्त के प्रतापी शासक सत्यकेतु के आदेश से यह
सार्वजनिक घोषणा की जाती है कि अब से राज्य का प्रत्येक नागरिक
अपनी आजीविका-निर्वाह के संबंध में उचित मार्ग-दर्शन अपने
क्षेत्र के नगररक्षक से संपर्क स्थापित कर पा सकता है। अतएव,
आजीविका से संबंधित किंचित कठिनाई उत्पन्न होने पर नगररक्षक से
तत्काल समुचित उपाय प्राप्त करने हेतु संपर्क स्थापित करें।
राज्य ने समस्त प्रजा के भरण-पोषण का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व
अपने उपर ले लिया है।)
(तुरही की ध्वनि।)
नगरवासियों सुनो! आर्यावर्त
के प्रतापी शासक सत्यकेतु के आदेश से यह सार्वजनिक घोषणा. . .
(आवाज़ धीमी पड़ जाती है।)
(नेपथ्य से महाराज सत्यकेतु
की जय-जयकार! राजपथ से प्रजा का स्वर उभरता है।)
युवती स्वर :- अहा!, कितना दयालु है, हमारा राजा!
साक्षात इंद्र!
युवक स्वर :- न भूतो न भविष्यति!
वृद्ध स्वर :- महाराज सत्यकेतु की दिनानुदिन यशोवृद्धि
हो! हे भगवान!
(नेपथ्य की हलचल शांत होती
है। गवाक्ष की ओर से वापस लौटकर वररुचि पुन: अपना आसन ग्रहण कर
लेता है।)
वररुचि :- महाराज
सत्यकेतु की जय-जयकार हो रही है। जन-समुदाय हर्षोल्लसित हो
अपने गृहों से बाहर निकल कर राजपथ पर एकत्रित हो रहा है और
उद्घोषकों के पीछे-पीछे चलता हुआ. . .आनंदोल्लसित हो एक-दूसरे
से गले मिलते हुए महाराज सत्यकेतु के गुणगान से थकता प्रतीत
नहीं हो रहा है।
नगर-श्रेष्ठि :- महाराज सत्यकेतु ने एक अभूतपूर्व
निर्णय लिया है, राज-ज्योतिषी जी! मै स्वयं उस समय राजसभा में
उपस्थित था। कंदर्प नामक एक बालक ने राजसभा को यह सोचने पर
विवश कर दिया कि एक क्षुधित व्यक्ति द्वारा कृत अपराध उसका
स्वयं का अपराध है या व्यवस्था का? महाराज सत्यकेतु ने तो
राजदंड का अपमान करने के अपराध में बालक कंदर्प को मृत्युदंड
ही दे दिया था, तभी राजगुरु द्वारा दी गई एक विशेष व्यवस्था के
अंतर्गत कंदर्प को राजदंड से उन्मुक्ति ही नहीं मिली, अपितु,
उसके परिवार के भरण-पोषण का दायित्व भी उसके वयस्क होने तक
राज्य द्वारा स्वयं पर ले लिया गया।
वररुचि :- राजगुरु द्वारा दी गई विशेष व्यवस्था. . .?
कौन-सी है वह विशेष व्यवस्था?
नगर-श्रेष्ठि :- राजगुरु ने अपने संबोधन में कहा कि
व्यक्ति व्यवस्था का साधन है. . .इस दृष्टिकोण से व्यवस्था की
सार्थकता तभी है जब वह व्यक्ति के अस्तित्व की रक्षा करने में
समर्थ हो।
वररुचि :- और, कंदर्प द्वारा महाराज सत्यकेतु के समक्ष
कौन-सा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया था जिसके कारण महाराज
सत्यकेतु ने कुपित होकर उसे मृत्युदंड प्रदान किया?
