काफ़ी हॉउस का कोना... मेज़ और छह
कुर्सियाँ। वह मेरा प्रिय कोना था, जहाँ बैठ कर मैं शीशे की
खिड़की से बाहर सड़क की गहमागहमी देखती थी और भीतर काफ़ी हॉउस
के चेहरे भी नज़र में रहते थे..मैं काम से थकी-हारी उस कोने
में आकर बैठी ही थी कि वे आ गईं।
"मानसी वर्मा..."
"जी, कहें .."मैंने उनकी ओर देखा।
"मैं बहुत दिनों से आप को मिलना चाहती थी, पर मिल नहीं पाई।
आप के दफ्तर कई बार फ़ोन किया। पता चला आप बाहर गई हुई थीं,
शायद कोई समाचार कवर करने। आप लौट आईं, तब भी मिल नहीं पाई
आपसे। चपरासी ने बताया, आप रोज़ शाम को काफ़ी हॉउस में आती हैं
तो आप से मिलने यहाँ चली आई।" उन्होंने कुर्सी खींची और मेरे
सामने बैठ गईं।
"आप मुझे क्यों मिलना चाहती थीं। मैं आप के लिए क्या कर सकती
हूँ..|"
"आपका स्तम्भ "शहर में घूमती मेरी नज़र.." पढ़ती हूँ। पर
आप की नज़र मेरे जैसे लोगों पर नहीं पड़ती। इसलिए मिलना चाहती
थी।"
"जी मैं कुछ समझी नहीं, आप मेरा स्तम्भ पढ़ती हैं..तो आप को
पता होगा कि मैं कैसे लोगों पर लिखती हूँ।"
"मानसी जी, शोषण के विरुद्ध आपकी कलम लिख रही हैं, फिर नज़र
तो हर शोषित पर जानी चाहिए, शोषण में ऐसे, वैसे, कैसे की क्या
बात है? इसमें मापदंड कैसा? "वे रोष में बोलीं पर क्षण भर
में सम्भल गईं।
सूती धोती में, कंधे पर लम्बा झोला लटकाए, पैरों में बाटा की
चप्पल पहने, गेहुआँ रंग और तीखी नाक वाली वे पतली- दुबली
महिला थीं।
"सही कहा आप ने, आप अपना परिचय दें तो बात आगे बढ़े...|"
"उसी की तलाश है, तभी तो आप के पास आईं हूँ..|"
साधारण व्यक्तित्व रहस्यमयी लगा मुझे। मानव मन के रहस्य जानने
में अक्सर उत्सुक रहती हूँ। रहस्य की परतें खोल कर तह तक जाना
चाहती थी। मैंने दो काफ़ी का ऑडर दिया। वे सहज हो कर कुर्सी पर
बैठ गईं।
"मानसी जी, भानु जोशी का नया उपन्यास "गलियों में जलती
चिताएँ"आप ने पढ़ा है ?"
