आठवाँ दृश्य
सूत्रधार : चल चपल कलम, निज चित्रकूट चल देखें
प्रभु-चरण-चिह्न पर सफल भाल-लिपि लेखें।
संप्रति साकेत-समाज वही है सारा
सर्वत्र हमारे संग स्वदेश हमारा।
(मधुर संगीत में उभरता सीता का गीत)
निज सौध सदन में उटज पिता ने छाया
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
सम्राट स्वयं प्राणेश, सचिव देवर हैं
देते आकर आशीष हमें मुनिवर हैं
धन तुच्छ यहाँ - यद्यपि असंख्य आकर हैं
पानी पीते मृग-सिंह एक तट पर हैं।
सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ
श्रमवारि विंदु फल स्वास्थ्य शुचि फलती हूँ
अपने अँचल से व्यजन आप झेलती हूँ
तनु लता सफलता-स्वादु आज ही आया
मेरी कुटिया में राज-भवन भाया।
कहता है कौन भाग्य ठग है मेरा?
वह सुना हुआ भय दूर भगा है मेरा
कुछ करने में अब हाथ लगा है मेरा
वन में ही तो गार्हस्थ जगा है मेरा
वह वधु जानकी बनी आज यह जाया
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
फल-फूलों से हैं लदी डालियाँ मेरी
वे हरी पत्तलें, भरी थालियाँ मेरी
मुनि बालाएँ हैं यहाँ आलियाँ मेरी
तटिनी की लहरे और तालियाँ मेरी
कीड़ा सामग्री बनी स्वयं निज छाया
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
नाचो मयूर नाचो कपोत के जोड़े
नाचो कुरंग, तुम लो उड़ान के तोड़े
गाओ दिवि, चातक, चटक, भृंग भय छोड़े
वेदेही के वनवास-वर्ष हैं थोड़े
तितली तूने यह कहाँ चित्रपट पाया
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
ओ निर्झर झर-झर नाद सुनाकर झड़ तू
पथ के रोड़ों से उलझ-सुलझ बड़-अड़ तू।
ओ उत्तरीय, उड़ मोद-पयोद घुमड़ तू
हम पर गिरि गदगद भाव सदैव उमड़ तू।
जीवन को तूने गीत बनाया, गाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
(गुनगुनाहट के साथ गीत समाप्त करती-सी। राम का
स्वर)
राम : गाओ, मैथिली राम के रहते स्वछंद होकर गाओ।
जो प्रेम सहित मेरा भरोसा करता है उसे मेरा अभयदान प्राप्त होता है। आनंद तो हमारे
अपने आधीन है वह तो कहीं भी मिल सकता है। सुख क्या है, सुख है बढ़कर दुख भार सहना।
(सीता फिर गुनगुनाती है)
देवर के शर की अनी बनाकर टाँकी
मैंने अनुजा की एक मूर्ति है आँकी
आँसू नयनों में, हँसी वदन पर बाँकी
काँटे समेटती, फूल छींटती झाँकी।
निज मंदिर उसने यही कुटीर बनाया।
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
(गुनगुनाहट के साथ सीता गीत समाप्त करती है)
राम : सीते, तुमने तो इस वन में उर्मिला को
साक्षात कर दिया। तुम्हारी कला यथार्थ को ही अभिव्यक्त कर रही है। पर ये लक्ष्मण
कहाँ है?
सीता : वो देखिए, वो आ रहे हैं देवर जैसे कोई चंचल
नदी हो। बहुत उद्विग्न दिखाई दे रहे हैं। आओ लक्ष्मण, क्या बात है बहुत उद्विग्न
हो?