नगर-श्रेष्ठि :- कंदर्प के पास मात्र एक तर्क था कि
उसने विवशता में अपराध किया है। उदर की ज्वाला में जलते हुए
व्यक्ति से कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेकपूर्ण चिंतन की अपेक्षा
करना न्यायोचित नहीं है। किंतु, कंदर्प ने तो भावाक्रोश में
बहुत कुछ कह दिया. . .उसने कहा कि. . .भूख की कोई आचार-संहिता
नहीं होती। उसने यह भी प्रश्न किया कि जो हमारी पीड़ाओं को
नहीं समझता वह हमारा भगवान कैसे हो सकता है।
वररुचि :- राजगुरु ने तो उचित कहा कि व्यक्ति व्यवस्था
का साधन है इसलिए व्यवस्था को व्यक्ति के हितार्थ उचित प्रबंध
करना चाहिए, किंतु, भूख की कोई आचार-संहिता नहीं होती- ऐसा
कहकर, मेरे दृष्टिकोण से, कंदर्प ने उचित नहीं किया। मुझे तो
इसके मूल में कंदर्प का प्रबल देहाध्यास ही प्रतीत होता है।
मेरे दृष्टिकोण से शरीर की रक्षा अन्न नहीं ईश्वर-कृपा से संभव
है।. . .और ईश्वर-कृपा की प्राप्ति के लिए व्यक्ति के अंत:करण
में समष्टि के प्रति कृपा-भावना नितांत वांछनीय है। आचरणविहीन
होकर ईश कृपाकांक्षा कभी फलवती हो सकती है, आचार्य?
राज-ज्योतिषी :- मेरा मत भी यही है, ब्रह्मचारी!
. . .किंतु, मैं इस समय किसी और दिशा में विचार कर रहा हूँ।
वररुचि :- किस दिशा में, आचार्य?
राज-ज्योतिषी :- यह भविष्यवाणी जिस मुहूर्त में हो रही
है, उस मुहूर्त के विषय में।
नगर-श्रेष्ठि :- (कौतूहलवश)
सचमुच. . .? आपका क्या मत है, राज-ज्योतिषी जी?
राज-ज्योतिषी :- मुहूर्त-विचार से राज्य की यह उद्घोषणा
जनजीवन में एक विकट उथल-पुथल की स्थिति उत्पन्न करेगी।
नगर-श्रेष्ठि :- उस उथल-पुथल का स्वरूप क्या होगा,
राज-ज्योतिषी जी?
राज-ज्योतिषी :- प्राकृतिक आपदाएँ, भूकंप, कहीं
जल-प्लावन तो कहीं अकाल।
नगर-श्रेष्ठि :- (विस्मय से अभिभूत होकर)
राज-ज्योतिषी जी, यह क्या कह रहे हैं? आज जो प्रजा हर्षोल्लसित
होकर महाराज सत्यकेतु की तुलना साक्षात इंद्र से कर रही है,
उसकी नियति में जलप्लावन और अकाल है?
राज-ज्योतिषी :- मुहूर्त-विचार से तो ऐसा ही है। आगे
ईश्वर की इच्छा!
नगर-श्रेष्ठि :- मुझे अनुमति दीजिए, राजज्योतिषी जी!
आपकी सेवा में पुन: उपस्थित होऊँगा।
राज-ज्योतिषी :- शुभम! वररुचि, नगर-श्रेष्ठि को
सम्मानसहित द्वार तक विदा करके आओ।
(वररुचि नगर-श्रेष्ठि के साथ
नेपथ्य में चला जाता है। मंच पर राज-ज्योतिषी जी भोज-पत्र पर
कुछ लेख अंकित कर रहे हैं। वररुचि नगर-श्रेष्ठि को विदा कर
वापस लौटता है और राज-ज्योतिषी को लेख अंकित करते देखकर चुपचाप
कुशासन पर बैठ जाता है। राजज्योतिषी लेख समाप्त करते हैं।)
राज-ज्योतिषी :- (लेख को मोड़ते हुए) शिष्य वररुचि!. .