"हाँ... उस उपन्यास ने साहित्य जगत में तहलका मचा दिया है।
साहित्य प्रेमी उसे पढ़े बिना नहीं रह सकते हैं। मैंने भी पढ़ा
है, नारी विमर्श की उत्तम कृति है, महिलाओं के विचारों में
क्रांति लाने की कोशिश की गई है। विशेषतः नायिका मंदाकनी
द्वारा। नायक ने भी उसका खूब साथ दिया है।"
"पर, आलोचकों ने तो उपन्यास पर बहुत दोषारोपण किए हैं,
नायिका मंदाकनी को सामाजिक मर्यादाओं की गरिमा भंग करने वाली,
अविवाहिता को शादीशुदा पुरुष के बच्चे की माँ बनने वाली, घर
तोड़ने वाली, बच्चों के हक़ छीनने वाली खल- नायिका कहा है।"
काफ़ी आ गई और हम दोनों उसकी चुस्कियाँ लेने लगीं...काफ़ी पीते
हुए मैंने बात आगे बढ़ाई।
"जी, विरोधी गुट के कुछ आलोचकों ने ऐसा कहा है। दूसरे गुट के
लोगों ने नायिका मंदाकनी का खूब साथ दिया है। उन्होंने अधेड़
उम्र के नायक और युवा नायिका के बीच पनपे रिश्ते को हालत
परिस्थितियों की देन कहा है और लेखक भानु जोशी ने नाजायज़
रिश्ते को जायज़ रूप से बुना है। पाठक को कहीं भी नहीं लगता कि
यह सम्बन्ध ग़लत है और अंत में नायक मनु उस बच्चे को स्वीकारता
है। अपना नाम देता है, अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ता। वैसे तो
इस विषय पर बहुत से उपन्यास और कहानियाँ पहले भी आ चुकीं हैं,
पति, पति और वो..हमारे समाज और साहित्य का प्रिय विषय है।
प्रिय इस लिए कहा है कि समाज में विवाह के साथ -साथ रखैल,
प्रेमिका का अस्तित्व है और कई परिवारों में तो पूरा जीवन
पत्नी उन सम्बन्धों के साथ जीती है, कभी बच्चों के लिए तो कभी
समाज में अपनी सुरक्षा के लिए। बहुत लिखा गया है इस विषय पर और
आगे भी लिखा जाता रहेगा, समाज में जो घटता है, साहित्य उसे
जीता है, पाठक को रु-ब-रु करवा देता है।"गलियों में जलती
चिताएँ"उपन्यास का कथ्य, शिल्प और बुनावट में बहुत
भिन्न है, नया रूप लिए है और
भानु जोशी की भाषा हमेशा की तरह बेजोड़ है..|"
"मानसी जी, मैं उपन्यास के कथानक पर कुछ बात करना चाहती
हूँ..."
"जी कहें.."मैंने कह तो दिया, साथ ही सोच में पड़ गई थी कि
ये मेरे साथ अपने बारे में बात करने आई हैं और किस्सा ले बैठीं
हैं भानु जोशी के उपन्यास का। चुप -चाप सुनने लगी, जानना चाहती
थी कि यह संवाद हमें कहाँ ले जाता है ......?
उपन्यास का नायक प्रोमोशन मिलने के बाद अपने परिवार को कानपुर
छोड़ कर अमृतसर में उच्च स्तर पर नौकरी करने आता है। कानपुर
में बच्चे पढ़ रहे हैं। बच्चे और उसकी पत्नी कानपुर छोड़ कर
नहीं जाना चाहते। दो बड़े बच्चे कालेज में हैं, वे कालेज बदलना
नहीं चाहते और छोटे बच्चे स्कूल नहीं बदलना चाहते। नायक अकेला
रहने पर मजबूर हो जाता
है, उसके बारे में कोई नहीं सोचता, कानपुर में उसका सारा कुनबा
है, वह अपने परिवार को मिस करता है।
एक दिन उसके घर काम करने वाली बीमार हो जाती है, उसकी जगह उसकी
१८ वर्षीय बेटी काम करने आती है। वह नायक की किताबों की अलमारी
को देखती रह जाती है। कितनी किताबें हैं उसके पास। वह उन सबको
पढ़ना चाहती है। वह कालेज के प्रथम वर्ष में पढ़ती है। ग़रीब
घर की है। दो वक्त की रोटी के लिए सारा परिवार संघर्षरत है,
छात्रवृति पर पढ़ रही है। माँ भी बेटी को पढ़ाना चाहती है।
नहीं चाहती है कि उसका जीवन भी उसी की तरह गर्क जाए।
नायक उसकी इच्छा को जान