(लक्ष्मण का स्वर समीप आता हुआ)
लक्ष्मण : माता, बात ही उद्विग्नता की है। सुनता
हूँ दल-बल सहित भरत आ रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं, अपनी माँ जैसा व्यवहार हमसे करने
आए हों। पर उनका उपचार करने के लिए मेरा धनुष बहुत है।
सीता : ईश्वर कुल की कुशल हो, गृह-कलह शांत हो।
देवर आप भी तो राज्य को भगवान भरोसे छोड़ आए।
राम : हो सकता है अपनी माँ से मुँह मोड़, भरत भी
राज्य को त्याग आए हों।
लक्ष्मण : आप बहुत सीधे हैं भैया, पर यह जगत बहुत
उल्टा है। जब आप अपने पिता के वचन पाल सकते हैं तो क्या भरत अपनी माता की आज्ञा का
पालन नहीं कर सकता।
राम : तुम्हारा तर्क अकाट्य है। परंतु मेरा भरत पर
अटूट विश्वास है। जैसे मैंने माता का चाहा नहीं किया, पिता का चाहा किया, भरत भी
वैसा ही करेंगे।
लक्ष्मण : आपके तर्क के आगे मैं हार गया।
राम : वो देखो, कितने पुलकायमान होकर भरत और
शत्रुघ्न हमारी ओर आ रहे हैं।
(भैया राम, भैया राम के साथ भरत शत्रुघ्न का स्वर)
राम : आओ भरत, इस तरह चरणों की धूल में मत पड़ो,
मेरे हृदय से लगकर मेरी छाती ठंडी करो।
भरत : हा आर्य, भरत का तो भाग्य ही धूल से भरा है।
आपने मेरी जड़बुद्धि माता के वचनों को तो पाला पर आपके भरत की दशा क्या होगी, यह न
सोचा।
राम : मुझे इस तरह निरुत्तर मत करो भरत। राम तो
भरत के प्रेम भाव का भूखा है। पर राम क्या करे, उसे रूखे कर्तव्य का पालन भी तो
करना है।
(राम की जय-जयकार विभिन्न नादों हाथी घोड़ों आदि का स्वर पार्श्व से आता धीरे-धीरे
तेज़ होता है।)
लक्ष्मण : आज चित्रकूट ने क्या विचित्रता पाई है,
सारी अयोध्या ही जैसे अपने राम को खोजती चली आई है।
राम, लक्ष्मण और सीता : (समवेत स्वर में) गुरुदेव
प्रणाम
(गुरुओं का समवेत स्वर) आयुष्यमान भव!
राम : (आश्चर्य स्वर में) हे माते, आप विधवा वेष
में! तो क्या, तात (राम, लक्ष्मण और सीता - समवेत स्वर में) हाँ तात! हाँ तात!
कौशल्या : राम, तुम्हारे तात तुम्हारा नाम
रटते-रटते ही चिर मौन हुए।
वसिष्ठ - इस संसार में हर आने वाले जीव का इस
संसार से जाना ही तो सृष्टि का चक्र है। महाराज दशरथ ने तो अपने वचनों की रक्षा
हेतु अपने प्राण दिए हैं। वह तो एक सच्चे क्षत्रिय की तरह इस संसार से विदा हुए
हैं। उनके जाने का शौक कैसा! वह एक गए पर संसार को चार महत्वपूर्ण रत्न देकर गए
हैं। वह इस जीवन से उऋण नहीं हुए हैं अपितु इस संसार को ऋणि कर गए हैं।
राम (भरे कंठ से) : हाँ! पितृ-देव हो तृषित ही
सुरपुर गए! गुरुदेव क्या मैं उन्हें अभी अपनी श्रद्धांजली दे सकता हूँ। आप ही मेरे
तात-तुल्य हैं, बताइए मुझे और क्या करना है।
वसिष्ठ : राम तुममें अपने पिता के लिए अविचल
भक्तिभाव है। उसी भक्ति संग अर्पणार्थ यहाँ पत्र-पुष्प-फल-जल सभी हैं।
कौशल्या : राम, है श्रद्धा पर ही श्राद्ध, आडंबर
पर नहीं। जो गुरुवर कहें, वहीं तुम करो।
राम : जो आज्ञा। लक्ष्मण अपने संग कुछ वनासियों को
लेकर सबके स्वागत-सत्कार का प्रबंध करो, तब तक मैं और सीता नदी के तीर पर
श्राद्ध-कर्म करते हैं।
लक्ष्मण : जो आज्ञा, भैया।
(उदासी भरा संगीत। दृश्य परिवर्तन)
नवाँ दृश्य
(लोगों के बोलने के अस्पष्ट से स्वर। प्रभु राम आ
गए, प्रभु राम आ गए का स्वर उभरकर धीरे-धीरे लुप्त होता है।)
राम : हे भद्र भरत, अपना अभीप्सित कहो।
भरत : हे आर्य, भरत के लिए अब क्या अभीप्सित रहा,
उसे तो निष्कंटक राज्य मिल गया, आपको वन गमन मिल गया। इसी अयक्ष के लिए तो भरत का
जन्म हुआ था। भरत का जन्म सफल हो गया। जिसने अपने से ही मुँह फेर लिया हो उसका क्या
अभिप्सित हो सकता है, आर्य ही कहें?
