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					 पिता 
					की मृत्यु के बाद आज पहली बार आई है। भाई ने उसका कंधा छुआ- "चल, ऊपर ही चल।"
 वह चुपचाप उसके पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
 ऊपर की मंज़िल पर शायद नीचे का शोर पहुँच चुका था। कुत्ता 
					ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा। वह उसे नहीं पहचानता। भाभी ने दरवाज़ा 
					खोलने से पहले कहा, "वहीं रुकिए दीदी, इसे एक मिनट बाँध लूँ ।"
 वह फिर वहीं बन्द दरवाज़े के आगे खड़ी रही, जैसे घर के बाहर के 
					लोग खड़े होते हैं।
 
 सभी थके थे। थोड़ी-सी औपचारिकता के बाद सोने चले गये। वह पलंग 
					पर लेट कर अपने परिवेश से पहचान बनाने लगी। यह पहले दादी का 
					छोटा कमरा हुआ करता था। भाई की शादी हुई तो भाई-भाभी का कमरा 
					हो गया। फिर रिया बड़ी हो रही थी तो उसके पढ़ने का। भाई-भाभी ने 
					साथ का कमरा बड़ा करवा लिया था। रिया की शादी के बाद यह कमरा 
					मेहमानों के ठहराने का- जिसमें आज वह ठहराई गई है।
 वह छत पर नज़रें गढ़ाए बीते हुए को ढूँढती रही- जैसे साबुन से 
					बनाए बुलबुलों के साथ खेलती हो। इन्द्रधनुषी बुलबुले, हाथ में 
					आते और गुम हो जाते।
 
 कहीं आधी नींद में दादी के साथ पलंग पर लेट कर कहानी सुन रही 
					है। हमेशा एक ही कहानी। एक राजकुमार, राजकुमारी को किसी राक्षस 
					के चंगुल से छुड़ाने के लिए यात्रा पर निकल पड़ता है। रास्ते में 
					एक साधु मिलता है जो उसे राजकुमारी तक पहुँचने का रास्ता बताता 
					है। साधु ने कहा -"पर शर्त यह है," दादी ज़ोर देकर, उसके चेहरे 
					के भाव देख कर रुक जाती है।
 "पीछे मुड़कर नहीं देखना। तुम्हें छलने के लिए पीछे से बहुत 
					आवाज़ें आएँगी, पर तुम बस पीछे नहीं देखना, नहीं तो पत्थर हो 
					जाओगे।"
 वह फटी हुई आँखों से कहानी सुन रही है।
 
 उसकी नींद खुल गई। उठ कर बाहर आ गई। कोहरे की ख़ुशबू में अपने 
					देश की सुबह को जीती रही। पापा जी भी तो यों ही बॉल्कनी में 
					खड़े होकर दिल बहलाया करते थे। दोनों खंभो के बीच खड़े, वह फ़्रेम 
					में जड़े किसी चित्र से ही लगते थे। पिछली बार जब वह वापिस 
					अमरीका जा रही थी तो एयर-पोर्ट पर विदा करने जाने की उनमें 
					शक्ति नहीं बची थी। यों ही गर्म दुशाला ओढ़े, उसी खिड़की में - 
					चित्रवत से खड़े हाथ हिलाते रहे थे। तब तक, जब तक गाड़ी एक- तरफ़ा 
					सड़क पर आगे बढ़ कर, चक्कर मार कर, दोबारा घर के सामने से नहीं 
					गुज़र गई। वही उनका बॉल्कनी में खड़ा, विदा देता चित्र, उसकी 
					स्मृति में उनका आख़िरी बिम्ब है।
 
 पता नहीं वह कितनी देर और यों ही खड़ी रहती पर थक गई। चाय की 
					इच्छा ने ज़ोर मारा। बाहर से गेट के खुलने और फिर बन्द होने की 
					आवाज़ आई। वह बाहर आ गई, फिर रसोई-घर की तरफ़ मुड़ी। गैस पर एक 
					छोटे पतीले में थोड़ी-सी बची हुई चाय थी। भाई-भाभी काम पर निकल 
					चुके थे।
 
