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"मुझे तो लगता है हमें लेना नहीं चाहिए। आज कल जमाने में क्या-क्या नहीं हो रहा है। जाने किसने भेजा है.., क्या बला है इसमें ...?"

"ये सच है, कुछ लोग तोहफे को 'सरप्राइज' के तौर पर भेजते हैं और अपना नाम नहीं लिखते। ये तो आम बात है" डिलीवरी-मैन ने बात को अंदाज़े से समझ कर अपनी बात कही।

पर आज-कल चल रही वारदातों को नजर में रखते हुए मुझे पत्नी की बात ही ज़्यादा जंची। मैने सकुचाते हुए डिब्बा उसके हाथ में थमा दिया।

"पर माफ कीजिये, कुछ भी हो, हमें ये पार्सल नहीं लेना है। आप इसे ले जाइये और अपने ट्रैकिंग-सिस्टम से भेजने वाले का नाम किसी भी तरह पता कर इसे लौटा दीजिये"

कंधे उचकाते हुए उसने धनुष के समान अपनी भृकुटियाँ तानी और घूर कर मेरी आँखों में देखा, फिर अंग्रेज़ी में कुछ बडबडाता हुआ सा मकान के सामने खड़ी अपनी वैन की ओर बढ़ गया। जब तक वैन ले कर वो आँखों से ओझल नहीं हो गया, मैं दरवाज़े पर ही खड़ा रहा। बात आवश्य सोचने वाली थी। अभी कुछ ही हफ्ते पहले टी.वी. न्यूज में बड़ी खबर थी कि पार्सल में भेजे गए बम्ब द्वारा एक मकान में धमाका हुआ। पूरा परिवार चीथड़े-चीथड़े हो गया। कहीं कार-बम्ब से बेकसूर मर रहे हैं, तो कहीं मानव बम्ब द्वारा समूहों पर आफत...। ख़ुदा जाने जमाने भर में जाने क्या-क्या हो रहा है।
कहीं, किसी भी बात पर भरोसा नहीं।

बात फिर भी उतनी आसानी से आई-गयी नहीं हुई। सप्ताह के बीत जाने पर शुक्रवार शाम को दफ़्तर निपटा कर जब घर पहुँचा, तो देखा पत्नी दरवाज़े पर खड़ी साथ के पड़ोसी मिस्टर बोमन से बात-चीत कर रही थी। उन दोनों के बीच में दहलीज पर वही बॉक्स रखा हुआ था जिसे कुछ दिन पूर्व हमने लौटा दिया था। मेरे वहाँ पहुँचने पर पता चला कि कोरियर का डिलीवरी-मैन बॉक्स को मिस्टर बोमन के घर के सामने रख कर चला गया था, तथा उस पर मेरा नाम पढ़ कर वो उसे देने आया था। तब मैने मिस्टर बोमन को बॉक्स पर भेजने वाले का नाम नदारत होने की स्थिति स्पष्ट की और इन दिनों चल रही वारदातों का हवाला देते हुए कहा कि हम इस बॉक्स को स्वीकार नहीं करना चाहते। मेरी बातों से सहमत होते हुए भी मिस्टर बोमन ये कह कर, 'ख़ैर, जो भी है, आपका पैकेट है आप जो चाहे करें..' उस बॉक्स को वहीं छोड़ कर
अपने घर चले गए।

अंत में तय हुआ कि बॉक्स को मकान के सामने पेड़ के नीचे कूड़ेदान के साथ रख दिया जाए। कूड़े का ट्रक बाकी कचरे के साथ इसे भी उठा कर ले जायेगा और किस्सा यहीं रफा-दफा हो रहेगा। और हमने ये ही किया भी। हालां कि कूड़े का ट्रक सोमवार को आना था, पर शुक्रवार रात को ही कूड़ेदान से सटा कर बॉक्स को पेड़ के नीचे रख दिया गया। शनिवार और रविवार सामान्य रहे। चलती दिनचर्या के साथ बीच-बीच में खिड़की से डिब्बे को देख भी लेते थे। यूँ तो ठीक-ठाक चीज़ें बाहर रखी देख लोग ही उठा कर ले जाते हैं, किन्तु किसी ने 'मुफ्त में मिला' जान कर उसे उठाया भी नहीं। रविवार को थोड़ी सी बारिश हुई। गत्ते का डिब्बा भीग कर कुछ गल सा गया था। एक मन हुआ कि उठा ही लें। यदि बम्ब जैसी कोई घातक चीज होती तो अब तक फट गया होता। पूछने पर पत्नी जी ने फिर से विरोध किया और हम अगली सुबह कू
ड़े के साथ उसकी विदाई की प्रतीक्षा करते रहे।