राम : (भरे कंठ से)भैया भर, मैं अपने भरत को जानता
हूँ।
कैकयी : यह सच है तो अब घर को लौट चलो। मैंने भरत
को जन्म देकर भी नहीं पहचाना। तुम्हारी अपराधिनी तुम्हारी यह मैया है पुत्र, अपने
भरत को दंड मत दो। यदि मैं भरत द्वारा उकसाई गई हूँ तो आज ईश्वर मेरा पुत्र भी
मुझसे वैसे ही छीन लें जैसे उन्होंने मेरे पति को छीन लिया है।
राम : (भरे कंठ से) माता!
कैकयी : आज मुझे मत रोको राम, मुझे कहने दो। आज मेरे वात्सल्य का भी कोई मूल्य नहीं
रहा है। मेरा पुत्र भी आज मेरा नहीं रहा है। आज त्रैलोक्य में जो भी मुझपर थूकना
चाहता है थूके, मैं उफ न करूँगी। आज तक सभी कहते आए हैं कि पूत कपूत हो सकता है पर
माता कुमाता नहीं हो सकती पर आज से लोग कहें, पुत्र पुत्र ही चाहे माता कुमाता हो
जाए। युग-युग तक यह कहानी इतिहास गाता रहेगा कि रघुकुल में भी एक अभागिनी रानी का
जन्म हुआ था। मेरे इस जीवन को धिक्कार है जिसे स्वार्थ ने इस तरह घेर लिया। राम
अयोध्या चलकर राज्य सँभालो, स्वामी को जीते जी तो सुख न दे सकी, मरकर तो उनको मुख
दिखा सकूँ। राम मेरी रक्षा करो, वरना मेरे जीवन नाटक का अंत कठिन होगा।
राम : (भरे कंठ से) माता, आप वीरांगना हैं, आपको
ऐसी दैन्य वाणी सुशोभिता नहीं करती। माँ, मैंने तो आपका स्नेहिल रूप ही देखा है।
जननी ने तो मुझे मात्र जना है, पाला तो आपने ही है। आधी रात में जाग जाने पर माँ
मुझे आपको ही दे आती थी। वो ही स्नेह आज भी राम आपसे चाहेगा। आपके आदेश से मैंने
वनवास लिया है तो क्या आपका आदेश मानकर प्रजा का शासन न लूँगा। पर मैया पहले इस
आदेश को मुझे पूर्ण करने दें तथा पिता ने जिस वचन को निभाने के लिए अपने प्राण दिए
उसे पूरा करने दें।
कैकयी : तुमने अपने योग्य ही बात कही राम। शैशव का
हठ तुम्हारा अभी गया नहीं।
भरत : भैया इस हठ को छोड़ दें।
राम : यह हठ नहीं भरत, कर्तव्य पालन की दृढ़ता है।
हठ तुम कर रहें हो और अपने हठ से मुझे कर्तव्य पथ से विमुख कर रहे हो।
भरत :(भरे कंठ से)ऐसा कहकर मुझे अपराध बोध से
ग्रस्त न करें भैया। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा। आर्य वन में सुखी हों और मैं भवन
में अपने दुख से जूझ लूँगा। बस, एक अनुरोध है, आपकी चरण पादुकाएँ आपके इस दास को
मिल जाएँ। मैं इन्हीं के बल पर वियोग की समय अवधि पार कर लूँगा।
(संगीत द्वारा दृश्य परिवर्तन)
दसवां दृश्य
सीता : सुनो लक्ष्मण देवर जी, आपके भैया तो
गुरुजनों और माताओं के साथ बातचीत में व्यस्त हैं। तनिक कुटिया से तालसंपुटक लाकर
देना, मुझे बहनों को वन-उपहार देना हैं।
लक्ष्मण : जो आज्ञा भाभी! (लक्ष्मण के चलने का
स्वर)
लक्ष्मण : यह कुटिया में जीर्ण शीर्ण काया वाला
एकांत में कौन खड़ा है?
