मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


"हे, तेरे डैड आ रहे हैं क्या लेने?
"नहीं, आज डैड नहीं आ पाएँगे।"
"तो फ़रज़ाना?" 
"नहीं, आज महेश लेने आ रहा है।"  

सलिल की आँखों में प्रश्न देखकर बोला, "मेरी माँ का पति, अच्छा आदमी है।" कहकर उसने फिर से सड़क की ओर से आने वाली गाड़ियों की ओर देखना शुरु कर दिया।

सलिल कुछ क्षणों के लिए चुप-सा हो गया। फिर सलीम के कन्धे थपथपाकर कोमलता से बोला, "गर्मी के दिन बढ़िया रहें।"

सलिल कार में बैठा तो वह इन्तज़ार कर रहा था कि कब भीड़ से निकलकर गाड़ी खुले हाई-वे पर आ जाए तो वह माँ से कुछ कह सके।

"माँ, तुम सलीम की अम्मी को जानती हो?"

"यूँ ही थोड़ा सा, कभी-कभी देसी पार्टियों में मिल जाती है। जिस शहर में वह रहती है, मेरी कुछ मित्र भी वहीं रहती हैं, वो उसके बारे में अक्सर बातें करती हैं।"

विश्व-विद्यालय से दो घंटे की दूरी पर उसका शहर था और उससे भी आधे घंटे की दूरी पर सलीम की अम्मी का या अब्बा का या कभी सलीम और फ़रज़ाना का भी था।

"क्यों पूछ रहा है तू?"

"यूँ ही, सलीम अब मेरे ही कॉलेज में, मेरे ही वर्ष में है।"

माँ कुछ और सुनने की उम्मीद में उसकी ओर देख रही थी।

"वो मालिनी का अच्छा दोस्त है।"

हाँ, दोनों परिवार एक-दूसरे को जानते हैं।"

"माँ, सलीम के अब्बू कैसे लगते हैं?"

"ठीक लगते हैं। लम्बे, गोरे, कुछ-कुछ ढीले-ढाले से और थोड़े बोरिंग भी।"

"और उसकी मॉम?"

"बिल्कुल पटाखा।"

एकदम से मुँह से निकल चुकने के बाद सलिल की माँ की आँखों के आगे नादिरा की तस्वीर आ गई। छोटी-सी, गठीले बदन की, बात करने की अदा ऐसी कि पुरुष उसे घेरे ही रहते। छोटी- छोटी, चमकीली भूरी आँखों की चंचलता सबको खींचे रहती। दो बच्चों की माँ होने के बावजूद बदन का कसाव और उभार प्रशंसनीय थे। कुछ लजाकर, कुछ मुस्कुराकर, कुछ इस अदा से वह बात करती, कुछ इस अदा से खुले बालों को झटका देकर, नीचे देखती आँखें ऊपर उठा कर, वह मुँह ऊपर करती, या उसके चलने के ढंग से कुछ इस तरह से उसके औरत होने का शोर मचता, कि वह हर औरतों के हुजूम में अलग-सी ही दिखती। उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी स्वच्छन्दता थी कि न वह पारम्परिक ’पत्नी के चौखटे में ठीक से उतरती थी और न ही ’माँ’ के।

"माँ, आप क्या सोचती हैं? उनके तलाक़ की क्या वजह रही होगी?"

वे चौंकीं। इसका मतलब है सलिल भी उसी के बारे में सोच रहा था। टालने के लिए कह दिया -"कुछ भी हो सकती है, क्या मालूम?"

वह अपनी ही सोच में डूब गईं। मालती की माँ की बताई हुईं कितनी ही अफ़वाहें दिमाग़ से गुज़रीं। फिर धीरे-से जैसे अपने से ही बात करते हुए कहा-

"हो सकता है, ऐसे उबाऊ, नीरस पति के साथ रहते हुए उसका दम घुटता हो।"

"क्या यह वजह काफ़ी है, बच्चों की ज़िन्दगी ख़राब करने की?"

