रियाराजा उठी और सामने खड़े पीपल के पेड़ की जड़ों के बीच बनी
खोतर के अन्दर हाथ डालकर कुछ टटोलने लगी। यह वही पेड़ था और वही
खोतर थी जिसके अन्दर माचिसों से बने सोफे लगाकर, घंटों दोनों
अपनी गुड़ियों के संग खेला करती थीं। यहीं से तो गुडिया की शादी
की थी श्रुति ने कभी रियाराजा के उस छैल छबीले गुड्डे के साथ।
एक से एक अच्छे गहने कपड़े सब बनवाए गए थे गुड़िया के लिए... और
उसकी मम्मी ने ही तो खुद अपने हाथों से सिले थे सारे कपड़े। यही
नहीं, कई कई रात बैठकर गोटे और सितारे माँ बेटी ने मिलकर ही तो
टाँके थे उनपर। यहीं से तो वह दुखभरा वाकया शुरु हुआ था... याद
आते ही आजभी, इतने साल बाद भी, श्रुति के मुँह पर दुख की एक
अनचाही कालिमा फैल गई... विदा के बाद जाते समय पालकी से लुढ़क
जाने पर उसकी प्लास्टिक की गुड़िया का सिर छटककर अलग हो गया था
और तब यहीं इसी पेड़ के नीचे खड़े होकर रियाराजा ने बड़ी बेरहम और
ठंडी आवाज में कहा था- “श्रुति देख, तेरी गुड़िया तो मर गई , अब
तो हमें इसे शमशान ले जाना होगा।“
और तब मारे डर और दुख के ग्यारह साल की श्रुति पलटकर अपनी
गुड़िया को देख तक नहीं पाई थी। बन्द आँखों से ही बहती धारा में
डूबी श्रुति, बस अपंगु सी जैसे-तैसे दस-दस मन के पैरों को
उठाती वापस घर तक पहुँच पाई थी।
‘अभी अभी, कुछ समय पहले ही तो बेहद उल्लास और धूमधाम से शादी
की थी उसने अपनी गुड़िया की... ऐसा कैसे हो सकता है... और फिर
खिलौने कैसे मर सकते हैं?अभी अभी तो उसने बरातियों को खिलाया
पिलाया था... अभी तो वह अपना मुँह तक नहीं पोंछ पाए थे।
और फिर वह
दिन था और आजका दिन, मन के जाने किस कोने में दफना दिया था
उसने सबकुछ... खूबसूरत पेपरमैशे का वह लाल डब्बा, और बड़े
चाव से दुल्हन के लिबास में सजाई गुड़िया, सबकुछ ही। डब्बा जो
कभी बड़े चाव से उसने मम्मी पापा के साथ कश्मीर में खरीदा था
... देखते ही जिद कर बैठी थी उसके लिए, कभी न जिद करने वाली
श्रुति और मम्मी ने भी तो तुरंत ही डब्बा खरीदकर बेटी के हाथों
पर रख दिया था... यह वही -डब्बा था जो कभी उसे उतना ही प्यारा
था, जितनी कि वह गुड़िया... क्योंकि इसी डब्बे में ही तो सुलाती
थी वह अपनी गुड़िया को और रोज रात गुडनाइट की किस भी देती थी
वहीं उसे।
और उस दिन भी यही वह डिब्बा था जिसे रियाराजा ने चुना था
गुड़िया को शमशान ले जाने के लिए। एक फीकी और बेबस मुस्कान के
साथ बचपन में ही सूख गए उस घाव की ताजी कसक पोंछती, श्रुति
सहेली की तरफ घूम गई... "'क्या अभी भी तुम्हे वह सब सब याद है
रियाराजा... इस लम्बे अरसे के बाद भी... तीस साल के बाद
भी? कैसे हम घंटों खेला करते थे इसी पेड़ के नीचे दीन दुनिया से
बेखबर?"