जाता है। उसे पढ़ने के लिए पुस्तकें देता है। वह उन पुस्तकों
को लौटाने आती है। फिर नई ले जाती है। यह क्रम कई महीनों तक
चलता है। नायक उसकी पढ़ने की रूचि और लगन से प्रभावित होता है।
वह उसे अपने स्टडी रूम में पढ़ने की इजाज़त दे देता है। वह रात
को देर से घर आता है। सारा दिन घर ख़ाली रहता है। लड़की की माँ
को भी बुरा नहीं लगता। नायक तो घर में होता नहीं। माँ भी कई
बार वहीं आ जाती है। सुघड़ लड़की है। वह घर को बहुत साफ -
सुथरा और सजा कर रखती है। रोज़ ताज़ा खाना बना कर, उसे नायक के
लिए रख कर घर जाती है। नायक को यह सब बहुत अच्छा लगने लगता है।
वह जल्दी घर आने लगता है।
वह महसूस करता है कि लड़की ने रोज़ एक ही सूट पहना होता है। वह
उसके लिए एक रेडीमेड पंजाबी सूट खरीद कर लाता है। लड़की से
कहता है, पहन कर दिखा, अगर फिटिंग ठीक नहीं होगी तो वह उसे बदल
लाएगा। वह पहनती है, ऐसा लगता है कि वह उसके बदन के लिए ही बना
है। नायक उसकी ओर देखता है, वह गंदमी सुन्दरता है, चेहरे की
चमक आकर्षित करती है, नायक ने उसकी पीठ पर स्नेह से हाथ रखा और
कहा--"ऐसे सूट मैं और भी ला दूँगा, तुम बस पढ़ो..|"लड़की को
अच्छा लगा था। जिस स्नेह का उसने कभी एहसास नहीं किया था, उसे
पा कर वह बेहद ख़ुश हुई थी। होश संभालने से लेकर अब तक उसने घर
में घुटन, दो वक्त की रोटी के लिए किटकिट, बाप का रोज़ शराब पी
कर आना, माँ को गालियाँ निकालना ही देखा था। सिर पर किसी ने
हाथ नहीं फेरा था। पीठ को किसी ने सहलाया नहीं था। भीतर की
संवेदनाओं से पहली बार उसका परिचय हुआ था। वह उस छुअन का
इंतज़ार करती, उस का सुख उसे
अक्सर मिलने लगा। वह उससे आनंदित
हो जाती।
मैंने एक और काफ़ी के साथ वेजी कटलेट भी मंगवा लिए। वे बात
करती हुई थोड़ी देर के लिए रुक गईं। मैं उनकी ओर देखने लगी
....धीरे -धीरे उन्होंने बोलना शुरू किया....
उस दिन बहुत बारिश हो रही थी, लड़की ने नायक के लिए चाय के साथ
पकौड़े बनाए। भयंकर बारिश के कारण बाहर निकलना मुश्किल था।
नायक काम पर नहीं गया था, घर पर था। नायक ने उसे अपने पास सोफे
पर बैठने को कहा। उसके हाथ उसकी पीठ और सिर के अलावा अन्य
अंगों को भी सहलाने लगे। उसे गुदगुदी हुई..वह खिलखिला
पड़ी....|
"तुम्हें अच्छा लगाता है?"
लड़की ने 'हाँ' में सिर हिला दिया था।
"अच्छा चल अन्दर बेड रूम में, तुम्हारे शरीर की मालिश करता
हूँ, बहुत अच्छा लगेगा तुम्हें। "नायक ने मुस्करा कर
कहा था।
वह उसके साथ उसके बेड रूम में चली गई। नायक ने गोद में उठा कर
बड़े स्नेह से उसे बेड पर लेटाया। फिर धीरे -धीरे उस के अंगों
की मसाज शुरू की, वह आकाश में उड़ने लगी और उड़ते-उड़ते उसने
कई सोपान पार कर लिए। बाहर भारी गर्जन के साथ बिजली कड़की, लगा
उसी कमरे में गिरी है। उसके पूरे अंग रौशन हो गए। भीतर जगमगा
गया। उसकी चकाचौंध से भ्रमित वह रोज़ उस रौशनी से नहाने लगी और
एक दिन सुन्दर बेटे के रूप में वह रौशनी बाहर आई। लड़की की माँ
ख़ुश हुई, बेटी अच्छी जगह टिक गई। वह भी प्रसन्न हुई। वह नायक
के मोहपाश में बंधी उसे बेहद चाहती थी। उससे अथाह प्रेम करती
थी। नायक बच्चे के साथ बहुत खेलता और कई बार उसके साथ खेलते
-खेलते स्वयं भी बच्चा हो जाता। वह दोनों को घंटों निहारती
रहती। वह नायक के साथ ही रहने लगी थी। शादी की बात दोनों ने
कभी नहीं की थी। बच्चा एक वर्ष का हो गया था.....