उसकी आवाज़ की तल्खी से माँ चौंक गई।

"बाबा, मुझ पर क्यों नाराज़ हो रहा है? हम लोग तो आपस में बहुत ख़ुश हैं।"

"आपको नहीं कह रहा।" सलिल ने झेंपकर सामने की सड़क की ओर ध्यान लगाया। धीरे-धीरे सड़क किनारे के पेड़, झाड़ियाँ, रास्ते की पहचान के सभी निशान पीछे छूटते जा रहे थे।

कॉलेज का नया वर्ष आरम्भ हुआ तो सलीम कक्षाओं में अधिकतर अनुपस्थित ही रहता था। शुक्र या शनिवार को वह दोस्तों के साथ विश्व-विद्यालय के अहाते में, किसी न किसी बार में धुआँधार सिगरेट पीता अक्सर नज़र आ जाता। उसके मूड का कुछ पक्का नहीं होता था। कभी तो ख़ूब रौनक लगा रहा होता, कभी इसकी नकल, कभी उसकी नकल। दोस्तों का हँसते- हँसते बुरा हाल हो जाता। और कभी यूँ पास से गुज़र जाता कि जैसे किसी को पहचानता ही न हो। उस दिन अच्छा- ख़ासा दोस्तों के साथ बॉर में घुसा और स्टूल पर आकर बैठ गया। औरों की तरह उसने भी बीयर का ऑर्डर दिया, "बडवाइज़र"।

बॉर-टेंडर ने बताया कि आज बडवाइज़र नहीं है पर " हायनकन" उपलब्ध है।

"नहीं, मुझे बडवाइज़र ही चाहिए।"

"सॉरी", कहकर बॉर-टेंडर जल्दी-जल्दी दूसरे गिलास भरने लगा।

"छोड़ न यार, आज दूसरी ही बीयर ले ले।"

"नहीं, मैं सिर्फ़ बडवाइज़र ही पीऊँगा।"

"तेरी मर्ज़ी," कहकर सलिल ने हाथ झाड़ लिए।

"प्लीज़"। सलीम कातर हो गया। बस, एक ही फ़रमायश की रट।

दोस्तों ने प्रश्नात्मक दृष्टि से एक-दूसरे की ओर देखा और चुप रहे। सलीम बिल्कुल ख़ामोश और उदास होकर दीवार के साथ ढुलककर सारी रात बैठा रहा। उसे बस कोई चीज़ चाहिए और वही चाहिए। और कोई चीज़ उसके बदले में  नहीं चाहिए थी। 

फिर सलीम का कुछ दिनों तक पता ही नहीं चला। जब भी उसके दोस्त फ़ोन करते या मिलने आते तो उसके कमरे का साथी डेविड कहता -"पता नहीं सलीम का, शायद वह अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द किए पड़ा हुआ होगा ।" शनिवार -इतवार को कई छात्र घर जाते। सलीम वहीं रहता। यह किशोरावस्था में पता नहीं उसके जीवन में कहाँ से, कौन-से किटाणु रेंगकर प्रवेश कर गए थे कि उसके सामान्य चलते जीवन में यह अजीब से झटके उसे बुरी तरह से हिला-हिला जाते। उसे लोगों से घबराहट होने लगी, डर लगता था। बस वह कहीं किसी एक कोने में ही दुबककर बैठे रहना चाहता। 

आँखें बन्द करता तो लगता जैसे कोई पीछा कर रहा है, और वह दौड़कर अपने घर के अन्दर घुस जाता है। जल्दी से मम्मी के कमरे में जाता है। मम्मी वहाँ नहीं पर बाक़ी का सारा कमरा वैसे ही उनके सामान से भरा पड़ा है। वह उन्हें ढूँढने के लिए किचन की ओर पलटता है और एकदम देखता है कि मम्मी के कमरे से सारा साजो-सामान ग़ायब हो गया - पलंग, ज़मीन का ग़लीचा और दीवारों पर लगी तस्वीरें तक। वह दौड़कर फ़ैमिली-रूम में बैठे, किताब पढ़ते डैड की ओर लपका। पास पहुँचने पर देखा कि सिर्फ़ किताब ही उनकी आराम-कुर्सी पर पड़ी थी। उसने घबराकर मुँह घुमाया तो फ़ैमिली-रूम की चीज़ें भी ग़ायब होने लगीं। वह सिर्फ़ चारों तरफ़ ख़ाली, बिल्कुल निहंग दीवारों के बीच खड़ा था। उसने चिल्लाकर फ़रज़ाना को पुकारना चाहा पर फ़र्ज़ाना का कमरा भारी गड़गड़ाहट की आवाज़ करके ज़मीन में धँस गया। फिर मम्मी-डैड के कमरे की छत, दरवाज़े, खिड़कियाँ सब हवा में उड़ने लगते हैं। वह पूरी ताक़त के साथ अपने कमरे का दरवाज़ा पकड़ लेता है। इस भूकम्प में सारा घर ख़ाली होकर धँस गया। वह अपना पूरा ज़ोर लगाकर उस दरवाज़े को पकड़े-पकड़े वहीं बैठ गया। अकेलापन, घबराहट और सदमे की वजह से उसका बदन कांप गया । सलीम की आँख खुली तो वह पसीने से तरबतर था।