सोमवार सुबह उठते ही सबसे पहले पत्नी और मैं, दोनों खिड़की की और लपके। देखा खाली कूड़ेदान औंधा पड़ा लुढ़क रहा है। पास में वो बॉक्स नहीं था। हमने सुख की साँस ली कि चलो छुटकारा मिला। श्रीमती जी ने लम्बी साँस ले कर स्टोव पर चाय धर दी। कुछ ही देर बाद, चाय का प्याला अभी हाथ तक पहुँचा भी नहीं था कि दरवाजे पर घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो देखा हरी सी युनिफोर्म में कूड़ा उठाने वाला उसी बॉक्स को हाथ में लिये खड़ा था।

"
जी साहब, मैने अभी-अभी देखा ये पैकेट तो खुला भी नहीं हुआ, शायद पोस्ट-मैन सड़क पर ही पटक गया होगा। ये लोग भी..., कोई काम ठीक से नहीं करते।"

और वो मेरे हाथ में बॉक्स थमा, अपने ट्रक की और चलता बना। दो हफ्तों से पीछा कर रहे इस बॉक्स की दिल्लगी दिल को अब कुछ विचलित सा करने लगी थी। उस दिन हम दोनों ने दफ्तर से छुट्टी कर ली और इस परेशानी को निपटाने की ठान ली। बॉक्स को बहार पेटियो पर ही रहने दिया और दुबारा ताज़ा चाय पीने के बाद पुलिस को फोन लगाया।

दरवाज़े के सामने वो ही बॉक्स, व घर के आगे पुलिस की गाड़ी खड़ी देख पड़ौसी मिस्टर बोमन को भी उत्सुकता हुई, और वो भी हौले-हौले सरकता हुआ हमारे घर तक आ पहुँचा। पुलिस अफसर अच्छी तैयारी के साथ आया था, और पूरी तसल्ली करने के लिये एक कुत्ते को भी लेता आया। सबसे पहले कुत्ते ने ही बॉक्स को सूँघा, फिर उसे कुछ देर पंजों से इधर-उधर लुढ्काता रहा, दाँत गड़ाता रहा। और फिर अफसर की और थूथना उठा कर देखा और बिना आवाज किये पूछ हिलाता हुआ दरवाजे से लग कर बैठ गया। कुत्ते के तसल्ली कर लेने के बाद पुलिस अफसर ने बॉक्स को हाथों में उठाया, हिला कर देखा, और जेब से एक पैना सा औज़ार निकाल कर उसकी टेप को ऊपर से काट दिया। फिर बॉक्स के अ
न्दर हाथ डाल कर समान निकालने लगा।

बॉ
क्स में से बाहर की ओर निकलते हुए अफसर के हाथ के साथ, सोने की चम-चमाती हुई एक चेन भी बाहर निकलती दिखाई पड़ी। और फिर चैन के साथ नीचे झूलती सुनहरी पॉकेट-वाच। बाबू जी की घड़ी को पहचानने में मुझे जरा भी वक्त नहीं लगा और मैं हैरान सा अफसर के हाथ में उसे झूलते हुए देखता रहा।

"
वाह वाह, ये अब तो मेरी हुई, क्यों कि तुम तो इसे कूड़े मे ही फेंक रहे थे, है ना ?" मिस्टर बोमन ने तंज किया।

"लेकिन तुमने ठीक किया। शक वाली चीज़ों के मामले में ऐसा ही करना चाहिए" पुलिस अफसर ने हँसते हुए बॉक्स मुझे पकड़ा दिया।