.तुम इस लेख को लेकर तत्काल राजप्रासाद की ओर प्रस्थान कर
जाओ।. . .और ध्यान से सुनो, इस लेख को महाराज सत्यकेतु के
अतिरिक्त किसी और को हस्तगत न कराना।
वररुचि :- (हाथ बढ़ाकर लेख को लेते हुए) आपके आदेश का
अक्षरश: पालन होगा, आचार्य!
राज-ज्योतिषी :- महाराज सत्यकेतु के साथ एक विचित्र छल
होने वाला है, वररुचि! राज-कोष पर भारी संकट है। टूटे-फूटे
बर्तनों के रूप में दरिद्रता स्वयं मूर्तिमान होकर राज-प्रासाद
में प्रवेश पाने का कुचक्र रचने वाली है। शीघ्रता करो, वत्स!
वररुचि :- मैं तत्काल राज-प्रासाद की ओर प्रस्थान कर
रहा हूँ, आचार्य!
(पटाक्षेप)
चौथा दृश्य
(स्वर्ग का दृश्य! देवराज
इंद्र की सभा। कण-कण से देवोपम आलोक छिटक रहा है। इंद्र के
दाहिने उच्चासन पर देवताओं के गुरु बृहस्पति पद्मासन की मुद्रा
में विराजमान हैं।)
(देवर्षि नारद का प्रवेश)
नारद :- नारायण!
नारायण!! नारायण!!!
(इंद्र उठकर देवर्षि का सम्मान करते हैं एवं समीप ही आसन देते
हैं।)
इंद्र :- दर्शन पाकर कृतार्थ हुआ, देवर्षि! कहिए,
कुशल-क्षेम तो है न? किस लोक से भ्रमण करते हुए लौट रहे हैं,
देवर्षि!
नारद :- भू-लोक से भ्रमण कर लौट रहा हूँ, देवेंद्र!
इंद्र :- ओह, धरतीवासी मुदित तो हैं, न?. . .वहाँ पर
नियुक्त लोकपाल और दिक्पाल अपना कर्तव्य भलीभाँति निभा तो रहे
हैं, न?. . .ऋतुएँ समय पर आती तो हैं, न?. . .धरती विपुल
धनधान्य से परिपूर्ण तो है, न?. . .वेदविहित मार्ग पर चलते हुए
लोग यज्ञकर्म में रुचि तो ले रहे हैं, न? सबकुछ विस्तार से
कहिए, देवर्षि!
नारद :- देवेंद्र! भू-लोकवासी निरंतर कर्मशील रहकर
अत्यंत संपन्नता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किंतु. . .
इंद्र :- किंतु, क्या? . . .देवर्षि!
नारद :- इन्हीं बातों से मेरा हृदय तनिक उद्विग्न भी
है, देवेंद्र!
इंद्र :- यह तो हर्ष का विषय है?
नारद :- आपके शुभचिंतक के लिए भी, देवेंद्र?. . .कदापि
नहीं।. . .आर्यावर्त के महान शासक सत्यकेतु के ऐश्वर्य की
चर्चा आपके कानों तक पहुँची तो होगी ही. . .जिसने प्रजा के
भरण-पोषण का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व स्वयं पर ले लिया है. .
.जिसकी भू-लोक में सर्वत्र जय-जयकार हो रही है?
इंद्र :- होगा, मगर इसमें चिंतित होने की कौन-सी बात
है?
नारद :- बहुत भोले हो शचीपति! आखिर, तुम महादेव तो हो
नहीं?. . .तुम हो स्वर्ग के अधिपति!. . .भला सोचो, जब धरती ही
स्वर्ग हो जाएगी. . .तब तुम्हारे स्वर्ग को अभिलाषा करेगा
कौन?. . .और, फिर तुम्हारे इस सिंहासन का क्या होगा जिस पर
सत्यकेतु की पैनी दृष्टि बहुत दिनों से लगी हुई है। अब तुम
शायद समझ रहे होंगे मेरा मंतव्य?. . .वैसे अच्छा हो, यदि तुम
वल्कल धारण कर शची के साथ अभी से जंगलों में निकल जाओ।
इंद्र :- (गंभीर होकर) मैंने सोच लिया, देवर्षि!. .