इसके पहले कि गुड़िया का नाम तक होठों पर आए. होंठ काटती श्रुति
के मुँह से बरबस ही एक ठंडी आह निकल गई और उस आह का मर्म
रियाराजा अच्छी तरह से जानती थी।
"हाँ, हाँ, मुझे सब याद है श्रुति और बचपन की तरह ही एकबार आज
फिर तू जीत गई है।"
इसके पहले कि श्रुति रियाराजा की एक और पहेली बुझा पाए,
रियाराजा आगे झुकी और श्रुति के हाथ पर वही लाल पेपरमैशे का
डिब्बा रखकर आग्रह और याचना भरी आँखों से उसे देखने लगी,
"जरा खोलकर तो देख।"
डरी सहमी श्रुति उम्र का सारा लिहाज भूल, आज चालीस साल बाद भी,
अपनी ही बंद पलकों के पीछे जा छुपी। हिम्मत नहीं थी कि डिब्बे
में पड़े गुड़िया के उन छिन्न-विछिन्न, पुराने अवशेषों का सामना
तक कर पाए... भले ही वे सोने-चाँदी के कीमती डिब्बी में ही
क्यों न सुरक्षित हों... - क्यों किया था रियाराजा ने ऐसा...
श्रुति नहीं जानती थी। टूटी गुड़िया का सिर फिर से जोड़ा भी तो
जा सकता था !
...एकबार फिर रियाराजा की जिद के आगे श्रुति बिल्कुल वैसा ही
महसूस कर रही थी जैसा कि बचपन में कभी रियाराजा के घर में उसकी
जिद पर, उन भूसे से भरे शेरों के मुँह में हाथ डालते समय उसने
महसूस किया था। रियाराजा के पापा ने ही शिकार किए थे वे सारे
शेर और उनसे उनके भव्य महल का कोना कोना सजा हुआ था... चारो
तरफ शेर ही शेर सौ से भी ज्यादा... एक सौ सात बताती थी तब...
-अब तक तो जाने कितने हो चुके होंगे, पर श्रुति को वे तब भी
बहुत ही अजीब और विचलित करने वाले लगते थे और आज भी... जिन्दा
और जंगल से भी ज्यादा डरावने व उदास। इसीलिए तो बजाय उसके यहाँ
कभी खेलने जाने के वह सहेली को ही अपने यहाँ खेलने के लिए
बुलाती थी और रियाराजा भी तो तुरंत ही आ जाती थी। उससे ही
नहीं, अम्मा बाबा से भी तो खूब पटती थी उसकी सभी सहेलियों
की... -
"याद है श्रुति, तुम्हे! " यादों की समाधि में डूबी श्रुति को
जगाती रियाराजा कहे जा रही थी "कैसे हम हर इतबार बस तुम्हारे
यहाँ ही खेलने आ जाया करते थे, क्योंकि छोटा होने के बावजूद भी
तुम्हारे घर में जो प्यार, जो माहौल था... हमारे यहाँ
महलों में भी नहीं था। और यही वजह थी कि उसदिन तुम्हारी गुड़िया
दुर्घटना वश नहीं, जान-बूझकर गिरा दी थी मैने। बारबार तुम्हारे
घर आना चाहती थी मैं। सच पूछो तो जाना ही नहीं चाहती थी कभी
तुम्हारे यहाँ से... तुम्हारे पास से, तुम्हारे अम्मा बाबा के
पास से... पर तुम्हारा तो कोई भाई ही नहीं था... नहीं तो भाभी
बनकर ही आ बैठती मैं तुम्हारे घर में।"
रियाराजा की वे झूठी सच्ची बातें सुख दे ही रही थीं, साथ साथ
ही श्रुति की मन के अंदर की छुपी तहों में टीस... दर्द की एक
उथल-पुथल भी मचा रही थीं। अचानक सब कुछ ही तो अनजाना और
अटपटा-सा हो चला था... -सामने बैठी सहेली और उसकी बातें सभी
कुछ। कैसे अक्सर जो हम देखते हैं इन्सान वह नहीं होता और जो
होता है, वह हम देख क्यों नहीं पाते। महाराजा विक्रम सिंह की
बेटी इतनी अकेली अपने बड़े से घर में... पच्चीस कुत्तों
और सैकड़ों नौकर नौकरानियों के साथ भी... सारे सुख और ऐश्वर्य
के बाद भी? उसने तो कभी सोचा भी नहीं था कि रियाराजा भी कभी
किसी से ऐसे स्पर्धा कर सकती है, विशेशत: उससे... राजकुमारी
रियाराजा , जिससे कि साथ पढ़ने वाला हर बच्चा स्पर्धा किया करता
था?