 "देख, तेरी माँ नहीं बैठी है अब, वहाँ पर। भाई पूछता है, यही 
					बहुत है। मेहमान की तरह रहना।" उसके पति ने चलने से पहले समझा 
					दिया था।
 "क्यों? मेरे बाप का घर है।" उसने अधिकार से जवाब दे दिया।
 "अब भाई का है।" उन्होंने ठंडेपन से कह दिया।"
 "दीदी, वैसे यह तुम्हारा अपना घर है। पर तुम चार दिनों के लिए 
					आई हो, मेहमानों की तरह रहो। ख़ुशी-ख़ुशी आओ और ख़ुशी-ख़ुशी जाओ।"
 
 जब भाई ने भी यही बात कही और वह भी बिना किसी सन्दर्भ के, तो 
					भीतर कहीं थोड़ी- सी कचोट उठी। परदेश में बसी बेटियाँ और बहनें 
					-मेहमान तो वे हो ही जाती हैं।
 भूल जाती है वो यह बात। पिछली बार जब आई थी तो रिया की शादी 
					नहीं हुई थी। पापा नीचे वाले घर में ही रहते थे। उसने ध्यान 
					दिया कि वह जब भी ऊपर होती है, रिया हमेशा नीचे चली जाती है और 
					जब वह नीचे पापा के पास होती, रिया ऊपर चली जाती। और अगर वह भी 
					कहीं उसी वक्त ऊपर पहुँच जाती तो भाभी- भतीजी दोनों अपने कमरे 
					घुस-पुस कर रही होतीं। वह यों-ही, बेकार सी उनके सामने से 
					दो-तीन बार गुज़रती। कोई उसे अन्दर आने के लिए नहीं कहता था।
 
                    उसे वहाँ, उस घर में अपना होना 
					इतना फ़ालतू लगता कि वह कमरे में आकर, डायरी में बस एक सवाल 
					लिखती - "मैं यहाँ क्यों आती हूँ?"----
 कब से तैयार होकर ड्राइवर के आने का इंतज़ार कर रही है
 भाई आया। "रिया के नाना-नानी को एक और गाड़ी की ज़रूरत थी तो 
					ड्राइवर को मैंने वहाँ भेज दिया है।"
 ज़ाहिर था कि दूसरी गाड़ी भाभी काम पर ले गई थीं।
 तमतमा गई वह, इन्हें किसी के वक्त की परवाह नहीं।
 "अच्छा होता, अगर पहले ही बता दिया होता। मैं टैक्सी ले 
					लूँगी।"
 "यह अमरीका नहीं है, अकेली औरतों का टैक्सी में घूमना ख़तरनाक 
					साबित हो सकता है।" उसके पैरों में बेड़ियाँ डालकर वह बाहर निकल 
					गया।
 उफ़ान थमा तो उसने माधवी को फ़ोन मिलाया। वह मिल भी गई।
 "चल मुझे थोड़ी शॉपिंग तो करवा दे।" माधवी ख़ुशी से राज़ी हो गई।
 "याद है, कॉटेज एम्पोरियम से हम दोनों ने कितनी सुन्दर साड़ियाँ 
					ली थीं?"
 "अब तो नया खुल चुका है।"
 "मालूम है। हैंडलूम-हाउस चलें?"
 "अब तो वह बन्द भी हो गया है।"
 "तो फिर चाँदनी-चौक चलते हैं।"
 "तू पुरानी जगहों से इतनी चिपकी हुई क्यों है?" माधवी की आवाज़ 
					में सवाल नहीं खीझ थी।
 "पता नहीं। शायद वह मेरी सुखद स्मृतियों के स्थल हैं।"
 "तुम लोग जो बाहर से आते हो न, पुरानी बातें बहुत करते हो। 
					जहाँ, जिस जगह, जिस समय देश छोड़ कर विदेश में बसते हो, बस उसी 
					समय के ताने-बाने में बन्द हो जाते हो और सोचते हो कि सब कुछ 
					तुम्हारे हिसाब से वहीं रुका, थमा खड़ा होगा।"
 