.निर्णय ले चुका मैं।
नारद :- नारायण! नारायण!!. . .मैं चलूँ देवेंद्र!
नारायण! नारायण!!
(सभी नारद को प्रणाम करते
हैं। नारद का प्रस्थान। इंद्र संकेत से उन्हें वर्जित करते
हैं।)
इंद्र :- (म्लान मुख)
आचार्य बृहस्पति! (आगे मुख सूख जाता है।)
बृहस्पति :- तुमने कौन-सा निर्णय लिया है, इंद्र!
इंद्र :- . . .दुर्भिक्ष! ऐसा दुर्भिक्ष. . .जिसे आज तक
न तो किसी ने देखा हो, न ही सुना। आगामी वर्षों में जल की
एक-एक बूँद लिए धरतीवासी तरस जाएँगे. . .ऐसा उपक्रम करूँगा
मैं।
बृहस्पति :- विवेक से काम लो इंद्र!. . .अपनी सामर्थ्य
को ध्यान में रखकर सोचो। तुम स्वच्छंद नहीं हो। तुम्हारी कुछ
सीमायें हैं।. . .प्रकृति से विरोध नहीं ले सकते हो तुम,
क्योंकि माया की परिधि में तुम्हारा वैभव भी सम्मिलित है।
पृथ्वीवासियों के पास परिश्रम का जो पारस है, उसे तुम अनदेखा
नहीं कर सकते।. . .जलवृष्टि उनका पुरस्कार है, तुम्हारा उपकार
नहीं।. . .वनस्पतियों से हरी-भरी पृथ्वी उजाड़कर तुम भी
सुख-चैन से नहीं रह सकोगे, इंद्र!
इंद्र :- मैं लज्जित हूँ, आचार्य!. . .किंतु, कुछ तो
करना ही होगा।
बृहस्पति :- धैर्य से काम लो, इंद्र! पहले सत्यकेतु को
विश्वास में लेने का प्रयत्न तो करो। सत्यकेतु की परीक्षा के
साथ ही देवर्षि के कथन की सत्यता भी प्रमाणित हो जायेगी।
इंद्र :- आज्ञा शिरोधार्य है, आचार्य! भू-लोक को आतंकित
करने के पूर्व सत्यकेतु की परीक्षा ही क्यों न ले ली जाए।
सत्यकेतु का अभिमान ही यदि उसके पतन का कारण बन सके तो इससे
उत्तम कौन-सी युक्ति हो सकती है? मैं विचार कर रहा हूँ,
आचार्य! अभी और अविलंब इस अप्रत्याशित समस्या का निराकरण
आवश्यक है।
(आचार्य बृहस्पति उठकर नेपथ्य
में चले जाते हैं। देवराज इंद्र ध्यानस्थ हो गए हैं।)
(पटाक्षेप)
पाँचवाँ दृश्य
(गोधूलिका बेला। बाज़ार का
दृश्य। मैले-कुचैले वस्त्रों में एक फेरी वाला अपना सामान समेट
कर सिर को हाथों मे थामे हुए बैठा है। सामने से दो राजपुरुष
निकलते हैं।)
वणिक् :- (स्वगत कथन) धुँधलका छाने को है। दिन भर
चलते-चलते थक गया हूँ. . .लौट जा रहा हूँ। लौट ही जाऊँगा अब।
आज एक भी बर्तन किसी ने ख़रीदा नहीं। जाने कैसे लोग हैं, केवल
मन बहलाने के लिए बाज़ार घूमने चले आते हैं, लेना-देना कुछ
नहीं। चलूँ. . .उठूँ. . .आह. . .! आज रात भूखे ही मुँह ढाँपकर
पड़ रहूँगा।. . .कहना नहीं चाहिए, लेकिन राजा तो बस ढपोरशंख ही
है। ऊपर ही ऊपर प्रजा के पेट भरने की हामी भरता है। भीतर तो सब
पोल है पोल. ..कोई मुझसे पूछे आकर। चलूँ उठाऊँ. . .आह! तारे
गिन कर रात तो कट ही जाएगी आज की! आह! (पगड़ी ठीक करने लगता
है।)
राजपुरुष-1 :- कौन हो तुम? ऐसे प्रतापी राजा के बारे
में यों ही मिथ्या धारणायें फैलाते हुए तुम्हें तनिक भी लज्जा
अनुभव नहीं होती?. . .ऐं?