"तुमसे और तुम्हारी खुशी से बेहद ईर्ष्या होती है मुझे आज भी-"
पर तुम तो मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानती रियाराजा, पिछले
तीस चालीस सालों में आज पहली बार हम मिल रहे हैं... इसके पहले
कि श्रुति सहेली की सोच को सुलझा पाए, रियाराजा ने उसके होठों
पर हाथ रख दिया और अपनी रौ में ही बोलती चली गई, "प्लीज
श्रुति, सबकुछ कह लेने दो आज मुझे। इस अपराध बोध को सालों सहा
है मैने। उस दिन गुड़िया की शादी में, मेरे सोने चाँदी के और
कीमती कपड़ों के चढ़ावे के बाद भी, कीमती तोहफों के बाद भी, सब
सहेलियाँ तुम्हारी ही साज-सज्जा और खातिर की तारीफ किए जा रही
थीं ... मैं... राजकुमारी रियाराजा कहीं थी ही नहीं उनकी
सोच में... -श्रुति ही श्रुति थी सबकी जुबाँ पर। कैसे बर्दाश्त
कर पाती मैं यह सब...? जलन तो आज भी बहुत है तुमसे... जरूर ही
कोई विशेष अरजी डाली होगी तुमने भगवान के यहाँ भी। फुसला लिया
होगा उसे भी अपनी भोली सूरत और बड़ी बड़ी आँखों से। मीठे-मीठे
शब्दों की तो तुम जादूगरनी हो ही। मुझे भी सिखा दो ना यह यूँ
हमेशा ही मीठा ही बोलते जाना... विचलित न होना। प्यार ही
करते जाना... यूँ सहज और शान्त रहने का अपना यह हुनर! तुम्हारा
यह हरा भरा किलकता हुआ घर और तुम्हारे चेहरे पर फैली यह शांत
आभा... -बरदाश्त नहीं होती मुझसे। आई तो थी अपनी फीकी कहानी
सुनाकर तुम्हे भी विचलित और उद्वेलित करने। तुम्हारे कान्धे पर
सर रखकर एक बार फिर से सान्त्वना तलाशने, परन्तु तुम ने तो एक
ही अनमोल उपहार देकर, सारे ही आँसू पोंछ डाले हैं मेरे। मेरे
भटके जीवन को एकबार फिर नई और सुलझी दिशा दे दी है। अब तो मैं
भी शायद अपने सुख दुख को तुम्हारी तरह ही मनचाहे रूप से छोटा
बड़ा कर पाऊँगी। पर तुम भी तुरंत ही, मेरे सामने इस डिब्बे को
अभी-अभी खोलकर जरूर देखो... प्लीज श्रुति,सिर्फ मेरे लिए।"
आँखों से बहते आँसू और जुड़े हाथों ने मजबूर कर दिया श्रुति को
कि वह उन सभी पुराने घावों के घुरंट के साथ, एक बार फिर से
उचेड़ ही दे...
"मैं तुम्हारे चेहरे पर खिलती हँसी देखना चाहती हूँ श्रुति।
डरो मत। इस बेचैनी का भी अपना एक मजा होता है।"
और तब सहेली की अनगिनित मिन्नतों के नीचे दबी श्रुति ने कैसे
भी हिम्मत करके, काँपते हाथों से डब्बा खोल ही डाला। सामने सजी
सजाई उसकी गुड़िया ही नहीं, रियाराजा का गुड्डा भी ज्यों का
त्यों ही रखा था... पगड़ी मयान सबके साथ सजा सजाया दुल्हा और
चूनर बिन्दी में लिपटी दुल्हन, दोनों बिल्कुल ही वैसे थे, जैसे
कि उस दिन सजाए थे दोनों सहेलियों ने मिलकर।
समय के अन्तराल से परे, डब्बे के अंदर कुछ भी टूटा फूटा या
डरावना नहीं हुआ था, मानो तीस साल पुरानी नहीं कल की ही बात हो
वह... मानो अभी अभी दुल्हन को विदा करके लाया हो दुल्हा ... और
दुल्हन भी कोई ऐसी वैसी नहीं... -जिन्दगी की सबसे खूबसूरत
दुल्हन, विश्वास और नेह की दुल्हन।... श्रुति ने
भावातिरेक में सहेली की तरफ आँसू भरी आँखों से देखा।...