नायक के दोनों बड़े बेटे और पत्नी एक दिन आ धमके। हँसती -खेलती
गृहस्थी पर गाज गिरी, उसका जीवन अँधियारा कर गई....... नायक को
वे साथ ले गए। उन्होंने उसे घर -घर की जूठ साफ करने वाली,
चरित्रहीन ना जाने क्या -क्या कह
दिया --नायक चुपचाप सुनता रहा, कुछ नहीं बोला और उनके साथ चला
गया।
"आप ने अभी जो कहानी सुनाई, वह तो भानू जोशी के उपन्यास "गलियों में जलती चिताएँ" की नहीं है, हाँ शुरू में ठीक वैसा
ही है, मैं सुनती गई, क्योंकि मैं जानना चाहती थी कि आप क्या
कहने की कोशिश कर रही हैं।"
"जो कहानी मैंने आप को सुनाई, वह सच्चाई है, यथार्थ है, भानु
जोशी और मंदा का यानि मेरा। भानु जोशी से मेरा दस साल का बेटा
है। ग्यारह वर्ष पहले मेरे शरीर पर एक उपन्यास लिखा गया, जिसे
भानु जोशी पढ़ना नहीं चाहते, स्वीकार नहीं कर रहे कि उन्होंने
लिखा है और पहचानना नहीं चाहते।"
शिराओं में लहू का प्रवाह थम गया। उपन्यास की भूमिका में भानु
जोशी ने जिस लड़की को अपनी प्रेरणा कहा है और उपन्यास की
नायिका मंदाकनी दोनों मंदा से मिलती- जुलती हैं, ऐसा लगता है
जैसे मंदा ही उपस्थित है उपन्यास में ...हे भगवान...
"आप भी सोच में पड़ गईं, यकीन नहीं आ रहा मेरी बातों पर।
पिछले नौ सालों से भानु जोशी ने मुझे और मेरे बेटे को स्वीकार
नहीं किया। गलियों में हम सचमुच जलती चिताओं से घूम रहे हैं,
वे तो हमें पहचानने से इन्कार कर रहें हैं..."
"आप ने उनसे सम्पर्क किया..?"
"कई पत्र लिखे, जवाब नहीं आया। मैं तो कानपुर भी गई थी। वे
मिले नहीं और उनके परिवार ने मुझे बहुत अपमानित किया। पुलिस तक
बुला ली थी।
मानसी जी काग़ज़ों पर
आदर्शवाद का ताना -बाना बुनना जितना आसान होता है, वास्तविक
जीवन में यथार्थ के ठोस धरातल पर उसे कार्यरूपेण करना उतना ही
कठिन होता है। वे शब्दों के सौदागर हैं, लेखन कौशल से उपन्यास
में नारी- विमर्श और सामाजिक चेतना के प्रणेता बन गए। अंत में
नायक से बच्चे और उसकी माँ को स्वीकार भी करवा दिया पर हकीक़त
में उनका अपना बच्चा और प्रेमिका पहचान की तलाश में भटक रहे
हैं। साहित्य समाज का दर्पण है, तो कहाँ है वह दर्पण
...साहित्य कार स्वयं उस में अपने चेहरे क्यों नहीं देखते..?
उन्होंने आँखें भींच कर कुर्सी के साथ सिर टिका लिया। काफ़ी
हॉउस की महक हम दोनों के मघ्य आसान जमाये बैठी रही। उनके अधर
हिले......