 उसने माधवी की बात का जवाब जैसे कहीं बहुत गहरे से दिया- "शायद 
					मैं उसी पुराने-पन, उन्हीं बिछड़े सुखों की तलाश में लौटती हूँ। 
					वह मेरी कम्फ़र्ट-ज़ोन है। इस नए-पन में मेरी पहचान खो जाती है 
					और मैं अपने को गँ वाना नहीं चाहती।"
 "गुम तो तू हो ही चुकी है, दो संस्कृतियों के चक्कर में।"
 "नहीं, मैने अपने संस्कारों और मूल्यों को नहीं छोड़ा।" उसने 
					प्रतिवाद किया।
 "वही तीस साल पुराने मूल्य न?"
 उसने सहेली के व्यंग्य का जवाब ही नहीं दिया।
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 "जाने से पहले एक बार अपना घर तो देख लेने दे।" उसने आख़िर भाई 
					से कह ही दिया।
 "अच्छा !" उसने अनमना सा सिर हिला दिया। शाम को ले भी गया। 
					आँगन पार कर वह जल्दी से बाएँ कमरे की ओर मुड़ गई। वहाँ से पलंग 
					हट चुका था। एक मेज़, एक कम्पयूटर, कुछ कागज़, एक फ़ाइल कैबिनेट-
					शायद भाई ने वहाँ अपना ऑफ़िस बना लिया था। वह ख़ाली- ख़ाली 
					आँखो से सब घूरती रही। ढूँढ़ती रही अपने पिता की याद को, जिसे 
					वह यहाँ छोड़कर गई थी। आदी हो गई थी उन्हें इसी जगह पर लेटा हुआ 
					देखने की। इस ज़मीन के हिस्से पर ज़िन्दगी की लिखावट बुरी तरह से 
					घिच-मिच हो गई थी। अब उसी हिस्से पर पड़े थे- एक मेज़, कुछ 
					फ़ाइलें और उन पर पड़ी धूल। वह बाहर निकल आई। रसोई के साथ लगा 
					उसका अपना कमरा था। उसने धीरे से दरवाज़े पर उँगलियों का दबाव 
					डाला। कमरा अन्दर से बंद था। भाई ने दूसरी ओर से जाकर कमरे में 
					लगे ताले को खोल दिया। खुलने पर अन्दर से धूल की गन्ध आई। वह 
					कमरे के बीचो-बीच आकर खड़ी हो गई। एक अजीब सी झुरझुरी उसके बदन 
					से गुज़र गई। जैसे यह कमरा एक बड़ी सी लिफ़्ट था और इसके अन्दर 
					रहकर अतीत में उतरने का अधिकार सिर्फ़ उसी को था। जैसे किसी 
					योगी को किसी ने बक्से में बंद कर दिया हो और उसे कुछ समय 
					भूमि-गत समाधि में बिताना था।
 
 "तुम जाओ। मैं थोड़ी देर यहाँ अकेले रहना चाहती हूँ।"
 बिना प्रतिवाद किये भाई हट गया।
 उसने गहरी साँस ली। जैसे ऐसा करने भर से, यादों के कुएँ से 
					वापिस ज्यों का त्यों लौटने का साहस आ जाएगा। कमरा अन्दर से 
					बन्द कर लिया। उस जगह पर आकर खड़ी हो गई जहाँ उसकी पढ़ने की मेज़ 
					थी। जहाँ उसने एम.ए. की पढ़ाई की थी। वहाँ कुछ बन्द पेटियाँ पड़ी 
					थीं। यहाँ उसकी चारपाई हुआ करती थी, उसने अन्दाज़ा लगाया। इस 
					अल्मारी में उसके फ़्रॉक थे जो सलवार-कमीज़ों में और फिर साड़ियों 
					में बदल गए। उसके सैंट की ख़ुशबू कपड़ों में उतर जाती थी और उसी 
					महक का झोंका अल्मारी खोलते ही बाहर आ जाता। अपनी अल्मारी पर 
					भाभी का लगा ताला देखकर एक कातर-सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर 
					फैल गई। एक पुराना लोक-गीत कलेजे पर दर्द की लकीर खींच गया।
 "भाभियाँ मारन जन्धरे नी माँए, मेरा हुन कोई दावा वी नां ।"
 