"उस दिन चाह कर भी मैं तुम्हारी गुड़िया तुमसे छीन नहीं पाई थी
श्रुति। पलपल ही तुम्हारा आँसू भरा उदास चेहरा ही आँखों के आगे
आता-जाता रहा। और फिर तब, अगले इतवार को ही आज से तीस साल पहले
, सब कुछ खुद अपने इन्ही हाथों से ठीक-ठाक करके तुम्हारी
गुड़िया ही नहीं, अपना गुड्डा भी तुम्हारे लिए मैं यहाँ पर छुपा
गई थी, इस उम्मीद में कि एक दिन शायद तुम खुद ही पा लोगी यह
सब। और तब तुम खुशी में बावली हो जाओगी.।..तुम्हारी वह खुशी
मैं खुद अपनी आँखों से देखना चाहती थी श्रुति, पर मुझे क्या
पता था कि मेरी यह सहेली इतनी भोली , इतनी निष्ठुर है कि चार
आँसू बहाकर स्वीकार लेती है सबकुछ... सही गलत सभी कुछ। किसी के
भी बहलावे में आ जाती है। फिर पीछे मुड़कर भी नहीं देखती, चाहे
कितनी ही तकलीफ क्यों न हो उस विछोह से... कुछ भी जाहिर नहीं
करती कभी किसी पर, याद तक नहीं करती, ना अपनी गुड़िया को और ना
ही अपनी बिछुड़ी सहेली को।"
और तब अचानक ही बीच के वे तीस साल... शिकवे-गिले, सब पंख
लगाकर कहीं उड़ गए।
"तूने यह सब कैसे जाना कि मैं तुझे याद ही नहीं करती। पगली याद
तो उन्हें किया जाता है जो दूर हों।"
"तुम सब तो पलपल ही साथ रही हो मेरे।" लपक कर रियाराजा ने वैसे
ही पुराने शोखी भरे अंदाज से श्रुति का अधूरा वाक्य पूरा कर
दिया।
"चल चल, बहुत सुनी हैं तेरी ये मीठी-मीठी बातें, अब कुछ
खिलाएगी, पिलाएगी भी या यूँ ही बातों से ही पेट भरती रहेगी।"
अबतक तो श्रुति का गला भी पूरी तरह से रुँध चुका था।
"जानती हो रिया, जिन्दगी की यह उथल पुथल कितना ही तहस-नहस
क्यों न कर दे - आकंठ डुबो क्यों न दे, परन्तु जीवन हारता
नहीं... -हर तूफान के आगे डट कर खड़ा हो जाता है... यह आदमी की
मिट्टी ही कुछ ऐसी है।"
और तब अचानक श्रुति की वह आँसूओं में भीगी मुस्कान बिजली से भी
ज्यादा चमकती लगी रियाराजा को।
"हाँ जानती हूँ मैं श्रुति, बस, उस वक्त को एक बार हम जैसे
तैसे धैर्य पूर्वक निकाल दें, फिर तो सब अच्छा ही अच्छा रहता
है, बल्कि दर्द में डूबकर और भी निखर और संवर जाता है...
वैसे ही, जैसे कि बाढ़ में डूबकर बंजर से बंजर जमीं तक और भी
हरी-भरी हो जाती है?"
फसफसे गले से निकली सहेलियों की आवाजें अब बेहद अस्पष्ट और
धीमी होती जा रही थी और मुश्किल से ही सुनी व समझी जा सकती थीं
परन्तु श्रुति और रिया के बहते आँसुओं ने... अंतस में
छुपे प्यार ने, जिन्दगी की हर तड़कती सच्चाई को आँसुओं से नम
करके फिरसे सहने और जीने लायक बना दिया था। कहते हैं बाँटने से
दुख आधा हो जाता है परन्तु मित्रता में तो अक्सर ही कुछ बाँटने
तक की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि यादों और अनुभवों की एक साझी
धरोहर जो होती है वहाँ।... एक सच्ची पहचान... साझे अहसासों की
अभिन्नता जो होती है वहाँ। वैसे भी दोस्त तो वही होते है न, जो
मन में पैठ, खुद ही मन के सुख दुख समझ ले, पहचान और अपना ले...