"धन्यवाद", मैने अफसर का शुक्रिया अदा किया। कुछ ही मिनटों में पुलिस-रिपोर्ट तैयार कर, उस पर मेरे हस्ताक्षर ले, कुत्ते का पट्टा संभालता हुआ वो वहाँ से रवाना हो गया। थोड़ा सा हँसी ठठा करने के बाद अंत में मुझे डरपोक ठहरा कर, दाँत फाड़ता हुआ मिस्टर बोमन भी अपने घर चला गया। और फिर हम भी अन्दर चले आए और दरवाज़ा बंद कर लिया।

बॉक्स को एक बार फिर भीतर से टटोलने पर उसमे से तह किया हुआ एक कागज का पुर्ज़ा निकला जिसे खोलते ही बड़े भाई साहब की लिखावट फौरन पहचान में आ गयी। और उसी सेकेंड बाबू जी की इस घड़ी को ले कर हमारे संबंधों में क्या-क्या हो गुजरा था एक-एक कर याद आने लगा। मैने पत्र को कुछ देर के लिये टेबल पर रख दिया, और घड़ी को हाथ में ले पास पड़े किचन टॉवल से चमकाने लगा। घड़ी दस बजे का समय दिखा रही थी, पर रुकी हुई थी। रात के दस थे,
या सुबह के, पता नहीं।

"पहले चिट्ठी तो पढ़ लो, जाने क्या लिखा है.., अब क्यों भेजी है ये घड़ी?" पत्नी ने कहा।

मैने ठीक से चमका कर कर घड़ी को मेज पर टिका दिया और चिट्ठी खोल कर देखने लगा।

"जरा ज़ोर-ज़ोर से पढ़ो, मुझे भी सुनना है क्या लिखा है। मैं भी तो जानूँ आज कैसे याद आई हमारी, वो भी घड़ी भेज कर," बीवी ने मुस्कुराते हुए ताना मरा।

"ठीक है, जरा चश्मा तो पकड़ाओ, वो पीछे रखा है,"

.
.. और चश्मा पहन कर मैने चिट्ठी को पढना शुरू किया ....

डियर छोटे ..,

लगता है अब तक नाराज है ? तेरी नाराजगी जायज है छोटे। कुछ वक्त बुरा था, कुछ किस्मत का चक्कर और कुछ कमअकली के जोश की चढ़ती उम्र भी। इन तीनों ने अपने-अपने हथकंडे लगा कर हमें अलग कर दिया। पर नाखूनों से कभी मॉस जुदा हुआ है? काश ! ये सच उस वक्त भी पता होता। उम्र के इस पड़ाव पर आ कर महसूस हो रहा है कि इन्सान आकांक्षाओं के लालच में किस प्रकार अनमोल रिश्तों से हाथ धो बैठता है। माँ-बाप अपने सब बच्चों को बराबर का प्यार देते हैं, ये बात बाबू जी के स्वर्गवासी होने तक मुझे समझ नहीं आई थी। मरते वक्त जब ये घड़ी बाबू जी ने तेरे हाथों में पकड़ा दी थी, मैं ईर्ष्या में जल कर खाक हो गया था। बाबू जी जानते थे कि तुझे ये घड़ी कितनी अच्छी लगती थी। उनके दफ़्तर जाते वक्त हर रोज तू ही कपड़े से चमका कर इसे उनकी पतलून के लूप में अटकाया करता था। हालाँकि हमारी उम्र में काफी फर्क है, लेकिन उस वक्त इस फर्क का अहसास नहीं था। बस, इतना ही समझ में आता था कि मैं बड़ा हूँ और हर चीज पर मेरा हक ज़्यादा व पहला है। बाबू जी के चले जाने के बाद बड़प्पन से छोटे भाई के सिर पर हाथ रखने के बजाय मुझे इस घड़ी की तलब ज्यादा हुई। मैने जिस दिन इसे तुझसे छीना, उस दिन के बाद तूने पलट कर नहीं देखा।