 वह धीरे-धीरे कमरे में एक जगह से दूसरी जगह जाकर खड़ी हो गई। 
					एक-एक क़दम से कितनी यादों, अनुभवों और भावनाओं का सफ़र तय कर 
					लिया। दीवार पर लगी माँ की बड़ी-सी तस्वीर पर दृष्टि रुक गई। वह 
					पास आकर खड़ी हो गई। उसने हाथ बढ़ा कर तस्वीर को छूना चाहा, 
					पहुँचा नहीं।
 उसकी साँस तेज़-तेज़ चलने लगी। तस्वीर देखते हुए एक बड़ी 
					दुर्दमनीय इच्छा उठी- माँ के गले लगने की। उसने आँखें बन्द कर 
					लीं। होठ कांपे और पता नहीं कब वह फूट-फूट कर रो पड़ी।
 "य़ह भी कोई मायके आना हुआ। माँ, तेरे घर में मुझे पूछने वाला 
					कोई नहीं।"
 "नी कनकां निसरियाँ, धियाँ क्यों बिसरियाँ माए
 दूरों ते आई सी चल के नी माए। तेरे दर विच रई याँ खलो
 भाभियाँ ने पुछया नईं सुख-सुण्या हाय, वीरा न दित्ता ई प्यार
 नी कनकां लम्बियाँ, धियाँ क्यों जम्मियाँ नी माए?"
 खड़ी न रह सकी, वहीं बक्सों पर बैठ गई।
 क़ातिल हमेशा अपने ज़ुर्म के स्थान पर लौटता ज़रूर है। पर उसने तो 
					कोई अपराध नहीं किया। उसका स्त्रोत है, मूल है यहाँ, इसी लिए 
					लौटती है।
 "पागल, गंगा क्या गंगोत्री से मिलने लौटती है? वह तो सागर की 
					ओर ही बढ़ती है, उसी में समाहित हो जाती है।" जैसे माँ ही समझा 
					रही थी।
 "बहन मेरी, तुम जीजा जी और बच्चों में मस्त रहा करो। हमारी 
					फ़िक्र मत किया कर, हम मज़े में हैं।" भाई ने भी तो उसे उसकी 
					दिशा बता दी थी।
 "जब पति, बच्चे, काम और वहाँ के सम्बन्धों के साथ, एक नए देश 
					और नई संस्कृति के साथ जूझते हुए पस्त हो जाओ तो क्या तब भी 
					इच्छा न हो, अपने उसी सुखद अनुभव में फिर से गोता लगाने की? वह 
					अपने से ही सवाल करती है।
 "जिस पानी में तुमने गोता लगाया था, वह तो कब का आगे निकल 
					चुका। तुम एक ही पानी में डुबकी बार-बार नहीं लगा सकते। पानी 
					वही नहीं रहता।" माधवी के गुरु जी ने कभी कहा था।
 वह देखती है, वही अब उसका कमरा नहीं रहा, रिया का भी नहीं रहा। 
					यह जो है, शायद यह भी नहीं रहेगा। हर बार कुछ नया होगा।
 उसकी आँखे बन्द थीं जैसे ध्यान में हो। दरवाज़े पर खटखटाहट हुई। 
					वह बाहर निकल आई। भाई उसके चेहरे की ओर देखता रह गया। इस सारे 
					समय के दौरान उसने बहन के चेहरे पर कभी इतनी शांति नहीं देखी 
					थी।
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 सामान गाड़ी में लद चुका था। हँसकर, सबसे गले मिलकर विदाई ली। न 
					कोई आँख भीगी, न किसी ने तड़प कर पूछा - "अब कब आएगी? जल्दी आना 
					।" उसने उम्मीद भी नहीं की थी।
 कार एक-तरफ़ा सड़क से होकर आगे बढ़ गई। फिर वापिस घूम कर घर के 
					सामने आ गई। जानती थी कि आज बॉल्कनी के चौखटे में जड़ी, वह 
					लम्बी, दुर्बल आकृति विदा नहीं दे रही होगी। फिर भी बड़ी तीव्र 
					इच्छा उठी - आख़िरी बार उधर देखने की।
 "मत देख पीछे मुड़कर, पत्थर हो जाएगी।" पता नहीं कहाँ से, किसने 
					उसे चेतावनी दी।
 वह सिर सीधा किए, गड्डमड्ड होती रोशनियों को देखती रही। गाड़ी 
					आगे की ओर बढ़ गई।
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