दुख-सुख ही नहीं, मित्र के उस पल की जरूरत को भी।
सानिध्य के उस एक पल पर न्योछावर दोनों सहेलियाँ शब्दों की
मुहताज नहीं रह गई थीं। लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़कर एक दूसरे को
संभाल लिया था दोनों ने... बाहों में भर कर गले से लगा लिया
था, मानो अब कभी अलग नहीं होंने देंगी वे खुद को।
बरसों बाद अपनी और परिवार की हर परेशानी ही नहीं, राग-द्वेष,
सभी कुछ भूल पूरी तरह से खुश नजर आ रही थी दोनों अब। कम से कम
कुछ समय के लिए तो भूल चुकी थीं वे कि एक की बेटी घर के
ड्राइवर के साथ भाग गई है और दूसरी की बाहर से सुन्दर दिखती
जिन्दगी अन्दर ही अन्दर दम घोट रही है उसका... बेबस और
मजबूर किए जा रही है उसे। खुशी और उन्माद के उस एक पल से, पूरा
बचपन ही नहीं, खोया अपनापन तक वापस ले लिया था दोनों ने।
अगले पल ही गलबहियाँ डाले, दीन दुनिया से बेखबर, चाय की चुस्की
के साथ-साथ जाने क्या -क्या मुस्कुरा-मुस्कुराकर बतियाए जा रही
थीं दोनों... भूली बिसरी, हर मधुर तान गाती –गनगुनाती। एक
हिलोर में डूबी तिनके-तिनके बही जा रही थीं, मानो अभी अभी कल
शाम ही को बिछुड़ी हों, उसी पुराने स्कूल के हाते से...
बीते दिनों की बेफिक्र और खुशनुमा यादों की ठंडी छाँह तले आराम
से बैठी अब वे भूल चुकी थीं वे कि कल फिर श्रुति को ईंगसैंड
वापस जाना है, जहाँ पचास साल के थके प्रौढ़ शरीर के बावजूद भी,
कामकाजी बेटे बहू की बिखरी गृहस्थी का कोना कोना बेसब्री से
ईंतजार कर रहा है उसका। और रियाराजा भी आज शाम ही, फिर से वैसे
ही अकेली हो जाएगी। बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहे ऐश्वर्य और ईशान
तो सिर्फ इतवार को ही मिलने आते हैं उससे, वह भी बस चन्द घंटों
के लिए... - बाकी जीवन तो हर दिन वैसा ही सूना और अकेला ही है
उसका। कानों के लिए बस खुद अपनी ही आवाजों की प्रतिध्वनियाँ
रहा करती हैं और रातभर वे ही, यादों के मेले में रोती भटकती
परछाँइयों के रूप में तब्दील हो जाती हैं, जिन्हें गले लगाकर
अपना-अपना सूनापन बाँट लेती हैं दोनों सहेलियाँ।
"आदत क्यों नहीं पड़ पाती हमें इस जीवन की?"
सहेली के आँसू पोंछते, सवाल इस बार रियाराजा ने नहीं, श्रुति
ने किया था और जबाव दिया था रियाराजा ने,
"क्योंकि हम अभी तक बड़े जो नहीं हो पाए श्रुति...अभी भी
छोटी-छोटी बातों में ही तो भटकते रह जाते हैं। आज कुछ सोच मत,
कोई दुख, कोई घाव मत कुरेद। देख, आज का यह दिन, यह पल, सिर्फ
हमारा है। क्यों है ना? और इसे हमारी तरह से जीने से कम-से-कम
आज तो कोई नहीं रोकेगा।"
"तू तो सोचने में उस्ताद है। बातों के लिए फिर कोई मस्ती भरा
विषय छेड़ ना। "
रियाराजा ने फिर से सहेली की एक और प्यार भरी चुटकी ली।
"रुक, बताती हूँ, अभी बताती हूँ। पहले कोरम तो पूरा होने दे।
दिन खतम नहीं, अभी शुरु हुआ है, रिया रानी।"
श्रुति ने उसी शोखी और शरारत से जवाब दिया और दोनों सहेलियाँ
एकसाथ सामने से आती कंचन मधुर और दिव्या के स्वागत में उठ खड़ी
हुईं।.... |