उर्मिला : मेरे उपवन के हरिण आज वनचारी, मैं बाँध
न लूँगी तुम्हें, तजो भय भारी।
लक्ष्मण : आह, उर्मिले। वन में तपस्या कर मुझे
अपने योग्य बनने दो।
उर्मिला : हाँ, स्वामी। बहुत कुछ कहना चाहती थी पर
अब कुछ न कह सकूँगी। आपको जिसमें संतोष हो मुझे भी उसी में संतोष हैं, आप निश्चिंत
रहें।
(दूर से आता सीता स्वर) : अरे पितृपद आप आ पहुँचे।
लक्ष्मण : मैं जाता हूँ, उर्मिले।
(संगीत द्वारा दृश्य परिवर्तन)
ग्यारहवाँ दृश्य
(उदासी भरे संगीत के साथ दृश्यारंभ)
उर्मिला : मिली मैं स्वामी से, पर कह सकी क्या
सँभल के?
बहे आँसू होके सखि, सब उपालंभ गल के।
उन्हें हो आई जो निरख मुझको नीरव दया।
उसी की पीड़ा का अनुभव मुझे हा! रह गया।
सुलक्षणा : जब से वन से आई है आप व्यर्थ ही अपने
को कोसती रहती हैं। न कुछ खाती है और न कुछ पीती है।
उर्मिला - मिथिला मेरा मूल है और अयोध्या फूल,
चित्रकूट को क्या कहूँ रह जाती हूँ भूल।
सुलक्षणा : आप कुछ भी कहाँ भूलती है।
उर्मिला : स्मृतियाँ भूलने के लिए कहाँ होती है।
उन्हें तो हम संजोकर रखते हैं। सुलक्षणा जा तो जितनी भी प्रोषितपतिकायें हैं उन्हें
निमंत्रण दे आ। उन संग मैं भी अपना दुख बाँट लूँगी। सुन, अपनी वियोग वेदना में मैं
अपनी ललितकलाएँ भूल रही हूँ, इस उपवन में पुरबाला-शाला ही खुलवा दे। आज मुझे चित्र
रचना की इच्छा हो रही है, बता वन का कौन-सा दृश्य अंकित करूँ। यह चित्र कैसा रहेगा.
. .मार्ग में नाला पड़ा है, जेठ - जीजी खड़े हैं और आर्यपुत्र जल की थाह ले रहे
हैं। या फिर ये लता झुकाए हुए हैं, जीजी फूल ले रहीं हैं, प्रभु उन्हें फूल दे रहे
हैं।
सुलक्षणा : आप जो भी चित्र अंकित करेंगी उत्तम ही
करेंगी। आप गाती भी तो कितना अच्छा है। कुछ गाइए न।
उर्मिला : तू कहती है तो गुनगुनाती हूँ, शायद
संगीत ही मेरे अवसाद को कुछ कम करे।
निरख सखि, ये खंजन आए,
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाए!
फैला उनके तन का आतप, मन ने सर सरसाए,
घूमे वे इस ओर वहाँ से, ये हँस यहाँ उड़ छाए!
करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुसकाए
फूल उठे है कमल, अधर-से ये बंधूक सुहाए।
उर्मिला : इस तोते को देख रही है। हे, शुक्र एक
दिन तुझे देख आर्यपुत्र ने क्या कहा था, तुझे कुछ याद है मुझे तो सब याद है।
(संगीत, फ्लैश बैक)
उर्मिला : अरे! बोल रे शुक्र तू मुझे देख मौन
क्यों हो गया। हे सुभाषी, अभी तो तू बज रही बाँसुरी से निकल रहे मधुर संगीत का
कितना सुंदर अनुकरण कर रहा था। बोल रे शुक्र, बोल।
लक्ष्मण : (दूर से आते हुए) यह शुक्र तो तुम्हारे
सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया है, मैं कुछ बोल सकता हूँ?
