|  | जब वह पहली 
					बार आया, तब मैं घर पर नही था। मेरी पत्नी ने उसे अनजाना मान 
					कर, या कुछ और सोच कर लौटा दिया और मुझसे इस बारे में ज़िक्र तक 
					नही किया। विवाह के पश्चात बच्चे अपने-अपने घर बस गए हैं, सो 
					परिवार के नाम पर अब यहाँ केवल हम दोनो ही रहते हैं। कुछ दिनों 
					के पश्चात, एक दिन जब दरवाज़े पर घंटी बजी तब हम घर पर ही थे। 
					दरवाज़े के बीच जड़े शीशे के पैनल से खाकी-सी वर्दी पहने एक 
					व्यक्ति की झलक दिखाई पड़ी। उसे देखते ही पत्नी सकपका कर उठ 
					खड़ी हुई, मानो कुछ याद आ गया हो...
 "अरे हाँ.., मैं बताना 
					भूल गयी थी, परसों ये पार्सल वाला आया था, पर डिब्बे पर भेजने 
					वाले का नाम पता कुछ भी नही है।"
 
 सुन्दर सी टेप से पक्की तरह जड़ा हुआ छह इंच लंबे, छह इंच 
					चौड़े और लगभग इतने ही ऊँचे आकार का, एक गत्ते का चकोर डिब्बा 
					लिये किसी कोरियर कंपनी का एक आदमी बाहर खड़ा था। दरवाज़ा खोलते 
					ही उसने डिब्बे को दहलीज पर टिका कर एक रसीद-नुमा कागज का 
					पुर्ज़ा और एक पैन मेरे आगे बढ़ा दिया और उस पर दस्तखत करने को 
					कहा। पैन पकड़ने से पहले मैने डिब्बे को उठाया और भेजने वाले का 
					नाम और पता ढूँढने के लिये उलटने-पलटने लगा। उसे हिलाने पर 
					अंदर किसी सख्त सी चीज के लुढ़कने की सी आवाज हुई।
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