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मालूम था उसे कि इस बार कुछ बदला
हुआ ज़रूर होगा। मायका होगा, माँ नहीं होगी। पीहर होगा, पिता
नहीं होंगे। भाई के घर जा रही है। भाभी होगी, भतीजी ससुराल में
होगी। कैसा लगेगा? इस प्रश्न के ऊपर उसने दरवाज़े भिड़ा दिये थे।
एक दर्शक की तरह तैयार थी भावी का चलचित्र देखने के लिए।
हवाई-अड्डे से बाहर निकलते ही एक रुलाई सी दिल पर से गुज़र गई।
क्या इस बार उसे लेने कोई भी नहीं आया? भीड़ में ढूँढती रही
अपनों के चेहरे। भीतर- बाहर सब देख कर जब फ़ोन की तरफ़ बढ़ रही थी
तो भाई दिख गया। उसका छोटा भाई, जिसके साथ लाड़ का कम और लड़ने-
डाँटने का रिश्ता ज़्यादा था।
"मैं तो तुम्हें अन्दर ढूँढ रहा था।"
"मैंने समझा शायद तुम बाहर होगे।"
भाई ने सूटकेसों से भरी ट्रॉली का हत्था अपने हाथ में ले लिया
और आगे बढ़ गया।
हमेशा ऐसे ही वह उससे मिलता है। मिलने की कोई औपचारिकता वह कभी
भी नहीं करता।
वह पीछे-पीछे चल दी।
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भाई ने ऊपर की घंटी बजाई। वह वहीं उस चुप अन्धेरे में दरवाज़े
पर ही खड़ी रही। |