उर्मिला : ओह आर्यपुत्र, आप जग गए।
लक्ष्मण : नाक का मोती अधर की कांति से, बीज
दाड़िम का समझकर भ्रांति से
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचता है, अन्य यह शुक कौन है।
उर्मिला : ओह, लगता है आर्यपुत्र अभी भी कोई
स्वप्न ही देख रहे हैं।
लक्ष्मण : इतने सुंदर स्वप्न जागते हुए भी कौन न
देखना चाहेगा, उर्मिले!
उर्मिला : पर जागरण स्वप्न से अधिक अच्छा होता है।
लक्ष्मण : प्रेम में कुछ भी बुरा नहीं होता।
उर्मिला : पर जिसकी सराहना करें, उसमें कुछ तो
योग्यता होनी चाहिए।
लक्ष्मण : योग्यता! मैं तुम्हारा दास ऐसे ही तो
नहीं हूँ।
उर्मिला : (मुस्कराकर) दास! अपने को दास बनकर मुझे
क्या दासी कहने का बहाना ढूँढ़ रहे हैं।
आप तो मेरे देव बनकर ही रहो और मुझे देवी ही रक्खो।
लक्ष्मण : यही सही। तुम रहो सदा मेरी हृदय-देवी और
मैं तुम्हारा सदा तुम्हारा प्रणय-सेवी।
(तोते के बोलने की ध्वनि)
उर्मिला : यह तोता क्या कह रहा है, इसे क्या
चाहिए?
लक्ष्मण : (मुस्कराकर) इस तोते को जनकपुरी के राज
कुंज में विहार करने वाली एक सलौनी सारिका चाहिए।
उर्मिला : इसके लिए तो इसे धनुष तोड़ना होगा।
(उर्मिला के खिलखिलाने का स्वर)
सुलक्षणा : सखी यह स्मृतियाँ ही तो हमारे जीवन का
संबल हैं।
उर्मिला : जानती है सखि, एक रात मैं अपने अलिंद
में खड़ी थी। आसमान पर छाई घटा रिमझिम बूँदों से संगीत बिखेर रही थी। केतकी की गंध
चारों ओर महक रही थी। झिल्लियों की झंकार का मैं अनुकरण कर रही थी कि अचानक बिजली
बहुत ज़ोर से चमकी, बादल गरज उठे। मैंने चौंक कर देखा, मेरे प्रिय कोने में चुपचाप
खड़े हैं।
लज्जा से मैंने उनकी छाती में अपना मुख छिपा लिया।
सखी तुझे स्मरण है एक बार जब मालिने डाली लेकर आई थीं और जीजी ने जंबूफल लिए थे।
मैंने आम लिए थे। देवर शत्रुघ्न वही खड़े थे, बोले - सभी का अपना-अपना स्वाद है।'
मैंने कहा - रसिक तुम्हारी रुचि काहे में हैं।' तो बोले - देवि, दोनों ओर मेरा
रस-वाद है। (खोखली हँसी हँसती है।) जीवन क्या हो गया है, विनोद के प्रसंग भी आहत
करते हैं!(गाती है।)
दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता-
'बंधु, वृथा ही तू क्यों दहता?'
पर पतंग पड़कर ही रहता!
कितनी विह्वलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़कर प्राण धरे क्या?
जले नहीं तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
दीपक के जलने में आली
फिर भी है जीवन की लाली
किंतु पतंग-भाग्य-निपि काली
किसका वश चलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है।
सूत्रधार : अवधि - शिला का उर पर था गुरुभार
तिल-तिल काट रही थी दृग-जल-धार।
(संगीत द्वारा दृश्य परिवर्तन)
बारहवाँ दृश्य
(संगीत में से किसी के द्वार खोलने और चलने की
ध्वनि)
भरत : कौन?
मांडवी : मैं मांडवी, आर्यपुत्र।
भरत : आओ मांडवी, इस स्वर्णथाल में बिछी पत्तलों
में मेरे लिए क्या लाई हो?
