विमान
से नीचे पाँव रखने से अब तक वह अपने निर्णय को तोल रही है,
कहीं गलत तो नहीं आ गयी? हवाई अड्डा पूरी तरह बदल चुका था,
पहले सा छोटा सा नहीं अपितु विशालकाय, चमचम करता, बाहर २८
डिग्री तापमान में भी अंदर जैकेट की आवश्यकता महसूस कराने
वाला, सुंदर चमचमाती दुकानों से भरे ड्यूटी फ्री क्षेत्र को
देखते ही उसे परिवर्तन का एहसास हुआ, पर मन में विश्वास था कि
यह परिवर्तन सतही है, मन के कोने में एक आस थी कि जिन
सम्बन्धों में वह बरसों पहले सिक्त हुई थी उनकी नमी अभी
पूर्णतः सूखी नहीं होगी। बिन बाँधे बँधे बंधन तो अटूट हुआ करते
हैं, उन्हें न कोई हवा उड़ाती है न वर्षा का जल ही धो पाता है।
शिक्षा केंद्र की गाड़ी लेने आई थी, कार जैसे ही शुरू हुई
रिमझिम वर्षा ने मानो उसका स्वागत किया। वह खुश थी कम से कम
कुछ तो ऐसा है जो बदला नहीं है। वर्षा! हाँ वर्षा से ही तो
बँधे थे कितने अरमान, इस देश में जहाँ वर्षाकाल बारह मास रहता
है वहीं एक रोज़ की बारिश उसके जीवन में अनंत सुख ले आई थी, एक
ऐसा सुख जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी और फिर वह दूसरी
बारिश जिसने उसे जल प्रपात के समान ऊँचाई से धकेला था और उसके
मस्तिष्क को सुन्न कर दिया था, इतना सुन्न कि उसे वह शहर छोड़
कर जाने के अतिरिक्त कुछ समझ न आया था और वह सभी सिरों को यों
ही लहराता छोड़ चल पड़ी थी। इस बार जब इस शहर आने का प्रस्ताव
मिला तो उसे लगा शायद यह ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया एक
सुनहरा अवसर है और उसने सहर्ष स्वीकार किया और परिस्थितियों का
डटकर मुक़ाबला करने का निर्णय लिया।
किन्तु यहाँ आते ही उसे अपने निर्णय पर संशय होने लगा....पहले
दिन का अहसास दो सप्ताह में ही पुख्ता हो गया....वक़्त के साथ
सब बदल गया था…. बड़ी उत्सुकता से पुरानी कड़ियाँ जोड़ने को फोन
पर फोन किए थे किन्तु किसी भी सिरे पर वह ऊष्मा न मिली जिसकी
उसे अपेक्षा थी, उसका आना सिर्फ उसी के लिए महत्वपूर्ण था। जो
मित्र उसके जाने पर ज़ार ज़ार रोये थे आज व्यस्त थे, अवसर मिलते
ही संपर्क करने के वादे उसे बेजान से लगे। उसने पाया कि जो
बच्चे उसके साथ कहानी सुनते सुनते सो जाते थे आज उन सबकी अपनी
कहानियाँ बन गईं हैं।
दिल के कोनों में बच्चे कभी बड़े नहीं हुआ करते, बरसों बाद भी
जब मिलने चलो लगता है सब कुछ वैसा ही होगा जैसा छोड़ आए थे पर
वास्तविकता का तो दिल से कुछ लेना देना नहीं होता न। छोटा सा
रवि जो उसके आगे पीछे घूमता था अपनी गुड़िया सी दुल्हन के साथ
मस्त था। सुना था कई अड़चनें रहीं उनके विवाह में कीर्ति के
माता पिता जो नहीं चाहते थे, पर आखिर उन्हें बच्चों की बात
माननी पड़ी। घुटनों तक फ्रॉक पहनने वाली गोल मटोल विरायशा तो
पहचानी ही नहीं गयी, पिछले वर्ष मिस इंडिया सूरीनाम घोषित की
जा चुकी थी। क्या इनके जीवन में लेश मात्र भी उसका कोई स्थान
हो सकता था?