मैं दर-दर भटक रही थी, एक
कामरेड ने मुझे गाँव के स्कूल में नौकरी दिलवा दी और वहाँ मैं
शोषित महिलाओं के लिए काम भी करती हूँ। किसी तरह बच्चा पाल रही
हूँ और कम्युनिस्ट पार्टी की वर्कर बन गई हूँ। मुझे भानु जोशी
ने त्याग दिया। बच्चे को उसका अधिकार, अपना नाम तक उन्होंने
नहीं दिया। मैंने उनकी बेरुखी स्वीकार कर ली पर दुःख उनके
ओछेपन से हुआ। अपने अनुयाइयों और प्रशंसकों को पत्र लिख दिए कि
मैं एक विक्षिप्त ब्लैक मेलर हूँ और उपन्यास छपने के बाद उसकी
नायिका के साथ स्वयं को जोड़ कर, उन्हें अपने बच्चे का बाप कह
रही हूँ ...क्या यही उनका प्यार था....
बात करते -करते वे कुछ क्षणों के लिए चुप हो जातीं थीं...यादों
की बूँदें पलकों की अँजुली में समेटते हुए उनका चेहरा दमकने
लगता। आँखों की नमी को वे अपनी मुस्कराहट से बखूबी छिपा लेती
थीं और उनके होंठ थिरकने लगते -- कहते हैं प्यार में आप कुछ
नहीं सोचते, मैंने भी नहीं सोचा। मेरी जैसी अभावों में पली
लड़की उनके थोड़े से लाड़-प्यार को सच समझ बैठी, यकीन नहीं
होता कि मैं उनके लिए बस अकेलापन दूर करने का साधन मात्र थी।
आप ही बताएँ मेरा क्या परिचय हो सकता है। क्या परिचय दूँ मैं
किसी को? जिस दिन ढूँढ लिया अवश्य बता दूँगी। आप के स्तम्भ
में मेरी जैसी महिलाओं को भी स्थान मिलना चाहिए, शायद उन्हें
उनका परिचय मिल जाए। यह कह कर वह उठ गई और अपना झोला संभालती
हुई वहाँ से चली गई...
उसके जाते ही दो लेखक मित्र आ गए --"मानसी इससे दूर रहना यह
महिला ब्लैक मेलर है..."
"अच्छा किस को ब्लैक मेल किया है..."मैंने उत्सुकता से पूछा
था।
"भानु जोशी जी को..कहती है कि इसका हरामी बच्चा उनका है .."
"हो सकता है कि यह सच हो...."
"होश में तो हो मानसी...भानु जोशी और यह औरत...."
"क्यों भानु जोशी मानव नहीं, उनमें मानवीय कमज़ोरियाँ नहीं
हो सकती, लेखक पहले तो इंसान है, बाद में कुछ और...|"
"तुम इस की बातों में आ गई, अरे इसका दिमाग ख़राब है, इसे
मनोवैज्ञानिक की ज़रुरत है, इस पर लिखने के चक्कर में मत
पड़ना, कैरियर फिनिश हो जाएगा।"
"धमका रहें हैं आप मुझे ...?"
"नहीं समझा रहे हैं, क्यों पंगा लेना चाहती हो, दो सप्ताह
बाद तुम्हारी शादी है, अमेरिका जा रही हो, आराम से जाओ और सुखद
जीवन जियो ...."
दो सप्ताह तक मैं उन पर लिख नहीं पाई। पहले से
ही बहुत कार्य रुका पड़ा था।
शादी के बाद मैं अमेरिका आ गई। यहाँ की चुनौतियों, नए वातावरण
और परिवेश में उलझ कर रह गई। गिने- चुने दिनों के लिए भारत
जाती। कुछ मित्रों से मिलती, कई दोस्तों से तो मिल भी ना पाती।
मंदा और उसके बेटे का दर्द मेरे भीतर सिमट गया। ठहर गया कहीं
किसी कोने में और मैं उसे लिख ना पाई...मंदा के ऋण से आज मुक्त
हुई हूँ।
रंज इस बात का है कि मंदा परिचय की खोज में अतृप्त ही इस
दुनिया से चली गईं .... |