मांडवी : आपके लिए फलाहार।
भरत : (चौंककर) देवी, तुम्हारी आँखें तो नम हैं।
मांडवी : अयोध्या में कौन अभागा है जिसकी आँखें
गीली नहीं हैं आर्यपुत्र! मन बहुत शंकित हो गया है, न जाने दुर्देव कब क्या कर दे।
भरत : ऐसा न कहो मांडवी, दुर्देवी अब और हमारी
परीक्षा नहीं लेंगे। आर्य कहीं हों पर आर्य के वचन मेरे पास हैं और अवधि पूर्ण होते
ही आर्य भी हमारे पास होंगे। कौन हैं जो उन्हें अयोध्या आने से रोकेगा!
मांडवी : यही कहकर तो मैं माँओं को कुछ खिला सकी
हूँ। पर बहन उर्मिला को आज जल तक भी न पिला सकी।
भरत : उसकी तपस्या स्पृहणीय है।
मांडवी : माँएँ तो रो लेती हैं, पर बहन उर्मिला के जैसे आँसू ही सूख गए हैं। एक दिन
ही नहीं, बहुत दिन निराहार रहने से जैसे उनकी आँखों का जल ही सूख गया है।
भरत : (निश्वास लेकर) आज मेरा भी उपवास है मांडवी।
मांडवी : पर यह तो प्रभु का प्रसाद
भरत : सबके साथ ही उसे लूँगा। रात हो रही है, जाओ
उर्मिला का ध्यान करो।
मांडवी : जो आज्ञा, स्वामी!
(संगीत, दृश्य परिवर्तन)
तेरहवां दृश्य
(उर्मिला गा रही है)
आ जा, मेरी निंदिया गूँगी।
आ, मैं सिर आँखों पर लेकर चंद खिलौना दूँगी।
प्रिय के आने पर आवेगी,
अर्द्धचंद्र ही तो पावेगी।
पर यदि आज उन्हें लावेगी
तो मैं तुझसे ही लूँगी
आ जा, मेरी निंदिया गूँगी।
पलक-पाँवड़ों पर पद रख तू,
तनिक सलोना रस भी चख तू
आ, दुखिया की ओर निरख तू,
मैं न्योछावर हूँगी
आ जा, मेरी निंदिया गूँगी।
मांडवी : अभी तक सोई नहीं, बहन उर्मिले।
उर्मिला : इन सूखी आँखों में नींद कहाँ। पर तुम
कहाँ आ गई मुझ रेतीली बालू के संग विरह ताप में जलने। तुम अब तक क्यों नहीं सोई?
मांडवी : आजकल कौन सोता है? प्रकृति के कारण कोई
आँख मूँद भी लेगा तो क्या वह सोने जैसा चैन पा लेगा?
उर्मिला : सच कहा दीदी, अब किसी भी दशा में चैन
कहाँ हैं?
मांडवी : अब सबको चैन श्रीराम के आने पर ही आएगा।
(पहले उदासी भरा संगीत धीरे-धीरे मंगल ध्वनि में
बदलता है। दृश्य परिवर्तन। सूत्रधार का स्वर उभरता है।)
चौदहवाँ दृश्य
सूत्रधार :
भुक्ति विभिषण और मुक्ति रावण को देकर,
विजय सखी के संग शुद्ध सीता को लेकर
दक्षिणात्य - लंकेश अतिथि लाकर मन भाए,
अतिथेय ही बने लक्ष्मणाग्रज घर आए।
भरत आगे और शत्रुघ्न नगर तोरण के आगे।
मानो थे प्रतिबिंब प्रथम उनके आगे।
वर विमान से कूद, गरुड़ से ज्यों पुरुषोत्तम,
मिले भरत से राम क्षितिज में सिंधु-गमन-सम!
राम : 'उठ भाई, तुल सका न तुझसे, राम खड़ा है,
तेरा पलड़ा बड़ा, भूमि पर आज पड़ा है।
मैं वन जाकर हँसा, किंतु धर आकर रोया,
खोकर रोए सभी, भरत, मैं पाकर रोया!'