छोटे, क्या तू मुझे माफ कर सकता है? बस, सब कुछ भुला कर मुझसे मिलने आ जा। मैं जिस खतरनाक बीमारी के दौर से गुजर रहा हूँ, मुझे नहीं लगता कि मेरे पास ज़्यादा समय बचा है।

बस ज़िन्दगी के आख़री कुछ दिन तेरे साथ बिताना चाहता हूँ। पिछले हफ्ते तेरी भाभी से फोन करवाया था। मिला नहीं, तुमने शायद अपना नम्बर बदल लिया है। उम्मीद है तेरा पता वही होगा और ये पैकेट तुझे मिल जायेगा। छोटे, ये घड़ी तो शुरू से तेरी ही थी, और तेरे पास ही होनी चाहिए, मेरा तो बस वो अहंकार था जो ज़िन्दगी की इस कगार पर आकर टूटा। छोटे, बस एक बार अपनी शक्ल दिखा जा ताकि तुझ से गले मिल कर मैं शान्ति से जा सकूँ। तेरे आने की खबर
के लिये तेरे फोन का इंतज़ार करूँगा।

तेरा भाऊ...।

चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते जाने कितनी बार गला रुँध गया, आँखें नम हो गयी। तकरीबन दस साल हो चुके थे इस जख़्मी-रिश्ते को खामोश पड़े। फोन उठाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। भारी हाथों से फोन उठाया तो उसे ले कर देर तक बैठा रहा। कहाँ से बात करना शुरू करूँ, घड़ी मिलने की खुशी जतलाऊँ, शुक्रिया करूँ, या उनकी बीमारी पर अफसोस करूँ। एक बार तो सोचा मिलने ही चला जाऊँ, एट्लान्टा है ही कितनी दूर, दो तीन घंटे की ही तो फ्लाइट है। और इस उधेड़-बुन में दो घंटे गुजर गए। फिर साहस बटोर कर नम्बर मिला दिया। देर तक घंटी बजती रही पर किसी ने उठाया नहीं।

शाम होने पर एक बार फिर भाऊ का नम्बर मिलाया। दूसरी ओर से किसी शफीक-अहमद ने फोन उठाया। शफीक ने बताया कि वो लोग पिछले साल ये मकान बेच कर बेटी के यहाँ शिफ्ट हो गये थे। जब मैंने उनसे अपने रिश्ते का हवाला देते हुए उर्दू लहजे में बात शुरू की तो उन्होंने सारा किस्सा खोल कर बताया। शफीक ने कहा कि वो भाऊ के अच्छे दोस्त थे और बीमारी में उनकी मदद भी करते रहे थे। फिर आखिर में कुछ पल खामोश हो कर दबी आवाज में उन्होंने कहा कि भाऊ तो पिछले साल ही गुजर गए थे। ये सुनते ही मेरी आँखों में जैसे बिजली सी कौंध पड़ी।

"पि
छले साल...? लेकिन मुझे तो उनका ये पार्सल....?"

फोन पर बात करते-करते ही मैने चिट्ठी को उठाया और एक नजर उसके ऊपर की ओर डाली। सच-मुच उस पर पिछले ही साल की तारीख थी। हैरानी इस बात की थी, कि ये बॉक्स साल भर कोरियर में पड़ा रहा, या के भाऊ ने ही इतनी देर तक सहेज रखा था।

"वो पार्सल.., हाँ मैने ही भेजा था। दरअसल घर शिफ्ट करते वक्त उनसे यहीं छूट गया था। फिर मेरे सामान के बीच इधर-उधर हो गया। पिछले हफ्ते जब मुझे मिला तो मैने फौरन ही भेज दिया"

शफीक ने इस अनदेखी की मुआफ़ी माँगते हुए बात को साफ किया। फोन रखने के बाद खाली डिब्बे को उलट-पलट कर देखते हुए सहसा मुझे याद आया, बाबूजी कहा करते थे आपसी मन-मुटाव जल्दी निपटा लेने चाहियें, क्यों कि लम्बी खामोशी किसी झगड़े का हल नहीं होती।

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१३ फरवरी २०१२

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