वह सभी तार जो उसे खींच रहे थे उसने महसूस किया बस उसी की ओर
से जुड़े थे दूसरी ओर लगता था एक गुच्छे में बाँधकर किसी पेड़ की
शाख से लटका दिये गए थे। जीवन का नाम ही गति है, कोई रुके भी
तो क्यूँ और किसी के लिए तो बिलकुल भी नहीं फिर वह किस ठहराव
की तलाश में यहाँ आई है? अब वह इंतज़ार में थी समर कि वापसी के,
उसे बताना चाहती थी कि आज उसके मन में समर के लिए कुछ भी नहीं
है। समर की छह देशों में होने वाली ४५ दिवसीय प्रदर्शनी संबंधी
यात्रा का समाचार भी उसके लिए आश्चर्यजनक ही था। पर खुशी हुई
थी जानकर कि बस वह ही नहीं बदली, बहुत कुछ और भी बदल गया है।
पहली बार जब इस देश में वह शिक्षक नियुक्त की गयी थी बड़े संशय
के साथ यहाँ आने का निर्णय लिया था..... लेकिन यहाँ आकर पाया
कि इस देश के लोगों में भारत के प्रति जो आदर भाव है वह हर
भारतीय को उसके गुण अवगुण से परे पूजनीय बना देता है। पहली बार
कक्षा में आते ही आरती व पुष्प वर्षा से हुआ स्वागत उसके अंतस
को भिगो गया था। लगभग तीस पैंतीस हमउम्र व्यक्तियों से इतना
आदर व सम्मान पा कर वह अपने गुरु की पदवी को संपूर्ण रूप से
समर्पित हो गयी थी। उसके शिक्षण के तरीके से प्रभावित छत्रों
कि संख्या बढ़ती गयो और छह माह में ही चार गुना से अधिक हो गयी।
हर पल उन समुत्सुक छात्रों की हर जिज्ञासा को शांत करने का
प्रण और उनसे मिल रहे स्नेह का मोल चुकाने की आकांक्षा लिए वह
अपने नियत कार्य से कुछ अधिक ही करती रही।
हर छात्र के साथ एक आत्मीय रिश्ता जुड़ गया, धीरे धीरे ख्याति
बढ़ी, छात्र भी बढ़े उनकी समस्याएँ भी बढ़ीं और वह उलझती गयी। सब
से अलग था समर! उसका जीवन उसके नाम के अनुरूप समर सा बना हुआ
था। आठ पाँच और तीन वर्ष के छोटे छोटे बच्चों को छोड़कर उसकी
पत्नी अपने नए दोस्त के साथ हॉलैंड जाना चाहती थी। अस्सी के
दशक का समय बहुत कठिन था इस देश में – आंतरिक संघर्ष! बाह्य
संघर्ष! लगता था हर व्यक्ति हर ओर से जूझ रहा था। व्यक्तिगत
हित महत्वपूर्ण हो गया था, मानवी रिश्ते गौण! वैसे भी रिश्ते
टूटने का शायद सबसे बड़ा कारण होता है उनके प्रति उदासीनता।
समर एक प्रतिष्ठित चित्रकार था, कोई पेंटिंग शुरू करता तो
उसमें डूब जाता था, अपनी सब शक्तियाँ सारा एहसास उड़ेल देता था
उसमें, कभी कभी गाड़ी उठाकर चलता तो कई दिन बाद दर्शन होते।
हौलैंड में उसकी पेंटिंग्स की बहुत मांग थी किन्तु हौलैंड जाने
का हर अवसर गंवा देता था, वह कहता "मैं सूरीनाम की धरती से
प्रेम करता हूँ, यहाँ की प्रकृति ने मुझे चित्रकला की ओर
प्रेरित किया यहाँ से जुदा हो मेरा अस्तित्व खो जाएगा; जीवन
यापन के लिए भारतीय पोशाकों की एक छोटी सी दुकान खोल ली थी
किन्तु उसका दायित्व कोमल पर आ पड़ा। समर की उदासीनता बढ़ती जा
रही थी और शायद यही कारण रहा होगा कोमल के इस कठोर निर्णय का।
एक दिन वह सब बंधन तोड़कर उड़ गयी एक नए नीड़ को सहेजने।
समर टूट रहा था और वह उसे संभालना चाहती थी, चाहती थी उसकी
हताशा और दर्द को खरपतवार की तरह नोंच कर फेंकना और जैसे वह
कैनवस पर रंग भरता था वह उसके जीवन में सकारात्मकता के रंग
भरना चाहती थी; उसके जीवन के रंगों – उसके तीनों बच्चों से
उसकी पहचान कराना चाहती थी। और इसी सब प्रयास में न जाने कब
शिक्षक द्वारा दिया जा रहा स्नेह व सहारा स्त्री द्वारा दिये
जाने वाले प्रेम में परिवर्तित हो गया... और एक रोज़ जब तेज़
वर्षा में समर उसे घर छोड़ने आया तो यह प्रेम समर्पण में बदल
गया और वह नवकली सी खिलने लगी।
एक रोज़ भीषण वर्षा में पैर पटकती चली आई थी ग्रेस, बारिश तेज़
थी और ग्रेस बिना छाते के थी, उसके कपड़ों से टपकता वर्षा जल
कालीन को भिगो रहा था और उसके शब्द अंतर को बींध रहे थे। ग्रेस
से वह परिचित थी समर की स्टोर-सहायक के रूप में। कोमल के जाने
के बाद बच्चे स्कूल से आने के बाद काफी समय स्टोर में बिताते,
ग्रेस भी बच्चों के साथ अधिक समय व्यतीत करने लगी थी, अकसर
उन्हें पार्क, मैक्डोनल्ड इत्यादि ले जाती। समर और मैं खुश थे
कि इससे हमें थोड़ा समय साथ व्यतीत करने का अवसर मिल जाता;
किन्तु ग्रेस के उस रौद्र रूप को देख मैं समझ गयी कि ग्रेस
बच्चों के साथ साथ बच्चों के पिता का भी सान्निध्य चाहती है
क्रिओल जाति की उस सुगठित देह वाली स्त्री पर एक बार तो हैरत
हुई, किन्तु फिर मेरा मन उसके लिए तरस से भर उठा था.....