भरत : आर्य, यही अभिषेक तुम्हारे भृत्य भरत का।
सूत्रधार :
पैदल ही प्रभु चले भीड़ के संग पुरी में,
माताओं के भाग आज सोते से जागे,
पहुँचे राम राज-तोरण के आगे।
पाई प्रभु से इधर नई छवि राज-भवन ने,
सागर का माधुर्य पी लिया मानो घन ने।
(उर्मिला के खिलखिलाने के स्वर के बीच सूत्रधार का स्वर गूँजता है - सागर का
माधुर्य पी लिया मानो घन ने।)
सुलक्षणा : सखि उर्मिले, उमंग के ये रंग कहाँ भरे
थे। पर यह क्या तुमने तनिक भी शृंगार नहीं किया है?
जब श्रोता सामने आ रहा है तो शृंगार के सारे गीत भूल जाना चाहती हो! लाओ मैं
तुम्हारा शृंगार कर दूँ।
उर्मिला : हाय सखि शृंगार क्या अब मुझे सोहेंगे?
क्या आर्यपुत्र, मेरे वस्त्रों को देखकर ही मुझे मोहेंगे?
तुझे मेरा अंकित किया दग्ध-वर्तिका चित्र स्मरण है, मैं अपने नाथ के सामने वैसा ही
दिखना चाहती हूँ। सखी हृदय की प्रीती शरीर पर नहीं हृदय पर ही होती है।
सुलक्षणा : पर क्या तुम्हें इस वेष में देखकर यह
सोच दुखी न होंगे कि उर्मिला मेरे पीछे कितनी पीड़ित रही।
उर्मिला : मैं तुझसे बातों में जीत सकी हूँ क्या! जा जितने आभूषण तुझे इष्ट हो ले
आ। पर यौवन का उन्माद मैं कहाँ से लाऊँगी, वह खोया धन आज कहाँ से पाऊँगी।
सुलक्षणा : सखी अभी ही तो तुमने कहा - हृदय की
प्रीती शरीर पर नहीं हृदय पर ही होती है।
उर्मिला : सखी यह उर्मिला तन से बाल है, युवती है
या फिर वृद्धा है, नहीं जानती।
लक्ष्मण : (प्रवेश करते हुए) पर उर्मिला मन से
क्या है, लक्ष्मण जानता है।
उर्मिला : (चौंककर) आर्यपुत्र! (मूर्छित-सी होती
हुई) इस दासी का प्रणाम स्वीकार (मूर्छित होती है)
सुलक्षणा : सखी तो मूर्छित हो गई, मैं उपचार का
प्रबंध करती हूँ।
लक्ष्मण : उठो उर्मिले, तुम्हारी अथक तपस्या पूर्ण
हुई, आँखें खोलो।
उर्मिला : (मूर्छा से जैसे उठते हुए) नाथ, नाथ,
क्या आज मैंने तुम्हें सत्य ही पा लिया है।
लक्ष्मण : हाँ प्रिये, आज ही वह दिन आया है। जिस
दिन भैया राम का आर्या बिना मन रोया था उस दिन मैं खोया-सा तुमसे मिला था, जिस दिन
हनुमान ने माता सीता का विरह प्रभु को सुनाया उस दिन मैंने तुम्हें पूर्ण रूप से
पाया और आज अपने को ही तुमने मुझे दे डाला है। आजतक जो लक्ष्मण तुम्हारा लोलुप कामी
था उसे आज अपना स्वामी कह सकती हो।
उर्मिला : स्वामी! स्वामी, मेरे जन्म-जन्म के
स्वामी। (स्वर में रूदन है) आज मेरा जीवन सफल हुआ मैंने पूर्ण रूप में आपको पाया।
लक्ष्मण : प्रिये इन अश्रुपूर्ण मोतियों को आज
मुझे अपने अंक में समेट लेने दो। इस वर्षा की बाढ़ को जाने दो। शरद ऋतु-सी पवित्र
गंभीरता को आने दो। प्रिये इस धरती पर राम-राज्य अवतरित होने वाला है, इस धरा को
प्रेमपूर्वक उसे लाने दो।
(मंगल ध्वनि का स्वर)
सूत्रधार :
अलक्ष की बात अलक्ष जानें, समक्ष को ही हम क्यों न
मानें?
रहे वहीं प्लावित प्रीति-धारा, आदर्श ही है ईश्वर हमारा।
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