वणिक् :- (भड़क कर) आय. . .हाय! ऐसा भी क्या राजा,
जिसके राज्य में भूख के मारे ग़रीब का बज जाए बाजा। देखते
नहीं, राजपुरुष!. . .सुबह से बस मक्खियाँ मार रहा हूँ,
ख़रीदारी एक भी नहीं हुई। अँतड़ियाँ सिकुड़ गईं हैं भूख से।
बोला नहीं जा रहा। नौबत ये है कि अब प्राण निकले कि तब।. .
.सावन के अंधे को हर जगह हरेरी ही सूझती है।. . .अपना पेट भरा
हो न, तो लगता है सभी डकार ही तो ले रहे हैं। तुम्हारा क्या. .
.?
राजपुरुष-1 :- (कुद्ध होकर) बहुत वाचाल हो! मक्खियाँ
मार रहे हो तो इसमें राजा का क्या दोष? जहाँ तक भरण-पोषण की
बात है, वह तुम्हें मिलेगा। चलो मेरे साथ।
वणिक् :- (अकड़कर) लगता है, अब मेरा धर्म भी ले बीतोगे।
मैं वणिक्पुत्र हूँ, समझे! कमाऊँगा तभी खाऊँगा। जाओ, कह दो
राजा से।. . .लेना न देना, बस बातें ही लंबी-लंबी।
राजपुरुष-2 :- अच्छा-अच्छा। अब, चुप भी करोगे। दिखाओ
अपना सामान। हम स्वयं क्रय कर लेते हैं।
(वणिक् सामान की गाँठ खोलता
है।)
राजपुरुष-2 :- तो यही
टूटे फूटे बर्तन हैं तुम्हारे पास। इनका क्या उपयोग हो सकता
है? फिर भी क्या दे दिया जाय इनका। ये लो दो ताम्र मुद्राएँ और
बर्तन इधर रखकर जाओ भोजन करो।
वणिक् :- वाह भई वाह! यों ही न लूटा दूँ अपना सब कुछ!
दो सौ स्वर्ण मुद्राओं से कम न लूँगा।
राजपुरुष-2 :- (आश्चर्य-मिश्रित खीझ के साथ) दो सौ
स्वर्ण मुद्रायें? लूट मचा रखी है क्या?
वणिक् :- मेरे पास तो यही है। मूल्य भी बता दिया है
इनका। न लेना हो तो खिझाओ मत, जाओ। मुझे क्या? सुबह तक यदि
प्राण रहे तो कल फिर फेरी लगाऊँगा। आख़िर कोई तो ख़रीदेगा
इन्हें। कोई तो लगाएगा इनका सही मूल्य।
(राजपुरुष आपस में विमर्श
करते हैं।)
राजपुरुष-2 :- विचित्र
हो, अच्छा चलो, तुम्हारे बारे मे राज-सभा ही निर्णय करेगी।
अच्छी लूट मचा रखी है।
वणिक् :- हाँ-हाँ, चलो, मुझे किसी का भय नहीं है।
(राजपुरुष फेरीवाले को साथ
लेकर जाते हैं।)
(पटाक्षेप) |