तब यह नहीं जानती थी कि तरस का पात्र कोई और है! ग्रेस मेरे
ऊपर आक्षेप लगा रही थी कि मैं उसके और समर के बीच आ गई हूँ,
उसके अनुसार कोमल के समर को छोडने का कारण समर की कोमल के
प्रति उदासीनता नहीं ग्रेस से जुड़ाव था!!! मैं हतप्रभ थी, समर
पर विश्वास था इसलिए सुनकर भी नहीं मानना चाहती थी, समर के साथ
बिताए पल फिल्म की रील के समान मस्तिष्क में घूम रहे थे; एक
वर्ष का समय कैसे बीता था उसके चित्र मस्तिष्क में तिर रहे थे,
ग्रेस बोलती जा रही थी किन्तु कुछ समय के बाद उसके शब्द मेरे
कानों में पड़ने बंद हो गए थे।
अचानक दरवाजा ज़ोर से बंद होने की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी,
शायद हवा के कारण ज़ोर से बंद हुआ था। ग्रेस न जाने कब की जा
चुकी थी, किन्तु कालीन पर एक बड़ा गीला निशान उसके अस्तित्व कि
याद दिला रहा था। बाहर वर्षा समान गति से बरस रही थी किन्तु जो
शंका उत्पन्न हो गयी थी उसका निवारण भी आवश्यक था। बहुत हिम्मत
कर समर को फोन मिलाया…" समर क्या अभी आ सकते हो?..." अभी नहीं
हो पाएगा मैं कल सुबह मिलूँगा।" मन का वहम था या समर कि आवाज़
का ठंडापन वह नहीं समझ पायी, एक झुरझुरी उसकी रीढ़ कँपा
गयी....और फिर रात भर बरसात होती रही, भीतर भी, बाहर भी।
अगली सुबह समर के आने से पहले वह पूरी तरह तैयार थी, घुमा-फिरा
कर कहने कि आदत नहीं थी सो सीधा मुद्दे पर आ गयी – "समर
तुम्हारे और ग्रेस के बीच क्या है?" समर का उत्तर उसके लिए
अप्रत्याशित था, बड़ी ढिठाई के साथ मुसकुराता हुआ बोला –
"परस्पर सुविधा!"
मेरे पैरों तले कि ज़मीन खिसक गयी, जानना जरूरी था सो अगला
प्रश्न दाग दिया- "और हमारे बीच"; "गुरुजी आपके तो बहुत सारे
विद्यार्थी हैं, मैं उन्हीं में से एक हूँ, किन्तु आप चाहें तो
ऐसे ही चल सकता है, यहाँ इस चीज़ का कोई बुरा नहीं मानता!" उसके
शब्दों का आशय बहुत गहरा था, भीतर का काँच टुकड़े टुकड़े कर मन
मस्तिष्क को बींध गया।
इसके बाद कुछ कहने का न अवसर था न आवश्यकता…..शायद दोष अपना ही
था! पारिवारिक जिम्मेदारियों का जामा पहन अपने स्थानांतरण की
अर्ज़ी दी और दो माह होने से पहले ही रवाना हो गयी थी।
आज की और पंद्रह बरस पहले कि काम्या में बस यही एक अंतर है कि
आज वह किसी भी परिस्थिति से भागती नहीं है। यह शायद उम्र और
अनुभव की भी देन है। लगभक दो दशकों के अंतर पर जीवन के प्रति
दृष्टिकोण बहुत बदल जाता है, परिस्थितियों से जूझने की समझ आ
जाती है। विचारों में डूबते उबरते अचानक ध्यान गया कि अंधेरा
बहुत घिर आया है, सभी बत्तियाँ जलाते हुए एहसास हुआ कि भूख भी
ज़ोर से लगी है, यों तो शाम को वह अधिक नहीं खाती है फिर भी आज
शायद बरसाती हवा ने भूख कुछ बढ़ा दी है, खाना प्लेट में लगा
उसने टेलीविज़न ऑन किया तो पाया समर की सफल प्रदर्शनी यात्रा
संबंधी समाचार आ रहें। समर किसी पुराने पड़ोसी सा ही परिचित
दिखा उस समय, पहले की भांति उसे देखते ही धड़कन तेज़ नहीं हुई, न
हर्ष से न नाराजगी से। वह देखती रही... और देखते देखते अनुभव
किया कि अब मन में समर के प्रति कोई भाव नहीं है... उसने
निर्णय ले लिया था।
वृत्त पूरा हुआ! उसे लगा कि अब कोई सिरा खुला नहीं है। बाहर
बारिश भी थम चुकी थी और आसमान में पूरा चाँद मुस्कुरा रहा था। |