थोड़ी देर लेटे-लेटे ही उसने अपने आस-पास की स्थिति का निरीक्षण किया। फिर लपककर बाहर ड्राइंग-रूम में आ गया। टेलीविज़न पूरी ऊँची आवाज़ में लगा दिया। उसे इस बात का होश ही नहीं था कि यह हॉस्टल का एपॉर्टमेंट था जहाँ यह ड्राइंग -रूम उसका और डेविड का साझा था। इतनी रात गए, शोर सुनकर डेविड अपने कमरे से बाहर निकल आया। सलीम को देखकर उसका ग़ुस्से से बुरा हाल था।

"सलीम, तुम्हें तो पढ़ने की ज़रूरत नहीं, पर मैं तो अभी-अभी पढ़कर सोया हूँ और तुमने मेरी नींद उचाट करके रख दी।"

डेविड ने आगे बढ़कर टी.वी. का रोमोट सलीम के हाथ से छीन लिया।

सलीम तब भी वहीं बैठा फटी- फटी आँखों से ख़ाली स्क्रीन को ही घूरता रहा।

---------------

सलीम के डैड का कभी- कभी बड़ा याचनाभरा फ़ोन आता कि इस वीक-एँड को तो घर आ जाओ। फ़रज़ाना ने तो बहुत दूर नौकरी करके अपने को सबसे काट लिया था। उन्होंने ख़ुद कहकर ज़्यादतर बाहर दौरे पर रहना शुरु कर दिया। वह जब घर होते तो आ जाते, सलीम को ले जाने के लिए। वह पहले की ही तरह सलीम का ख़्याल रखते। बिना माँगे ही जेबख़र्ची देते, फ़ीसें भी और बोर्डिंग में रहने का सारा ख़र्चा दे ही रहे थे। वह अभी भी सलीम को छोटा बच्चा ही मानते पर मॉम ने कभी भी उससे बच्चों जैसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं की थी।

चौदह-पन्द्रह वर्षों का रहा होगा वह। एक साधारण-सी शाम की एक असाधारण याद सब कुछ चीर कर रख गई। शाम का धुँधलका, मॉम और महेश अंकल डैक पर झुके, हल्के-हल्के हँस रहे थे। उनका इतना पास सटकर खड़े होना, यूँ एक-दूसरे को देखना उसे खला था। उसने पीछे से आकर मॉम का कंधा थपथपाया तो मॉम एकदम वार करने की मुद्रा में मुड़ीं।

"अब क्या चाहिए?" उन्होंने जिस आवाज़ में, जिस तरह से दाँत पीसते हुए कहा और जिन नज़रों से उसे देखा था, वह क्षण जैसे वहीं का वहीं ठहर गया। वह एक क्षण लक्ष्मण-रेखा बन गया - माँ और बेटे के रिश्ते के बीच। सलीम के किशोर से व्यस्क होने के बीच। बस उस क्षण के बाद सलीम ने कोई भी ऐसी माँग या चाहना नहीं की जो कोई भी आम बेटा अपनी आम माँ से करता। उस ठिठके पल को धकेलने की क्षमता उसमें नहीं थी।

डैड उसे मौक़ा मिलने पर घर ले जाते और घर आने पर दोनों बाप-बेटों का व्यक्तित्व गड्ड-मड्ड हो जाता। दोनों को सूझता ही नहीं था कि किस तरह का व्यवहार करें। घर की दीवारें और फ़र्नीचर और दूसरी बाहरी पहचान तो  वैसी ही थी जैसी सलीम पैदा होने से अब तक देखता आया है । सिवाए इसके कि यह घर अब निश्शब्द लगता था। सलीम का न अपने कमरे में झाँकने का मन होता, न किचन में और न कहीं बाहर। पर घर में कहीं भी आते-जाते, वह पहले मॉम -डैड का बैडरूम कहलाने वाले कमरे में ज़रूर नज़र डालता, जैसे कहीं कुछ चूक न जाए। अब उस कमरे में बिना-बिछाए बिस्तर के ऊपर, डैड के कपड़ों का ढेर और किताबें ही मिलतीं, जिन्हें एक ओर सरकाकर, लिहाफ़ लपेटकर वह सो जाते थे।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।